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(स्व-पर के) कल्याण को सिद्ध करते हुए (मनुष्यों).के लिए समग्र (लोक) ही अधिक कल्याणकारी (हो जाता है)। उनके लिए कुछ इस प्रकार सिद्ध होता है, जिससे वे स्वयं भी आश्चर्य को प्राप्त करते हैं।
वास्तव में लक्ष्मी की (प्राप्ति का) वह (यह) रहस्य (है) कि (धनी) मनुष्य सुचरित्र (व्यक्तियों) की खोज में स्थिर हृदय (होता है), यद्यपि वह गुणों से निज को फिसलते हुए नहीं देखता है।
कुछ (व्यक्ति) (जिनके) स्वभाव तुच्छ (हैं) गुणों के द्वारा धन-वैभव को प्राप्त करने की इच्छा करते हैं, दूसरे (व्यक्ति) (जिनके) चरित्र विशुद्ध (हैं) वैभव के द्वारा गुणों को चाहते हैं।
11.
यदि पीड़ा दिये जाते हुए सज्जन हृदय में कुछ विचारते हैं (तो) (मैं) (यह) नहीं जानता हूँ; किन्तु (इतना निश्चित है कि) (वे) (अपने प्रति) अपराध में (अपराधी के प्रति) भी सावध क्रियाओं में प्रवृत्ति नहीं करते हैं।
12.
(यह ठीक है कि) गुण, दोषों के लिए तथा दोष भी गुण-समूह के लिए महिमा प्रदान करते हैं, (किन्तु) दोषों के जो गुण (हैं), वे यदि गुणों के (हों) तो उन (मुणों) के लिए नमस्कार। (जैसे दोषों के द्वारा सांसारिक जीवन में सफलता मिल जाती है, वह यदि गुणों से मिल जाय तो गुणों को नमस्कार)।
-13.
दोषों को खूब भोग करके (भी) आत्मा गुणों को (अपने में) अवस्थित करने के लिए समर्थ होती है, किन्तु गुणों के सिद्ध होने पर (तो) दोषों में (बिल्कुल ही) मति नहीं रहती है।
14.
जैसे-जैसे इस समय गुण शोभायमान नहीं होंगे, (तथा) जैसे-जैसे (इस समय) दोष फलेंगे, वैसे-वैसे जगत भी अगुणों के आदर से गुण-शून्य हो जायेगा।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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