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धन हरे जाने पर व्यक्ति पागल और चेतनारहित हो जाता है। हाहाकार करता हुआ मर जाता है। धन निश्चित रूप से व्यक्ति का प्राण है।
परिग्रह त्याग इन्द्रियों को (विषयों से) दूर रखने में (निमित्त है) जैसे हाथी के लिए अंकुश और नगर (की रक्षा) के लिए खाई। (वास्तव में) असंगता ही इन्द्रिय संयम (रक्षक) है।
(क्रोधी व्यक्ति दूसरों के) गुणों को नहीं देखता है। (दूसरों के) गुणों की निन्दा करता है। (जो) (बात) कहने योग्य नहीं है कहता है। क्रोध के कारण रौद्र हृदय- वाला (वह) मनुष्य नारकी होता है।
अभिमानी (व्यक्ति) सभी के लिए द्वेष करने योग्य होता है। अभिमानी नियम से इस (लोक) में तथा पर लोक में कलह, भय, वैर, दुःखों को तथा अपमान को पाता है।
मान रहित व्यक्तिलोक में सदा (अपने) स्वजन और (पर) जन का प्रिय होता है। ज्ञान, यश व धन को प्राप्त करता है और अपने कार्य को सिद्ध करता है।
लोभ से ग्रस्त (व्यक्ति) के मन की तीनों लोक से भी तृप्ति नहीं होती है। किन्तु निर्लोभी सन्तुष्ट दरिद्र (व्यक्ति) भी निर्वाण को प्राप्त करता है।
बिजली की तरह चंचल समस्त सुख नष्ट होते देखे गये हैं। समस्त स्थान (जहाँ जीव रहते हैं) जल के बुलबुले की तरह अस्थिर होते हैं।
ऐश्वर्य, आज्ञा, धनधान्य व आरोग्य रात को एक वृक्ष पर (मिले) पक्षियों के समूह की तरह संयोग (मात्र) है। बादलों से ढके सूर्य चन्द्र की तरह अनित्य है।
संसार में जीवों की इन्द्रिय सामग्री संध्या की तरह अनित्य होती है। (और) मनुष्यों का यौवन दोपहर की तरह अस्थिर (चंचल) (होता) है।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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