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स्वाध्याय और सद्-ध्यान में लीन (व्यक्ति) का, उपकारी का, निष्पाप मन (वाले) का, ताप में लीन (व्यक्ति) का-(इन सबका) पूर्व में किया हुआ जो (भी) दोष (है), (वह) शुद्ध हो जाता है, जैसे कि अग्नि के द्वारा झकझोरे हए सोने का मैल (शुद्ध हो जाता है)।
विनय में युक्ति के द्वारा भी प्रेरित जो मनुष्य क्रोध करता है, वह आती हुई दिव्य संपत्ति को डण्डे से रोक देता है।
जैसे अंकुश के द्वारा प्रेरित दुष्ट हाथी रथ को आगे चलाता है, इसी प्रकार दुर्बुद्धि (शिष्य) कर्तव्यों को कहा हुआ, कहा हुआ (ही) करता है।
लोहे से बने हुए काँटे (शरीर में लगने पर) थोड़ी देर के लिए ही दुःखमय होते हैं तथा वे बाद में (शरीर से) आसानी से निकाले जा सकने वाले (होते हैं), (किन्तु) वाणी के द्वारा .(बोले गए) दुर्वचन (जो काँटों के तुल्य होते हैं) कठिनाई से निकाले जा सकने वाले (कठिनाई से भुलाए जा सकने वाले) (होते हैं), (वे) वैर को बाँधनेवाले (तथा) महा भय पैदा करने वाले (होते
(व्यक्ति) सुगुणों के कारण साधु (होता है), (और) दुर्गुणसमूह के कारण ही
असाधु। (अतः) (तुम) साधु (बनने) के लिए सुगुणों को ग्रहण करो (और) *(उन दुर्गुणों को) छोड़ो (जिनके कारण) (व्यक्ति) असाधु (होता है)। (समझो) जो (व्यक्ति) आत्मा को आत्मा के द्वारा जानकर राग-द्वेष में समान (होता है), वह पूज्य (है)।
(जो) कर्म-क्षय का इच्छुक (व्यक्ति) (है), (वह) सदा अनेक प्रकार के शुभ परिणामों को (उत्पन्न करने वाले) तप में लीन (रहता है) तथा (वह) (संसारी फल की) आशा से शून्य होता है। (इस तरह से) (जो) तप-साधना में सदा संलग्न (रहता है), (वह) तप के द्वारा पुराने पापों को नष्ट कर देता है।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग-2
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