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तत्पश्चात् उन कौटुम्बिक पुरुषों ने दूसरी वर्षा ऋतु में, तीसरी वर्षाऋतु में, चौथी वर्षा ऋतु में इसी प्रकार करने से सैकड़ों कुम्भ प्रमाण शालि हो गए। तत्पश्चात् जब पाँचवाँ वर्ष चल रहा था तब सार्थवाह ने विचार करके पुत्रवधु उज्झिका को बुलाया और 'बुलाकर इस प्रकार कहा
तो हे पुत्री ! मेरे वह शालिअक्षत वापिस दो। सार्थवाह के समीप आकर बोली – 'ये हैं वे पाँच शालिअक्षत। पुत्री ! क्या वही ये शालि के दाने हैं अथवा ये दूसरे हैं ? ये वही शालि के दाने नहीं हैं। ये दूसरे हैं।
तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह उज्झिका से यह अर्थ सुनकर और हृदय में धारण करके क्रुद्ध हुए, कुपित हुए।
उन्होंने उज्झिका को दासी के कार्य करनेवाली के रूप में नियुक्त किया।
इसी प्रकार भोगवती के विषय में जानना चाहिए। उसे रसोईदारिन का कार्य करने वाली के रूप में नियुक्त किया।
इसी प्रकार रक्षिका के विषय में जानना चाहिए।
उस समय धन्य सार्थवाह ने रक्षिका से इस प्रकार कहा- 'हे पुत्री ! क्या यह वही पाँच शालिअक्षत हैं या दूसरे हैं?'
रक्षिका बोली - ‘तात ! इन पाँच शालि के दानों को शुद्ध वस्त्र में बाँधा, यावत् तीनों संध्याओं में सार-सम्भाल करती रहती हूँ। अतएव हे तात ! ये वही शालि के दाने हैं, दूसरे नहीं। - तत्पश्चात् धन्य सार्थवाह रक्षिका से यह अर्थ सुनकर हर्षित और सन्तुष्ट हुआ। उसे अपने (सम्पत्ति) की भाण्डा-गारिणी (भण्डारी के रूप में) नियुक्त कर दिया।
रोहिणी के विषय में भी ऐसा ही कहना चाहिए। विशेष यह है कि जब धन्य सार्थवाह ने उससे पाँच दाने माँगे तो उसने कहा- 'तात ! आप मुझे बहुत-से गाड़ेगाड़ियाँ दो, जिससे मैं आपको वह पाँच शालि के दाने लौटाऊँ ।'
हे तात ! मैं आपको वह पाँच शालि के दाने गाड़ा-गाड़ियों में भरकर देती हूँ।
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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