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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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CUK DO T
देई ॥ श्री वीतरागाय नमः ॥ॐ
श्री जैन-हित- शिक्षा ।
प्रथम भाग
प्रकाशक
कुम्भकरण टीकमचन्द चोपड़ा । गंगाशहर ( बीकानेर )
सहकर्ता
दुर्जनदास सेठिया ।
नं० १६ सीनागोग ष्ट्रीट के “सवाल प्रेस" में
बा० महालचन्द वयेद द्वारा मुद्रित ।
प्रथमावृत्ति १००० ]
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सं० १९८१ बि०
[ बिना मूल्य ।
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मिलने का पता१ कुम्भकरण टीकमचन्द चोपड़ा मु० आठगांव, पो० ढींग,
(आसाम) मा २ कुम्भकरण टीकमचन्द चोपड़ा।
गंगाशहर (बीकानेर)
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विषय-सूची।
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संख्या
ReatmendeateERIDE Deathemamae
विषय
समाचारAN
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श्री चौबीस जिन स्तवन २४ श्री नवकार ( १०८ गुणों के नाम महित) सामायक लेणे की पाटी सामायक पारयो की पाटी तिक्ल ता की पाटी पंच पद बंदगा पच्चीत बोल चौरासौ लाख योनि
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संख्या
विषय
पृष्टांक
| श्रद्धा ऊपर सभाय तेरापंथ ओलखमां को ढाल सोलह सती नो स्तवन श्री भिखणजी खामी के गुणां को ढाल (जयाचार्य कृत) प्राचार्य गुणमाला श्री कालगणों के गुणा की ढाल १ ली
" , २ री | जिन कल्पी साधु की ढाल अनाथी मुनि को स्तवन श्री भिक्षुगणी के गुगा की ढाल पायुष टूटी को सान्धो को नहिं रे को ढाल मुक्ति जाने की डिग्री करगी हो कोज्यो चित्त निर्मले की
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।
अन्तर दाल दश दानों की दाल चेतावनी कर्म नौ मिझाय
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२५
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संख्या
विषय
पृष्ठांक
| जौवा तू तो भोलो रे को ढाल यौबन धन पावणा को ढाल उपदेश पच्चीसी सुगुरु पञ्चौसौ. कुगुरु पच्चीसी स्त्रौ चरित्र को ढाल सुदर्शन सेठ के बखान को ढाल३ २ वौं ,
,, ३३ वौं
, ३६ वौं
पाना कौ चरचा प्रतिक्रमण च्यार निक्षेपां रौ चौपाई
तौजी
Man
३८ | हेम नवरसे को ढाल ७ मी ३६ | श्री पूज्य यह बिनय है फिर शौघु
दर्श देना
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निवेदन
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mins य पाठकों ! यह पुस्तक 'जैन-हित-शिक्षा'
प्रथम भाग श्रावक कुम्भकरणजी टीकमचन्दजी चोपड़ा के कहने से मैने तैयार की है। इस में पच्चीस बोल, चर्चा प्रादि थोकड़ों के सिवाय
बहुत सी उपदेशिक ढालें तथा श्रीपुज्यजी महाराज के गुणों की ढालें तथा च्यार निक्षेपां की चौपाई की ढालें भी उपयोगी समझ कर संग्रह कर दी हैं---जिस से अन्य पुस्तकों की अपेक्षा इस में कुछ विशेपता था गई है। परन्तु मेरा परिश्रम तभी सफल है जब कि आप लोग इन्हें जयग्णायुत पढ़ें व दूसरों को पढ़ कर सुनावें तथा शुब्द समकित दृढ़ कर अपना व दूसरों का
आत्मिक हित करें। श्री वीतराग देव के वचनों की यथार्थ घोलखना पर उम पर दृढ धान्या-प्रतीत रखना ही भव सागर में पार होने का एक मात्र उपाय है।
पुस्तक के निमने व छपाने में भग्मक सावधानी से काम दिया गया है. नथापि मेग अल्पनता के कारगण व प्रमाद यश कुछ भूल नक व घटियां रह गई हो तो विन जन उन्हें स्वयं शुद्ध कर
।
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लें तथा मुझे उस से अवश्य सूचित करें ताकि दूसरी श्रावृत्ति में शुद्ध कर दी जायें।
निक्षेपों की ढालें जिस हस्तलिखित प्रति से उतार कर छापी गई है उस प्रति के कई स्थल ठीक ठीक पढने व समझने में नहीं श्राये इस से ज्यों के त्यों उसी के अनुसार छाप दिये गये हैं । अतएव जिन महाशयों के पास च्यार निक्षेपों की चौपाई की ढालों की हस्त-लिखित प्रतियें हों वे उसे इस पुस्तक की छपी हुई ढालों से मिलान करें और जहां २ अन्तर दिखाई दे उस से मुझे सूचित करें, तो मैं उन महाशयों का चिर कृतज्ञ रहूंगा और दूसरी श्रावृत्ति में उन लोगों के नाम धन्यवाद सहित प्रकाशित करूंगा।
अन्त में श्रोसवाल प्रेस के मालिक बा० महालचन्दजी वयेद को धन्यवाद देकर निवेदन समाप्त करता हूं-जिनकी सहायता से इस पुस्तक के संग्रह करने व छपाने में मुझे पूरी सरलता हुई।
___ यदि जिनेश्वर देव के बचनों के विरुद्ध कुछ छप गया हो सो मुझे मिच्छामि दुक्कड ।
निवेदकः--
दुर्जनदारक सेठिया ।
( भीनासर निवासी)
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गजल जिनेश्वर धर्म सारा है।
मेरे प्राणों से प्यारा है। जिनका ध्यान धर भाई।
श्री जिनराज फरमाई ॥ जिससे होत सुखदाई ।
इसीसे दिल हमारा है ॥ जिने ॥१॥ जिनेश्वर नाम जो गावे।
कि भव से पार हो जावे ॥ जनम यो फेरे ना पावे।
होय भवसिन्धु पारा है ॥ जिने ॥२॥ ऐसे जिनराज प्यारे हैं।
जिन्हों ने भक्त त्यारे है ॥ जिहों ने फर्म मारे है।
उन्हींका मो आधारा है। जिने ॥३॥ विमुन्न जो धर्म से होधे ।
पकड़ शिर अन्त में रोवे ॥ जिनेश्वर धर्म घो खोये ।
जिन्हों को नर्क प्याग है | जिने ॥४॥ नहीं नर भव जनम हारे।
जिनेश्वर धर्म जो धारे ॥ घोही यम फांस फो टारे।
महालचंद दास धारा है । जिने ॥५॥
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श्रीजिनाय नमः।
अथ
॥श्रीचौबीसजिनस्तुतिप्रारम्भः॥
दोहा-ॐ नमः अरिहंत अतनु। पाचार्य उव झाय ॥ मुनि पंच परमेष्टिए ॐकाररै मांहि ॥१॥ बलि प्रणमुगुणवंत गुरु । भिक्षु भरत मभार ॥ दान दया न्याय छाणने । लौधो मारग सार ॥२॥ भारी माल पट भलकता। तौजे पट ऋषिराय ॥ प्रणमु मन वच कायकरी पांचं अंग नमाय ॥ ३ ॥ इम सिद्ध साधु प्रणमौ करो। ऋषभादिक चौबीस ॥ स्तवन कर प्रमोद करौ। जय जश कर जगदीश ॥४॥ मल्लिनेमए दोय जिन। पाणीग्रहण न कोध ॥ शेष बावीसजिनेश्वरूं रमण छांड़ ब्रत लोध ॥५॥ बासुपूज्य मल्लिनेम जिन । पारस भनें वर्द्धमान ॥ कुमर पदै अरु प्रथम वय । धास्यो चरण निधान ॥ ६ ॥ छत्रपति उगणौस जिन । ब्रत तौजी वय सार ॥ उत्कृष्ट आयु जिह समय तसु विण भाग बिचार ॥ ७॥ बौर समय उत्कृष्ट स्थिति। वर्ष सवा सय होय ॥ भाग तीन कीजै तम् । एतीनुवय जोय ॥८॥ इमसगले उत्कृष्ट स्थिति। विणभागे वय तीन ॥ अंतिम
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वय उगणीस जिन। धुर वय पंच सुचौन ॥६॥ पूर्वत बरण चंद सुविधि निन ! पदम बासु पूज्य लाल ॥ मुनि सुब्रत रिठनेम प्रभु। कृष्ण बरण सुविशाल ॥ १० ॥ मल्लिनाथ फुन पार्श्व प्रभु। नौल बरण वर अंग ॥ षोडस शेष जिनेश तनु । सोवन बरण सुचंग ॥ ११ ॥ श्रेयांस मल्लि मुनिसुव्रत जिने । नेम पावं जगदीश ॥ 'प्रथम पहर दौक्षाग्रही पिछले पोहर उन्नोस ॥ १२ ॥ सुमति जीम दीक्षाग्रही । अठम भक्त मल्लि पास ॥ छठ भक्त जिन बीस वर । वासुपूज्य उपवास ॥ १३॥ ऋषभ अष्टापद शिवगमन । बौर पावापुरी दीस ॥ मेम गिरना र बासु चंपा। शिखर समेत सुवीस ॥ १४ ॥ ऋषभ संधारे शिव गमन । चउदश भत उदार ॥ चरम छठ पगासण पवर, बावीस मास संथार ॥ १५ ॥ ऋषभ बौर पर नेम जिन । पल्यंक आसण शिव पेख ॥ शेष धकोश जिनेश्वर काउसग मुद्रा देख ॥ १६ ॥ जिन चोवीस तणा सुगुण। रचियै वचन रसाल ॥ ध्यान सुधा वर सार रस जय जग करण विशाल ॥ १७ ॥
प्रथम ऋषभजिनस्तवन ।
(एस गुरु किम पाचिये एदेशी) बन्दु वैकर जोड़ने । जुग आदि जिनन्दा । कर्म रिपु गज उपर। मृगराज मुनिन्दा ॥ प्रणामू प्रथम
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जिनन्दनें जय जय जिन. चन्दा ॥ ए पांकणी ॥ १ ॥ अनुकूल प्रतिकूल सम सही। तप विविध तपिन्दा ।। चेतन तनु भिन्न लेखवी। ध्यान शुक्ल ध्यावंदा ॥ २ ॥ पुद्गल सुख और पेखिया । दुःख हेतु भयाला ॥ विरक्त चित बिगट्यो इसो। जाण्या प्रत्यक्ष. जाला. ॥ ३ ॥ संवेग सरवर झूलतां। उपशम रस लौना ॥ निन्दा स्तुति सुख दुःखे । सम भाव सुचीना ॥ ४ ॥ बांसी चंदन सम पणे । थिर चित जिन ध्याया। इंमतनं सार तजी करी । प्रभु केवल पाया ॥५॥ हु बलिहारी सांहरी वाह वाह जिन राया ॥३॥ उवा दशा किण दिन पावसी । मुझ मन उमाया ॥६॥ उगौसै सुदि भाद्रव दशमी दौतवारं ॥ ऋषभदेव रटवेकरौ। हुो हर्ष अपारं ॥ ७॥ .
श्री अजितजिनस्तवन ।
• (अहो प्रिय तुम घट पाडी एदेशी) अहो प्रभु अजित जिनेश्वर पापरी । ध्याउ ध्यान हमेश हो ॥ महो प्रभु अशरण शरण तुही. सही। मेटण सकल कलेश हो ॥ अहो प्रभु तुम ही दायक शिव पंथना: ॥ १ ॥ अहो प्रभु उपशम रस भरी मापरी। बाणी सरस विशाल हो॥ अहो प्रभु मुगत निसरणी
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( ४ ) महा मनोहरु । सुख्यां मिटै भ्रमजाल हो । २ ॥ प्रभु उभय बंधण आप आखिया रागद्वेष विकराल हो | अहो प्रभु हेतुए नरक निगोदना । राच्या मूरख बाल हो ॥३॥ अहो प्रभु रमणी राखसणी समी कही । विष बेलि मोह जाल हो ॥ अहो प्रभु काम नें भोग किम्पाक सा । दाख्या दीन दयाल हो ॥ ४॥ अहो प्रभु विविध उपदेश देई करौ । तें ताथा नर नार हो || तुम्ही नगत् साहिबा |
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हो प्रभु भव सिंधु पोत तुम्ही सही । आधार हो || ५ || अहो प्रभु शरण आयो तुम बस रह्या या मांहि हो । अहो प्रभु आगम वथण अंगो करो । रह्यो ध्यान तुज ध्याय हो ॥ ६ ॥ अहो
प्रभु सम्वत् उगणौसै नें भाद्रवै । हो । अहो प्रभु पाप तथा गुण जयकार हो ॥ ७ ॥
दशमी चादित्यवार गाविया वर्त्या नय
श्री संभव जिनस्तवन । ( हुं बलिहारी हो जादवां पदेशी )
संभव साहिव समरोये । धायो हो निय निरमल ध्यान कै ॥ इक पुद्गल दृष्टि थापनें ॥ कौधो हे मन मेरु समान कै ॥ संभव साहिब समरिये ॥ १ ॥ चांकी | तन चंचलता मेटने हुआ नगयो उदासीन
ए
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( ५ )
के ॥ धर्म शुक्ल थिर चित्त धरै । उपशम रस में होय रह्या लौन के । सं० ॥ २ ॥ मुखइन्द्रादिकनां सह । जाण्या हे प्रभु अनित्य असार कै ॥ भोग भयंकर कटुक फल । देख्या हे दुर्गति दातार कै ॥ सं० ॥ || ३ || सुधा संवेग रसे भया । पेख्या हे पुद्गल मोह पाशके ॥ अरुचि अनादर आण में आत्मध्यानें करता विलास के । सं० ॥ ४ ॥ संग छांड मन वशकरी । ४॥
इन्द्रिय दमन करो दुर्दतकै ॥ विविध तपे करी खामजी । घाती कर्मनो कोधो अंत के ॥ सं० ॥५॥
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हूं तुज शरणे पावियो । कर्म विदारन तु' प्रभु वीर के तें तन मन बच वश किया । दुःकर करणी करण महाधीर कै ।। सं० ॥ ६ ॥ संबत उगणीसै भाद्रवै । सुदि इग्यारस आण विनोद के ॥ संभव साहिब समरिया । माम्यो हे मन अधिक प्रमोद के || सं० ॥७॥
श्री अभिनन्दन जिनस्तवनं ।
( सती कलूजी हो हुआ. संजमने त्यार एदेशी )
तीर्थंकर हो चोथा जग भाग छांडि गृहवास करो मति निरमली । विषय विटम्बण हो तनिया विष फल जाण । अभिनंदन बान्दु' नित्य मनरली ॥१॥ ए आंकणौ । दुःकर करणो हो कौधो आप दयाल ||
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ध्यान शुधा रस सम दम मन गली। संग त्याग्यो हो जाणी माया जाल ॥ अ० ॥२॥ बौर रसे करी हो कीधी तपस्या विशाल। अनित्य अशरण मावन अशुभ निरदली ॥ जग झूठो हो जाण्यो आप कृपाल । प. ॥३॥ आत्म मंत्री हो सुख दाता सम परिणाम ।। एहौज अमिव अशुभ भावे कलकलो॥ एहवी भावन हो भाया जिन गुण धाम || अ० ॥ ४ ॥ लौन संवेगे हो ध्याया शुक्ल ध्यान ॥ क्षायक श्रेणी चढी हुपा विली ॥ प्रभु पाम्या हो निरावरण सुजान ॥ प० ॥ ५ ॥ उपशम रस भरी हो वागरी प्रभु वा ॥ तन मन प्रेम पाया जन सांभली ।। तुम वच धारी हो पाम्या परम कलयाण ।। अ० ।। ६ ।। जिन अभिनंदन हो गाया तन मन प्यार || संवत उगणीसैनें भादवे पघटली ।। सुदि इग्यारस हो हुमो हर्ष अपार ॥ म० ॥ ७॥
श्री सुमति जिनस्तवन ।
(मुरख जीवा रे गाफल मत रहे ) मुमतिजिनेश्वर साहेव शोभता ॥ सुमति करण संसार ॥ सुमति जप्यांधी सुमति वधै घणौ ॥ सुमति सुमति दातार ॥ सु० ॥ १॥ ए आंकणी ॥ ध्यान
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सुधारस निर्मल ध्यायने ॥ पाम्या केवल नाण ॥ वाण सरस वर जन बहु तोरिया ॥ तिमिर हरण जगभाण॥ सु.॥२॥ फटिक सिंहासण जिनजी फावता॥ तरुपशोक उदार ॥ छत्र चामर भामंडल भलकतो॥ सुर टुंदुभि झिणकार ।। सु० ॥३॥ पुष्प वृष्टि वर सुर ध्वनी दीपती॥ साहिब जग सिणगार ॥ अनंत ज्ञान दर्शन सुख बल घणु ॥ ए बादश गुण श्रीकार ॥ सु० ॥ ४॥ बाणो अमौ सम उपशम रस भरी॥ टुर्गति मूल कषाय ॥ शिव सुखना भरि शब्दादिक कह्या ॥ नग तारक जिन राय ॥ सु० ॥ ५ ॥ अंतर नामोरे शरणै आपरे ॥ हु आयो अवधार ॥ जाम 'तुमारीरे निश दिन संभ: ॥ शरणागत सुखकार ॥ सु० ॥ ६ ॥ संवत उगणीसैरे सुदि पक्ष भाद्रवे ॥ बारस मंगलवार ॥ सुमतिजिनेश्वर तन मनस्यं रख्या आनन्द उपनो अपार ॥ सु० ॥७॥
पद्म जिनस्तवन । ( जिन्दवेरी देशी छै सुणभगते भगवन्तके एदेशी) निर्लेप पद्म जिसा प्रभु ॥ पद्म प्रभु पौछाण२ संयम लौधो तिण समै ॥ पाया चोथो नाण ॥ पद्म प्रभु नित्य समरिये ॥ १॥ ए आंकणी ।। ध्यान शुक्ल प्रभु
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( ८ ) ध्यायने ॥ पाया केवल सोयर दीन दयाल ती दिशा || कहणी नावे कोय ॥ पद्म० ॥ २ ॥ सम दम उपशम रस भरी || प्रभु आपरी वाणि | त्रिभुवन तिलक तु ही
सही || तु हो जनक समान ॥
मद्म० ॥ ३ ॥ तु प्रभु
कल्पतरु समो ॥ तु' चिन्तामणि जोय २ ॥ समरण करतां श्रपरो ॥ मन वंछित होय || पद्म• ॥ ४ ॥ सुखदायक सह जग भयौ | तु ही दोन दयाल २ शरणे पायो तुज साहिबा । तु ही परम कृपाल || पद्म० ॥ ५ ॥ गुणगातां मन गहगहे | सुख संपति नाग २ | विघ्न मिटै समरण कियां ॥ पामै परम कल्याण || पद्म० ॥ ६ ॥ संवत उगणी सैनें भाद्रवे ॥ सुदि बार स देख || पद्म प्रभु रय्या लाडनूं ॥ हुआ हर्ष विशेष || पद्म० ॥ ७ ॥
श्री सुपास जिनस्नवन ।
( कृपण दीन अनाथए एदेशी )
मुपास सातमां निगंद ए ॥ ज्यांने सेवे सुर नर हृदए । सेवक पूरण आशए ॥ भजिये नित्य खामि|| मुपासर || १ || एकणी || जन प्रतिवोधण कामए ॥ प्रभु वागरे वाण असाम || संसार स्यूँ हुवै उदास ॥ भ० ॥ २ ॥ पामै काम भोगथौ उड गए | वलि उपने
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परम संवेगए ॥ एहवा तुम वच सरस विलासए॥ भ० ॥३॥ घणी मोठी चक्रौनी खीर ए॥ वलि खौर 'समुद्नो नौरए ॥ एहथो तुम वच अधिक विमासए॥ भ० ॥४॥ सांभलने जन बन्द ए॥ रोम रोम में पामें आनंद ए॥ ज्यांरौ मिट नरकादिक वास ए॥ भ० ॥५॥ तु प्रभु दीन दयाल ए॥ तुही अशरण शरण निहालए ॥ हु छु तुमारो दासएं ॥ भ० ॥६॥ संवत उगणौसै सोयए ॥ भाद्रवा सूदि वेरस जोय ए॥ पहुंची मननी आश ए ॥ भ० ॥॥
श्री चद्रप्रभुजिन स्तवन ।
(शिवपुर नगर सुहामणो एदेशी) हो प्रभु चंद जिनेश्वर चंद जिस्या ॥ बागी शीतल चंद सौ न्हालहो । प्रभु उपशम रस नन सांभलै ॥ मिट कर्म भ्रम मोह जाल हो ॥ प्रभु०॥१॥ एआंकणौ ॥ हो प्रभु सूरत मुद्रा सोहनी ॥ बारु रूप अनुप विशाल हो ॥ प्रभु इन्द्र शची जिन निरखती।
तो टप्त न होवे निहालहो ॥ प्रभु० ॥२॥ अहो बीतराग प्रभु तं सही ॥ तुम ध्यावे चित्त रोकहो॥ प्रभु तुम तुल्य ते हुवे ध्यान स्यूं ॥ मन पाया परम संतोष हो ॥ प्रभु० ॥३॥ हो प्रभु लोन पणे तुम
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( १० )
ध्यावियां ॥ पामै इन्द्रादिकनी ऋद्धि हो ॥ वले विविध भोग सुख सम्पदा || लहे आमोसही आदि लव्विधड़ो || प्रभु० ॥ ४ ॥ हो प्रभु नरेन्द्र पद पामै सही ॥ चरण सहीत ध्यान तम मनहो ॥ प्रभुमह मिंद्र पद पावै वलि || कियां निश्चल धारो भजनहो ॥ प्रभु० ||५|| होप्रभु शरण आयो तुज साहिबा || तुम ध्यान धरु दिन रयनहो || तुज मिलवा मुझ मन उमयो || तुमशरणास्यं सुखचैन हो ॥ प्रभु० ॥६॥ संवत उगणी सैनें भाद्रवे ॥ मुदि तेरसनें बुधवारहो || प्रभु चंद्र जिनेश्वर समरिया ॥ हुश्री आनंद हर्ष अपारहा ॥ प्रभु० ॥ ७ ॥
श्री सुविधि जिन स्तवन ।
( सीहीतेरापंथ पावै हो पदेशी )
सुविधि करो भजिये सदा । सुविधि जिनेश्वर स्वामी हो ॥ पुष्पदंत नाम दूसरो ॥ प्रभु अंतरजामी हो । सुविधि भजिये शिरनामी हो || १ || ऐश्रांकणी ॥ श्वेत वरण प्रभु शोभता वारु वाण श्रमामीहो ॥ उपशम रस गुण आगली || मटण भव भव खामीही मु० समवसरण विश्व फावता | त्रिभुवन तिलक समामी हो ॥ इंद्र घकी मै घणां ॥ शिवदायक स्वामी हो सु० ||३|| सुरेंद्र नरेंद्र चन्द्र ते इ ंद्राणी
॥ २ ॥
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अभिरामी हो ॥ निरख निरख धाप नहौं एहवो रूप अमामौहो ॥ ॥ ४ ॥ मधु मकरंद तणोपरे । सुर नर करत सलामौहो ॥ तोपिण राग व्यापै नहौं। जोल्यो मोह हरामोहो ॥ सु० ॥५॥ जे जोधा जगमें घणा ॥ सिंघ साथ संग्रामोहो॥ ते मन इन्द्रिय बश करी॥ जोड़ी केवल पामीहो ॥ सु० ॥ ६॥ उगणीसै पुनम भाद्रवी प्रणमु शिरनामोहो॥ मनचिन्तित वस्तु मिलै ॥ रटियां जिन खामीही ॥ सु० ॥ ७॥
श्री शीतलजिन स्तवन । (हुं देवा आइ ओलंभड़ो सासुजी एदेशी) शीतलजिन शिवदायका ॥ साहेबजी ॥ शीतल चंद समान हो ॥ निस्नेही ॥ शीतल अमृत सारिखा ॥ साहिबजी ॥ तप्त मिट तुम ध्यानहो ॥ निस्नेही ॥ सूरत थारी मन बसौ साहेबजी ॥१॥ बंदे निदे तोमणी साहिबजी ॥ राग द्वेष नहौं तामहो ॥ निस्नेही ॥ मोह दावानल तें मेटियो ॥ साहेबजौ ॥ गुणनिष्पन्न तुम नाम हो ॥ निस्नेही ॥ सू० ॥ २ ॥ नृत्य करै तुज पागलें साहेबजौ ॥ इन्द्राणी सुरनारहो । निस्ने हो ॥ राग भाव नहीं उपजै ॥ साहेबनौ ॥ तेअंतर तप्त निवारहो .॥ निस्ने हो ॥ सू० ॥ ३॥ क्रोध मान माया लोभए ॥ साहेबजौ ॥ अग्निसु अधिको मागहो ॥ निस्ने हो ।
