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24.
चन्द्रमा का क्षय (होता है), किन्तु तारों का नहीं। वृद्धि भी उसकी (होती है), किन्तु उनकी नहीं। (सत्य यह है कि) महान (व्यक्तियों) का (ही) चढ़ना (और) गिरना (होता है), परन्तु दूसरे अर्थात् सामान्य (व्यक्ति) हमेशा गिरे हुए (ही) हैं।
(कृपण) किसी के लिए भी धन नहीं देते हैं। तथा (धन) देते हुए दूसरे (व्यक्ति) को भी (वे) रोकते हैं। क्या (हम कहें कि) कृपण-स्थित (कृपणों के द्वारा संचित किए हुए) रुपये-पैसे अपने आप में स्थित (व्यक्ति की) दशा की तरह सोते हैं (निष्क्रिय होते हैं)।
26.
कृपण लोग भूमितल में धन को गाड़ते हैं। इस तरह सोचकर (कि) (उनके द्वारा) पाताल में पहुँचे जाने की सम्भावना है। इस कारण से (धन) भी आगे . स्थान को (पाताल में) जाना चाहिए।
27.. सिंह के नखों द्वारा चीरे हुए हाथी के गण्डस्थल पर (तो) मोती देखे जाते हैं,
(किन्तु) कृपणों के भण्डार केवल मरने पर ही प्रकट होते हैं।
28
(यद्यपि) (कृपण) (कभी) नहीं कहता है, “(मैं) किसी भी श्रेष्ठजन के लिए विविध रत्नों को देता हूँ", फिर भी (ठीक ही है) (लक्ष्मी के) त्याग के बिना ही मनुष्य लक्ष्मी के द्वारा परित्यक्त (होता है)।
जीवन जल-बिन्दु के समान (क्षणभंगुर) (है)। यौवन बुढ़ापे के साथ उत्पन्न होता है। दिवंस दिवसों के समान नहीं होते हैं। (फिर भी) मनुष्य निष्ठुर क्यों है?
30.
पुत्र अलग हो जाते हैं, बन्धु (भी) अलग हो जाते हैं, संचित अर्थ (भी) अलग हो जाता है, (किन्तु) मनुष्य का केवल एक पूर्व में किया हुआ कर्म अलग नहीं होता। .
प्राकृत गद्य-पद्य सौरभ भाग - 2
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