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आरम्भिक
'प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ, भाग - 2' पाठकों के हाथों में समर्पित करते हुए हमें हर्ष का अनुभव हो रहा है।
प्राकृत भाषा भारतीय आर्यभाषा परिवार की एक सुसमृद्ध लोक भाषा रही है। स्वभावसिद्ध जन सामान्य की भाषा को प्राकृत कहते हैं। इसी जनभाषा प्राकृत में बुद्ध और महावीर ने साधारण जनता के हितार्थ उपदेश दिया।
जनभाषा प्रवाहशील होती है। प्राकृत भाषा ही अपभ्रंश के रूप में विकसित होती हुई प्रादेशिक भाषाओं एवं हिन्दी का स्रोत बनी। अतः हिन्दी एवं अन्य सभी उत्तर भारतीय भाषाओं के इतिहास के अध्ययन के लिए प्राकृत व अपभ्रंश का अध्ययन आवश्यक है।
यह एक सार्वजनीन सिद्धान्त है कि किसी भी भाषा का ज्ञान प्राप्त करना रचना और अनुवाद की शिक्षा के बिना कठिन है। प्राकृत भाषा के सीखने-समझने को ध्यान में रखकर ही ‘प्राकृत रचना सौरभ', 'प्राकृत अभ्यास सौरभ', 'प्रौढ प्राकृत रचना सौरभ', 'प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 1' का प्रकाशन किया जा चुका है। इसी क्रम में प्राकृत के विभिन्न ग्रन्थों से पद्यांशों व गद्यांशों का चयन किया गया है। उनके हिन्दी अनुवाद, व्याकरणिक विश्लेषण एवं शब्दार्थ प्रस्तुत किये गये हैं। इससे प्राकृत भाषा को सीखने के साथ-साथ काव्यों का रसास्वादन भी किया जा सकेगा।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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