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( १२. ), शुक्ल ध्यान रूप जलकरौ ॥ साहेबजी ॥ थया शीत लिभूत महाभाग्यहो ॥ निस्ने हो ॥ सू० ॥ ४ ॥ इंद्रिय नोइन्द्रिय आकरा ॥ साहेबजी ॥ दुर्जय नै दुर्दा तहो । निस्ने हो । तें जीता मन थिर करी ॥ साहेबजी ॥ धरि उपशम चित शांतिहो ॥ निस्ने हो ॥ सू० ॥५॥ अंतरजामी आपरो ॥ साहेबजौ ॥ ध्यान धरु दिन रैनहो॥ निस्ने हो ॥ उवाही दिशा कद आवसी ॥ साहेबजी॥ होसी उत्कृष्टो चैनही ।। निस्ने हो ।। सू० ॥६॥ उगखोसे पूनम भाद्रवी ॥ साहेबजी ॥ शीतल मिलवा काजहो ॥ निस्नेही ॥ शीतल जिननीने समरिया ।। साहेवजी ॥ हियो शीतल हुओ आजहो ॥ निस्ने हो । सूः ॥७॥
श्री श्रेयांसजिन स्तवन ।
(पुत्रवसुदेवनो एदेशी) मोचमार्गश्रेयशोभता ॥ धाग्या खाम श्रेयांस उदाररे॥ जेजेश्रेय वस्तु संसारमें ॥ ते ते आप करी अङ्गीकाररे ॥ ते ते आपकरी अंगीकार श्रेयांस जिनेश्वरु प्रणम् नित्य वेकर जोड़रे ॥ १ ॥ समिति गुप्ति दुःधर घणा ॥ धर्म शुक्र ध्यान उदारर ॥ एश्रेय वस्तु शिव दायनी । माप
आदरी हर्ष अपाररे ॥ श्रे० ॥२॥ तन चंचलता मेटनें। पद्मासन पाप विराजरे ॥ उत्कृष्टो ध्यान तणो कियो।
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आलम्बन श्रौनिनराजरे ॥ श्रे० ॥ ३ ॥ इन्द्रिय विषय विकारथौ ॥ नरकादि रुलियो जोवरे ॥ किंपाक फलनी उपमा ॥ रहिये दूर थौ दूर सदीवरे ॥ श्र० ॥ ४ ॥ संयम तप जप शौलए ॥ शिव सांधन महा सुखकाररे॥ अनित्य अशरण अनंतए ॥ ध्यायो निर्मल ध्यान उदाररे ॥श्रे० ॥ ५ ॥ स्त्रियादिक ना सङ्गते ॥ मालम्बनदुःख दाताररे ॥ अशुव आलम्बन छोड़ने॥ धयो ध्यान आलम्बन साररे ॥ श्रे० ॥ ६ ॥ शरणे आयो तुज साहिबा ॥ करु बारंबार नमस्काररे ॥ उगणौसै पूनम भाद्रवे ॥ मुज वा जय जय काररे ॥ श्रे० ॥ ७॥
श्री वासुपूज्य जिन स्तवन ।
(इम जाप जपो श्रीनवकारं एदेशी) हादशमा जिनवर भजिये ॥ राग द्वेष मच्छर माया तजिये ॥ प्रभु लालबरण तन छिव जाणी॥ प्रभुवासुतपूज्य भजले प्राणी ॥ १ ॥ बनिता जाणों वैतरणी ॥ शिव संदर वरवा इस घणौ ॥ काम भोग तज्या किंपाक जाणी॥ प्र० ॥ २ ॥ अञ्जन मञ्जन स्युं अलगा ॥ वलि पुष्प विले. पन नहीं विलगा॥ कर्म काठ्या ध्यान मुद्रा ठाणौ ॥प्र. ॥३॥ इन्द्र थकी अधिका ओपै ॥ करुणागर कदेव नहीं कोप ॥ .वर शाकर दूध जिसी बाणी ॥ प्र० ॥ ४ ॥ स्त्री स्नेह पाशा दुदंता ॥ कह्या नरक निगोद तणा पंथा ॥
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इह भव परभव दुःखदाणी ॥ प्र० ॥ ५ ॥ गज कुम्भ दलै मृगराज हणौ ॥ पिण दोहिली निज आत्मा दमणौ ॥ इम सुण बहु जीवचेत्या जाणी ॥ प्र० ॥ ६ ॥ भाद्रवी पूनम उगणीसो ॥ कर जोड़ नमं वासुपूज्य दूसो ॥ प्रभु गांतां रोम राय हुलसाणी ॥ प्र० ॥ ७॥
श्री विमल जिन स्तवन । कायनमांगाकायनमांगाहोराणाजीमांगपूर्णप्रितवी
(कांयनमांगाहो एदेशी) शरणे तिहारहो विमलप्रभु ॥ सेवकनी अरदाश ॥ भायो शरण तिहारहो॥ विमल करण प्रभु विमलनाथजी। विमल भाप मल रहीत ॥ विमल ध्यान धरतां हुवे निर्मल ॥ तन मन लागी प्रीत ॥ साहेव शरणे तिहारहो ॥ १ ॥ विमल ध्यान प्रभु आप ध्याया ॥ तिण सं हुआ विमल जगदीश ॥ विमल ध्यान वलि जे कोई ध्यासी ॥ होसी विमल सरीस ॥ सा० ॥ २ ॥ विमल गृहवासे द्रव्य जिनंद्र घा॥ दीक्षा लियां भावे साध ॥ केवल उपना भावे जिनेश्वर। भाव विमल अाराध ॥ सा० ॥३॥ नाम स्थापना द्रव्य विमल थी कारज न सरेकोय ॥ भाव विमल घी कारन सुधरे ॥ भाव नप्यां शिव होय ॥ सा० ॥४॥ गुण गिरवो गंभौर धीरतं ॥ तूं मेटण जम वास ॥ में तुम क्यण मागम शिर धास्या ॥ तूं मुझ पूरण आश।
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( १५ ) सा० ॥ ५ ॥ तूंही कृपाल दयाल तू साहेब । शिवदायक तूं जगनाथ ॥ निश्चल ध्यान करे तुज ओलख ॥ से मिले तुज संघात ॥ सा० ॥ ६ ॥ अंतरजामी आम उजागर ॥ में तुम शरणो लौध॥ संवत उगणौसैभाद्रवी पुनम वंछितकार्य सिद्ध ॥ सा०॥ ७ ॥
- अनंत जिन स्तवन ।
(पायो युगराजपद मुनि एदेशी ) अनंतनाम जिन चउदमारे ॥ द्रव्य चोथे गुणठांण भलांजी काई द्रव्य० ॥ भावे जिन हुवै तेरमेरे ॥ दूतले द्रव्य जिन जाण ॥ भलाजी कांई इतले द्रव्य जिन जाण ॥ पायो पद जिनराज रे ॥ शुद्घ ध्यान निरमल ध्याय ॥ भलां० पायोपद ॥ १॥ जिन चक्री सुर जुगलियारे ॥ वासूदेव बलदेव भलां० बा० ॥ ऐपञ्चम गुण पावै नहोरे ॥ ए रौत अनादि स्वमेव भलां. ए. पा. ॥२॥ संयम लौधो तिण समैरे ॥ आया सातमें गुणठाण भला० आ० ॥ अंतर मुहतं तिहार होरे ॥ छठे बहुस्थिति जाण भलां० छ० ॥ पा० ॥ ३ ॥ आठमा यौ दोय श्रेणौछरे ॥ उपशम खपक पिछाण भला० उ० उपशम जाम दूग्यारमैरे ॥ मोह दबावतो जाण भलां० मो० ॥पा०॥४॥ श्रेणी उपशम जिन ना लहरे ॥ खपकश्रेणी धर खंत भ० ख • चारित्रमोह खपावतार ।।
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चढिया ध्यान अत्यन्त भ. च० ।। पा० ॥५॥ नवः आदि संजलचिहुरे ॥ अंतसमे इक लोभ भ० अं० । दसमे सूचम मात्रतेरे ॥ सागार उपयोग शोभ भ० सा ॥ मा० ॥६॥ एकादशमो उलंघनैरे ॥ बारमें मोर खपाय ॥ भ. बा० ।। त्रिकर्म एक समै तोडतारे तेरी केवल पाय ॥ पा० ॥७॥ तीर्थ थाप योग सध नैरे । चउदमा थी शिवपाय भ० च०॥ उगोस पुनम भाद्र वेरे ॥ अनंत रय्या हरषाय भ० अ० ॥ पा० ॥८॥ ' ॥ो स्तवन नीचे लिखे मूजब
चालमें भी गायो जावे है । अनंत नाम जिन चवदमां, जिनरायारे । द्रव्यध चोथे गुण स्थान, खाम सुखदायारे ॥ भावे जिन हुवै तेरमें, जिनरायारे ॥ इतले द्रव्य जिन जाण, खाम सुखदायारे॥१॥
धर्म जिन स्तवन ।
(भक्षुपटभारीमालभलक एदेशी) धर्म जिन धर्म तणा धोरी ।। त्रटक मोहपाश नाग्या तोड़ी॥ चरण धर्म आत्म स्यं जोड़ी पहो प्रभु धर्म देव प्यारा ॥१॥ शुक्ल ध्यान अमृत रस लीना ॥
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। १७ ) संवेग रसे करौ जिन भौना ॥ प्याला प्रभु उपशमना पीना ॥ म० ॥२॥ जाण्या शब्दादिक मोह जाला ।। रमणि सुख किंपाक सम काला॥ हेतु नरकादिक दुःख आला ॥ भ० ॥३॥ पुगल शिव भरि जाण्या खामौ ॥ ध्यानथिर चित्त आत्म धामौ ॥ जोड़ी युग केवलनी पामी ॥ अ० ॥ ४ ॥ थाप्या प्रभु च्यार तीरथ तायो॥ भाख्यो धर्म लिन आज्ञा मांयो॥ आज्ञा बाहिर अधर्म दुःखदायो । अ० ॥ ५॥ ब्रतधर्म धर्मजिन पाख्याता ॥ अविरत कही अधर्म दुखदाता ॥ सावद्य निरषद्य जु जुमा कह्या खाता ॥ ५० ॥६॥ बहु जन तार मुक्ति पाया । उगणीसे भासू धुर दिन पाया ॥ धर्मजिन रटवे सुख पाया ॥ अ० ॥ ७॥
श्री शांतिजिन स्तवन ।
हुं बलिहारी भीखणजी साधरी। शांतिकरण प्रभु शांतिनाथजी ॥ शिव दायक सुखकंदकी । बलिहारी हो शांतिजिणंदकौ ॥१॥ अमृत बाणी सुधासो अनुपम ॥ मेटण मिथ्या मंदको । ॥ ब० ॥२॥ काम भोग राग द्वेष कटक फल ॥ विष बेलि मोह धंदकौ ॥ ब० ॥३॥ राक्षसणौ रमणी वैतरणौ पुतली अशुचि दुर्गंधकौ ॥ ब० ॥ ४॥ विविध उपदेश देदू जन तास्या ॥ हु वारी जाउ विश्वानंद
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॥ ५ ॥ जप्त जाप खपत पाप ॥ तप्त हि मिटायो 11 जग अछेरो पायो ॥ ६ ॥
मल्लि देव त्रिविधि सेव ॥ उगगौसे पासोज तीन कृष्ण सुदिन आयो ॥ कुम्भनंदन कर आनंद || हर्षथो में गायो ॥ म० ॥ ७ ॥
श्री मुनिसुव्रत जिनस्तवन ।
शोरठ ।
भरतजी भूप भयाछो वैरागी ।
सुमित नंदन श्रीमुनिसुव्रत । जगत नाथ जिन जाणो ॥ चारित्र लेइ केवल उपजायो ॥ उपशम रसनौ वागौरा || प्रभुजी आप प्रबल बड़ भागौ ॥ १ ॥ विभुवन दीपक सागौरा ॥ प्र० ॥ श्र० एकयौ | चौवीस अतिशय पे चोसवाणौ ॥ निरखत सुर इन्द्राणी ॥ संवेग रसनी वाणी सांभल || हर्षस्युं पांख्यां भराणौरा ॥ प्र० ॥ भा० ॥ २ ॥ शब्द रूप रस गंध अने स्पर्श प्रात कूल न हुवै तुम भागै ।। ज्यं पंच दर्शन यास्यूं पग नहीं मांडे | तिम अशुभ शब्दादिक भागैरा ॥ प्र० ॥ मा० ||३|| सुर कृत जलस्थल पुप्फ पुजवर ॥ तेांडो चित दोनो ॥ तुज निश्वास सुगंध मुख परिमल मनभ्रमर महा लौनोरा ॥ प्र० ॥ भा० ॥४॥ पंचेन्द्रो सुर नर तिरि तुमस्युं ॥ किम हुवै दुखदायी ॥ एकेंद्री
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अनिल तजै प्रतिकूल पणु॥ बाजै गमती वायोरा ॥ प्र. पा० ॥ ५ ॥ राग द्वेष दुर्दैत ते दमिया ॥ जोत्या विषय विकारो॥ दीन दयाल आयो तुज शरणे ॥ तुंगति मति दातारोरा ॥ प्र. आ० ॥६॥ सम्बत उगणौसै पासोज तौज कृष्ण श्री मुनिसुव्रत गाया ॥ लाडनूं शहर मांहि रूड़ी रौतें आनंद अधिको पायारा ॥ प्र० आ० ॥७॥
श्री नमि जिन स्तवन ।
परम गुरू पुज्यजी मुज प्यारारे । नमिनाथ अनाथांरानाथोरे ॥ नित्य नमण करनाड़ी हाथोरे ॥ कर्म काटण बौर विख्यातो ॥ प्रभु नमिनाथजी मुजप्यारारे ॥ १ ॥ प्रभु ध्यान सुधारस ध्यायारे पद केवल जोड़ीपाया रे ॥ गुण उत्तम उत्तम पाया ॥ प्र० ॥२॥ प्रभु वागरी वाण विशालोरे ॥ खीर समुद्रथौ अधिक रसालोरे ॥ जगतारक दीन दयालो। प्र० ॥३॥ थाप्या तीर्थं च्चार जिणंदोरे ॥ मिथ्या तिमिर हरणने मुणंदोरे ॥ त्याने सेवे सुर नर वन्दो ॥ प्र. ॥४॥ सुर अनुत्तर विमाणना सेवेरे प्रश्न पूछयां उत्तर जिन देवेरे ॥ अवधिग्यांन करी जाणलेवे ॥ प्र० ॥ तिहां बैठा ते तुम ध्यान ध्यावेरे ॥ तुम योग मुद्रा चित्त चावैरे । ते पिण आपरौ भावना भावे ॥ प्र० ॥६॥
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( २२ ) उगणीसै आसोज उदारोरे कृष्ण चोथ गाया गुण धारोरे ॥ हुओ आनंद हर्ष आपारो ॥ प्र० ॥ ७ ॥ श्री आरिष्टनेमि जिन स्तवन ।
छिणगईरे। प्रभु नेमिस्वामी ॥ तु जगनाथ अंतरजामौ ॥ तु' तोरण स्युं फिस्यो जिनखाम ॥ अमृत बात करौ तें घमाम ॥ प्रभु० ॥१॥ राजिमती छांडो जिनराय ॥ शिव सुन्दर स्यं प्रीत लगाय ॥ प्रभु ॥२॥ केवल पाया ध्यान वरध्याय ॥ इन्द्र शची निरव हर्षाय ॥ प्र० ॥३॥ नेरिया पिण पामें मन सोद || तुज कल्यांगा सुर करत विनोद प्र० ॥४॥ राग रहित शिव सुखस्यु प्रीत कर्म हो वलि द्वेषरहित ॥ प्र० ॥५॥ अचरिजकारौ प्रभु थारोचरित्र ॥ हुप्रणम् कर जोड़ी नित्य ॥ प्र० ॥६॥ उगगीसै वदि चोथ कुमार ॥ नैमि जप्यां पायो सुखकार ॥ प्र० ॥७॥
श्रो पाश्व जिनस्तवन ।
पूज्य भीखणजी तुमारा दर्शण। लोह कंचन करे पारस काचो ॥ ते कहो कर कुण लेवे हो ॥ पारस तुं प्रभु साचो पारस । आप समो कर देवे हो ॥ पारसदेव तुमारा दर्शन । भाग मला सोडू पावै हो ॥१॥ तुज मुख कमल पास चमरावलि ।
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( २३ ) चंद्र क्रान्ति वत सोहै हो ॥ हंस श्रेणि जाणे पंकज सेवै। देखत जन मन मोहै हो पारस० ॥ २ ॥ फटिक सिंहासग सिंह आकार। बैठ देशना देवै हो ॥ वन
मृग आवै बाणौ सुणवा। जाणके सिंह ने सवै हो । , पारस० ॥३॥ चंद समो तुज मुख महा शीतल । नयन चकोर हर्षाव हो ॥ इन्द्र नरेंद्र सुरासुर रमणौ । निरखत पति न पावै हो ॥ पारस० ॥ ४ ॥ पाखंडी सरागी आप निरागो । आमसमें इमगैरी हो ॥ बैरभाव पाखंडी राखे। पिण आप त्यांरा नहीं बैगै हो ॥ पारस० ॥५॥ जिम सूर्य खद्योत उपरें । बैरभाव नहीं आण हो ॥ प्रभु पिण दूणा विधि पाखंडिया में । खद्योत सरीखा जाणे हो ॥ पा० ॥ ६ ॥ परम दयाल कृपाल पारस प्रभु । संवत उगणीसे गाया हो ॥ आसोज कृष्ण तिथि चोथ लाडनं। आनंद अधिको पाया हो॥ पारस० ॥ ७॥
श्री महाबीर जिनस्तवन ।
__ कपिरे प्रिया संदेशो कहै। चरम जिनेंद्र चोवीसमा जिन । अघहणावा महाबौर ॥ बिकट तप वर ध्यान कर प्रभु । पाया भव जल , तौर ॥ नहों इसो दूसरो जगबीर ॥ उपसर्ग सहिवा अडिग जिनवर । सुर गिर जेम सधौर ॥ नहीं ॥ १ ॥
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( २४ ) संगम दुःख दिया आकरारी। पिण सुप्रसन्न निजर दयाल ॥ जग उद्धार हुवै मो थकोरे। v डूबे इण काल ॥ नहीं ॥ २ ॥ लोक अनार्य बहु किया रे । उपसर्ग विविध प्रकार ॥ ध्यान सुधा रस लीनता जिन । मन में हर्ष अपार ॥ नहीं ॥३॥ इण पर कर्म खपाय में प्रभु । पाया केवल नाथ ॥ उपशम रसमय वागरी प्रभु । अधिक अनूपम वाण ॥ नहौं ॥ ४ ॥ पुद्गल सुख भरि शिव तणारे । नरक तणा दातार ॥ छोड़ि रमणी किंपाक बेलि । संवेग संयम धार ॥ नहौं० ॥५॥ निंदा स्तुति सम पगैरे। मान अनें अपमान ॥ हर्ष शोक मोह परिहस्यां रे । पामै पद निर्वाण ॥ नहौं ॥६॥ इम बहुजन प्रभु तारिया रे प्रगम चरम जिनेंद ॥ उगगोस आसोज चोथ वदि। हुवो अधिक आनंद ॥ नहौं० ॥ ७॥
इति श्रीभौखगजी खामी तस्य शिष्य भागेमालजी खामी, तस्य शिष्य रिषरायचंदजी स्वामौ तस्य शिष्य जीतमलजी खामी कृत चतुर्विंशति जिनस्तुति समाप्तः
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( २५ ) ।
॥ दुहा ॥ ___ नमु देव अरिहंत नित्य जिनाधिपति जिगागय ॥
द्वादश गुणा सहितजे बंदु मन बच काय ॥ १ ॥ नमु सिद्ध गुण अष्टयुत आचार्य मुनिराज ॥ गुण षट तीस संयुक्त प्रणमुभव दधि पाज ॥ २ ॥ प्रणमुफुन उवझाय प्रति गुण पण बीस उदार ॥ नमु सर्व साधु निर्मल सप्त बीस गुण धार ॥ ३ ॥ हादस अठ षट तौस फुन वली पगा वीस प्रगट ॥ सप्त बीस ए सर्वही गुण वर इकसय अठ ॥ ४ ॥ नोकरवालो ना जिके मिणियां जगत मझार ॥ एक २ जे गुगा तणों एक २ मिणियोंसार ॥ ५ ॥
12
॥ जमोअरिहंताण ॥ नमस्कार थावो अरिहंत भगवनने।
ते अरिहंत भगवंत कहवा छै १२ बारे गुणे करी सहित ? ते कहै छै अनन्तो ज्ञान १ अनन्तो दर्शण २ , अनन्तो बल ३ अनन्तो मुख ४ देव ध्वनि ५ भा मण्डल ६ फटिक सिंघासण ७ अशोकवृक्ष.८ पुष्प विष्टौ ६ देव दुदवी १० चमरबौंजै ११ छत्र धारे १२
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॥ णमोसिद्धाणं ॥ नमस्कार घावो सिद्ध भगवंतने । ते सिद्ध भगवंतकहवा छै। आठ गुणे करी सहित छै ते कहै छै। केवल ग्यान १ केवल दर्शग २ आत्मी क सुख ३ क्षायक समकित ४ अटल अवगाहणा ५ प्रमुत्तिभाव ६ अग्रलघुभाव ७ अन्तराय रहित ८
॥ णमो आयरियाणं ॥ नमस्कार थावो आचार्य महाराजने । ते आचार्य महाराज केहवा छै। ३६ षट वीस गुगणे करी सहित ? ते कहै छै । आरजदेश ना उपनां १ मारज कुल ना उपना २ जातवंत ३ रुपवंत ४ थिर संघयेगा ५ धीरजवंत ६ आलोवणां दूसग पासे कहै नहौं ७ पोतेग गुग पोते वर्गान न करे ८ कपटी न होवे शब्दादिक पांच इन्द्री जीते १० गग हेप रहित होवे ११ देश ना जाग होवे १० काल नां जागा होवे १३ तीक्षगा बुद्धि होवे १४ घगां देशांरी भाषा जाने १५ पांच आचार सहित १६ सूत्रांरा जाण होवे १७ अर्थरा जाण होवे १८ सूत्र अर्थ दोनों ग जागा होवे १६. कपटकरी पूछ तो कुलाव नहीं २० हेतुना जाग होवे २१ कारगारा
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( २७ ) जाण होवे २२ दिष्टान्त ना जाण होवे २३ न्यायरा जाण होवे २४ सौखणे समर्थ २५ प्राश्चितनां जाण होवे २६ थिर परिवार २७ आदेज बचन बोले २८ परोषह जीते २६ समय पर समय ना जाण ३० गंभौर होवे ३१ तेजवंत होवे ३२ पण्डित विचक्षण होवे ३३ सोम चन्द्रमांजीसा ३४ शूरवीर होवे ३५ बहु गुणी - होवे ३६
पुनः ५ पांच इन्द्री जीते ४ च्यार कषायटाले नववाड़ सहित ब्रह्मचर्य पाले ५ पंच महाव्रत पाले ५ पंच आचार पाले ग्यांन १ दर्शण २ चारित्र ३ तप ४ बिर्य ५ ५ पंच समिति पाले इर्या १ भाषा २ अषणा ३ पादान भंड निक्षेपण ४ उच्चार पासवण ५ ३ तीन गुप्तौ मन १ बचन २ कायगुप्तौ ३
इति षट बीस गुण संपूर्ण ।
॥ णमोउवज्झायाणं ॥ नमस्कार थावो उपाध्याय महाराजने ।
ते उम्पाध्याय महाराज हवा कै २५ पचबीस गुणे करौ सहित छै ते कहे छै। १४ चवदे पूरब ११ ग्यारे अंग भणे भगावे।।।
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( २८
)
पुनः
११ इग्यारे अंग १२ बारे उपांग भगो भणावे ।
॥ णमोलोएसव्वसाहुणं ॥ नमस्कार थावो लोकने विषै सर्वं साधु मुनिराजोंने ।
ते साधु मुनिराज केहवा छै सप्तवीस गुणै करी सहित छै ते कहेछ। ५ पंच महाबत पाले ५ इंद्री नौते ४ च्यार कषाय टाले भाव संचैय १५ करण संचैय १६ जोग संचैय १७ क्षम्यावंत १८ वैराग्यवंत १६ मनसमांधारणीया २० बचन समांधारणी या २१ कायसमांधारणीया २२ नांणसंपणा २३ दर्शन संपना २४ चारित्र संपना २५ वैदनी आयां समो अघियासे २६ मरणप्रायां समो अहियासे २७ ॥
__इति संपूर्णम् । सामायक लेणेकी पाटी। करेमि भन्ते सामायियं सावन जोगं ।
पञ्चखामि नाव नियम ( सुहत एक ) पज्जवा. सामी टुविहिं तिविहेणं नकरेमी नकारवेमी मनसा वायसा कायसा तस्स भन्त पडिक्षमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसरामि ॥
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। २६ ) सामायेक पारणेकी पाटी। नवमा सामायक ब्रतने विष ज्यो कोई __ अतिचार दोष लागोहुवे ते आलोउं १ सामायक
में सुमता नकिधी बिकथाकिधौ हुवे अणपूरी पारी होय पारवो बिसायो होय मन बचन कायाका जोग माठा परिवरताया होय सामायकमें राज कथा देशकथा स्त्रीकथा भत्तकथा करौ होय तस्स मिच्छामि
टुक्कडं।
अथ तिख्खुताको पाटी। तिक्खु तो अयाहिणं मयाहिणं बंदामि नमसामि सक्कारेमि सम्माणेमि कल्लाणं मंगलं देवयं चेयं पझ वासामि मत्थएण बंदामी।
॥ अथ पंच पद बंदणा ॥ पहिले पदे श्री सौमंधर स्वामी आदि देई जघन्य २० (बोस ) तीर्थंकर देवाधिदेवजी उत्कृष्टो १६० ( एकसो साठ ) तीर्थंकर देवाधिदेवजी पचमाहाविदेह क्षेत्रांक विष बिचरे, अनन्त ज्ञानका धणी अनंत दर्शनका धणी अनन्त चारित्रका धणी अनन्त बल का धणी एक हजार आठ लक्षणाका धारणहार
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चौसट इन्द्राका पूजनौक चौतीस अतिशय म तीस बाणी हादश गुण सहित विराजमान है ज्यां अरि. हन्ता से मांहरी वंदना तिख्खुत्ताका पाठसे मालुम होज्यो।
दजे पदे अनन्ता सिद्ध पनरा भेदे अनन्ती चोवीसी आठ कर्म खपायने सिद्ध भगवान मोक्ष पहुंता तिहां जनम नहौं जरा नहौं रोग नहीं सोग नहीं मरण नहौं भय नहौं संयोग नहीं वियोग नहीं टुःख नहीं दारिद्र नहीं फिर पाछा गर्भावासमें आवे नहीं सदा काल शाश्वता सुखामें विराजमान है इसा उत्तम सिद्ध भगवंतासें मांहरी वंदना तिख्खुताका पाठसें मालुम होज्यो।
तौजे पदे जघन्य दोय कोड़ फेवली उत्कृष्टा नव कोड़ केवलौ पञ्जमाहविदेह क्षेत्रामें विचरे छै केवल जान वीवल दर्शनका धारक लोकालोक प्रकाशक सर्व द्रव्य क्षेत्र काल भाव जायों देख छै ज्यां केवलौजी से माहरी वन्दना तिख्खुताका पाठसे मालुम होज्यो ।
चौधे पदे गणधरजी प्राचार्यनी उपाध्यायजी स्थवि रजौ तेगणधरजी महाराज के हवा है अनेक गुणे करी विराजमान छै आचार्यजी महाराज फेहवा कै षट तीस गुगो करी विराजमान छै उपाध्यायजी महाराज बोहवा
सत..
