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पाठ - 7
अर्हत प्रवचन लोक में कर्म के अधीन जीवों के मेधा हो चाहे न हो, ज्ञान की प्राप्ति के लिए उद्यम कभी नहीं छोड़ना चाहिए।
1.
2.
सदा शान्त रहो, सोच कर बोलो, सदा विद्वानों के पास रहो। अर्थयुक्त बातों को सीखो और निरर्थक बातों को छोड़ दो।
3.
यदि अधिक न कर सको तो थोड़ा-थोड़ा ही धर्म करो। महानदियों को देखो, बूंद-बूंद से वे समुद्र बन जाती हैं।
जीव मात्र में मित्रता का विचार करना मैत्री, दुःखियों में दया करना करुणा, महान आत्माओं के गुणों का चिन्तन करना मुदिता और सुख तथा दुःख में समान भावना रखना उपेक्षा कहलाती है।
तर्क (ऊहापोह-विवेक) रहित वैद्य, लक्षणरहित पण्डित और भावरहित धर्म ये तीनों ही भारी विडम्बनाएँ हैं।
6. . जैसे कोई आदमी चन्दन को और बहुमूल्य अगर आदि काष्ठ को जलाता है,
वैसे ही यह मनुष्य विषयों की तृष्णा से मनुष्यभव का नाश कर देता है। .
7.
जिससे वस्तु का यथार्थ स्वरूप जान सके, जिससे चित्त का व्यापार रुक जावे और जिससे आत्मा विशुद्ध हो जावे; जिनशासन में वही ज्ञान कहलाता है।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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