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पाठ - 6
भगवती अराधना दुर्जन के संसर्ग से सज्जन भी निश्चित रूप से अपने गुण को त्याग देता है जैसे अग्नि के योग से पानी शीतल स्वभाव को त्याग देता है।
ज्ञान रूपी प्रकाश (ही) (वास्तविक) प्रकाश (है)। ज्ञान रूपी प्रकाश का विनाश नहीं है। सूर्य अल्प क्षेत्र को (ही) प्रकाशित करता है, ज्ञान समस्त विश्व को (प्रकाशित करता है)।
विद्या भी भक्तिवान की सिद्धि को प्राप्त होती है, और सफल होती है, फिर अभक्तिवान के लिए मोक्ष रूपी बीज (रत्नत्रय) कैसे सिद्ध (निष्पन्न) होगा?
ज्ञान रूपी प्रकाश के बिना जो (ज्ञान एवं तप रूप) मोक्षमार्ग को जाने के लिए इच्छा करता है। (मानो) (वह) अन्धा अंधकार में जंगल जाने के लिए इच्छा करता है।
जैसे तुम्हारे लिए दुःख प्रिय नहीं (है), उसी प्रकार उन जीवों के लिए भी जान। इस प्रकार जानकर जीवों के प्रति सदा आत्म-सदृश होता है।
समस्त आश्रमों का हृदय, समस्त शास्त्रों का गर्भ और समस्त व्रत व गुणों का पिण्डरूप सार निश्चित रूप से अहिंसा है।
जीव-वध आत्म-वध होता है, जीव-दया निश्चित रूप से आत्म दया होती है इसलिए विषकंटक की तरह हिंसा त्यागी जानी चाहिए।
(इस) लोक में चारों गतियों में व्याप्त जितने दुःख हैं उन सभी को जीव की हिंसा के फल जानो।
कर्कश वचन, कठोर वचन, चुगली व हास्य वचन और जो कुछ भी निरर्थक वचन (है)। (वह) संक्षेप से निंदित वचन (है)।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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