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9
( ३१ )
है पचव सगुणे करौ बिराजमान है स्थविरजी महाराज कहवा के धर्मसें डिगता हुवा प्राणोंनें थिरकरी राखे शुद्ध आचार पाले पलावे ज्यां उत्तम पुरुषां से मांहरी बन्दना तिख्खुताका पोठसें मालुम होज्यो ।
पञ्चमें पदे मांहारा धर्म आचारज गुरु पूज्य श्री श्रीश्री १००८ श्री श्री कालूरामजी खामी ( वर्तमान आचारनको नांव लेगो ) आदि जघन्य दोय हजार कोड़ साधु साध्वी जामेरा उत्कृष्टा नवहजार कोड़ साधु साध्वी चढ़ाई दौप पन्दरे खेत्रांमें बिचरे है ते महा उत्तम पुरुष केहवा है पञ्च महाव्रतका पालणहार छव कायानां पौयर पञ्च समिति सुमता तौन गुप्त गुप्ता नवबाड़सहित ब्रह्मचर्य का पालक - दशविधि यतिधर्मका धारक बारे भेदे तपस्याका करणहार सतरे भेदे संजमका पालणहार बावीस परोसहका जीतणहार सताबोस गुणे करौ संयुक्त बयालीस दोष टाल आहार पांणीका लेवणहार बावन अणाचारका टालणहार निरलोभी निरलालचौ संसार नां त्यागी मोक्षनां अभिलाषी संसारसें पूठा मोक्ष से सहामा सचित्तका त्यागी अतिका भोगी अखादी त्यागी बैरागी तेड़ीया आवे नहीं नोंतीया नोमें नहीं मोलको बस्तु लेवे नहीं कनककामगौसे न्यारा बायरानी
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( ३२ ) परे अप्रतिबन्ध बिहारी इसा माहापुरुषांसे मांहरी बन्दना तिख्खुताका पाठसे मालूम होज्यो
॥अथ पच्चीस बोल॥ १ पहिले बोले गति च्यार ४
नकंगति १ तिर्यंचगति २ मनुष्यगति ३ देवगति ४ २ दजे बोले नातिपांच ५
एकोन्द्री १ बेइन्द्री २ तेइन्द्रौ ३ चोदन्द्रौ ४ पंचेंद्री ५ ३ तीजे बोले काया छव पृथ्वीकाय १ अप्पकाय २ तेउकाय ३ बाउकाय
४ वनस्पतिकाय ५ त्रसकाय ६ ४ चौथे बोले इन्द्री पांच
श्रोतइन्द्री १ चक्ष इन्द्री २ घ्रागइन्द्रौ ३ रसइन्द्रौ ४ स्पर्शइन्द्री ५ ५ पांच में बोले पर्याय छव ६
आहारपर्याय १ शगैरपर्याय २ इन्द्रीय पर्याय ३ शासोश्वासपर्याय ४ भाषापर्याय ५ मनपर्याय ६ ६ छठे वोले प्रागा १० श्रोतेंद्री वन्नप्रागा १ चक्ष इन्द्रीवलप्रागा २ घ्राग
इन्द्रीवलप्राण ३ रसेन्द्रीवलप्राग ४ स्पर्शहन्द्री वलप्रागा ५ मनवलप्राग ६ वचनवलप्रागा ७ काया
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'( ३३ ) बलप्राण ८ शासोश्वासबलप्राण ६ आउषोबलप्राण १० - ७ सातमें बोले शरीर पांच ५ " .
औदारिक शरीर १ बैक्रियशरीर २ आहारिक शरीर ३ तेजसशरीर ४ कार्मणशरीर ५ .
८ आठवें बोले जोग पदराह १५ । . ४ च्यारमनका
सत्यमनजोग १ असत्यमनजोग २ मिश्रमनजोग ३ व्यबहारमनजोग ४ ४ च्यारबचनका
सत्यभाषा १ असत्यभाषा २ मिश्रभाषा ३ घ्यवहार भाषा ४ ७ सातकायाका
औदारिक १ औदारिक मिश्र २ बैक्रिय ३ बैक्रिय मिश्र ४ आहारिक ५ आहारिक मिश्र ६ कामंण जोग ७ ६ नवमें बोले उपयोग बारह १२ । ५ पांच ज्ञान __ मतिज्ञान १ श्रुतित्तान २ अवधिज्ञान ३ मन पर्यवज्ञान ४ केवलज्ञान ५ ३ तीन अज्ञान मतिअज्ञान १ श्रुतिअज्ञान २ बिभंगप्रज्ञान ३
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( ३४ ) ४ च्यारदर्शण
चक्षुदर्शण १ अचक्षु दर्शण २ अवधिदर्शश ३ वल दर्शण ४ १० दशमें बोले कर्म आठ ८ ___ ज्ञानावर्णी कर्म १ दर्शणावर्णी कर्म २ बेदनी कर्म ३ मोहणो कर्म ४ भायुष्य कर्म ५ नामकर्म ६ गोत्रकर्म ७ अंतरायकर्म ८ ११ इग्यारमें बोले गुण स्थान चौदाह १४
१ पहिलो मिथ्याती गुणस्थान । २ टूजो सादृखादान समदृष्टि गुणस्थान । ३ तोजो मिश्र गुणस्थान । ४ चौथो अव्रती समदृष्टि गुणास्थान । ५ पांचमी देशविरती श्रावक गुगास्थान । ६ छट्ठो प्रमादी साधु गुणस्थान । ७ सातवों अप्रमादौ साधु गुगास्थान । ८ पाठवों नियट वादर गुयास्थान । ६ नवमी पनियट वाटर गुणास्थान । १० दसमो सुनम मंप्राय गुणस्थान । ११ इग्यारस उपशान्ति मोह गणस्थान । १२ वाग्मू क्षीगा मोहनी गुणस्थान । १३ तेरम संयोगी फेवली गुगाम्थान ।
س
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(
( ३५ )
१४ चौदमूं अयोगी केवलो गुणस्थान ।
१२ बारमें बोले पांच इन्द्रियांको तेबीस विषय श्रोतइन्द्रोको तीन विषय
जौव शब्द १ अजीव शब्द २ मिश्र शव्द ३
चक्ष इन्द्रोको पांच विषय
ܬ
कालो १ पौलो २ धोलो ३ रातो ४ लौलो ५ घ्राण इन्द्रोको दोय विषय
सुगंध १ दुर्गन्ध २ रस इन्द्रीको पांच विषय
खट्टो १ मीठो २ कड़वो ३ कसायलो ४ तौखो ५ स्पर्श इन्द्रोको पाठ विषय
हलको १ भारौ २ खरदरो ३ सुहालो ४ लूखो ५
चोपड्यो ६ ठंडो ७ उन्ही ८
१३ तेरमें बोल दश प्रकारका मिथ्याती । १ जीवनें अजीव सरदह ते मिथ्याती २ अजीवनें जीव सरदह ते मिथ्याती ३ धर्मनें अधर्म सरदह ते मिथ्याती 8 अधर्म धर्म सरदह ते मिथ्याती ५ साधुनें असाधु सरदह ते मिथ्याती ६ सोधुनें साधु सरदह ते मिध्याती ७ मार्ग नें कुमार्ग सरदह ते मिथ्याती
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( ३६ ) ८ कुमार्ग ने मार्ग सरदह ते मिथ्याती ६ मोक्षगयांने अमोक्षगया सरदह ते मिथ्याती १० अमोक्षगयांने मोक्षगया सरदह ते मिथ्याती १४ चौदमें बोले नवतत्वको जांग पणों तौका ११५ एकसो पन्दराह बोल
१४ चौदाह जौवकासुक्ष्म एकेंद्रीका दोय भेद:
१ पहिलो अपर्याप्तो २ दूसरी पर्याप्तो बादर एकेन्द्रीका दोय भेद :. ३ तीजो अपर्याप्तो ४ चौथो पर्याप्ती
वेइन्द्री का दोय भेद :
५ पांचमं अपर्याप्तो ६ छट्टो पर्याप्तो तेइन्द्रीका दोय भेद :
७ सातमू अपर्याप्तो ८ आठमूं पर्याप्तो चोइन्द्रौका दोथ भेद:
८ नवमूं अपर्याप्तो १० दशमूं पर्याप्तो असन्नी पंचेन्द्रीका दोय भेद :
११ दूग्वारमू अपर्याप्तो १२ वाग्मं पर्याप्तो सन्नी पंचेन्द्रीका दोय भेद--
१३ तेरमं अपर्याप्तो १४ चौदनं पर्याप्तो १४ चौदै अनौवका भेद :
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( ३७ ) धर्मास्ति कायका ३ तीन भेदः--
खंध, देश, प्रदेश, पधर्मास्ति कायका ३ तीन भेदः
खंध, देश, प्रदेश, भाकाशास्ति कायका ३ तीन भेदःखंध, देश, प्रदेश,
पापा कालको दशमं भेद (ए दश भेद अरूपीछे ) पुद्गलोस्ति कायका ४ च्यार भेदः· खंध, देश, प्रदेश, परमाणु ६ पुन्य नव प्रकारे । अन्नपुन्य १ पाणपुन्य २ लैणपुन्य ७ ३ सयणपुन्य छ ४ बत्यपुन्य ५ मनपुन्य ६ बचनपुन्य ७ कायोपुन्य ८ नमस्कारपुन्य ६
. १८ पाप अठारे प्रकार :-
. प्राणातिपात १ मृषावाद ® २ अदत्तान ३ मैथुन ४ परिग्रह ५ क्रोध ६ मान ७ माया ८ लोभ : राग १० देष ११ कलह १२ अभ्याख्यान १३ पैशन्य १४ परपरिवाद १५ रतिभरति १६ मायामृषा १७ मिथ्यादर्शन शल्य १८ ,
* लैण-जागां जमीनादिक * सयन-पाट बाजोटा दिक * बाद बोलना * पैशुन्य-चुगली
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२० बीस पासवका :
मिथ्यात्व पासव १ भव्रत पासव २ प्रमाद पासव ३ कषाय पासव ४ जोग पासव ५ प्राणातिपात जीवको हिंसा करते भासव ६ मषावाद झूठ बोलते आस्रव ७ अदत्तादान चोरी करते पासव ८ मैथुन सेवे ते भासव । परिग्रह राखे ते आस्रव १० श्रुत इन्द्रो मोकली मेलेते पासव ११ चच इन्द्री मोकली मेले ते पासव १२ घ्राण इन्द्री मोकली मेले ते प्रास्रव १३ रस इन्द्री मोकली मेले ते आस्रव १४ स्पर्श इन्द्री मोकली मेले ते पासव १५ मनप्रवर्ताव ते भासव १६ वचनप्रवविते भास्रव १७ कायाप्रवर्तावे ते पासव १८ भण्डोपगरणमेलताअजयणाकरै ते पास्रव १६ सुई कुसाग्रमाव सेवे ते भासव २० वीस संवरका:सम्यक ते संवर १ ब्रत ते संवर २ अप्रमाद ते संवर ३ भकषाय संवर ४ अजाग संवर ५ प्राणातिपात न करे ते संवर ६ मृषावाद न बोले से संवर ७ चोरी न करे ते संवर ८ मैथुन न सेवे ते संवर ८ परिग्रह न राखे ते संवर १०
अजयणा-पता
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श्रुत इन्द्री बशकरते संबर ११ चक्षु इन्द्री बशकर ते संबर १२ घ्राणइन्द्री बशकरे ते संबर १३ रसेन्द्री बशकरे ते संबर १४ स्पर्श इन्द्री बशकरे ते संबर १५ मन बशकरे ते संबर १६ बचन बशकरे ते संबर १७ काया बशकरे ते संबर १८ भण्डउपगरणमेलतां अजयणानकरे ते संबर १९
मुई कुसाग्र न सेवे ते संबर २० १२ निरजरा बारै प्रकार:
अणसण १ उगोदरौछ २ भिक्षाचरी ३ रसपरित्याग ४ कायालेश ५ प्रतिसंलेषना ६ प्रायश्चित्त ७ विनय ८ वेयाबच्च, सिमाय १० ध्यान
११ बिउसग्ग १२ ४ बंध च्यार प्रकार:
प्रकृतिबंध १ स्थितिबंध २ अनुभागबन्ध ३
प्रदेशबन्ध ४ ४ मोक्ष च्यार प्रकारे :
जान १ दर्शण २ चारित्र ३ तप ४ १५ पंदरमें बोले भात्मा आठ:--
* अससण-उपवासादिक। * उणोदरी कमखानां । * बिउसग्ग-निवर्तवो।
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द्रव्य पात्मा १ कषाय आत्मा २ योग भात्मा ३ उपयोग आत्मा ४ ज्ञान आत्मा ५ दर्शण
आत्मा ६ चारित्र आत्मा ७ वौर्य आत्मा ८ १६ सोलमें बोले दंडक चोवीस २४ :
१ सातमारकीयांको एक दंडक १० दशदंडक भवनपतिका:
असुर कुमार १ नाग कुमार २ सोवन कुमार २ विद्युत कुमार ४ अग्नि कुमार ५ दीपकुमार ६ उदधि कुमार ७ दिसा कुमार ८ बायु कुमार स्तनित कुमार १० ५ पांचथावरका पंच दंडक :
पृथ्वीकाय १ अप्पकाय २ तेउकाय ३ बायुकाय
४ वनस्पतिकाय ५ १ वेदन्द्री को सतरमों १ तेइन्द्री को अठारमों १ चौइन्द्रीको उगणीसमो १ तिर्यञ्च पंचेंद्री को वीसमों १ मनुष्य पंचेंट्री को इकवीसमों १ वानव्य तर देवतांको वावीसमों १ ज्योतषी देवतांको तेवीसमों १ वैमानिक देवतांको चौवीसमो
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१७ सतरवें बोल लेश्या छः ६ :
कृष्ण लेश्या १ नौल लेश्या २ कापीत ने या
तेजुल ज्या ४ पद्म ले च्या ५ शक्ल ले श्या ई १८ पठारमें बोले दृष्टि ३ सौन:
सम्यक् दृष्टि १ मित्था दृष्टि २ सममिथ्या
दृष्टि ३ १८ उगणीसमें बोले ध्यान ४ च्यार:--
पार्तध्यान १ रौद्रध्यान २ धर्मध्यान ३ शक्लध्यान ४ २० बौसमें बोले षट द्रव्यको जांच पयो
धर्मास्तिकायनें पांचा बोला पोलखोजे :द्रव्यथको एक द्रव्य खेवयों लोक प्रमावे काल थको पादि पन्त रहित भावयौ परूपी गुरुयको जीव पुदगलने हालवा चालवाको साभा, अधर्मास्तिकोयने पांचा बोला पोलखोज:द्रव्यथौ एक द्रव्य खेत्रयो लोकप्रमाणे काल थको धादि अन्तरहित भाव यो परूपी गुपथौ थिररहवानों साझा, पाकाशास्तिकायन : पांच बोलकरौ पोलखोजेः-द्रव्यथो एक द्रव्य खेत्री लोक पलोक प्रमाणे कालधी :पादि अंत रहित भाव थौ परूपी गुरधौ भाजन गुण कालनें पांचा बोलां करी पोलखोजे: ट्रस्यों
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( ४२ ) अनन्ता द्रव्य खेत्रथौ अढ़ाई होप प्रमाणे कालथी आदि अन्त रहित भावथौ अरूपी गुणथो वर्तमानगुण पुद्गलास्तिकायनें पांच वोलकरी पोलखोजेः-द्रव्यथी अनन्ता द्रव्य खेवथी लोक प्रमाणे कालथौ आदि अन्त रहित भावधी रूपौ गुण थी गलक्ष मले, जौवास्तिकायनें पांच वोल करी ओलखौंजेः-द्रव्यथी अनन्ता द्रव्य खेचथी लोक प्रमाणे कालथी
आदि अंत रहित भावथी अरूपी गुगायो ___ . चैतन्य गुणे । २१ इकवीसमें बोले राशि २ दोय :-- ' जीवराशि १ मजीवराशि २ २२ बावीसमें वोले श्रावक का १२ वारे व्रत:१ पहिला ब्रतमें श्रावक स्थावर जीव हगावाकी प्रमाण करे और बस जीव हालतो चालतो
हगावाका सउपयोग त्याग करे। '२ दूना व्रतमें मोटको झूठ बोलवाका सउप
योग त्याग करे। .: ३तीजा व्रतमें श्रावक राजडण्डे लोकमगडे - इसी मोटकी चोरी करवाका त्याग करे।
- गले मळे घठे बधेः अथवाः जुदा एकात्र होय ।
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चारे # च । - .
% 99.
१०४ चौथा ब्रतमें श्रावक मर्याद उपरांत मैथुम
सेवा त्याग करे। : ५ पांचमां ब्रतमें श्रावक मर्यादा उपरांत परि
यह राखवाका त्याग करे। .. . .. ६ छट्ठा ब्रतके विषै श्रावक दशौं दिशिमें मर्यादा . उपरान्त जावाका त्याग करे। :७ सातवां ब्रतके विषै श्रावक उपभोग परिभोग
का बोल २६ छाबोस के जिणारी मर्यादा उपरांत त्याग करे तथा पन्दरह कर्मादानको मर्यादा उपरांत त्याग करे।। भाठमा व्रतके विषे श्रावक मर्यादा उपरांत
अनर्थ दण्डका त्याग करे । ६ नवमां ब्रतके विषै श्रावक सामायकको मर्याद .... . करे। १० दशमां ब्रतके विषै श्रावक देसावगासी संबरको मर्याद करे।
श्रावक मोसह करे। . . . १२ बारमं ब्रत श्रावक सुध साधु निग्रंथर्ने . . निर्दोष माहार पाणी आदि चउदे प्रकार - . दान देव। . २३ तेवीसमें बोले साधुजौका मंच महाव्रत:
है
-
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( ४४ ) '. १ पहिला महाव्रतमें साधुजी सर्वथा प्रकारे
जीव हिंसा करे नहीं कगवे नहीं करता .. ' ' भलो नाणे नहीं मनसें वचनसे कायासें । २ दूसरा महाब्रतमें साधुजौ सर्वथा प्रकार
झूठ बोले नहीं बोलावे नहीं बोलता' प्रते भलो जाण नहीं मनसे वचनसे कायासें । ३ तौजा महा ब्रतमें साधुजी सर्वथा प्रकारे
चोरी करे नहीं करावे नहीं करतां प्रते · भलोनाणे नहीं सनसें वचनसें कायासें। ४ चौथा महा व्रतमे साधुजी सर्वथा प्रकारे मैथुन सेव नहौं सेवावे नही सैवतां प्रते भलोजामो नहीं मनसें वचनसें कायासें । ५ पंचमां महा ब्रतमें साधुनी सर्वथा प्रकारे परिग्रह गखे नहीं रखावे नहीं राखतां प्रते
भलोनाग नहीं मनसें वचनसें कायासें । २४ चौवीसमें बोले भांगा ४८ गुणचास :- .
करगा ३ तीन जोग ३ तौनसे हुवे। करण ३ तीनका नाम-कार नहीं कराया नहीं अनुमोदू, नहीं नोग ३ तीनका नाममनसा, वायसा कायसा ।
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पांक ११ इग्यारेको भांगा :- .. .. ____एक करण एक जोगसे कहगां, कर नहीं मनसा, कारू महौं बायसा, करू नहौं । कायसा, काऊ नहीं मनसा, करा नहीं बायसा, कराऊ नहीं कायसा, अनुमोटू नहीं, मनसा, अनुमोटू नहीं बायसा, अनुमोटू नहीं कायसा ।। पांक १२. बाराका भांगा::-- .. . . . एक करण दोयः जोगी, करु नहीं मनसा बायसा, करू नहीं मनसा कायसा, करू नहीं बायसा कायसा, कराड नहीं मनसा बायसा, करा नहीं मनसा कायसा, कराऊ नहीं बायसा कायसा, अनुमोटू नहीं मनसा वायसा, अनुमोटू नहीं मनसा कायसा, अनुमोटू नहीं बायसा कायसा। पांक १३ तेराको भांगा ३ तौन:--- - ''. एक करण तीन जोगसें; करू नहीं मनसा बायसा कायसा, कराऊ नहीं मनसा पायसा कायसा, अनुमोटू नहीं मनसा बायसा कायसा। . पांक २१ को भांगा ::---
दोय करण एक जोगसें, करू नहीं कराऊं नहीं मनसा, कर नहीं कराऊ नहौं बायसा कर नहीं
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कगऊं नहौं कायसा, कर नहीं अनुमोटू नहीं मनसा, करू नहीं अनुमोटू नहीं बायसा, करूं नहीं अनुमोटू नहीं कायसा, कगऊं नहीं अनुमोटू नहीं मनसा कगऊ महौं अनुमोटू नहौं बायसा, कगऊं नहीं अतुमोद नहीं कायसा ।। श्रांक २२ बावीसको मांगा ६ नव :-. . :
दोय करण दोय जोगसें, कर नहीं कराऊ नहीं मनसा वायसा, करू नहीं कराऊं नहीं मनसा कायसा, करू नहीं कराऊ नहीं वायसा कायसा, करू नहीं अनुमाटू नहौं सनमा वायमा कर महौं अनुमोटू नहौं मनसा कायमा, करु नहीं अनुमोटू नहीं घायमा कायमा, करा नहीं अनुमोटू नहीं मनसा यायमा, कगऊ नहीं अनुमोटू नहीं मनसा कायमा, कराऊ नहीं अनुमोदू नहीं वायसा कायसा । प्रांक २३ तेवौसको भांगा ३ तीन :___ दोय करण तीन नोगमें करू नहीं कराऊ नहीं मनसा बायसा कायसा, कर नहीं अनुमोटू नहीं सनसा वायत्रा कायसा, कराऊ नहीं अनुमोद नहीं सनसा वायसा कायसा । शंक ३१ इकतीसको भांगा ३ तीन :
तीन कर्णएक जोगमें, करूं नहीं कराऊ नहीं
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( ४७ ) अनुमोटू नहीं मनमा, करू नहीं कराऊ नहीं अनु. मोटू नहीं बायसा, कायसा।
मांक ३२ बत्तौसको भांगा ३ तौन :- . ., तीन 'करण दोय जोगसें, करू नहीं कगऊ नहीं अनुमोटू नहीं मनसा बायसा, करू नहीं कराऊं नहीं अनुमोटू नहीं मनसा कायसा, कर नहीं कराऊ नहीं अनुमोटू नहीं बायसा कायसा । आंक ३३ तेतीसको भांगी १ एक :----
तीन करण तीन जोगसें, करू नहीं कराऊनहीं अनुमोटू नहीं मनसा बायसा कायसा। . . २५ पचीसमें बोले चारित्र पांच :-' :, :. • “सामायक चारित्र १ छेदोपस्थापनीय चारित २ । “पडिहार विशुद्ध चारित्र.३ सूक्ष्म सांपराय चारित्र • ४ यथाक्षात चारित्र ५.. . .
इति पञ्चीस बोल सम्पूर्णम् ॥ .
