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________________ 1. पाठ -3 दशवैकालिक (ऐसा होता है कि) राग-द्वेष से रहित चिन्तन में भ्रमण करता हुआ मन कभी (सम अवस्था से) बाहर (विषमता में) निकल जाता है। (उस समय व्यक्ति यह विचारे कि) वह (विषमता) मेरी नहीं (है), निश्चय ही मैं भी उसका नहीं (हूँ)। इस प्रकार उस (विषमता) से (वह) आसक्ति को हटावे। (तू) (अपने को) तपा; अति-कोमलता को छोड़; इच्छाओं को वश में कर; (इससे) निश्चय ही दुःख पार किए गए (हैं)। (तू) द्वेष को नष्ट कर; राग को हटा; इस प्रकार (तू) संसार में सुखी होगा। 3. सब प्राणियों का (सुख-दुःख) अपने समान (होने) के कारण (जो व्यक्ति) (उन) प्राणियों में (स्व-तुल्य आत्मा का) अच्छी तरह से दर्शन करनेवाला (होता है), (वह) रोके हुए आश्रव के कारण (तथा) आत्म-नियन्त्रित होने के कारण अशुभं कर्म को नहीं बाँधता है। 4. सर्वप्रथम (प्राणियों की आत्मा-तुल्यता का) ज्ञान (करो); बाद में (ही) (उनके प्रति) करुणा (होती है)। इस प्रकार प्रत्येक (ही) संयत (मनुष्य) आचरण करता है। (प्राणियों की आत्म-तुल्यता के विषय में) अज्ञानी (व्यक्ति) क्या करेगा ? (वह) हित (और) अहित को कैसे जानेगा? 5... (मनुष्य) मंगलप्रद को सुनकर समझता है; (वह) अनिष्टकर को (भी) सुनकर (ही) समझता है; (वह) दोनों (मंगलप्रद और अनिष्टकर) को भी सुनकर (ही) समझता है। (इसलिए) (इन दोनों में से) जो मंगलप्रद (है), (वह) उसका आचरण करे। 6. . - वहाँ पर (व्रतों आदि में) (अहिंसा का) यह सर्वप्रथम स्थान महावीर के द्वारा उपदिष्ट (है)। (महावीर के द्वारा) अहिंसा सूक्ष्म रूप से जानी गई है। (उसका सार है) - सब प्राणियों के प्रति करुणाभाव। प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2 • 23 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002692
Book TitlePrakrit Gadya Padya Saurabh Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2005
Total Pages192
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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