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9.
जो इन्द्रियों से प्राप्त सुख (है), वह दूसरे (की अपेक्षा)- सहित, बाधायुक्त, नाशवान, कर्मबन्ध का कारण तथा असमान (है), वह (सुख) (इन कारणों से) दुःख ही है।
10. जब तक कर्म से मलिन आत्मा देह मूलवाले विषयों में ममत्व नहीं छोड़ता है,
(तब तक) (वह) बार-बार दूसरे जीवन को धारण करता है।
11.
जो जितेन्द्रियों को जानता है, सिद्धों को समझता है, उसी प्रकार साधुओं को (समझता है) और (जो) जीवों में करुणासहित (है), उसका वह उपयोग (भाव) शुभ है।
12.
रागी कर्म को बाँधता है। रागरहित आत्मा कर्मों से छुटकारा पाता है। यह जीवों के (कर्म) बन्ध का संक्षेप है। निश्चय से (तुम) जानो।
.13.
देह या सम्पत्ति या सुख-दुःख या इसी प्रकार शत्रुजन व मित्रजन आत्मा (व्यक्ति) के लिए स्थायी नहीं हैं। (केवल) आत्मा ही स्थायी और ज्ञान स्वरूप है।
जो गृहस्थ तथा मुनि इस प्रकार सर्वोत्तम आत्मा को जानकर (उसका) ध्यान करता है वह शुद्ध आत्मा (होता हुआ) आसक्ति की गाँठ को नष्ट कर देता है।
जो मन विषयों से विरक्त है, (जिसके द्वारा) आसक्ति रूपी मैल नष्ट कर दिया गया है, (जो) निज को (बहिर्मुखी होने से) रोककर स्वभाव में भली प्रकार से अवस्थित (होता है), वह ध्यान करनेवाला होता है।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग -
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