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: अथ चौरासी लाख योनि।
सात लाख पृथ्वौकाय ७ सोतलाख पप्पकाय ७ सात लाख वायुकाय ७ सात लाख सेउकाय १. दसलाख प्रत्येक बनस्पतिकाय १४ चौदे लाख साधा रब वनस्पतिकाय २ दोय लाख बेंद्री २ दोय लाख सेंद्रीर दोय लाख चौद'द्रौ ४ च्यार लाख नारको ४ ध्यार लाख देवता ४ च्यार लाख तिर्यंच पंचेंद्री १४ चौदे लाख मनुषको नाति एवं च्यार गति चौरासी लाख नीवा योनि में बारम्वार खमत खामना ।
॥ अथ श्रद्धा उपर सझाय ॥
देशी आरसी को। देव गुरु धर्म शुद्ध चाराध्यां । समकित होवे संत सारसी । यथा तथ्य दिल मांहि दरसावे। जिम मुख देख चारसी। श्रद्धा विन प्रायो अलो जानम
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यूंही हारसी ॥ श्रवा ॥ १ ॥ बरस छवमासी तप बहु कौधा। जघन्य पद नवकारसी ॥ सुर मुख भोग रुल्यो चिहं गतमें। नहीं आयो धर्म बिचारसौ ॥ श्रद्धा ॥ २॥ संका कांक्षा दुरगति लेज्यावे । ते नर टूर निवारसौ ॥ साचौ श्रद्धा जे नर धार। ते नर आतम तारसौ ॥ श्रद्धा ॥ ४ ॥ कुगुरु संगत नर भव हारौ। टुरगत मांय पधारसी ॥ अव भव मांहि रूले चिहुं गतमे। नहीं हुवे छुटकारसौं । श्रद्धा ॥ ५ ॥ पढ़ पढ़ पोथा रह गया थोथा । संस्कृतने फारसी । बिना विचारौ खोटी भाषा बोले । ते किम पार उतारसौ ॥ श्रद्धा ॥ ६ ॥ शुद्ध साधाने आल देइने। डूब गया काली धारसी ॥ कोई शुद्ध साधारौ कौति बोले । ते नर जन्म सुधारसौ ॥ श्रद्धा ॥७॥ शुद्ध साधारो निन्दा कर कर आतम कम उबारसी॥ नरकां नाव महा दुःख पावे। परमा धामी .मारसो ॥ श्रद्धा ॥८॥ इम सांभल उत्तम नरनारी। सौख सतगुरु को धारसी ॥ शुद्ध साधारी कर कर सेवा । आतम कारज सारसौ ॥ श्रद्धा ॥६॥ शुद्ध साधारी सुधौ · श्रद्धा बसला नन्दण सारसी ॥ सुधौ श्रद्धास्यूं शिवगत जायां। आवागमन निवा-- रसी ॥ श्रद्धा ॥ १० ॥ शुद्ध श्रावकरा ब्रतज पालो।
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( ५० ) गत दुःख बिडारसौ ॥ जन्म मरगा जाख मिट वि। पावे सुख अपारसी ॥ श्रद्धा ॥ ११ ॥ मत्सर नाव साधांसं राख। वेगोडू पुन्य परवारसौ ॥ इण भव मांहि निजरा देखो। बिटला हुवे बिकारसौ ॥ श्रद्धा ॥ १२ ॥ गुण विना सेवा करे साधारौ। नहाँ सरे गरन लिगारसौ॥ को हौ या पाचारी भापही डुवे। तिहां तुज केम निस्तारसौ ॥ श्रद्धा ॥ १३ ॥ सुर सुख सवै जे नर पावै। तप कर देही गारसौ ॥ पंच आश्रव परहरो प्राणौ। ममता मनरौ मारसी ॥ श्रद्धा ॥ १४ ॥ तिया तिरे ने तिरसी बोला। नहीं करे पाप लिगारसौ, उत्तम वयग धर शिर ऊपर। ते उतरे भव पारसौ ॥ श्रद्धा ॥ १५ ॥ उगणीस वीस विद चवदस। मास कातिक सुख कारसी ॥ शहर राजगढ़ दिपमालका जोड़ करौ तंत सारसो । श्रद्धा ॥ १६ ॥
* तेग़पंथ ओलखणां की ढाल *
भाप हणें नहीं ग्रागावं, नहीं' कहिनें हणावें हो, हणतांने सलो न चिन्तवै, ऐसी दया पलावै हो सोही तेरामंध पावै हो । १ ॥ के तो मुंन ग्रहोर
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( . ५१ )
है, के निवेद्य गावेही, सावक काम संसारका, तैतो
न चावै हो । सो # २ ॥
जाच्चां बिन
चित्त में एक ढङ्कलो, कग्सूं नांहि उठावे हो, भोगतज्या आमण तणां, मांठी नज़र न ल्यावे हो | सो ॥ ३ रत्न अनें - कवडी भयौं, नहीं रखें रखावै हो, ने जे उपग्रयः जिण कह्या, तिसुं अधिक न ल्यावे हो । सो ॥ ४ ॥ पंच महाव्रत पालता, नव विध शौल मलावे हो, सुमति गुप्त बारह भेदसूं, पूरव, कर्म
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खपावे हो, ॥ सो ॥ ५ ॥ संजम सतरह भेद सुं, रूडोगेत निर्भाव हो, परिशह चायां संग्राम में, सूरा जिस साहमा ध्यावे हो ! सो ॥ ६ ॥ बावन तजे, गुण सत्तावीस पावै हो, दोष बयां-लिस टालके, असग्गादिक ल्यावे हो ॥ सो ॥ ७ ॥
अनाचार
3
न
कान कनागत कार्ये, तिदिशि नहीं ध्यावे हो, ताक २ तेगपंथी, ताजा घर नहीं जावे हो । सो ॥ ८ ॥ निन्दत छेदत ज्यो कोई, ति नांही - रिसावे हो, कोईकेदातादानको, तिवसूं राग यावे हो ॥ सो ॥ ६॥ कमल कादासें दूर रहै, जिस जगमें नांहि लिपावे हो, थामी धानक छांड नें, बासा दूर दिरावे हो ॥ सो ॥ १० ॥ हिन्सा धर्म उडायन, दया धर्म दिपावै हो, निहां २
1
+
-
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जिननी आग्न्या, तिणमें धर्म बतावै हो॥ सो ॥ ११ ॥ सूत्तग्में जिन भाषियो, तेहियो दान दिरावै हो, दान कुपातरनें दीयां, देता आडा न आवे हो ॥ सो ॥ १२॥ वरजगों तो जिहां हो रह्यो मुनि बहिरण जावै हो, देखत सुगत फकौर कों, तो पाछाफिर आवै हो, ॥ सो ॥ १३ ॥ नव तत्व निर्णय नित करै, समकित ने सरधावै हो, मुक्ति नगर मुसकिल घणों, तिणरो मार्ग बतावै हो ॥ सो ॥ १४ ॥ तेरा वचन विमासने सूत्तर सौख सौखावै हो, तिण बयणांसं भर्तमे, भवियगा को चलावै हो ॥ सो ॥ १५ ॥ आप समकित औषधी, वेद भोजन पचावे हो, तेरापंथी वैद ज्यों, धर्म भोजन रूचावे हो ॥ सो ॥ १६ ॥ मैल खोट प्रते काढ़वा, सोनी सोनो तावे हो, ज्यं तेरापंथी परखीया, हृदय न्याय ल्याव हो ॥ सो ॥ १७ ॥ तेरापंथ ओलख्यां माछे टूजो दाय न आवे हो, अमृत भोजन जोसियां कृप्तस कुगारवादे हो ॥ सो ॥ १८ ॥ कहै कथादिवारता, सूत्तर में मिलावै हो, तुज वचनांस नहीं मिले ताकं तुरत उडावै हो ॥ सो ॥ १६ ॥ सूत्र न्यायें पाखंडभगो, भीखनजी बोलखावै हो, तेरापंथ ते धारियो, दया धर्म वतावै हो ॥ सो ॥ २० ॥
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( ५३ ') भौखनजी तेरापंथौ, तिणमें ये गुणपावै हो, प्रभू तेरापंथरा, शोभो गुण गावै हो ॥ सी ॥ २१॥
अथ श्री सोलह सतीनो स्तवन ।
आदिनाथ आदि जिनवर बंदी, सफल मनोरथ कोलियेए प्रभाते उठि मंगलिक कामे, सोलह सतीना नाम लौजियेए ॥ १॥ बालकुमारी जग हितकारी, ब्राह्मी भरतनौ बहनडीए ॥ घट घट व्यापक अक्षर रूपे, सोलह सती मांहि जे बडौए ॥ २॥ बाहु बल भगिनी सतिय शिरोमणि, सुंदरिनामे ऋषभ सुताएं ॥ अंक वरूपी त्रिभवन माहे जेह अनोपम गुण जुताए ॥३॥ चन्दनवाला बालपणेयो, शौयलवंती शुद्ध श्राविकाए ॥ उड़दना बाकुला बौर प्रति'लाभ्या, केवल लही व्रत भाविकाए ॥ ४ ॥ उग्रसेन धुआ धारिणी नन्दनी, राजमती नेम बल्लभाए॥ जोबन वेशे काम नै जोत्यो संयम लेइ देव दुल्लभाए ॥ ५ ॥ पंच भरतारी पांडव नारी, द्रुपद तनया वखाणियेए ॥ एकसो आठे चौर
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परगा शोयल सहिमा तस जा गिटे.ए ॥ ६ ॥ - दशरथ तृपनी नारी निरुपम, कौशल्या कुल चन्द्रिकाए। शौयल मलगौ सास जनेता, पुन्य तगी प्रनालिकाए। ॥१॥ कोशंबिक ठामे संतानिक नामे, गज्य कर ग बाजीयोए ॥ तम घर घरगौ मृगावती सता, सुर भुवने यश गानौयाए ॥ ८॥ सुलसां साचौ शौयल न काची, गचौ नही विषया र सेए । मुखडं जोतां पाप पलाये, नाम लेतां मन उल्ललए ॥ ६ ॥ गम रघुवंशी तेहनौ कामिनो, जनका सुता सीता सतीए ॥ जग सहु जागो धौज करतां, अनल शीतल थयो शौयलधौ ए, ।. १.० ॥ काचे तातो बालगों वांधा, कूवा धकी, जल काढौयं ए ॥ कनक उतारवा सतीय सुभद्रा, चंपा वार उधाडीयं ए ॥११॥ सुर नर वंदित शीयल अखंडित शिवा शिव पद गामनोर ॥ जेहने नामे निर्मल घड़ए, वलिहारी तस नामनी ए ॥ १२ ॥ हस्तीनागपुरे पांड गयनो, कुन्ता नामे कामिनी ए ॥ पांडव माता दसे दमार नो, वईन पतिव्रता पद्मिनी ए॥ १३ ॥ गोयलवती नामे मौतव्रत धारिगी, विविधे तेहन वदीये ए॥ नास जपंता पातक जाए, दर्शगा दुरित निकंदीय ए ॥ १४॥ निषधानगरी नलह नरिंदनी, दमयंती तस गहिनी ए॥ मंकट पड़तां शीलयज गग्यु, त्रिभुवन
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कौति अहनो ए ॥ १५॥: अनंग अजिता जग जन पूंजिता, पुष्यचुला ने प्रभावती! ए ॥ विश्व विख्याता कीमित दाता, सोलमी सती पद्मावती ए ॥१६॥ वोर भाखौ शास्ले साखी, उदय रतन भाखे मुदाए ॥ वहागा वाहतां जे नर भणशे, ते लेश सुखसंपदाए ॥१७॥इति॥
जयाचाय कृत.. श्रीभिखणजी स्वामीके गुणाकी ढाल ।
नन्दण बन भिक्ष गणमे बमोरी। हेजौ प्राण नाव तोडू पग म खौसोरी ॥ नन्दगा ॥१॥ गण मांहि ज्ञान ध्यान शोभेरौ। हेजी दीपक मंदिर मांहे जिसोरौ॥ नन्दण ! २॥ अवनीतको देशना न दौपेरौ। हेजी गणिका तणे शिणगार निसोरी॥ नन्दगा ॥३॥ टालोकड़री भणवो न शोभेरी । हेजी नाक बिना, ओतो 'मुखड़ो जिसोरौ॥ नन्दण ॥ ४ ॥ दुःखदादू खुद्र जोवाः सरौषोरौ। हेजी नंदक टालो कड़ बमण, निसोरौ ॥ नन्दण ॥ ५ ॥ शासण में रङ्ग रत्ता रहोगे। हेजी सुर शिव पद मांहि बास बसारौ॥ नन्दण ॥ ६ ॥ भागबले भिखु गण पायोरी। हेजी रतन चिंतामण पिणं न इसोरौ ॥ नन्दण ॥ ७ ॥
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गगापति काप्यां गाढ़ा रहारौ । हेजी समचित शामगा मांहे हुलसोरौ ॥ नन्दण ॥ ८॥ भाड डोड चित से स आगोरी। हेजौ मोह कर्म गे तज दो न मीरा ॥ नन्दगा ॥६॥ खल खोलास्यांरा याद करी रौ। हेजो अचल रहो पिगा मतिरे सुसारी ॥ नन्दप ॥ १० ॥ बार वार सुं कहिय तुनेरी। हेजी अडिग पगो येती गणमे वतारौ ॥ नन्दगा ॥ ११॥ उगगीसे गुणतीस फागुगागे। हेजी जयजश आगामें सुख विलसोरी ॥ नन्दगा ॥ १२ ॥
RECENER " श्राचार्य गुण माला। RECAREFREEEKC
6 कवित हंस ज्यूं प्रकाश कर मिथ्याध्वांत मेट गणि,
पापंड के छोड़ जिन आगा सिरधारी है। साजा अगामाज्ञा दया दोन सहु गोलखाय,
बताव्रत मुद्ध नव तत्व सुविचारी है। सस्यता ममाय जिन शासनको दृढ़ कर,
वांधी मर्याद चिहु तीर्य हितकारी है।
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( ५७ ) पंचम आरके मांय भव्य जन ताग्नको, ।।
प्रगट्या उजागर श्री भिक्षुगी सारौ है ॥ १ ॥ हस्व वय मांय निज मात पिता छोड़ कर,
भिक्षु गौ पास लियो चरण सुख धामी है। न्याय नौत निपुण , विलोक गणौरान पद,
• दियो हद कियो जिन शासनमें नामी है। मुक्ति वधू लेवा चित्त हूंस दिन ग्रात लगी,
.. प्रवल प्रतापी दक्ष नाथ शिवगामी है। गुणको समंद ताय पार गुरु पावै नाय,
ऐसी सुख साज गणो दीर्घमाल खामी है ॥२॥
..॥ सवैया
....."
शासन बोर जिनन्द तणे .कर्म फंद मिटावण सारंग धारी। ___ ज्ञान क्रिया उजवाल गणाधिप, -. ::... पाषण्ड : जकुं पेलणहारी।
__ वाण सुधा बरषाय भविजन, ... ... .... .... बोध पमाय कियाः ब्रतधारी। ___ लोक उद्दार कियो अधिको, .....। ' ... ... एहवो गणो राय शशि ब्रह्मचारी ॥३॥
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श्री जिनराज तणे पट छाजत,
राजत खाम उजागर सारौ। उचल कौत फवे जगमें,
वर प्राज महा पुन्यवंत उदारौ। धर्क जिसी अवतार भयो,
जन पंकज कुं विकशावनहारौ। प्रात समय उर नास ग्टूं,
नित माहय जीत सदा जयकारौ ॥४॥
॥ कवित ॥
विनय विवेक वर विमल विनीत वारू,
पण्डित प्रवीण नाण युगपद दियोजी। विड़द महेश ज्यूं सुरेश ज्यूं प्रत्यक्ष दीपै,
चर्म मिन आणारूप वच्च कर लियोनी। क्रान्ति मान लपन रतीश ज्यूं पधिक सोहै,
अविचल चंचु मन हर्षे अति पियोगी। गुणको गम्भीर नाण जौत गणो कृपा कर,
मघवा सुनिनें वेद तीर्थ नाथ कियोनी ॥५॥ सर्व तुग योग्य गयौ पाखंउल पेय करी,
सरल भद्रीया पुन्यर्वत मन भायोजी।
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( ५६ )
गिरा घन वर्षी जिम प्रौष्ट झड़ मण्डी बाज,
भवी मन सांभल श्रानन्द अति पायोनी
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सभामें जिनन्द ज्यूं सुरिन्द ज्यूं गणिन्द दोपे,
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मानुं उडुगण में ज्यं चंद मुख दायोजी । कहै मुनि अष्टापद कैसे मैं बनाय कहूं,
माणक ना गुणाकरो पार नहीं पायोजी ।
॥ सवैया ॥
बाल पणें तज ओक भये,
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वर साधु महाव्रत पांडवधारी
योग्य भणे दुनियां मुखसे,
कहै नाथ रहो तुम आनन्दकारी ।
सूर्य गतौ भ्रम रूप अपाटव,
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मेट दियो चित्त में हुंसियारी
तेज प्रताप दिप्यो अधिको,
एहवो गयी डाल महा सुखकारी ॥ ॥ परबत पाट मुनेश जिनेश,
दिनेश सुरेश तरेश ज्यं सोहै ।
प्रेम चकोर निशापति पेखत,
तेस भवो गणो चानन शोधै ।
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उत्पतिया बुधि लायक लायन्न
मेख अवी सन हर्षित होवै।। शासग शोल चढ़ाय करी, .. .
वर काल गणोश भवौ मन मोवै ॥८॥
श्रीकालूगणीके गुणाकी ढाल ।
कवित वीड़ मारवाड़हुक खेडू मेदमाटहुने, कडू देश मालव के सुकृत विभागी है। केद् हरियानके ढंढारक थलोदी क्षेतू, मच्छ गुजरातहुके धर्म अनुरागी है। श्राविक वो श्राविका लाये पर्दे पंकजमे हर्ष हर्ष शये चित्त स्वाम लिव लागौ है। सोहन कहत सर्व सूरति निहार तेरी, काल गणधारौ तूं तो सखर सौभागी है। ! . ; ॥ ढाल १ ली ॥ सपने मोलाकी में योगन बनूंगी योगन बनूंगी ।
वैरागन बनूंगी अ० ( भैरवी) खास चरन मेरो शोश धगा, गोश · धरूगा से सुति बन्गा हाम ए बाड़ी॥ श्रादनाथ जिम
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आद करैया, भ्रम हरैया भारौ ।। पाखंड दमन रमन जिन मतमे, भिक्षु भये अवतारौ ॥ मैं शीश धगा ॥१॥ जिन अाज्ञा सिर धार गछाधिप, सौमा बहु बिंध बांधी। जन प्रतिबोधौ स्वर्गमिधाया, साठे, अनसन साधौगा।। सिद्ध पाट गह घाट थाट कर, गुण मणि माट दयाल । छोगां नन्द चन्द, जिम शीतल, भवि,पंकज बिकसाल ॥ में पाया परूगा लूल नन्दक: मैं माया पलंगा।। पाय पारगा-मैं शौश धरूंगा स्वाम चरण ॥३॥, गिरा अपूरख धाराधर सम, बरषावत गेनधारौ। उन्मूलत बंबल कुमिथ्या, सिंचत गनबन क्यारी ।। मैं पाय० ॥ ४ ॥ काप रोप कर कौति तिहारी, फेलो. जक्ता मझारौ। जैसे जल बिच तेल विंदुवो, दुग्धः मध्य जिम वारी ।। ५॥ ग्रहण सूर शशि बेग तेग धर, गमन करत गरानारी। बश नहिं आवौ तब दे दोन बैठे हाथ पसारी ॥६॥ इन्द्र कहै, ए जगको लछौ; लोक कहै इन्द्रानी। संशय हरन कहै जानौ ए, काल कौरति जानौ ॥७॥ जश, मामो ए तेरो कौरति, भखी रहो. ध्रुवतारी। चिरंजीवो प्रभु कोटि दिवारौ, अरजी. एह हमारी॥८॥ शुभ बत्सर शर, अश्व तपासित, सप्तमी उत्सव मेरा। चतुर गढ़में चतुर चंग चित, ,सोवन हर्ष घणेराः ॥,मैं. पाय परूंगा ॥ ६ ॥ इति ॥ .. ..
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॥ ढाल । पाह २ खुब खुली है गोरे तनपर कालो चुन्दड़ी वाह २ सीताफे
खोलेमें हणुमन्त न्हाखी मुन्दड़ी (एदेशी) सनडो लाग्वाही अन्नदाता आपर नाम में नौ। हामा कर मुज ने ले चालो शिवपुर धाममे जौ ॥ मैंती धरज कर शिर नामी। अवता श्रवण करो तुम खामी । टोल न बिजे अंतरयामौ ॥ ए मांकड़ी ॥ श्रीभिक्षु बसु पारे ओपतायो । ए तो गणिवर गुणनिधि कालू। निशदिन रस काया प्रतिपालु, दिन उडारण परम दयालु ॥ मन १॥ जननी छोगां कुचे जनमियाजी। वप्ता सूल शशी सुत निको, वारु कोठारी कुल टोको, शहर सखर छापुरगढ़ तीखो॥ २॥ लघुवय माता साथे संजम लियोजौ। उदाम जान छान वर कौधो, वारु समय वांच रस लोधो, डालगगि लख गणपद दोषो । म० ३ । वरपत वाणी सघन सुहामणोजी । बहु विध सनवंछित मुखकरणी, पातो पाप पंक परहरगी, चित घर सुनत तास दुःख टरणी ॥ ४ ॥ कीर्ति वेती फोलो दशों दिशाजी, ग्रहण पुरिन्दर निन वधु रहेलो, ते पाहै सम मति में चाल सहेली, तिहां आपां रमस्यां दिक्षु भेलो ॥ ५ ॥ कार्ति वोलौ संतो सोलो पुरंदरीह, मैं तो तुम साधे नहीं पावं, महो निश
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( ६३ । सुमति संग सुख पाएँ, गणपति छांड किहां नहौं जावं ॥६॥ सुण इन्दराणी बदन कुमलावखोजौ, आवौ पतिने एम प्रकाशे सेतो नहीं आवे तुम पासे, दम सुण हरि थयो अधिक उदासे ॥७॥ प्रभुता इन्द्र तणी पर पापरौजी, शीतलता शशिहर सम जानौ, कंठ रजत साग्द सुखदानो, पागो विष कमला लहगणी ॥८॥ निशदिन बंछा तुम दरशण तणोजी, लाग रहो मुझ तनमन मायो, दिवस गिणत हिवे दरशन पायो, आजतो हूं बड बखत कहायो ॥ ६ ॥ तुम गुण सिंधु मुझ मति विवोजी। मैं तो पार कदे नहीं पाऊं, पिण निज मननो हंस पूराऊ, किंचित गुणकरी तोय रिझाऊं ॥१. ॥ युग मुनि वत्सर सुचि कृष्ण अष्टमीजी। पायो सोहन शरण तिहारी, मस्तकः कर धर द्यो रिझवारी, प्रमु अपनो विरुद विचारो॥११॥ .. ..
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- अथ जिन कल्पी साधुकी.
