________________
अप्पा
(अप्प) 1/1
= आत्मा
14.
= जो
एव
= इस प्रकार
जाणित्ता
= जानकर
पर
= ध्यान करता है = सर्वोत्तम = आत्मा को
(ज) 1/1 सवि अव्यय
(जाण) संकृ झादि (झा) व 3/1 सक
(पर) 2/1 वि अप्पगं . (अप्पग) 2/1 विसुद्धप्पा [(विसुद्ध) वि- (अप्प) 1/1] सागारोऽणागारो [(सागारो)+ (अणागारो)]
(सागार) 1/1
(अणागार) 1/1 खवेदि (खव) व 3/1 सक
(त) 1/1 सवि मोहदुग्गंठिं . [(मोह)- (दुग्गंठि) 2/1]
= शुद्ध आत्मा
= गृहस्थ तथा
मुनि
= नष्ट कर देता है = वह = आसक्ति की गाँठ को
15.
= जो
जो
(ज) 1/1 सवि खविदमोहकलुसो [(खविद) भूकृ-(मोह)-(कलुस) 1/1]
= नष्ट कर दिया गया है, • आसक्ति रूपी, मैल = विषयों से विरक्त
= मन
विसयविरत्तो . [(विसय)-(विरत्त) भूकृ 1/1] मणो
(मण) 1/1 णिरुंभित्ता
(णिरुंभ) संकृ समवविदो
(समवट्ठिद) भूकृ 1/1 अनि सहावे (सहाव) 7/1
(त) 1/1 सवि अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 हवदि (हव) व 3/1 अक झादा (झाउ-झाता-झादा) 1/1 वि
= रोककर = भली प्रकार से अवस्थित = स्वभाव में = वह = निज को = होता है = ध्यान करनेवाला
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
155
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org