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कठोर व कड़वा वचन तथा जो बैर, कलह, भय, त्रास व तिरस्कार को उत्पन्न. करता है, संक्षेप से अप्रिय वचन है।
जल, चन्दन, चन्द्रमा, मोती एवं चन्द्रकान्तमणी (भी) मनुष्य के लिए उस प्रकार तृप्ति नहीं करते हैं जैसी (तृप्ति) अर्थयुक्त हितकारी, मधुर एवं परिमित, वचन करता है।
सत्य में तप, सत्य में संयम तथा सैकड़ों गुण रहते हैं। सत्य ही निश्चित रूप से (समस्त) गुणों का आधार है जैसे समुद्र मछलियों का (आधार) है।
सत्यवादी व्यक्ति लोगों के लिए माता की तरह विश्वासयोग्य होता है. गुरु की तरह पूज्य, अपने आत्मीय की तरह निश्चित रूप से (लोगों के लिए) प्रिय होता है।
जैसे तृप्त हुआ बन्दर भी लाल (पके हुए) फल को देखकर दूरस्थित उस (फल) के लिए कूदता है, यद्यपि ग्रहण करके ही छोड़ देता है।
इस प्रकार जीव जिस-जिस द्रव्य को देखता है, उस-उस को पाने के लिए इच्छा करता है। लोभ के आश्रित (वह) समस्त जग से भी सन्तुष्ट नहीं होता
जैसे हवा क्षण भर में बढ़ती है और जैसे मेघ फैल जाता है। उसी तरह जीव का मन्द लोभं भी क्षण भर में बढ़ जाता है।
बढ़ा हुआ लोभ होने पर फिर मनुष्य कार्य-अकार्य को नहीं विचारता है। फिर अपनी मृत्यु को भी न गिनता हुआ कोई भी घोर अपराध करता है।
सभी व्यक्ति माया (धन) से प्रछन्न बुद्धिवाले (हैं) और धन छिन जाने पर सब ही शक्ति प्रहार से घायल की तरह हृदय में अत्यन्त दुःखी होते हैं।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग-2
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