हाल लिख्यते।
जिन वाल्यौ कष्ट उदैरिने लेवै। परिसाहा सहै सम परिगासोर ।। आक्रोश विविध प्रकारना उपजै । तो उदेवि न जावे तिण ठामोरे ॥ शूरां वीगंरी सोशुद्ध मारग ॥ १॥ मास मास खमगा कोड करे निरन्तर । इतरा कर्म कटे एक छिनमेंरे ॥ वचन कुवचन सहै सस भावे । “राग द्वेष न आगो सुनि मनसेरे ॥ शू० ॥ २॥ मास सवा नव जीव रह्यो गर्भमेरे । तो ए दुःख कितरा दिनकार ।। एम विचार सह मसभावे। शूर मुनि द्रढ मनकारे ।। शू० ॥३॥ नाभ अलाभ सहै ममसावे। बले जीतव मरण समानोरे ॥ निन्दा स्तुति मुख दुःख समचित। समगिगो मान अपमानोरे ॥ शु० ॥ ४ ॥ वाइस लेतीस मागर तांड। जीव वसियो नरक मझारो ॥ तो किंचित टुःखस्यूं मुंदलगिरी । एम विमासे अण
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गारोरे || शू० ।। ५ ॥ मेघ सरिषा मोटा मुनिश्वर । कियो पादुप गमण संथारारे ॥ खोलो में नौव छतां तन त्याग्यो । एक मास पहली गुण धारोरे ॥ शू० || ६ || सालिभद्र में घनें सरोषा । ज्यांरो मुख माल तन श्रोकारे । त्यांपिण मास मास खमण तप कौधा । बले पादप गमा संथारारे ॥ शू० ॥७॥ रोग रहित तीर्थंकरनो तन । ते पण लेवे वाष्ट उदिरोरे ॥ तो सहजांही रोगादिक उपना आइ । तो समा परिणामां सहै शूर बौरोरे शू० ॥ ८ ॥ इत्यादिक मुनि हामों देखो । से कष्ट पड्यां नहीं काचारे || अल्पकालमें शिव सुख पायें। शूर शिरोमणी साचारे || शू० ॥ ६ ॥ नरकादिक दुःख तिब्र बेदना | नौव सहि अनन्तौ बारोरे ॥ तो किंचित बेदना उपना महामुनि । सहै आणी मनं हर्ष अपारोरे ॥ शू० ॥ १० ॥ ए बेदना थौ हवै कर्म निर्जरा ए बेदना थौ कटै कमेरे ॥ पुन्धरा घाट बंधे शुभ जोगे । बले हुवे निर्जरा धमेरे || शू० ॥ ११ ॥ समचितबेदन सुखरी कारण । एबेदन कट कमेरे ॥ सुर शिवना सुख लहै अनापम । बले हुवै निर्जरा धर्मोरे || शू० ||१२|| समभावे सह्य होवे निर्जरा एकंत । असम भाव सह्य होवे पाप
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( ६६ ) एकतार ॥ ठाणा अंग चौधे ठाणे श्रीजिन भाष्यो। दूस जाणौ समचित सहै संतरि ॥ शू० ॥ १३ ॥
उति सम्पूर्णम् ।
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॥ अथ अनाथी मुनिको स्तवन ॥
राय श्रेणिक बाड़ो गया। दौठो मुनि एकंत । रूप देखो अचरज घयो। राय पृछरे कुण वृतान्त । श्रेणिक राय छ रे अनाथी निग्रंथ । मेतो लोधोरे साधुजी रो पन्ध ॥ श्रेणिक ॥ १॥ कोसम्वी नगरी हुंती। पितामुज प्रवल धन ॥ पुत्र परवार भर पूरस्यूं तियरो हूं कुंवर रत्तन ॥ श्रेणिक ॥ २॥ एक दिवस मुन बेदना उपनी। मो स्यूं खमियन जाय । मात पिता या घणा। न सक्यारे मुज बेदना वंटाय । यिक ॥ ३॥ पिताजी म्हारे कारणे । खुरच्या वहोला दाम ॥ तो पिया वेदना गई नहीं। एहवोरे भघिर संसार । श्रेणिक ॥ ४ ॥ माता पिण हार कारणे। धरती टुःख भधाय । उपावतो लिया घया। पिण म्हरिरी मुख नहीं थाय । थेगिक ॥ ५ ॥
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बन्धु पिश म्हारे हुंता। एक उदरना भाय । औषध तो बहु विध किया। पिणं कारौ न लागी काय । श्रेणिक ६ ६ ॥ बहिनां पिण म्हारे हुंती। बड़ी छोटी ताय । बहुविध लूण उवारतौ पिण म्हारेरे सुख नहीं थाय ॥ श्रोणिक ॥ ७॥ गोरड़ी मन मोरड़ी। गारडी अबला घाल। देख बेदना म्हायरी न सकोरे मुझ बेदना बंटाय ॥ श्रेणिक ॥८॥ अांख्यां बहु
आंसु पड़े । सिंच रहो मुझकाय ॥ खाण पाण विभूषा तजौ। पिण म्हारेरे समाधी न थाय । श्रेणिक पER प्रेम बिलुधी पदमणौ। मुझस्यं अलगी न थाय ॥ बहुविध बेदना मैं सही। बनिता रहौरे बिललाय ॥ श्रेणिक ॥ १० ॥ बहु राजबैद्य बुलाविया। किया अनेक उपाय । चन्दन लेप लगाविया। पिण म्हाररे समाधी न थाय ॥ श्रेणिक ॥ ११॥ जगमें कोडू कियारो नहौं। तब मे थयोर मनाथ ॥ वितरागीर धर्म बिना। नहीं कोरे मुगतिरो साथ ॥ श्रेणिक ॥ १२ ॥ बेदना जावे मांहरौ। तो लेऊ संजम भार ॥ इम चिन्तवतां बेदना गडू प्रभातेरे थयो अणगार । श्रेणिक ॥ १३ ॥ गुणा सुग राजा चिन्सवे।' धन एह अणगार ॥ राय श्रणिक समकित लौवौ। वान्दी पायोरे नगर मझार । श्रेणिक ॥ १४॥ अनाथी
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जीरा गुगागांवतां ॥ कटे कसींगै कोड़। गुगा सुग्ध सुन्दर इस मणे । ज्याने बन्दुरे बेकरजोड़। अंगिक । १५ ॥
श्रावक शोभजी कृतश्रीमिर्गणिके गुणाकी ढाल ।
मोटो फंद इण जीवरे। कनका कासगी दोय । उलझ रह्यो निकल सकं नहौंरे। दर्शागे पड्योरे विछोय ॥ स्वामीजीरा दर्शण किग विध होय। १॥ कुटम्ब ऋद्धिस्यं राचियोर । अन्तराय सुजोय । मंगलीक दर्शण श्रीपूज्यनारे। मुगत पहुंचावे सोय
स्वा० ॥ २॥ संसाररो सुख दुःख भोगव्यारे । कर्म तगो वंध होय । दर्शगा नन्दण बन जिसोरे। कर्म चिन्ता देवे खोय । खा० ॥ ३॥ दान दया बोध वौजनेरे। हिरदै मे दौज्यो पोय । परदेशां गुगा विन्तरे। ज्यं मोनेसें रत्तन बड़ोय ॥ स्वा० ॥ ४। चोरी जारी आद योगगा तनोरे। इगा भव परसव दोय ॥ रबर दी पुरव भय तौर। श्रीपूज विना कुपा पुगोय । खा० ॥ ५ ॥ माचे मोतीज्यूं
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धायक श्रीपूज्यनारे। हिरदै में लौग्यो पोय । ज्ञान सागर आयां बिनाएँ। जौव मैल किम धोय ॥ खा० ॥ ६ ॥ सोमं दर्शण श्रीपूज्यनारे । हिग्दैमे लोज्यो पोय ॥ सागर ज्य' गुण पूजनारे । गागर ज्य केस टालोय ॥ स्वा० ॥ ७॥ गुण बिना दर्शण भेषनारे। 'कर २ दूबे सोय ॥ पूज बिना दर्शगा किंरा करे। आप समा नहौं काय ॥ खा० ॥ ८ ॥ पाषण्ड जाडो दूण भरतमें रे। भिक्षणजी दियो रे बिगोय ॥ भिनो चौरज्य जुवान मरोड़नेरे ज्य चरचा में लियारे निचोय ॥ खा० ॥६॥ धुवों अमर घासनोंरे। कस्तुरी संग लिपटोय । ज्यचित दर्शण- माहेरो। आप दूसो लियोजी मनमाय । स्वा० ॥ १० ॥ मौन काद में तड़ फेडरे। कद मिलसी मुभा तोय ॥ ज्यूं तड़ फड़े तुज श्राविकारे । कमल जैम कमलोय । खा० ॥ ११ ॥ कृषणोरो मन मेहथौरे ।, बादल बरसे सोय। पपईया मोर पुकारतो । ज्यू ग्ई बाट रह्या सर्व जोय ॥ खा० ॥१२॥ दशगा श्रीजी टुवारमेरे । सेवक दीपक जोय ॥ भाण भलो जद अगसौ। शोभो चरणा स्यू कमल लगोय खा० ॥ १३ ॥
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( ७० )
आयुष टूटोको सान्धो को नहि रे को ढाल |
प्रायुष टूटी को सान्धो को नहि रे, तिग कारण मति करो प्रसाद रे । जरा आयाने शरणो की नहिरे, हिंमा टालो ने धर्म सम्भालने ॥ ० ॥ २॥ कुटुम्ब कषौलो जारौ कारगेरे, मत करो कोई जाड़ा पाप । वोग्तयो परै सन्ध्या ग्सी रे, पूर्वभव घणो सहसो सन्ताप रे ॥ ० ॥ २ ॥ धनगडियो लहिनो रह्यो लोक में रे, जागे पोता लग टू बताय रे । नोभघौ नघौ भावे उतो बोलनो ग े, रही हूंल मनसांरी मन मांयर ॥ ० ॥३॥ ऊंचा चिगाया मन्दिर मालिया , दे दे नमों में अंडी नीव मे । इकदिन ऊभा छोड़ी घालसी र, मुखदुःख सहसी अपनो जीव रे || आ० ॥ ४ ॥ चक्रवर्ती हलधर राया केशवा रे, इमि बली इन्द्र सुगंगे नाथ उगमिने २ सगला आथस्यां र े, जोयनो का अवरन वाली बात े ॥ ० ॥ ५ ॥ जुगलियांरे तीन पत्योपसनो आयुपोरे लाम्बोज्यांगे तीनकोस कायरे । मल्पच पूरे ज्यांने दशजातनारे, बादल जिम गया विलाय र ॥ चा० ॥६॥ भगवन्त चौबीसवां श्रीवईमानजी रे, शक्रेन्द्र बोन्यो इसड़ी बात रे । स्वामी दोयबड़ी पाने वधारलोर, निमिष्ट भस्मग्रह टल
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( ७१ )
जायरे || आ० ॥ ७ ॥ बलता श्रीवीर जिनेन्द्र इसड़ी
कहै र े,
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सुन
शक्रेन्द्र माहरो बाय रे । तीन काल में बात हुई नहौर, आयुषो बधारियो नहि जायर ॥ आ० ॥ ८ ॥ अस्थिर संसार जागी मुनि तन नौसस्यार', करता मुनि नवकल्पो विहार रे । भाग्डपक्षीनी दौ ज्यांने उपमार, नधरैमुनि ममता नेह लिगा | आ॰ ॥ ८ ॥ चारित्र पाले रूडी रोति सूं र े, देवे बलौ अपनो छन्दा रोक र । तुरत विराजे मुनि मुक्ति, यश लहै, इहलोक परलाकर | मा० ॥ १० ॥ शब्द रूप देखिने समता करो रे, मत करो कोइ भणियांरो अभिमानरे । चोथ ऋषिजी कहै शहर जालोर में र, सूव होज्यो निस्तार रे ॥ ११ ॥
थी. मुझ
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अथ मुक्ति जानेकी डिग्री ।
* दोहा * सौर्घङ्कर, महावीरने, कौशल गणधर साज- 1
कानून प्ररूप्या है दया, सब जीवन - हित काज ॥ १ ॥ दान शौल तप भावना, असल खुलासा सार । जिन पुरुषां धारण किया, पहुंचा मुक्ति संभार ॥ २ ॥
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चौदह महस्र साधु हुए. आर्वा कत्तीस हजार । लाखां श्रावक श्राविका, पाया भव नल पार ॥ ३ ॥
. चाल होर रांझेके ख्याल को।
मेरी अदालत प्रभुजी काजिये, जिन शासन नायक सक्ति जागोजी डिग्रौ दीजिये। (जि. टेक) -खुद चेतन मुद्दई वना है, आठों वार्म मुद्दाइला। दावा गम्ता मुक्ति सागका, धोखा दे जाय टालाजी। जि. ॥ १॥ तप नागद स्टाम्प लिखाया, तलवाना क्षमा विचारौ। सिझाय ध्यान मजलून बनाकर, अर्जी मान गुनासैनी। जि० ॥ २ ॥ मैं जाता था मुक्ति मार्गमे, कर्मों ने प्राय घेरा। धोखा देकर गह भुलाया, लूट लिया सब डेराजी। जि० ॥ ३ ॥ बहुत खराव किया कर्मोने, चौरासीक मांहो। दुःख अनन्ता पाया मैंने, भन्त पार कछु माहौजी। जि० ॥ ४ ॥ सझे मिले वकील काननी, पंच महाव्रत धारी। सूत्र देख ससौदा कीन्हा, तब मैं अर्जी डारीजी। जि. ॥ ५ ॥ पांच सुमति तीन गुप्ति ये, पाठों गवाह बुलायो। शौल पसल है बड़ा चौधरी, उसको पूछ मंगायो नी । जि०६॥ अर्नो गुनरी चेतन तेरी, हुया सफौना जारी। हाजिर भायो जवाव लिखायो,
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लामो सबूती सारौजी। जि. ॥ ७॥ पाठों मुद्दाडूलह हाजिर आये, मोह मुख्तार बुलाये । चार कषाय अरु आठ मदोंको, साथ गवाहीमें लाये जौ। जिन शासन नायक झूठा दावा है चेतन जीवका ॥८॥ हमने नहौं बहकाया इसको, यह मेरे घर आया। कर्जा लेकर हमसे खाया, ऐसा फरेब मचायाजी । जि० ॥ ६ ॥ विषय भोगमें रमिया चैतन, घाटा नफा नहीं जाना। कर्जदार जब लारै लाग्या, तब लाग्या पछतानो जी। जि० ॥ १० ॥ हाजिर खड़े गवाह हमारे, पूछिये हाल जु सारा। विना लियां कर्जा चेतनसे, कैसे करे किनाराजी। जि० ॥ ११ ॥ चेतन कह सताबी मांहों, सुन शासन सरदार । ईमानदार हैं गवाह हमारे, जाणे सब संसारजौ। जि. ॥ १२ ॥ मैं चेतन अनाथ प्रभुजी, कर्म फरेबी भारी। जीव अनन्ते राह चलतको, लूट चौरासीमें डाराजौ । जि. ॥ १३ ॥ बड़े बड़े पण्डित इन लटे, ऐसा दम बतलाया। धर्म कहा अरु पाप कराया, ऐसा कर्ज चढ़ाया जौ। जि० ॥ १४ ॥ हिंसा मांहों धर्म बताया, तपस्या सेतो डिगाया। इन्द्रिय सुखमें मग्न करीने, झूठा जाल फैलाया जौ। जि० ॥ १५ ॥ ऐसा करो इन्साफ प्रभुजी, अपौल होने न पावे। हक्करसी चेतन
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(०४ ) को होवे, जन्म मरण मिट जावे जौ। जि० ॥ १६ ॥ जान दर्शन करी मंसफी, दोनोंको समझाया। चेतनकी डिग्री करदौनी, कर्मों का कर्ज बतायाजी । जि. ॥ १७॥ असल कर्ज जो था कर्मों का, चेतन सेतो दिलाया। शुद्ध संयम जब करी जमानत, आगेका सूद मिटायानी। जि० ॥ १८॥ आश्रव छोड़ संबरको धागे, तपस्या से चित्त लाओ। जल्दी कर्ज पदाकर चेतन, सीधा मुक्तिको जाओजी । जि० ॥ १६ ॥ शुद्ध संयम जद करी जमानत, चेतन डिग्रौ पाई। फाल्गुन सुदि दशमी दिनमंगल, संवत् उगगोस अठाईनी। जि० ॥ २० ॥
करणी हो कीज्यो चित्त निर्मले की ढाल ।
भव्य जीवा आदि जिनेश्वर विनऊ, सतगुरु लागू पाय । भव्य जीवा मन वचन काया वश करो, छाण्डो चार कषाय। भव्य जीवा करणी हो कीज्यो चित्त निर्मले ॥ १ ॥ ( आंकड़ी ) भव्य जीवा मनुष्य नमारो दोहिलो, सूत्र मुगवो सार । भव्य जीवा साची श्रद्धा दोहिली, उत्तम कुल अवतार। ५० ॥ २॥ भव्य
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जीवा मोह मिथ्यावरी नौंदमें सूतो काल अनन्त । भव्य जीवा जन्म मरण युग पूरियो, ज्ञान बिना नवि अन्त । भ० ॥ ३॥ भव्य जीवा सिकियो दूण संसारमें, ज्या भड़भूजारो भाड़। भव्य जीवा निग्रन्थ गुरु हेला दिये, अबतो आंख उघाड़। भ० ॥ ४ ॥ भव्य जीवा नरक तणो दुःख दोहिलो, सुणतां थड़हड़ थाय । भव्य जौवा पापकर्म एकठा किया, मार अनन्ती खाय भ० ॥ ५ ॥ भव्य जीवा चन्द्र सूर्यरो दर्शन नहीं, दौसे घोर अन्धार। भव्य जीवा न्हासणनै सैरी नहीं, जहां देखे जहां मार । भ० ॥ ६ ॥ भव्य जीवा अन्धी जीमण रातरो, करतां जीव मराय । भव्य जीवा भोभर विष्ठा जेहने, चांपे मंढा मांय । भ० ॥ ७॥ भव्य जीवा परमाधामी देवता, ज्यांरी पन्द्रह जात। भव्य जीवा मार देवे एकण जौवने, करै अनन्तौ घात । भ. ॥८॥ भव्य जीवा अर्थ अनर्थं धर्म कारणे, जल टोल्यो बिन ज्ञान। भव्य जौवा बाहिर शुचि बहुला किया, माहें मैल अज्ञान। भ० ॥६॥ भवा जीवा वैतरणी लोही राधनी, तिगरी तौखो नौर। भवा जीवा तिणने डुबाब हमें, छिन छिन हाय शरीर। भ० । १. भवा जौवा ढांढा ज्यों चरतो सदा.
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छेदतो, दया न आणी लिगार । भ० ॥ ११॥ भवा जीवा वृक्ष तहां कूड़ सांभली, तिणरे वैसाणे छाय । भवा जीवा पान पडे तरवारसा ट क ट क होय जाय । भ० ॥ १२ ॥ भवा जीवा धन्धामे खूतो रहे, जूती घरी भार । भवा जौवा लोह तणे रथ जोतरे, धरती धूप अंगार । भ० ॥ १३ ॥ भवा जीवा परनी छाती दाहदे, चोख्या वित्त बहुवार। भवा जीवा धन खाधो कुट म्बिया, सहे एकलो भार। भ० ॥ १४ ॥ भवा नौवा हाथ पांव छेदन करे, नाखे अंग मरोर। भवा जौवा पुकार करे किण आगले, वहां नही किणरो नोर। भ० ॥ १५ ॥ भवा जौवा रङ्गरातो मातो फिरे परनारी प्रसङ्ग। भवा जीवा अग्निवर्णी लोह पुत्तली, चैढे तिगरे अड्ग । भ० ॥ १६ ॥ भवा जीवा पाप कर्म बोहला किया, कर कर मनरो जोश । भवा जीवा वोले परमाधामो देवता, किमो हमारी दोष । भ० ॥ १७ ॥ भवा जीवा क्षण जीतवा सुख बंछवा, सागर पल है मार। भवा नौवा विन भुगत्यां छूटे नहीं, अर्ज करै वारम्बार । भ० ॥ १८॥ भवा जीवा क्रोध मान माया लोभमे, छकियो वह्यो अन्याय । भवा जीवा सोध श्रावक वल्या, देतो धर्म अन्तराय । भ.। १६॥ भवा जीवा जीव ही धर्म जाणियो,
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( 99 )
सेवा कुगुरु कुदेव । भवा नोवा निग्रन्थ मार्ग नवि बोलख्यो, ताणौ कुलरोटेव । भ० ॥ २० ॥ भवा जीवा कपट करो धन मेलियो, चाड़ो चुगली खाय । भवा जौवा अभक्ष्य भक्ष्या जौवने हो, न पालो छ: काय । भव्य ० ॥ २१ ॥
* अन्तर ढाल *
( समझू नर विग्ला देशी )
केई लोग मिथ्यात्वा त्यांने नहीं ज्ञान, वले पूरो नहीं विज्ञानरे । समझू नर विरला । ( आंकड़ो ) ॥ आज दोय तीर्थङ्कररै झगड़ो लागो, तेता श्रावस्ती नगरौरे वागारे || स० ॥ १ ॥ ये दोनों माहामांहों बादमें बोले, एक एकरा पड़दा खोलेरे । स० ॥ वीर कहे म्हारो चेलो गोशालो, मोसूं मतकर झूठी झकालोरे । स० ॥ २ ॥ गोशालो कहे हूं थारो चेलो नाहीं, तैं कूड़ी कथौ लोकां मांहौरे । स० ॥ मैं तो साधपणेो थां आगे नहीं लौधा, मैंतो गुरु तोनै कदेय न कोधारे । स० ॥ ३ ॥ वौर कहे गोशालो तीर्थङ्कर नाहौं,
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(०८) तीर्थकरना गुण? मी माहोरे । स० ॥ गोशालो कहे हूं तीर्थंकर शूरो, ओतो काश्यप प्रत्यक्ष कूरोरे। स० ॥ ४ ॥ वीरने सम्मुख कह्यो गौशाली, तंतो भो पहिलो करसौ कालोरे । स० ॥ जब वौर कहे सुणरे गोशाला, करसौ तूं मा पहिलो कालोरे । स० ॥ ५ ॥ पाप आप तणा मत दोनों थापे, एक एकने माहोमाहौं उत्यापैरे । स० ॥ यांमे कुण साचो कुण मृषावाई, कई कहे म्हांने तो खबर न काईरे । स० ॥६॥ यांमें कई कहे गोशालाजी साचा, यांने किण बिध जाणां काचोरे । स० ॥ यांमे उघाड़ी दौसै करामाती, तुरत कीधी वे साधांरी घातारे । स० ॥ ७॥ दूण देखतां वे इगारा वाल्या दोय चेलां, इगर्स पाछा न हुमा हेलारे । स०॥ इगाने खाटी कहता जव बोलतो सेंठो, पछे मणवाल्या काई वैठोरे । स० ॥८॥ गोशालोजी वाले गुंजार करता, वीर पाछो बोले साई डरतारे । स०॥ गोशालोजी सिंहतणीवर गंज्या, वीरना माधु मगला धज्यारे । स० ॥८॥ वीररी तो लोकां देखलीधी सिद्धाई, इणमें कला न दौखै काईरे । स० ॥ जो मिद्धाई हवि तो देवावता यांने, जब ये पण जमा रहता क्यांनैरे । स० ॥ १० ॥ पा तो श ऊपर चलायने पायो, दूण काठग वागरे
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(७६ ) मांयार । स०॥ ओ शूर पणाता दौसै द्रण मांई, इणमें कमी न दौख काईरे । स० ॥ ११॥ जब पिण लोकांमें हूंतो इसड़ी अन्धारो, ते विकलांने नहीं बिचारोरे । स० ॥ ओ गोशालो पाखण्डी प्रत्यक्ष पापो, तिणने दिया तीर्थकर थापौरे । स० ॥ १२ ॥ कोई चतुर विचक्षण था तिणकाला, त्यां खाटी जाण्यो गोशालारे । स० ॥ ओ गोशाला कुपात्र मूढ मिथ्यातो, तिण कौधौ साधारौ घातौरे । स० ॥१३॥ क्षमा शूरा अरिहन्त भगवन्त, त्यांरै ज्ञानतणो नहौं अन्तरे । स० ॥ ज्यांरा काड़ जिह्वा कर नित्य गुण गावे, त्यांरो पार कदे नहीं आवैरे । स० ॥ १४ ॥ यां लक्षणांकर तीर्थ कर पिछाणा, तेता भगवन्त महावीर जाणारे । स० ॥ ये तो अतिशय गुणेकरी पूरा, यांने कदेय म जाणा कूड़ारे । स० ॥ १५॥ कई तो भगवंतने जिन जाणे, ते तो एकान्त त्यांने बखाणैरे । स० ॥ कई अज्ञानी गोशालैरी ताणे, ते तो जिनगुण मूल न जाणैरे । स० ॥ १६ ॥ कई कहे दोनोंही साचा,
आपांथौ दोनों ही आकार । स०॥ आपने ती यां झगड़े में न पड़णो, सगलांने नमस्कार करणारे । स० ॥ १७॥ केई कहे दोनों ही कूड़ा, ते कर रह्या फेल फितूरारे । स० ॥ आप आप तो मत बांधन
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(८० ) काजे, तिणतूं झगड़ा करता नहीं लाजैरे। स० ॥ १८॥ ओ तो पेट भरगारो करैछै उपाय, लोकांनै घालेछ फन्द मांयरे । स० ॥ इण विध कई बाले अजानी, ते तो भाषा काढे मनमानौर। स० ॥१६॥ इसडो अन्धागे हॅता तिगाकाले, अशुभ उदय माया न सम्भालेरे । स० ॥ तीर्थ कर थका हुओ इसडा बेहदा, ते तो अनादि कालरा सेंहदारे । स० ॥ २० ॥ इमि सांभल उत्तम नरनारी, अन्तरङ्ग माहीं करज्या बिचारी रे। स० ॥ पक्षपात किगारौ मूल नहीं कीजै, साचो मार्ग ओलख लीजै । स० ॥ २१ ॥
* अथ दश दानोंको ढाल *
ॐ दोहा दशदान भगवन्त भाषिया, सूव ठाणांग मांय । गुण निपन्न नामछे तेना, भोला ने खवर न काय ॥१॥ धर्म अधर्म दो मूलका, प्रमिद्ध लोकमें एह । पाठां को अर्घ ऊंधी करे, मिश्र धर्म कहे तेह ॥२॥ मिश्य धर्म परुपता, कूड़ो वाद करन्त । पाठांमें अधर्म कहो, सौम्भलज्यो दृष्टन्त ॥३॥
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पाम नौमक रखना, जुदी जुदी विस्तार । नीम निमालो तेल खल, नौमतणो परिवार ॥ ४॥ इमि हिन आठों दाननी, अधर्म तणो परिवार । धर्म दोनमें मिले नहौं, श्रीजिन पाजा बाहर ॥५॥ इतरामें समझो नहीं, तो कहूं भिन्न भिन्न भेद । विवरा सहित बताइयां, मत का करज्यो खेद ॥६॥
® ढाल कृपण दोन पनाथ ए, मलेच्छादिक त्यांरी जाति ए। रोग शोक ने भातं ध्यान ए, त्यांने देवै पनुकम्पा दान ए ॥ १॥ त्यांने देवे मूलादिक जमौ कन्द ए, त्यांमें अनन्त जीवांरा बन्द ए। तिण दिया कहै मिश्र धर्म ए, तिण उदय माया मोह कर्म ए ॥२॥ लवण पादिक पृथ्वी काय ए, आप अग्नि ढोले पानी बाय ए। शस्त्रादिक विविध प्रकार ए, दून दानसू सले संसार ए ॥ ३ ॥ बन्धौवानादिकने कान ए, त्यांने कष्ट पड्यां देवे साज ए। थारी बावरी भौल कसाइने ए, सचितादिक द्रव्य खवाइने ए ॥ ४ ॥ छोड़ावा देवें ग्रन्थ ताम ए, संग्रह दान छै तिणरो नाम ए। यह तो संसारना उपकार ए, अरिहन्वनी पाजा बाहर ए ॥ ५ ॥ ग्रह करड़ा लग्या जाण ए, सुखी लागी पनोती प्राण ए। फिकर घणो मरबातणी ए, फिर
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( ८२ ) कुटुम्ब तणी जतनां भणी ए ॥ ६ ॥ भयनो घाल्यो देवे भाम ए, भय दान छै तिणरी नाम ए। लेवै कुपात्र आय ए, तिणमें मिश्र किहांथौ थाय ए ॥ ७ ॥ खर्च करै मुवारै केड़ ए, जौमाड़े न्यातनै तेड़ ए। तीन बारा दिन अनुमान ए, चौथा कालुणी दान ए ॥८॥ वर्ष छः मासौ श्राद्ध ए, जिम तिम करै कुल मर्याद ए। सूवां पहिलौ खर्च करें काय ए, घणां नै तृप्त कर साय ए ॥ ६॥ आरम्भ कियां नहीं धर्म ए, जौमायां वन्धसी कर्म ए। बुद्धिवन्त करज्यो विचार ए, यांमें संवर निर्जग नही लिगार ए ॥ १० ॥ घणां गै लज्जावश थाय ए, सांकड़े पद्यां देवें ताय ए। देवै सचित्तादिक धन धान्य ए, यह तो पांचमा लज्जा दान ए ॥ ११ ॥ वह तो सावद्य दान साक्षात ए, वलौ दियो कुपात्र हाथ ए। तिगामैं कहै मिश्र धर्म ए, तिणयी निश्चय वंधसी कर्म ए ॥ १२॥ मुकलोवा पहगवणी मासाल ए, सगांने जाइ जोइ सम्भाल ए। यांने द्रव्य देवे यश काम ए, गर्व दान छै तिणरो नाम ए। १३ ॥ कीर्तिया वादी मल्ल ए, रावलिया रामत चल्ल ए। नट भीमा आदि विशेष ए, दान देवे त्यांने भनेक ए ॥ १४ ॥ उगा दानधौ वन्धे कर्म ए, मूर्ख कह मिथ धर्म ए। जैहनौ प्रत्यक्ष खोटी बात ए,
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( ८३ )
खोटी श्रद्धाने मूल मिथ्यात ए ॥ १५ ॥ गणिकादिक सेवे कुशौल ए, दान देवे करावे केल ए। यह तो प्रत्यक्ष खोटो काम ए, अधर्म दान के तियरो नाम ए ॥ १६ ॥ सूत्र अर्थ सिखाय ए, शुद्ध मार्ग आये ठाय ए । आपे सम्यक्त्व चारित एह ए, धर्म दान है आठमो तेह ए || १७ || बले मिले सुपाव आण ए, देवे निर्दूषण द्रवा जाण ए। यह तो दान मुक्तिनो माग ए, तिग दिया दारिद्रा जावें भाग ए ॥ १८ ॥ छः काय मारणरा त्याग ए, कोई पचखे प्राण विराग ए । अभय दान की जिनराय ए, धर्मं दानमें मिलियो बाय ए ॥ १६ ॥ सचित्तादिक द्रवा अनेक ए, उधारा जिमि देवे विशेष ए । पाछो. लेवारो मनमें ध्यान ए, नवमी काचन्ति दान ए ॥ २० ॥ लेणायतने देवें एह ए, हांती नेतादिक तेह ए । पाको लेवणरो एकान्त काम ए, कन्तिति दान के तिरो नाम ए ॥ २१ ॥ नवमे दशमे दानरौ चाल ए, धुरिया बोरेवालो ख्याल ए । ज्ञानी माने सावय मांय ए, तिगामें मिश्र किहांथो थाय ए ॥ २२ ॥ दश दानरी यह बिचार ए, संक्षेप को विस्तार ए । बौरनी पाज्ञामें दान एक ए, आज्ञा बाहिर दान अनेक ए ॥ २३ ॥ असंयति घर आवियो ए, निर्दूषण आहार वैरावियो
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ए। तिणने दियां एकन्त पाप ए, भगवतीमें कयो जिन पाप ए ॥ २४ ॥ धर्म अधर्म दान दोय ए, पिण मिश्र म जाणो कोय ए। किमि जाणे मिथ्यात्वी जीव ए, मूलमें नहीं सम्यक्त्व नौंव ए ॥ २५ ॥ इमि आणीने करो विचार ए, पाठ अधर्म तणो परिहार ए। घणा सूत्रांनी साख ए, श्रीवौर गया है भाख ए ॥२६॥
॥ चेतावनी ।।
चेत चतुर नर कहै तनैं सत्गुरु, किस विधि तू ललचाना है। तन धन यौवन सर्व कुटुम्बी, एक दिवस तज जाना है। चेत० ॥ १॥ मोह मायाको बड़ी मालमें, जिसमें तू लोभाना है। काल पहेरी चोट पाकरी, ताक रह्यो नीशाना है। चेत० ॥ २॥ काल अनादिगे तूही रे भटक्यो, तो पण अन्त न पाना है। चार दिनांकी देख चान्दनी, जिसमे तू लोभाना है। चेत० ॥ ३ ॥ पूर्व भवरा पुण्य योग घी, नरकी देही पाना है। मास सवा नौ रहा गर्भमें, मन्यै मुख झूलाना है। चेत० ॥ ४ ॥ मल मूत्रको पचि कोघली, मांहें सांकड़ दीना है। रुधिर शक्र
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नो पाहार अपवित्र, प्रथम पणे तें लौना है। चेत. ॥ ५॥ ऊंठ कोड़रौ सुई सारको, तातौ कर चोभाना है। तिणसू अष्ट गुणी वेदना गर्भमें, देख्या दुःख असमाना है। चेत. ॥ ६ ॥ बालपणो थे खेल गंवायो, यौवनमें गर्वाना है। अष्ट प्रहर कीधी मद मस्ती, खोटी लाग लगाना है। चेत० ॥ ७॥ रङ्गी चङ्गी राखत देही, टेढ़ी चाल चलाना है। आठ पहर कौधो घर धन्यो, लग रह्या माध्याना है। चेत. ॥८॥ मात पिता सुत बहिन भाणजौ, तिरिया सूं दिल चीना है। वे नहीं तेरे तूं नहीं उनका, खार्थ लगी संगीना है। चेत. हा पर्थ अनर्थ करी धन मेल्यो, घणांसं बैर बंधाना है। लक्ष्मी तो तेरे लारै न चलसी, यहांको यहां रह जाना है। चेत. ॥ १०॥ ऊंचा ऊंचा महल चिणाया, करै घना कारखाना है। घड़ी एक राखत नहि घरमें, नालत जाय मशाना है। चेत० ॥ ११ ॥ धर्म सेती वष न धरना, परभव सेतो डरना है। चित्त आपनो देख मुसाफिर, करनी सेती तरना है। चेतः ॥ १२ ॥ छिन छिनमें तेरी आयु घटत है, अञ्जलौ जैसे झरना है। क्रोड़ों यत्न करे बहु तेरा, तो पण इक दिन मरना है। चेत• ॥ १३ ॥ साधु सन्तको सुनी न
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वाणी, दान पात्र न दीना है। तप जप क्रिया कछ न कौधी, नरभव लाभ न लौना है। चे० ॥ १४ ॥ चक्री केशव राजा राणा, इन्द्र सुरों का इन्दा है। सेठ सेनापति सबही मानव, पड्या कालो फन्दा है। चत० ॥ १५ ॥ यौवन गंवाय बूढ़ा होय बैठा, तो पिण समय न पाना है। धर्म रत्न तुझ हाथ न आयो, परभवमें पछताना है। चेत० ॥ १६ ॥
॥ कर्मनी सिज्झाय ॥
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देव दानव तीर्थकर गणधर, हरि हर नरवर सवला। कर्म प्रमाणे सुख दुख पाम्यां, सबल हुआ महा निवला रे। प्राणी कर्म समो नहीं कोई ॥ १ ॥ { मांकड़ी) आदीश्वरजीने कर्म पटाखा, वर्ष दिवस रहा भूखा। वीरने वारह वर्ष टुग्ख दोधा, उपना ब्राह्मणी कूखा रे । प्रागौ० ॥२॥ बत्तीस सहस्व देशांरो साहिव, चक्री सनत्कुमार। सोलह रोग शरीरमें उपना, कर्म किया तनुशार रे । प्रागी० ॥ ३॥ साठ सहस्र मुत माया एकगा दिन, जोधा नवान नर जैसा । सगर हुवो महापुत्र नो दुखियो, कर्मतणा फल ऐमारे । प्रागी० ॥ ४॥ कर्म हवाल किया हरि
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( ८७ ) चन्दने, बेची मु तारा राणौ। बारह वर्ष लग माथै आण्यो, नौच तणे घर पाणी रे । प्राणी० ॥ ५ ॥ दधिवाहन राजानी बेटी, चावी चन्दन बाला। चौपद ज्यों चौहटामें बेची, कर्म तणा ये चाला रे। प्राणी० ॥ ६॥ सम्भूम नाम आठवां चक्रो, कमी सायर नाख्यो। सोलह सहस्त्र यक्ष असा देखें, पिण किण ही नवि राख्यो रे। प्राणी० ॥ ७॥ ब्रह्मदत्त नाम बारहवां चक्री, कमीकोधी आन्धो। इमि जाणी प्राणी थे कांई, कर्म कोई मति बान्धो रे। प्राणो० ॥ ८॥ छप्पन करोड़ यादव नो साहिब, कृष्ण महावली जाणी। अटवी माहौं मुवो एकलड़ो, बिल बिल करतो पाणी रे। प्राणी० ॥ ६पाण्डव पांच महा जमारा, हारी द्रौपदी नारी। बारह वर्ष लग वन रड़वड़िया, भमिया जैम भिखारौ रे। प्राणी० ॥ १० ॥ बोस भुजा दश मस्तक हुँता, लक्ष्मण रावण मायो। एकलड़े जग सहु नर जौल्यो, ते पिण कमी सूं हास्यो रे। प्राणो० ॥ ११॥ लक्ष्मण राम महा बलवन्ता, अरु सतवन्तौ सौता । कर्म प्रमाणे सुख दुःख पाम्यां, वौतक बहुतसा बीता रे । प्राणी० ॥ १२॥ सम्यक्त्व धारी श्रेणिक राजा, बेटे बान्थ्यो मुसका। धर्मों नरने कमी धकायो, कमा सूं जोर न किसका रे। प्राणी० ॥१३॥
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( ८८ ) सती शिरोमणि द्रौपदी कहिये, जिन सम अवर न कोई। पांच पुरुषनी हुई ते नारी, पूर्व कर्म कमाई रे । प्राणी० ॥ १४ ॥ आभा नगरौ नो जे खामी, साचो गजा चन्द। मांई कौधो पक्षी कूकड़ो, कमी नोख्यो से फन्द रे । प्राणी० ॥१५॥ ईश्वर देव पार्वती नारी, कर्ता पुरुष कहावे । अहनिशि महल श्मशानमें बासो, भिषा भोजन खावेरे । प्राणी० ॥ १६ ॥ सहस्त्र किरण सूर्य परितापी, रात दिवस रहे अटतो। सोलह कला शशिधर जगचावो, दिन २ जाय घटतो रे। प्राणी ॥ १७॥ इमि अनेक खंड्या नर कर्मे, भाज्या ते पिण साजा। ऋषिहर्ष कर जोडिने विनवे, नमो नमो कर्मे महाराजा रे ॥ प्राणी० ॥१८॥
॥ जीवा तू तो भोलो रे की ढाल ॥
मोह मिथ्यात्वकी नौंदमे, जीवा सोयो काल अनन्त । भव भव माहे तू भटकियो, जीवा ते साम्भल उत्तम्त । नौवा तू तो भोलो रे, प्रागौ इमि रुलियो संसार । नीवा० ॥ १ ॥ ऐसा कई अनन्त जिन हुपा, जीवा उत्कृष्ट जान भगाध । इस भवधी लेखो लियो, जीवा कौन बतावे घारी याद । जीवा० । २ । पृथ्वी
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( ६ ) पानी अग्निमें, जीवा चौथौ वायु काय । एक एक काया मध्ये , जौवा काल असंख्याता जाय। जीवा० ॥३॥ पांचवौं काया वनस्पती, जौवा साधारण प्रत्येक । साधारणमें तू बस्या, नौवा ते सांभली सुविवेक । जौवा० ॥ ४ ॥ सूई अग्र निगोद में, जौवा श्रेणी पसंख्याली जाण । असङ्गता प्रतर एक श्रेणी में, जौवा इमि गोला असंख्य प्रमाण । जौवा० ॥ ५ ॥ एक एक गोला मध्य, जौवा शगैरअसंख्याता जागा । एक एक शरीग्में, जौवा जीव अनन्ता प्रमाण । जीवा ॥ ६ ॥ तमाथी अनादि जौवड़ा, जौवा मोक्ष जाव हगचाल । एक शरीर खाली न हुवे, जीवा नहुवे अनन्त काल । जौवा ॥ ७० ॥ एक एक अभवी सङ्ग, जौवा भव अनन्ता होय । बली विशेष जाणिये, जीवा जन्म मरण तूं जोय। जौवा० ॥८॥ 'दीय घड़ी काची मध्ये , जीवा पैंसठ सहस्र सौ पांच । बत्तीस अधिका जाणज्यो, जौवा यह कर्मानी खांच। नौवा० ॥८॥ छेदन भेदन वेदन वेदना, जौवा नरक सही बारम्बार । तिणसेतो निगोदमें, जौवा पनन्त गुणी विचार । जीवा० ॥ १० ॥ एकोन्द्री मांय थौ निकल्यो, जीवा इन्द्रिय माम्यो दोय। तब पुण्याई ताहरौ, जीवा ते घी अनन्ती होय। जीवा ॥ ११ ॥ कमि तेन्द्रिय
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चीन्द्रिय जीवमां, नौवा वैवं लाख ये जास। दुःख दोठा संसार सें, जौवा सुगणता अचरिज बात । जीवा. ॥ १२ ॥ जलचर थलचर खेचक, जीवा उरपुर भुजपुर जात । गोत ताप टषा सहो, जीवा दुःख सह्या दिन गत। जीवा० ॥ १३ ॥ इमि भ्रमन्ता नौबड़ो, नोवा माम्या नर भव मार । गर्भावाससे दुःख सया, जौवा ते नागो करतार । जीवा० ॥ १४ ॥ मस्तक तो हठो हुवे, नीवा ऊपर रहे बेहूं पाय। अांख्यां पाडौ मुष्टि बेई, नौवा इमि रह्या विठा घर माय । नावा० ॥ १५ ॥ वाप वार्य माता मधिर, जीवा इसड़ो लिया थे आहार। भूल गयो जन्म्या पछे, जौवा सेवी कर अविचार । जीवा० ॥ १६ ॥ ऊठ करोड़ सुई लाल करे, जीवा चांप रहे माय । अष्ट गुणों हुवे वेदना, जीवा गर्भावामा र माय । जीवा० ॥ १७ ॥ जन्मता हुवे करोड़ गुणी, जीवा सरता करोड़ों करोड़। जन्म मरणनी जीवने. जौवा नागाज्यो माटो खोड़। जीवा० ॥ १८ ॥ दश घनाय उपनो, नौवा इन्द्रिय होयौ होय । आयुषो घोका हुवे, जीवा धर्म किसी विधि होय । जौवा. . १६ कदाचित् नरभव पामियो. जीया उत्तम कुल शवतार। देही निरोगी पायने, नौवा यों ही खोयो जमवार । जीवा० ॥२०॥ ठग फ्रांसोगर चोरटा, जीवा
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धीवर कमाई गै न्यात। उपजीने न सूत्रो जिसौं, जौवा ऐसौ न रहौ कोई जात । जीवा० ॥ २१॥ चौदह हो राजलोकमें, जीवा जन्म मरगा गे जोड़। खाली बालाग्रमात्र यह, जौवा ऐसौ न रही कोई ठौड़। जौवा० ॥ २२ ॥ यही जीव गजा हुवो, नोवा हस्ती बान्ध्या बार । कबहिक कर्मा वशे, जीवा न मिले अन्न उधार । जौवा० ॥ २३ ॥ इमि संसार भमतो थको, जौवा पाम्यो सम्यवसार । भादगै ने छिटकाय दिवि, जौवा जाय जमागे होर। जीवा० ॥ २४ ॥ खोटा देवज अविसा, जौवा लागो कुगुरु कड़। खोटा धर्मज आदर्ग, जौवा कीध चउगत फेर। जीवा० ॥ २५ ॥ कवहिक नरके गयो, जौवा कब हौ हुवो तू देव । पुण्य पापना फल थकी, जीवा लागौ मिथ्यात्वनों टेव। जीवा ॥ २६ । ओगाने बले मुमती, जौवा मेरु जितगै लोध । एक हौ सम्यक्त्व विना, जौवा कार्य नहीं हुश्री सिद्ध। जीवा० ॥ २७ ॥ चार ज्ञान तणा धणी, जीवा नरक मातवौं नाय। चौदह पूर्वनी भण्यो, जौवा पड़े निगोदने मांय । जौवा० ॥ २८ ॥ भगवन्त नो धर्म पोल्यां पछे, जौवा करणी ने जावे फोक । कदाचित पड़वाई हुवे, जौवा अर्ध पुद्गल माहे मोक्ष । जौवा. ॥ २६ ॥ सूक्ष्मने वादर पणे, जौवा मेलौ वर्गगमा सात ।
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( १२ ) एक पुगत प्रावर्तनो, नौवा भौणी घगी छे बात। जोषाः ॥ ३० ॥ अनन्त जीव सुतो गया, जीवा टालो पात्म दाप । नहीं गया नहीं जावसो, जौवा एक निगोदना मोख । जीवा० ॥ ३१ ॥ पाप आलोई आपणा, जीवा यव्रत नाला रोक। तेथी देवलोक जावसौ, जीवा पन्द्रह सव सांहे मोक्ष। जीवा ॥ ३२ ॥ एहवा भाव सुगौ करो, नीवा श्रद्धा शागी नाय । ज्यूँ आयो तिमिहिज गयो, नीवा लख चौगसी मांय । जीवा० ॥ ३३ ॥ कई उत्तस नर चिन्तवे, नौवा जागणे अस्थिर संसार । साचो मार्ग श्रद्धिने, नौवा जाये मुक्ति मंझार । जीवा० ॥३४॥ दान शील तप आवना, जीवा दूगासं गखो प्रेम। क्रोड़ कल्यान छ तेहने, जीवा ऋषि जयमलजी कहे एम। जीवा० ॥ ३५ ॥
॥ यौवन धन पावणाको ढाल ॥
हाड़ चासका बना ई पृतला, भीतर भस्या रे भगडारा, अपर रङ्ग सुरङ्ग लगाया, कारीगर कारा। यौवन धन पावगाा दिन चारा । ओजी याकी गर्व करै सो गंवारा ॥ १॥ पशुको चामका बनत पन्हया,
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( ६३ )
1 नौबत और नगारा । नरको तो चाम कछु काम नहीं
पावे, जल बल हा जायगा छारा । यौ० ॥ २ ॥ यह
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1 संसार सकल बिधि कूठो, झूठो सब परिवारा। कहत कबौर सुनो भाई जौवो, प्रभु भजे निस्तारा । यौ०
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॥ उपदेश पच्चीसो ॥
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: ( जुहारा, नाटका गढ़ जैपुर बांकारे एदेशी ) चौरासीमै चाक ज्योंरे, करो करो कर्म कठार - घरटौ ज्यों फिरियो घणोरे, पाम्यो दुःख अघोर मुज्ञानी जीवड़ा करणी भल कौजेरे ॥ १ ॥ काज सरे करण कियांरे, भाष गया भगवन्त । अल्प दुखाने बादरयार, आगे सुख अनन्त | मु० ॥ २ ॥ सतगुरु सौख माने नहौरे, राखे खोटो रूट | पुण्य होनाते बापड़ारे, महा मिथ्यात्वी मूठ । सु० । ३. करौने प्राणियार, नरकां करे निवास । भूंडा फल तहां भोगवेरे, नाखे हिये निःश्वास | सु० ॥ ४ ॥ पाप चितारे पाछलारे, अधर्मी सुर भय । जिमि कोधा कर्म: जौवड़ रे, तिमि भुगतावे ताय । सु० ॥ ५ ॥ रोवे भूरे संकज्योंरे, अधिका दुःख अनन्त । यम गाढ़ा
पाप
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वैगै जिताई, मोड़ा बहुत कारन्त । सु० ॥ ६ ॥ वर्ष दशहजारनार, जबच आयुषी जागा । उत्कृष्टी सागर ततोसनाव. भाष गया जगभाण । सु० ॥७॥ नीठ नरवांसं नौसयाई, तिर्यञ्च माहौं तास । भांति भांति दुःख भोगवे दे, सूत्र मांडौ समास । सु० ॥८॥ हलका कर्स पडया हुवे रे, पुण्य तगो प्रभाव । मागास हुवे मोटकार, मखरा सरल स्वभाव । सु० ॥६॥ नाड़ा नहीं कसं जहने रे, आय मिले अणगार । पांच सहाव्रत पालता , धौरा महा गुगाधार । सु० ॥१०॥ दयावन्त ऋषि देखने रे, लुल लुल लागे पाय । प्रद. क्षिणा देई प्रेममरे, नौची शीश नमाय । सु० ॥११॥ साधुजी सूत्र साखथो रे, दे रूड़ो उपदेश । काया माया. कारमौ , राखी धर्मगै रेश। सु० ॥ १२ ॥ साधु वचन सुगौ हुनसरे, घटमें चावे ज्ञान। सुख संगला मंसारनारे, जाया जहर समान । सु० ॥१३॥ वैगम्ये मन यालने में, साधपगो ले सार । उत्तम कई भादरे रे, विधि लेती व्रतवार । सु० ॥१४॥ करणी कार कार्स काटने र, पूग संच्या पुण्य घाट । दया पान्ता हुदै देवता रे, गहग सुख्ख गह गाट । सु०. ॥ १५ ॥ देवानगना घनो दोपती , नपे जय जयकार । पना मागर व गि प्र ममुं , सुख बिन्तस संसार । सु.
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( १५ ) ॥१६॥ पुण्यवन्त पामे बली वे. उत्तम कुल अव. तार । घर मम्पत्ति हुवै घणी रे, बहुत बनावे बहार । सु० ॥ १७ ॥ चारित्र लेडू चूंपस रे, आठ कर्म करि पन्त । पामे परम गति पांचवौं रे, अविचल सुख अनन्त । सु० ॥ १८ ॥ साधुजी चन्दन मारखा, रे, टाले तन मन ताप । निर्भागौ वन्दे नही रे, पोते भारी माप । सु० ॥ १६ ॥ साधुनी नावां सारखा रे, पहचावे भव पार । नेड़ा पिण टू के नहीं रे, निर्भागी नर नार। सु० ॥ २० ॥ भिन्न २ भेद भाष भलाजा, उपकारी प्रयागार । निर्वधि समझे नहीं रे, घटमें घोर अन्धार । सु० ॥ २१॥ वेश्या सङ्गति बेमतांग, ब्रतरी होय विनाश । शुद्ध समकित विनशे सही रे, पांषण्डियां रे पास । सु० ॥ २२ ॥ एक घड़ी पाधी घड़ौरे, साधुनी संगति धाय । चेलायती नामे चोर ज्यों रे, जीव भलौ गति जाय । मु० ॥ २३ ॥ संवत् पठारहसै साठमै रे, वदी पाश्विन सोमवार । बारस तिथि बौदासरे रे, आखौ ढाल उदार । सु० ॥२४॥ उपदेश पच्चीसौ ओपतौ रे, नोड़ी जुगते जाण। ऋषि चन्द्रभान सूडे मने रे, चेतो चतुर सुजाण । सु. ॥ २५॥ . . . . .
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॥ सुगुरु पच्चीसी ॥
॥सुगुरु
सुगुरु पिछायो दूण पाचार, सम्यक्त्व 'मेहने तुचना । कहणी करणी एकज मरखो, अहनिशि धर्म वलुब्धजी । सु० ॥ १॥ निरतिचार महाव्रत पाले, टाल सगला दाषजी। चारित्रसं लयलीन रहे नित्य, नित्तमे सदा मन्ताषजी। सु० ॥ २॥ 'जोव सहनां जैछ पौहर, पौड़ नहीं षट काय जौ। भाप वेदन पर वैदन सरीखी, न हो न करे घाय जौ। सु० ॥३॥ सोह कर्मने जे वश न पड़े, नौरागी निर्माय जी। जयया करत्तो हलवे चाले, पूंजी सूफ पायजी। सु० ॥ ४ ॥ अरहो पर हो दृष्टि न देख, न करे चालतां वातजी। दूपण रहित सूझतो देख, तो लिये पाणी मातनी । सु० ॥ ५॥ अख वृषा पौधा दुख पौड़े, छटे नो निज प्रागनी । तो मिग अशुद्ध आहार न लेवे, जिनवर बाप प्रमाणली। सु० ॥ ६ ॥ चरस नौरस पाहार गवेषे, सरस तों नहिं चाहनो। इमि करतां जो सरस मिले तो हर्ष नहीं मन मोहजी। भु०॥७॥ नीत काले शीते मनु सूखे, जनाले रवि तापनौ। विघाट परिसह घट पहियास, नाणे मन सम्तापनी । खु०४८ मार कूट कर उपद्रव, कोई कलङ्ग दे
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( ६७ ) शीश जी । कर्म तणा फल जाणी उदी रे, पिण नाणे मन शैल जौ। सु० ॥ ६॥ मन वच काया जे नवि डण्डे, छाण्डे पांच प्रमाद जौ। पांच प्रमाद संसार बधारे, जायो ते निःस्वाद जी। मु० ॥ १० ॥ सरल स्वताव मावे मन रूड़, न करे बाद विवाद जी। चार कषाय कर्मना कारण, वर्जे मद उन्माद जी। सु० ॥ ११ ॥ पाप स्थान अठारह वर्जे, न करे तासु प्रसङ्ग जो। विकथा मुख थौ चार निवार, सुमति गुप्ति सुरङ्ग जौ। सु० ॥ १२ ॥ अङ्ग उमाङ्ग सिद्धान्त बखाण, दे सूधो उपदेश जी। सूधे मार्गे चाले चलावे, पंचाचार विशेष जौ । सु० ॥ १३ ॥ दश विध यति धर्म जिन भाष्यो, तेहना धारणहारजी। धर्म थकौजे किमि हो न चूकी, जो हुए जोड़ प्रकार जी। सु० ॥१४॥ नौवतणी हिंसा जे न करे, न वदे मृषावाद जी । तृणमात्र अण दौधो न लेवे, सेवे नहौं अब्रह्मजी । सु० ॥ १५ ॥ नव विधि परिग्रह लूल न राखे, निशि भोजन परिहार जी। क्रोध मान मायाने ममता, न करे लोभ लिगार जी। सु० ॥ १६ ॥ ज्योतिष आगम निमित्त न भाष, न करावे आरम्भ जी। औषध न करे नाड़ी न जोवे, सदा रहे निरारम्भजी । सु० ॥१७॥ डाकिनी शाकिनी भूतणी न काढ़े, न करे हलवो हाथ जी । मन्त्र यन्वनी
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( ६८ )
गखड़ी करौ ते, नवि आपे परमार्थ जौ । सु० ॥ १८ ॥ विचरे ग्राम नगर पुर सगले, न रहे एक ठाम जौ । चौमासो ऊपर चौमासो, न करे एका ग्राम जी । सु० ॥ १६ ॥ चाकर नौकर पास नवि राखे, न करावे कोई काज जी । न्हावण धोवण वेश वणावण, नहीं
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करे शरीर नो साज नी । सु० ॥ २० ॥ व्याज बट्टानो नाम न जाणे, न करे वणिज व्यापार जौ । धर्म हाट माण्डी ने वेठा, वणिजे पर उपकार जौ । मु० ॥२१॥ ते गुरु त भोगने तारें, सागर मां जिमि नहान at | काठ प्रसङ्गे लाह तरे जिमि, तिमि सुगुरु सङ्गति पाज जौ । सु० | २२ ॥ सुगुरु प्रकाशक लोचन सखििा, ज्ञान तथा दातार जौ । सुगुरु दीपक घट अन्तर केरा, टूर करें अन्धकार जी । सु० ॥ २३ ॥ सुगुरु अमृत सरीखा शीतल, देय असर गति वासजी । सुगुरु तौ सेवा नित्य करतां, छूटे कर्मनो पाशनी । मु० ॥ २४ ॥ गुरु पचासी श्रवणे सुणौने, करज्यो मुगुरु प्रसङ्ग जा । कहे जिन हर्ष सुगुरु सुपणाये, ज्ञान दर्प उद्भजौ । सु० ॥ २५ ॥
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( ६ ) ॥ कुगुरु पच्चीसी ॥
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श्रौजिनवाणौ हिये धरो, कुगुरु तगी संगति परिहगे। लोह खोलारां साधौ जेह, कुगुरु तणा छै लच्छन एह ॥१॥ कालो सांप कुगुरु स्यूं अलो, एक बार करै मामलो। कुशुरु भवोभव दुःख देह । कुगुरु ॥ २ ॥ पृथ्वौ पाणी अग्नि ने वाय, वनस्पती छठी बस काय । एह तणौ रक्षा न करेह । कुगुरु० ॥ ३॥ पापतणा थानक अठार, तेतो सेबै बारम्बार । संयसलार उड़ावे खेह । कुगुरु० ॥ ४ ॥ धुरसं पञ्च महाव्रत धाने, सर्व सावद्य त्याग उच्चारें। चारित्र भांजे रंजे देह । कु. गुरु० ॥ ५॥ परिग्रह सेती गरी सोह, धनने काजे करे पर द्रोह । प्रभु वचसं बोहै नवि जेह। कुगुरू. ॥ ६ ॥ अशनादिक चारों आहार, राते पिण न करे परिहोर । दोष दुर्गतिनौ विधारी देह। कुगुरु० ॥७॥ पाणी काचो ने बावरे, आपतणो दूषण झावरे । चारित्र भंज्या रंजन देह। कुगुरु० ॥ ८॥ मोटी पदवी बाजै घणी, लोकां मांहे प्रभुता घणौ। तेपण करगी खोटी करेह । कुगुरु० ॥ ६ ॥ पावा दिवगवै वौटया, गुण होना ने अवगुणा घणा। गृहवासीनी परे
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( १०० ) वसेह । कुगुरु० ॥ १० ॥ खीर शक्कर थरमागा बड़ी, गर्व हिये विभूषा करी। खाद्य मिलन का मांसो धरह । कुगुरु० ॥ ११ ॥ गृहस्थ जिसि करे व्यापार, वेचे वस्त्र पुस्तक मार । व्याज बटे धन उपजावेह । कुगुरु० ॥ १२ ॥ आठ महरले साठ घड़ी, पांच प्रमाद सं प्रीतड़ी। क्रिया पड़िकमगो न करह। कुगुरु० ॥ १३ ॥ वैठिया पोठिया चलावे भार, गाड़ी वैठी करे विहार । ईर्या सुसति किसी पालेह । कुगुक० ॥ १४ ॥ हमे गस्सै बोले फारसौ, न्हाय धोय जीवे पारसी। रङ्गा चङ्गा रहे निःस्मन्देह । कुगुरु० ॥१५॥ अभक्ष्य आहार ने बाड़ा पड़े, सौख दिया तो उलटा लड़े। पापानन्द न पचखागोह। कुगुरु० ॥ १६ ॥ सवै देवी दुर्गा मात, वरगी करे वेसे नय पात। दुष्ट जाप दिल सांह करेह । कुगरू० ॥ १७ ॥ रात दिवस औषध बारस, गोली चणे वारे सन रङ्ग । नाड़ी तिगंछा वैद्यका करेह । अगुरु० ॥१८॥ विषय कितोल कधा बाई चरित्र, वांचे कान करे अपवित्र । शुद्ध कथा न सम्भलावेह । कुगुम० ॥ १६ ॥ पोते न चालें सूधे राहा. और शाइ चलाव काहा। कामगा चोराहा दगाह । कुगुम० ॥ २० ॥ गश्त पान कर पैसा लौए, कामगा मोह वश करदीए । पाम दुष्ट कर पेट भरेह ।
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( १०१ ) कुगा० ॥२१॥ मुख कहें अमेछां यती, पिगा आचार न जाने एक रती। अगाचारी चाल चालेह । कुगरु. ॥ २२ ॥ पापी श्रमण पौड़ पाप भरे ह, शव साधांगै निन्दा करेह । नरक दुःखांसं नहौ डरह । कुगुरु० : ॥ २३ ॥ कुगुरु पचौमौ जागो खरौ, कहे जिन हर्ष कुमति परिहरी । सुगुरु सेवे अव जल तिरे ह । कुगुरु० ॥ २४ ॥
* स्त्री चरित्र की ढाल *
ढाल ६ ठो नणदल हे नणदल एदेशी।
सतीयां तो सौता सारषी ज्यांरा जिनवर किया बखांण भवियण कुसती कपिला सारषी त्यांरि कर लोज्यो पिछांगा भवियण चरित्र मुणों नागै तणां ॥१॥ छोड़ो संसार नों फंद। भ० । सौलवंता नर सांभले ते पांमैं परम आणंद। भ० च० ॥ २॥ कुसती मैं ओगण घणां । भाष्या श्री जिनगय । भ० । थोडासा परगट करते सुगज्यो चितलाय । भ. च० ॥ ३ ॥ नारि कुड़ कपट निं कोथलो श्रीगणं नों भंडार । भ० । कलह करवा नैं सांतरि भेद पड़ावगाहार । भ० च०
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( १०२ ) ॥ ४ ॥ देहलो चढ़तौ डिगपडे चढ़ ज्यावे डोंगर अस- भ. मान । म० । घरमैं वैठौ डर करै राते जाय मसांगण। . भ० च० ॥ ५ ॥ देख विलाइ अोदकै सिंघनै सन्मुख जाय । स० । साप उसीसे दे सोवै ऊंदर स्यं भीडसाथ । भ० च० ॥ ६ ॥ कोयल मोर तणौ परै बोले सौठा बोल । स० । भौतर कडवि कुटकसि बाहिर कर किलोल । स० च० ॥ ७॥ खोग रोवै खिगा मैं
मे खिगा मुख पाड बंद । भ० । खिण गचे विरचै खिगों विण दाता खिगा संम। भ० च० ॥ ८॥ धर्म करतां धुकल करै असो नार अलाम । भ० । बन्दर ज्यं नचावै निज कंघ मैं जागैंक असल गुलाम। भ. च० ॥ ६ || नारि नै काजल कोटडी ए बेहं एकज रङ्ग । भ० । काजल नर कालो करै नारि करै सिल भंग । भ. च० ॥१०॥ नारी नै वन वेलड़ी दोन एक स्वभाव । भ० । कंटक ख कुसौल नर तिण स्य वेहु लग ज्यात । भ० च० ॥ ११ ॥ नाम छै अबला नार नों पगा मवलि छै ईगण संसार । भ० । सवला सुर नर तेहने नौसला कर दीया नार । स० च० ॥ १२ मुर नर किनर देवता त्याने पिगा वस कीया नार। भ० । नाम्या नरक निगोद त्यांरि तो वस्व में वार । भ० च० ॥ १३॥ नंगा बैंगा नागी तगां वचनज तौरवा मेल ।
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( १०३ )
भ० । अंग तौखो तरवार ज्यं ईण मास्यो सकल बिरचौ तो बाघण स्युं बुर्गे
संकेल । भ० च० ॥ २४ ॥ स्वो अनग्थ सूल । भ० । पाप
करौ पोते भरे अंग उपजावे शूल | भ० च० ॥ १५ ॥ मोर तों पर नेहनां बोलें मौठा बोल । भ० । साप से पूछा ईगले पाडलेवे नर भोल । भ० च० ॥ १६ ॥ पुरुष पोतै कपडा जौसी नरगुण नंविं भांत | भ० । नारौ कातर बस मड्यां काटे है दिन रात | भ० च० ||१७|| बाघण बुरौ बन मांयल बिलगी पकडि खाय । भ० । नारौ बाघण बस पड्यां नर न्हासी किहां जाय । भ० च० || १८ || फाटां कांनांरी जोगणी तिन लोकनैं खाय । भ० । जीवंती चुटै कालजो मुवां नर्क ले जाय | भ० च० ॥ १६ ॥ नारौ लखणां नाहेरि करै बचनरो चोट । भ० । केइक सन्त जिन उवस्था लिधौ दया नौं घोट । भ० च० ॥ २० ॥ तौया मदन तलावडी डुब्यो बहु संसार | भ० । केइक उत्तम नर उबस्था सत गुर बचन सम्भाल | भ० च० ॥ २१॥ जिम नलोक जल मांयेलि तौम नारौ पिण जांगण । भ० । वालागौ लोहौ पिये । नारी पिये निज प्रान । भ० च० ॥ २२ ॥ राता कपडा पहरे नैं काठा बांध्या माथारा केस । भ० । हांतां मैंन्ध लगाय नैं ई ठगोरि ठगौयो सारो देस । भ०
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( १०४ ) च० ॥ २३ ॥ लोक काहै ग्रहै बारमों लागां हों प्राण । भ० । नारखे नरक निगोदसैं नारी नव ग्रैह जांगा। स. च० ॥ २४ ॥ गा संसार असार मैं तिगा मैं माटि गाल । म० । सांणस रखोड मागे जे गावै टोडर माल । भ० च० ॥ २५ ॥ नगर उजीगौं नो राजीयो हरचंद नासें गाय । भ० । सोमला उपर मोहियो नायो नंदियै वुहाय । भ० च० ॥ २६ ॥ जहर दियो निज कंथ नैं नाम जसौदा नार। भ० । कंथ मार काटे चढ़ी गई नरक मंझार । भ० च० ॥२७॥ ब्रह्मदत्त चक्रावत बारमों तेहनौं चुलणों मात । सः । विषैरी वाहि थवी करवा मांडि पुत्र नौं घात ! भ० च० ॥ २८॥ परदेसी राजा तौं सुरोकथा नार । भ० । खार्थ न पुगो जांण नैं माल्यो निज भरतार । भ० ब० ॥ २८ ॥ वरस वारै वन सेविया लिछमण नैं श्रीराम । म० । दसरथ दुख सह्या घणां तो केकैबुरा काम । भ० च० ॥ ३० ॥ कुणक वहल कुमारकै साच्चो माहा संग्राम । म० । हार हाथी नै कारंगों तेतो पद्मावति रा काम । म. च० ॥ ३१ ॥ धारणों नाथ धुजावियो असौनारि अजोग । भ० । मुंज राजा तमो नय कियो ते पिणा नारी तों संजोग । भ. च० ॥३२॥ माहासतक श्रावक वरे हुई रेवंती नार ।
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( १०५ )
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भ० । भीष्ट करवा भरतार नै आई पोसा संभार । भ० च० ॥ ३३ ॥ देवदत्त सुनार नां पुत्रनी हुई कुपातर नार । भ० | देव छली नै धोन उतरी सुसरा ཧྥེ་ झुठो पाड | भ० च० ॥ ३४ ॥ कपिला पटराणों राजातण तिण कौधौ माह्वतस्युं प्रौत | भ० । तिण आलदे नाहक मरावीयो हुई बहुत फनौत । भ० च० · ॥३५॥ अभिया राणौं नैं कपिला ब्राह्मणी सेठने दोया उपसर्गं अनेक । भ० । सेठ सुदर्शण चलौ योंहीं मन मैं प्रांगण बिबेक । भ० च० ॥ ३६ ॥ श्रोगुण कह्या कुसत्यां तणां कहतांनै' आवै पार । भ० । सतीयां रा अति घणां त्यांरो तो बहुत विस्तार । भ० च० ॥ ३७ ॥ पठे कपिलारै ओगणा तणों चाल्यो है दूधकार | भ० | सेंठनै अंगस्युं भीडीयो पिण सेठन चलीयो लिगार । भ० च० ॥ ३८ ॥
गुण
॥ दुहा ॥
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नर नारी दोनुं सरिखा मित्यां अधिको बधै सनेह | सुगणांनें नौगुंणो मौलै तो तटकै तुटै नेह ॥ १ ॥ सेठ डरपै सर्ब नारभ्युं तिणनैं उपसर्ग उपज्यो जांग । एक मासमैं च्यार पोसा करै राते जाय मसांग || २ || कर्म धर्म संभालतां मुखे गमावै काल । किण विध उपसर्ग
. उपजै किंण विध आवै आल ॥ ३ ॥ धात्री वाहन
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( १०६ ।) राजातौं पटरांणी अभिया नार । रूपे रंभा सारषौ सुख भोगवै संसार ॥ ४ ॥ तिण चंपा नगरौ बाहिरै ईसांण कुणरै माय। बाग एक के रलियां मणों के उत्तम सुखदाय ॥ ५ ॥ ते फल्यो फुल्यो रहै सदा पिण वसंतरुत विशेष। तिहां नरनारी अनेक क्रिड़ा करै सुख पामै नौजरां देख ॥ ६ ॥ अभिया रांणों तिणसमें भाई बसंतसत जाण । वाग सुंण्यो फुल्यो फल्यो जब वोले एहवी वांण ॥ ७॥
सुदर्शण सेठ के बखान की ॥ ढाल ३२ वीं ॥
5000+KORK
(माज आगांद मन उपेनों सुणा प्राणीरे एदेशी)
मनरो मनोरथ पूरी थयो। सुंगाप्रांणौरे । ममचिंताविया सरीया काज आज संग प्रांगोरे । नगमें नस फैल्यो घणों । सु० । म्हारी रही सौलस्युं लाज । प्रा०॥ १ ॥ संजम पाखै तूं नीवड़ा। सु. । पामैं नहीं भव पार । ०। जनम मरण करतो थको । मु० । भमीयों ईण संसार । आ० ॥२॥ कवु एक नरक निगोद में । सु० । कब एक तिर्यंच मंझार। भा० । कबु एक सुर नर देवता । मु० । ईण रोते : भमौयों संसार । प्रा० ॥३॥ कबु एक ईष्ट संजोगीयो।
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( १०७ ) सु. । कबु एक ईष्ट वियोग । आ० । कबु एक भीग न भोगव्या। सु. । कबु एक अति घणों सोग। आ. ॥ ४ ॥ ईण रौतै भमतो थको । सु० । मिथ्यो नहौं भ्रम जाल । आ० । अबै अपूरव पांमीयों । सुः। श्री जिनधर्म संभाल । आ० ॥५॥ धर्म तणां जैतन करो। सु० । अब ईसो अवसर पाय । भा० । धर्म बिहुँगां मानवौं । सु० । गया जमारो गमाय । मा० ॥ ६ ॥ अब पंच महाव्रत आदरु । सु० । छोड़ीनै परिग्रहबास । श्रा० । बारै भेदे तपतपुं। सु. । ज्युं पामुं सिवपुर बास । आ० ॥ ७॥ दूम भावतां भावनां । सु० । पाण्यो प्रतिही बैराग। मा० । जो दूहां साध पधारसी। सु० । तो करस्यं संसार नां त्याग। भा.' ॥८॥ दूम भावनां भावतां । सु० । साधु बाट जोवै तांह । पा० । तो संजम लेस्युं निश्च करौ । सु०।। इणमें शंका नहीं तिलकाय । पा० ॥ ६॥ सुध पर. णांमां भावै भावनां । सु० । टुबध्या दुरेटाल । पा०।। साचै मन भावै भावनां । सु० । सफल बीते ते काल। . मा० ॥ १० ॥
___ दोहा छ तिण कालै तिण समैं चोनांणों अणगार । धर्म- , घोष थिवर समोसया । साथै साधांरो बहु परिवार
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( ११० ) नहीं बंदिया दान देवाने सुंबजरे। ते भिक्षा मांगत घर २ फिरै भटकै भांड जिम डुमजरे ॥ १० ॥ १३ ॥ साधुनै वांद्या भल भावस्युं दोधो अढ़लक दांनजरे। तेतो भरथे सर जांणज्यो ज्यारो पर सिधलोकमें नामव रे॥ अ० ॥ १४ ॥ साधांने बांद्यां थका कटै करमारा फंदनरे। नीच गोवरो क्षय कर ऊंच गोवरो वंदवरे ॥ अ० ॥ १५ ॥ चोथी गत देवता तौं भाषौ श्रीमुनिरायजरे। सुख तिहा नित भोगवै कुंण कर्म उपन जायजरे ॥ ५० ॥ १६ ॥ बैराग संजम पालै सदा पर श्रावकरो धर्मजरे ते खग लोकमें उपज बांधिने सुध कर्मजरे ॥ १० ॥ १०॥ उर अकाम निरजरा करी पत्यांन तप कर जांगजरे । ते सोल पाले लज्या करी ते उपजे वैमाणिकजरे ॥ १० ॥ १८॥ पांचमी गत सिधां तौँ अनंत सुखांरी खांणजी। कोण करवी कर उपन सिद्ध गत माहै आगजरे ॥ १० ॥ १६ ॥
सह परिसावोस दोयजरे । वार भेदे तप तपै तेहनै मिगत होयजरे ॥ अ० ॥२०॥ देव अरिहंत नै ओलख्या ओलख्या गुरु निग्रंथनरे। धर्म दयामय आदर एहीज मुक्तरी पंथजरे ॥ . ।। २१ ॥ तोन कालना मुखदेव तांतणा भेला कोज कुलजरे। तेहने अनंति वर्ग वधारिये नहीं मिा
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( १११ )
सुखारी तुलजरे ॥ अ० ॥ २२ ॥ ते पिग मुख सासता नहीं आवै तेहनों पारजरे । संसारना मुख छै कारमा जाती न लगै बारजरे ॥ अ० ॥ २३ ॥ संसारना मुख थिर नहीं जैसी आभा रिवायजरे ।
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: बौण संतां बार लागै नहीं जसौ कायर बाहरे || आ० ॥ २४ ॥ तन धन जोबन कारमों जैसो कसुंबल 'गजरे | दोन सात पांचका देखणा पछे होय नाय विरङ्गजरे || अ० ।। २५ || गर्भ जन्म मरण तणां भाष्या श्रीजिनरायजरे । ते धर्म कोया थौ छुटौये धर्म दयामय थायजरे || अ० ॥ २६ ॥ इम जांणी धर्म ..आदरो ढोल न कौन तामजरे । सो खोण नावै सो आवै नहीं ते सुंग राख़ो चित ठामजरे ॥ अ० ||२७|| ॥ दुहा ॥
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'धर्म कथा सुंग परखदा' हिवडै हरषित थाय । सगत सारु व्रत आदरी पाया जोण दिस नाय ॥१॥
सेठ सुदर्शन तिण समैं बोल्यो जोड़ी हाथ | पाइलै भव हुं कुंगहुं तो ते कृपा कर कहो खामौनाथ ॥२॥ धर्मघोष साधु तौण अवसर सेठ सुदर्शन ने कहै आम । पाछल भव कहुंकुं थांहरो ते सुंग राखे चित ठाम ॥३॥
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( ११२ ) सुदर्शण सेठ के बखान की॥ ढाल ३६ वीं ॥
___ (आछेलाल एदेशी) दूम सुंगनै मनोरमा नार ॥ छुटी आसुडारी धार ॥ आछेलाल ॥ मुळ गत आय धरणों ढलौनी ॥ १॥ वले कुटंब सहु परिवार ॥ रोवै बागां पाड । पा० ॥ विलखाथई नै विल २ करजी ॥२॥ ओ सेठ छो सगलारै आधार ॥ तिणस्यं सदन करां वारंबार । आ० ॥ सुख माहे दुःख उपनोंजी ॥३॥ रुदन करता देखि तिग वार ॥ सेठ बोल्यो तिणवार ।। आ० ॥ किसो भरोसो दूण कालरोजी ॥४॥थे सज्जनन्यातीला लोग ।। नहीं कोई राखवा जोग ॥ आ० ॥ परभव नाता जीवन नी ।।५।। काचा सग पण एह ॥ तिणस्यं किसोरे स्नेह ॥ श्रा० ॥ भो मेलो मिल्यो छै सर्व कारमोनी ॥६॥ एवासो वसीयो आय ते नहीं नेठाउ थाय ।। पा० ॥ निश्चो नहीं किण वातरोजी ।। ७ ।। काल चटको देय ।। आंधी गौगों न मेह ॥ आ० ॥ काल आवां उठ नावगोंजी ।।८॥ ह परदेशी ज्यु ताम || मोन कोईय नहीं विसगम ॥ आ० ।। हूं किसे भरोसे रहुं घर मंझेजी ॥ ६॥ में मेल्या लाखां
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उपर कोड ॥ ते पिण गया उभा छोड़ ॥ आ० ॥ त्यांने पिण मेल्या मसाणे मैं जी ॥ १०॥ ऊंचा महल कराया होडा होड ॥ ते पिण गया उभा छोड़। पा० ॥ परसव जासौ प्रांयौं एमालोजौ ॥ ११ ॥ जीव भोगवै निज पुन्य पाप ।। क्यं करो तुम सोग सन्ताप ॥ प्रा० ॥ जगमें कोई केहनों नहौंजी ॥ १२ ॥ मात पिता सुत आय ॥ कोई काहुको नाय ॥ श्रा० ॥ एकलो आयो जास्रो एकलोजी ॥ १३ ॥ दूम जाणों करो जिन धर्म ॥ ज्युं रहै सहुनौं समं ॥ चा० ॥ धर्म सखाई दूण जौवरो जो ॥ १४ ॥ धर्म स्युं शोझै आत्म काज ॥ पामै अविचल राज !! प्रा० ॥ शिव सुख पामैं जीव साशैताजौ ॥ १५ ॥ इत्यादिक दियो उपदेश ॥ दया धर्मनौं रैश ॥ श्रा० ॥ सेठ न्यातीला सन्तोषोयाजी ॥१६॥ कहै म्हांन हुदैछ अंवार ॥ आग्यारो ढौल मत करो लौगार ॥ भा० ॥ जोखिण जावैते आवै नहीं नौ ॥१७॥ इत्यादिक सहु परिवार ॥ बले बोली मनोरमां नार ॥ आ० ॥ आप कहो ते सत्य बायकैजी ॥१८॥ पिण म्हाने आधार था आप ॥ तिणस्यु करांछा बिलाप । आ० ॥ हिवै जिम सुख होवै तिम करोजी ॥१६॥ आप सुखल्यो संजम भार ॥ म्हारो म्होमत राखो लोगार॥ आ० ॥ म्हें जास्यां कमाई आम आपरोजी ॥२०॥
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( ११४ )
॥ दुहा ॥ सेठ सुदर्शया तेहनें। आगन्यां दिधौ रुडी गैत । हिवे करे महाछव दिक्ष्यातणां । ते संगज्यो धर प्रौत ॥ १॥ सदन स्नान करायनै । आभूषण विविध प्रकार ॥ सिणगार बैसाण्या सेवका उपरै । जव सैठ गुण्यों नवकार ॥ २ ॥ सहस उपाडी सेवका। चालना नगर संझार ॥ चारणा भाट वाले विग्दावलौ। साथै सहु परिवार ॥ ३॥ धात्रौवाहन तिण अवसरै। सेठनों निखसगा जांगा ॥ हिवे करै म्होछव दिक्षातणां । करमाटे मंडाण ॥४॥ बाजीव विविध प्रकारनां । आवाज कर गुजार ॥ ते लागै कांनांने सुहामणां । मननें हर्ष अपार ॥ ५॥
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॥ अथ पानाकी चरचा ॥ .
१ जीव रूपीक अरूपो, अरूपौ किगन्याय कालो पौलो नौलो रातो धोलो ए पांच वर्ग नहीं पाये
दूण न्याय । २ अौव रूपौक्षि अरूपी, रूपी अरूपो दोनं ही के किगान्याय धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय काल ए च्या तो अरूपी और पुद्गलास्तिकाय रूपौ। ३ पुन्य रूपौक अरूपौ, रूपी ते किगन्याय पुन्यते
शुभ कर्म, कर्म ते पुगल पुद्गल ते रूपौ हौ छ। ४ पाप रूपीक अरूपी, रूपी ते किणन्याय पापते ___ अशुभ कर्म कर्मते पुद्गल पुगल ते रूपी हौ छ। ५ पासव स्पोक अरूपो, अरूपी ते किमान्याय आसव
जौवका परिणाम है, परिणामते जीव है, जीव ते अरूपी छ, पांच वर्ण पावे नही इण न्याय । ६ संबर रूपोके अरूपी, अरूपो किणन्याय पांच वर्ण
माव नहीं।
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( ११६ ) ७ निर्जग रूपोक अरूपी अरूपौ छै ते किणन्याय निर्जग जीव का परिणाम के पांच वर्ण पावे नहीं
इश ल्याय। ८ बंध रूपोंकि अरुपी, रूपी किगान्याय बंध ते शुभ
अशुभ कार्स छ, कसं ते पुद्गल है, पुद्गल ते रूपी
६ मोक्ष रूपौके अरूपी अरूपौ छै ते किगन्याय समस्त कर्मास सुकावे ते मोन अरूपी ते जीव सिद्ध थया ते मां पांच वर्गा पावे नहौं गान्याय ।
॥ लड़ी दूजी सावद्य निवद्यकी ॥ १ जीव सावद्यक निवंद्य दोन हौ ते किणन्याय चोखा परिणामां निर्वद्य खोटा मरिणामा सावध
छ।
२ अजीय सावद्य निर्वद्य दोन नही चजीव छ। इ पुन्य सावध निर्वद्य; दोन नहीं अजीव है। ४ पाम सावध निर्वद्य दोन नहीं अजीव है। ५ यासव सावद्यके निर्वद्य; दोनुं ही छ किणन्याय सिध्यात्व पासव अव्रत घासव प्रसाद पासव, कपाय भासव, ए च्यार तो एकान्त सावध के,
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( ११७ )
शुभ जोगां से निरजरा होय जिण आसरी निर्वा छै अशुभ नोग सावद्य है ।
६संबर सावद्य निर्वद्य निर्वद्य छ ते किणन्याय कम नें रोके ते निर्वद्य है
1
७ निरजरा सावयके निर्वद्य निर्वद्य है ते किणन्याय कर्म तोडवारा परिणाम निवेद्य के
८ बंध सावद्यके निर्वद्य दोनूं नहीं ते किणन्याथ अनी है इ न्याय |
मोक्ष सावद्य निर्वद्य; निर्वद्य है, सकल कर्म सूकाय सिद्ध भगवंत थया ते निर्वद्य है ।
॥ लड़ी तीजी आज्ञा मांहि बाहिरकी ॥
१ जौव आज्ञा मांहि के बारे; दोनूं है ते किणन्याय, जौवका चोखा परिणाम आज्ञा मांहि है, खोटा परिणाम आज्ञा बाहिर है
1
२ जीव आज्ञा मांहि बाहिर, दोनूं नहीं; अजाव है ।
३ पुन्य प्राज्ञा मांहि के वाहिर दोनूं नहीं भजीव के इणन्याय |
४ पाप आज्ञा मांहि बारे दोनूं नहीं अजीव है
1
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( ११८ ५ अानव आज्ञा मांहिके बारे; दोनंद के, ते विगान्याय, आस्रव नां पांच खेद छै तिगामे मिथ्यात्व अवत प्रमाद कवाय ए च्यार तो आज्ञा बाहिर के अले जोग नां दोय भेद शुभ जोग तो आजा
मांहि के अशुभ जोग आता बाहिर छ। ६ संवर आता मांहि के वाहिर, आजा मांहि के
ते विगान्याय कर्म रोकवारा परिणाम आज्ञा
सांहि छै। ७ निर्जरा आजा मांहिक बाहर, आज्ञा मांहि छै ते किगान्याय कर्म तोडबाग परिणाम आता
सांहि के। ८ वंध बाजा मांहिक बाहिर, दोन नहीं ते किगान्चाय, आज्ञा मांहि वाहिर तो जीव हुवे ए बंध
तो अजीव के दृगन्याय। ६ मोक्ष आज्ञा मांहिके वाहिर, आज्ञा मांहि छै ते किगन्याय, कर्म मंकाय सिद्ध धया ते आजा मे छै ।
॥ लड़ी चौथो जीव अजीवकी ॥ १ जौच ते जीव के अजीव, जीव ते किगान्चाय
सदाकान्त जीवको जीव हमे अजीव कटे हुवे नहीं ।
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( ११६ ) २ अजीव ते जीव छै के अजीव छैअजीव छै अनौव __ को जीव किया हो कालमें हुवे नहीं। . ३ पुन्य जीव छै से अजीव छै; अजीव छै ते किणा. न्याय पुन्यते शुभकर्म शुभ कर्मते पुद्गल छै पुद्गल
ते अजीव छै। ४ .पाप जीव छै के अजीव छै; अजीव छै किणन्याय __पाप ते अशुभ कर्म पुद्गल छै पुद्गल ते अजीव है। ५ पासव जीव छै के अजीब छै नीव छै; ते कियान्याय शुभ अशुभ कर्म ग्रह ते आस्रव छै कर्स
ग्रहे ते जीव हौ छै। .. ६ संबर :जीवक. अजीव, जीव छै ते किणन्याय कर्म
रोके ते जीव हौ छै। .. . . . . ७ निजरा जौवक , अजीव, जीव है किणन्याय कर्म
ताड़ ते जीव छै। ,... ८ बंध जीवके अजीव छ, अजीव छै ते किणन्याय __ शुभ अशुभ कर्मको बध अजीव छै। ६ मोक्ष जीवके अजीव, जीव है, किणन्याय समस्त
कर्म मूकावे ते मोक्ष नौव छ। ॥ लडी पांचवीं. जोव चोरके साहूकार ॥ . १ जीव चोरके साहूकार, दोन छै किणन्याय चोखा
परिणामां साहकार छै मांठा परिणामां चोर है।
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64
( १२० )
I
२ जीव चोरके साहूकार, दोनूं नहीं कियन्याय चोर साहूकार तो जीव हवे ये अजीव है । ३ पुन्य चोरके साहूकार, दोनूं नहीं अजीव है ४ पाप चोरी साहूकार, दोनूं नहीं अजीव है । ५ आस्रव चोरके साहूकार, दोनूं है किणन्याय च्यार आसव तो चोर है, अनें अशुभ जोग प चोर छै शुभ जोग साहूकार है ।
६ संवर चोर साहकार, साहूकार है कि न्याय कर्म रोकवारा परिणाम साहूकार छै
1
७ निर्जरा चोरके साहूकार, साहूकार है कि न्याय कर्म तोड़वारा परिणाम साहूकार है ।
८ बंध चोरके साहूकार, दोनूं नहीं अजीव है | ८ मोच चोर साहकार साहूकार किणन्याय कर्म मूंकायकर सिद्ध थया ते साहूकार
है
॥ लड़ी छटी जीव छांडवा जोगके आदरवा जोगकी ||
3
१ नीव छांडवा नोग आदरवा जोग छांडवा नोग है किपन्याय पोते नोवनं भाजन करे मेरा जीव पर ममत्व भाव न करे ।
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.
