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(व्यक्ति) बाह्य (दूसरे) का तिरस्कार नहीं करे, अपने को ऊँचा नहीं दिखाए, ज्ञान का लाभ होने पर गर्व नहीं करे, (तथा) जाति का, तपस्वी ( होने) का (और) बुद्धि का (गर्व न करे ) ।
इस प्रकार धर्म का मूल विनय (है), उसका अन्तिम' (परिणाम) परम - शान्ति (है)। जिससे (विनय से ) (व्यक्ति) कीर्ति, प्रशंसनीय ज्ञान और समस्त (गुण) प्राप्त करता है।
( जिस प्रकार ) राजकीय वाहन के रूप में काम आनेवाले (उद्दण्ड ) हाथी (और) घोड़े दुःख में बढ़ते हुए देखे जाते हैं, उसी प्रकार (किसी भी प्रकार के) प्रयास में लगे हुए अविनीत मनुष्य ( भी ) ( दुःख में बढ़ते हुए देखे जाते
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(जिस प्रकार ) राजकीय वाहन के रूप में काम आनेवाले (सुशील) हाथी (और) घोड़े सुख में बढ़ते हुए देखे जाते हैं, उसी प्रकार विनीत मनुष्यों ने महान यश के कारण वैभव प्राप्त किया।
(जिस प्रकार ) लोक में (सुशील) नर-नारियाँ सुख में बढ़ती हुई देखी जाती हैं, उसी प्रकार विनीत मनुष्यों ने महान यश के कारण वैभव प्राप्त किया।
(मनुष्य) निज के लिए या दूसरे के लिए क्रोध से या भले ही भय से पीड़ाकारक (वचन) (और) असत्य (वचन) (स्वयं) न बोले, न ही दूसरे से बुलवाए।
जिससे मानसिक पीड़ा हो और दूसरा शीघ्र क्रोध करने लगे, उस अहित करनेवाली भाषा को (व्यक्ति) बिल्कुल न बोले ।
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प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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