SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 16. हे धवल ! (तुम) हंस हो, महासागर के आभूषण हो, (तुम) विशुद्ध हो, तो हे हंस! (तुम) दुष्ट कौओं के मध्य में कैसे फँसे हुए हो ? तुम्हारा (यह) क्या (हुआ)? 17. यदि हंस मसाण के मध्य में (रहता है) (और) कौआ कमल-समूह में रहता है, तो भी निश्चय ही हंस, हंस है (और) बेचारा कौआ, कौआ ही (है)। 18. (यद्यपि) (हंस और बतख) दोनों ही पंख सहित (हैं), उसी तरह दोनों ही धवल (हैं), (तथा) दोनों ही तालाब में निवास (करने वाले हैं), तो भी निश्चय ही हंस और बतख का महान भेद समझा (माना) जाता है। 19. (तालाब के) किनारे पर स्थित एक ही हंस के द्वारा जो शोभा होती है, उसे बहुत पक्षी-समूहों द्वारा भी तालाब प्राप्त नहीं करता है। 20. जैसे मानसरोवर के बिना राजहंसों के लिए सुख नहीं होता, वैसे ही उसके तट प्रदेश भी उनके बिना नहीं शोभते हैं। प्रदेश 21. : हे राजहंस ! (यदि) तुम जाओगे, (तो) (निःसन्देह) उत्तम तालाब पाओगे, (इसमें) क्या आश्चर्य है ? (किन्तु) पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए (तुम कोई तालाब) मानसरोवर के समान नहीं पाओगे। 22. उस पुरुष उस पुरुष की, जहाँ जय-लक्ष्मी रहती है, पूर्ण आदर से रक्षा करो। चन्द्र-बिंब के अस्त होने पर तारों द्वारा प्रकाश नहीं किया जाता है। 23. लोक में जिसका प्रकाश विस्तृत भूमितल को सफेद करता है (चमकता है), यदि (वह) चन्द्रमा (है), (तो) असंख्य तारों से (भी) क्या (लाभ) ? और उसके बिना (भी) असंख्य (तारों से) क्या (लाभ) ? प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002692
Book TitlePrakrit Gadya Padya Saurabh Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2005
Total Pages192
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy