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पाठ
आचारांग
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जैसा कि सुना है (मैं) कहूँगा । (आत्मस्वरूप को) जानकर श्रमण भगवान उस हेमन्त (ऋतु) में (सांसारिक परतन्त्रता को ) त्यागकर दीक्षित हुए (और) वे इस समय (ही) विहार कर गए।
अब (महावीर) तिरछी भीत पर प्रहर (तीन घण्टे की अवधि) तक (पलक न झपकाई हुई) आँखों को लगाकर आन्तरिक रूप से ध्यान करते थे। तब (उन असाधारण) आँखों के डर से युक्त वे (बे - समझ लोग) यहाँ आओ ! देखो ! (कहकर ) बहुत लोगों को पुकारते थे।
और (यदि) ये (महावीर) किन्हीं घर में रहने वालों के (स्थानों ) ( पर ठहरते थे), (तो) वे (वहाँ उनसे) मेलजोल के विचार को छोड़कर ध्यान करते थे । (यदि) (उनसे कभी कोई बात पूछी गई (होती थी) (तो) भी (वे) बोलते नहीं थे, (कोई बाधा उपस्थित होने पर) ( वे) ( वहाँ से) चले जाते थे, (वे) (सदैव) संयम में तत्पर (होते थे) (और) (वे) (कभी) (ध्यान की) उपेक्षा नहीं करते थे।
दुस्सह कटु वचनों की अवहेलना करके मुनि (महावीर) (आत्म- ध्यान में) (ही) पुरुषार्थ करते हुए (रहते थे) । (वे) कथा-नाच-गान में (तथा) लाठीयुद्ध (और) मूठी - युद्ध में (समय नहीं बिताते थे)।
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परस्पर (काम) कथाओं में तथा ( कामातुर) इशारों में आसक्त (व्यक्तियों) को ज्ञात-पुत्र (महावीर) (हर्ष)-शोक रहित देखते थे। वे ज्ञात-पुत्र इन मनोहर (बातों) का स्मरण नहीं करते थे ।
पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय, शैवाल, बीज और हरी वनस्पति तथा त्रसकाय को पूर्णतया जानकर (महावीर विहार करते थे) ।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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