( १२१ ) २ अजीव छांडवा जोगी आदरवा जोग, छांडवा __ जोग छै किणन्याय अजीव छ। ३ पुन्य छांडवा जोगके आदरवा जोग, छोडवा
जोग छै ते किणन्याय पुन्य ते शुभ कर्म पुगल
के कर्म ते छोडवा ही जोग छै। ४ पाप छोडवा जोगके बादरवा जोग, छांडवा जोग
छै किगन्याय पाप ते अशुभ कर्म छै नौवने दुखदाई के ते छांडवा जोग छै। ५ प्रास्त्रव छांडवा जोगको आदरवा जोग, छांडवा जोग छै किणन्याय आस्तव द्वार जीवरे कर्म लागे छ अास्त्रव कर्म आवानां. बारणा छ ते
छांडव। जोग छ। ६ संबर छांडवा जोगके आदरवा जोग, आदरवा जोग छ किन्याय कर्म रोके ते संबर छै ते
आदरवा जोग छै। ७ निर्जरा छांडवा जोगके आदरवा जोग, श्रादरवा जोग छै किणन्याय देशथी कर्मः तोडे देशथी
जीव उज्जल थाय ते निर्जरा छै ते आदरवा जोग छ। ८ बन्ध छांडवा जोगके अादरवा जोग, छांडवा
जोग छै, ते किगन्याय शुभ अशुभ कर्म नो बन्ध छांडवा जोग ही है।
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( १२२ ) ६ मोक्ष छांडवा जोगके बादरवा जोग, आदरवा जोग ते किणन्याय सकल कर्म खमावे जीव निरमल थाय सिद्ध हुवे इणन्याय आदरवा
जोग छ। ॥ षटद्रव्यपर लडी सातमो रूपी अरूपीकी ।। १ धर्मास्तिकाय रूपौक अरूपौ, अरूपो किया न्याय
पांच वर्ण नहौं पावे दूणचाय । २ अधर्मास्तिकाय रूपोके अरूपो, अरूपी किमान्याय
पांच वर्ग नहीं पाव दूगन्याय । ३ आकाशास्तिकाय रूपौकि अरूपो, अरूपी किणन्याय ___ पांच वर्ण नहीं पाव इणन्याय । ४ काल रूपोक अरूपो, यरूपी किणान्याव पांच
वर्गा नहीं पावे इगान्याय। ५ पुगल स्पीके अरूपी, रूपो किगन्याय पांच
वर्ग पावे गणन्याय। ६ जीव रूपोंके अरूपी अरूपी किगन्याय पांच वर्गी
नहीं पाये इगन्याय । ॥ छवद्रव्यपर लड़ी अाठमी सावद्य निर्वद्यकी॥ १ धर्मास्तिकाय मावद्यके निर्वा, दान नहीं
अनौव है।
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( १२३ )
२ श्रधर्मास्तिकाय सावद्य के निर्बंद्य, दोनूं
अजीव है
1
दोनूं नही
३ आकाशास्तिकाय सावयक निर्बंद्य, दोनूं नहीं
अजीव है ।
४ काल सावद्य के निर्वद्य, दोनं नहीं अजीव के ५ पुद्रलास्तिकाय सावदा के निर्वद्य, दोनूं नहीं अजीव है
I
६ जौवास्तिकाय साद्य के निर्वद्य, दोनं है खोटा परिणामा सावद्य है चोखा परिणामा निर्वद्य है । छवद्रव्यपर लड़ी नवमी आज्ञा मांहिबाहेरकी ।
१ धर्मास्तिकाय आना मांहिके बाहिर दोनूं नहीं ते किणन्याय आज्ञा मांहि बाहिर तो जीव है अनेए अजीव है ।
1
२ अधर्मास्तिकाय आज्ञा मांहिके बाहिर दोनॅ नहीं किन्याय अजीव है ।
३ आकाशास्तिकाय आज्ञा मांहिके बाहिर दोनंं नहीं किणन्याय अजीव है
1
४ काल आज्ञा सांहिके बाहिर दोनूं नहीं कियन्याय जीव है ।
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( १२४ ) ५ पुल आज्ञा मांहिक बाहिर दोनं नहीं किगा
न्याय यजीव छै। ६ जीव आजा मांहिके बाहिन दोने छै किणन्याय निर्वा करगी आज्ञा मांहि छ सावध करगी
आज्ञा वाहिर है इशा न्याय । ॥ छ्व द्रव्यपर लड़ी दशमी चोर साहूकार की ॥ १ धर्मास्तिक्षाय चोर के साहूकार दोन नही किणन्याय चोर साहकार तो जीव के ए धर्मास्तिकाय
अजीव छै इगाचाय । २ अधर्मास्तिकाय चोर के साहकार दोनं नहीं
अजीव छ। ३ आकाशास्तिकाव चोरकै साहकार दोनं नहीं
अजीव । ४ कान्त चौरके साहकार दोन नहीं अजीव छ । ५ पुद्गल चोरके साहकार दोनॅ नहीं अजीव छै । ६ नीव चोरक साहकार, दान छ किगान्याय, साठा परिणामा आसरी बोर के चोखा परिणामां
श्रामगै साहकार है। ॥ छव द्रव्यपर लडी इग्यारमी जीव अजीवकी ।। १ धर्मास्तिवाय जीवके अजीव, अजीव के।
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( १२५ ) २ अधर्मास्तिकाय जीवके अजीव, अजीब छ । ३ आकाशास्तिकाय जीवक अजीव, अजीव छै। ४ काल जीवके अजीव, अजीव छ। ५ पुलास्तिकाय जीवके अजीव, अजीव छै। ६ जौवास्तिकाय जीव के अजीव, जीव के । ॥ ध्व द्रव्यपर लडीबारमी एक अनेक की ॥ १ धर्मास्ति काय एक छै के अनेक छै, एका छै,
किणन्याय, द्रव्यदको एकही द्रव्य छ। २ अधर्मास्तिकाय एक छे के अनेक छै एक है,
द्रव्ययको एकही द्रव्य है। ३ आकाशास्तिकाय एकके अनेक, एक छ, लोक
अलोक प्रमाणे एकही द्रव्य छ। ४ काल एक के के अनेक के, अनेक छै द्रव्ययको __ अनन्ता द्रव्य छै इणन्याय । ५ पुतल एक छै के अनेक छ, अनंक छ, द्रव्य थकी
अनन्ता द्रव्य छै न्याय । ६ नोव एक छै के अनेक है, अनेक छ अनन्ता द्रव्य छै दूणन्याय।
॥ लड़ी तेरमो ॥
छवमें नवसेकी चरचा । १ कमांकीकर्ता छव द्रव्यमे कोगा नव तत्वमे कोगा
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( १२६ ) उत्तर वसे जीव नवमे जीव पासव। २ कर्याको उपावता छवसे कोगा नवमे कोगा उ.
छबसे नौव नबसे जौव बालव । ३ कमीका लगावता वसे कोग नवमे कोण उ०
कवसे जोव नव से जीव आसव । ४ कमांको रोकता छबमे कागा नवमे कोमा उत्तर
छवर जीव नवमे जीव संवर । ५ कासीको तोड़ता झवसे कोगा नवमे कोग छवमे
जोव नवस जीव निर्जरा। ६ कमीको वान्धता छवमे कोण नवमे कोण छवमे
जीव नवसे जीव आस्रव । ७ शसीको मुकावता इयमें कोगा नवम कोगा छवसे
जीव नवमे जीव मोक्ष ।
॥ लड़ी चौदसी ॥ १ अठारे पाप मेवे ते छवसे कोगा नवमे कोगा क्वमें
नौव नवसें जीव प्रानव । २ पठार पाप सेवाका त्याग करे ते छवमे कोगा
नवले जोगा झवसे जीव नवम जीव निर्जग ।। है मामायका व कोगा नवमें कोगा छवमें जीव
नवर जीव संवर।
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( १२७ ) ४ ब्रत छवमें कोण नवमें कोण छवमें जौव नवमें
जौव संबर । ५ अब्रत छवमें कोण नवमें कोण छवमें जीव नवमें
जीव प्रास्त्रव। ६ अठारे पापको बहरमण छवमें कोण नवमें काग ___ छव में जोव नवमें जौव संबर । ७ पञ्च महाब्रत छवमें कोण नवमें कोण छवमें
जीव, नवमें जौव संबर । ८ पांच चारित्र छवमें कोण नवमें कोण छवमें
जीव, नवमें जीव, संबर। ___ पांच सुमतौ छवमें कोण नवमें कोण छव में जीव,
नवमं जौव, निर्जरा।। _१० तीन गुप्ती छवमें कोण नवमें कोण छवमें जीव
नवमें जीव, संबर। ११ बारे ब्रत छवमें कोण नवमें कोण छवमें जीव
नवमें जीव, संबर। १२ धर्म छवमें कोण नवमें कोण छवमें जीव, नवमें
जीव,-संबर, निर्जरा। १३ अधर्म छवमें कोण नवमें कोण छवमें जीव, ' नवमें जीव, आस्रव । १४ दया छवमें कोण नवमें कोण छवी जीव.
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( १२८ ) नवने जीव. संवर, निजंगा । १५ हिन्झा सवसे कोगा नवमें कोग छवमें जीव,
नव जीव, बालव ।
॥ लडो १५ पंदरमी ॥ १ जोव वने कोगा नवर्स कोगा छवमें जीव, नवमें
जौच. प्रास्त्रव, उंबर, निर्जना मोक्ष। २ अजीव कुवमे जोगा नवसे कोगा छवमें पांच, __ नवमे जीव, पुन्च, पाप, वंध। ३ पुन्य चमे कोश नवमें कोगा छवसे पुद्गल, नवमें
अऔव, पुन्य, बंध। ४ पान कवमें कोग ? नवमें कोण ? छवमें पुद्गल,
नव, अजौव, पाप बंध। ५ अास्व छवमें वोगा नवमें कोगा छवमें जीव,
नवमें जीव. प्रास्त्रव। ६ संवर में भागा नवमें कोगा छवमें जीव, नवमें
जीव संवर। ७ निर्जग छबसें कोगा नवमें कोण छवमें जीव, नवमें
जीव, निर्जा। ८ बंध छबसे कोगा नवमें कोण वमें पुगल, नवमें
यजीवर, पुन्य, पाप, बंध ।
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( १२६ ) ६ मोक्ष छबमें कोण नवमें कोया छबमें जोय, नव जीव, मोक्ष।
॥ लडो १६ सोलहमी ॥ १ धर्मास्ति छवमें कोण नवमें कोण छवमें धर्मास्ति,
नवमें अजीव । २ अधर्मास्ति वमें कोण नवमें कोण छवभे __ अधर्मास्ति, नवमें अजीव ।। ३ आकाशास्ति, छव, कोण नवमें कोण कक्ष . आकाशास्ति, नवमें अजीव । ४ काल छवमें कोण नवमें कोण छनमें काल,
नवमें अजीव । ५ मुगल छवमें कोण नवमें कोण छवमें पुद्गल,
नवमें अजीव, पुन्य, पाप बंध । ६ जीव, छवमें कोण नवमें कोण छवम जौष, नवमें जौव, आस्रव संबर, निर्जरा मोच्च ।
॥ लडी १७ सतरमी ॥ १ लेखण ( कलम ) पूठो, कागद को पानों, लकड़ी को पाटी; छवमें कोण नव कोख छवमें पुगल, नवमें अजीव ।
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( १३० ) २ पात्रो, रजोहरा, चादर चोलपट्टो आदि भंड उपगरण; छवसे काम नवमें झोण छवमें पुद्गल,
नवसे' अजीव । ३ धानको दागों; छवसे कोण नवमें कोगा छवमें
जीव, नवले जोन । ४ रुख (वृक्ष) छवमें कोय नवौं कोग्य छवमें
जीव. नवले जीव । ५ तावड़ो छायां छवसे कोण नवमें' कोण छवमें
पुगल, नवखें अजीव । ६ दिन रात छवसे कोण नवमें कोण छवमें काल,
नवसे अजीव । ७ शौसिद्ध सगवान छवसे कोण नवमें काण छवमें
जीव, नवसें नौव मोक्ष।
॥ लड़ो १८ अठारमी ।। १ पुन्य और धर्म एकके दोय, दोय किणन्याय,
पुन्च तो अजीव है, धर्म जीव छ। २ पुन्य और धर्मास्ति एक के दोय; दोय, कि
न्याय, पुन्च ती रूपी के धर्मास्ति अरूपी छ । ३ धर्म और धर्मास्ति एक के दोय दाय, किण
न्याय, धर्म तो जीव है, धर्मास्ति पजीव छ।
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位
"
( १३१ )
४ अधर्म और अधर्मास्ति एक के दोय दाय, कियान्याय, अधर्म तो जौव है, अधर्मास्ति अजीब है ।
॥ लड़ी १९ उन्नीसमी ॥
५ पुन्य अनें पुन्यवान एक के दोय दोय, किणन्याय, पुन्य तो अजीव है पुन्यवान जीव है होय दोय, किणन्याय,
६ पाप अने पापा एक
पाप तो अजीव के पापो जौव के ।
,
७ कर्म अलें कमी को करता एकके दोय होय, किन्याय, कर्म तो अजीव है; कर्मारो करता !
नोव है ।
|| लडी १६ सोलहमी ॥
॥
१ कर्म खोव के अनौव अव ।
२ कर्म रूप के अरूपी रूपौ है ।
३ कर्म सावदा निरवद्य; दोनूं नहीं अजीव है | ४ कर्म चोरके साहूकार, दोनूं नहीं; अजीव है | ५ कर्स आज्ञा मांहिके बाहिर; दोनं नहीं अजीव है । ६ कर्म छांडवा नोग के आदरवा जोग; छांडवा जोग है ।
७ आठ कमी में पुज्य कितना पाप कितना ज्ञानावर्णी, दर्शगावर्णी, मोहनीय, अंतराय, ए च्यार
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( १३२ ) कर्म तो एकान्त पाप छै, वेदनी, नाम, गोत्र, आयु ए च्यार वार्म पुन्य पाप दोन हो छ ।
॥ लड़ी २० बोसमो ॥ १ धर्म नीव को अजीव जीव है। २ धर्म सावा के निरवद्य निश्वद्य है। ३ धर्म आता मांहि के बाहिर श्री बितनाग देवको
आजा मांहि है। ४ धर्स चोर के साइकार साइकार छ । ५. धर्म रूपी के अरूगौ अरूपी है। ६ धस छोडवा जोग के आदरका जोग पादरवा ___ नोग है। ७ धर्म पुन्च के पाप दोन नहीं किगन्याय धम ता नौव के पुन्य पाप अजीब है।
॥ लडी २१ इकोसमी ॥ १ चधर्म जीव के अजीब जीव के। २ यधर्म सावध के निरवद्य सावध छै । ३ अधर्स चोर के माहकार चोर है। ४ धर्म आज्ञा मांहि की वाहिर; वाहिर के। ५ अधर्म रूपी के बापी रूपों है।
..
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( १३३ ) ६ अधर्म छोडवा जोग के आदर वा जोग छोडवा जोग छ।
॥ लड़ी २२ बाइसनी ॥ १ सामायक जीव के अजीव जीव छै । २ सामायक सावा के निरव द्य निरवद्य छ। ३ सामायक चोर के साइकार साहकार के। ४ सामायक धाज्ञा मांहि के बाहिर भाज्ञा मांहि
५ सामायक रूपी के अरूपी अरूपो छ। ६ सामायक छांडवा जोग के आदरवा लोग श्राद- .
रवा नांग छै। ७ सामायक पुन्यके पाप दोने नहौं, किणन्याय पुन्य पाप अजीव छै, सामायक नीव छै ।
॥ लड़ी २३ तेवीसमी ॥ १ सावद्य जीव के अजीव नौव छै। . २ सावद्य सावद्य के के निश्वद्य सावध है। ३ सावा आज्ञा मांहि के बाहिर बाहिर है। ४ सावा चोर के साइकार चोर छ । ५ सावद्य रूपी के मरूपी अरूमौ है।
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3
( १३४ )
६ सावध छांडवा नोग के बदरवा जोग छांडवा
जोग है ।
७ सावद्य पुन्य, के पाप दोनं नहीं; पुन्य पाप तो अजीव है; सावद्य नीव है ।
॥ || लडी २४ चोबीसमी ॥
१ निरवद्य जीव के जीव जीव 1 २ निरवद्य सावद्य के निरवद्य निरवद्य के 1
३ निरवद्य चोर के साहूकार साहूकार छ ।
४ निग्वद्य भाज्ञा मांहि के बाहिर मांहि है ।
५. निरवद्य रुपी के अरूपी अरूपी है
1
६ निरवद्य छांडवा जोग के आदरवा जोग आदरवा ७ न
जोग है ।
धर्म के अधर्म धर्म है ।
८ निग्वद्य पुन्य के पाप पुन्य पाप दोनूं नहीं, किगन्याय पुन्य पाप तो अजीव है, निरवद्य
नीव के
1
॥ लडी २५ पचीसी ॥
१ नव पदार्थ में जीव कितना पदार्थ अने अजीव
कितना पदार्थ जीव, आस्रव, संवर निर्बंग,
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( १३५ ) मोक्ष, ए पांच तो जीव छै; अने अजीव, पुन्य, । पाप, बंध, ए च्यार पदार्थ अजीव छ । । २ नव पदार्थ से साबा कितना निरवद्य कितना
जौव अने प्रास्त्रव ए दोय तो सावद्य निरवद्य दोन छ, अजीव, पुन्य पाप, बंध, ए सावध निरवद्य दोन नहौं। संबर, निर्जरा, मोक्ष, ए
तीन पदार्थ निश्वद्य छै। ३ नव पदार्थ में आज्ञा मांहि कितना आज्ञा बाहिर कितना जीव, आसव, ए दोय तो आता मांहि पण छै, अने आजा बाहिर पण छै। अजीव, पुन्य, पाप, बंध, ए च्यार थाज्ञा मांहि बाहिर दोनं ही नहीं। संबर, निर्जरा मोक्ष, ए आज्ञा
मांहि । ४ नव पदार्थ में चोर कितना साहकार कितना
जौव, आस्रव, तो चोर साहकार दोन ही छै। अजीव, पुन्य, पाप, बंध ए चोर साहूकार दोन नहीं; संबर, निर्जरा, मोक्ष, ए तीन साहूकार
५ नव पदार्थ में छांडवा जोग कितना आदरवा
जोग कितना जौव, अजौव, पुन्य, पाप, आस्रव, बंध, ए छव तो छांडवा जोरा छै; संबर, निर्जरा,
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मोक्ष ए तीन आदरवा जोग छ अने जागाया
जोग नवही पदार्थ छै। ६ नव पदार्थ में रूपी कितना अरूपी कितना
जौव, चाखव, संवर, निर्जग, मोक्ष ए, पांच तो अरूपो छै; अजौव रूपी अरूपी दोन छ पुन्य, पाप, बंध कपी है। 9 नव पदार्थ से एक कितनां अनेक कितना उ० अजोब टालो आठ पदार्थ तो अनेक है, अने यजीब एक अनेक दोन छै, किणन्याय धर्मास्ति अधर्मास्ति आकाशास्ति
घको एक एक ही द्रव्य है।
॥ लडो २६ छवीसमी ॥ १ छव द्रव्य में जीव कितना अजीव कितना एक
जौब पांच अजीव छ। २ छव द्रव्य में रूपी कितना अरूपी कितना जीव; धर्मास्ति; अधर्मास्ति आकाशास्ति; काल; ए पांच
तो अरूपी के. पुद्गल रुपी है। ३ छव द्रव्य से आज्ञा मांहि कितना थाना वाहिर कितना जीव तो आज्ञा मांहि वाहिर दोन छै; बाको पांच माजा मांहि वाहिर दोनं नहीं।
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( १३७ )
स 8 व द्रव्य में चोर कितना साहूकार कितना
जौव तो चोर साहूकार होनं है; बाकी पांच द्रव्य चोर साहूकार दोनं नहीं; जीव है ।
५ छव द्रव्य में सावद्य कितना निरवद्य कितना
俗
ņ
1
T
एक जीव द्रव्य तो सावद्य निरवदा होनूं है; बाकी पांच द्रव्य सावद्य निरवद्य दोनूं नहीं । ६ छव द्रव्य में एक कितना अनेक कितना धर्मास्ति; अधर्मास्ति श्राकाशास्ति; ए तीनों तो एक हो द्रव्य है; काल नौव; पुद्गलास्ति ए तीन अनेक छै; दूणांका अनन्ता द्रव्य है ।
७ छष द्रव्य में सप्रदेशी कितना अप्रदेशी कितना एक काल तो अप्रदेशी है; बाकी पांच सप्रदेशी छै ।
॥ लड़ी २७ सत्ताइसमी ॥
१ पुन्य धर्म के चधर्स दोनं नहीं; किगन्धाय धर्म अधर्म जीव है; पुन्य अजीव है
२ पाप धर्म के अधर्म दोनं नहीं, किणन्याय धर्म अधर्म तो जीव के पाप जीव है
३ बंध धर्म के अधर्म दोनूं नहीं; किणन्याय धर्म अधर्म तो जीव है बंध जीव है
1
१८
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( १३८ .) पार्य अने धर्स एस के दोय दोय है किणन्याय ___ कर्स तो अजीव छै; धर्स जीव छै। ५ पाप शने धर्म एक के दोय दोय छै; किसाबाय
माम तो अजीव ॐ धस जीव छ। ६ सधर्म अनें अधर्मास्ति एक के दोय दोय; किण
न्याय अधर्म तो नौव छै; अधर्मास्ति भाजीव छ। ७ धर्म भने धर्मास्ति एक के दाय दोय; किणन्याय
धर्म तो जीव छै; धर्मास्ति अजीव छै । ८ धर्म अने अधारित एक के दोय दोय, किणन्याय ___ धर्म तो जीव छै; अधर्मास्ति अजीव छै। है, अधर्म अने धर्मास्ति एक के दोय दोयः विणन्याय __ अधर्म ता नौव; धर्मास्ति अजीव छ। १० धर्मास्ति धनें अधर्मास्ति एक के दोय दोय;
विष्णन्याय धर्मास्ति को तो चालवा नो सहाय के
भने अधर्मास्तिनो थिर रहवानों सहाय छै। ११ धर्म पने धर्मों एक के दोय एक छै; किणन्याय
धर्म जीवका चोखा परिणाम छ। १२ अधर्म अने अधर्मी एक के दोय एक छै; किन
न्याय अधर्म जीव का खोटा परिणाम है।
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________________
'
い
* प्रश्नोत्तर
१ धारो गति कांई - मनुष्य गति ।
२ धागे जातो कांई-पंचेन्द्रौ ।
३ थारी काय कांई -- वसकाय ।
}
8 इन्द्रियां कितनो पावे - ५ पांच |
५ पर्याय कितना पावे -६ छव ।
६ प्राय कितना पावे-१० दश पावे ।
७ शरीर कितना पावे - ३ तीन - चोदारिक; तेजस
कार्म ।
f
८ लोग कितना पावे – नव पाषै च्यार मन का; च्यार बचनका; एक काया को; चोदारिक । 2 उपयोग कितना पावें-४ च्यार पावै सतिशान १ श्रुतिज्ञान २ चक्षु दर्शन ३ श्रचतु दर्शन
१० बारे कर्म कितना ८ पाठ |
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(१४० ) ११ गुणरयान किलो पावे-व्यवहारधी पांचम, साधु __ने पूछ तो छट्ठो। १२ विषय कितनौ पाव-२३ तेवीस । १३ सिथ्यात्वनां दश बोल पावै को नहीं, व्यवहारथी
नही पावै। . १४ नौवका चौदा भेदासें से किसो भेद पामे, १
एका चोदमं पर्याप्तो सन्नी पंचेन्द्रों को पावै । १५ घातमां कितनी मावै श्रावको तो ७ सात पावै ___भने साधु मे आठ आवै। १६ दण्डक किसों पावै-एक इकबीसमु। । १७ लेस्या कितनी पावै–६ छ । १८ दृष्टी कितनी पावै-व्यवहारथी एक; सम्यक
दृष्टी पावे। १६ ध्यान कितना पादै-३ तीन, शुक्ल ध्यान टालके । २० छबद्रव्यमें किसा द्रव्य पावै-~-१ एक जीव द्रव्य । २१ राशि किसो पावै--एक जीव गधि । २२ श्रावक का वारा व्रत श्रावक में पावै । २३ साधुका पञ्च महाव्रत पावै वो नहीं-साधु में
पाचे श्रावक में पाये नहीं। २४ पांव चारित्व थावका में पावै के नहीं, नहीं पाये,
एक देश चारित पावै ।
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(२४ ) १ एकेन्द्रौ की गति काई-तिबंच गति। २ एकेन्द्रों की जाति काई-एकन्द्रों। . ३ एकेन्द्रों में काया किसौ पावै-पांच घावर की। ४ एकेन्द्रौ से इन्द्रियां कितनी पावे-५. स्प
इन्द्री। ५ एकेन्द्रौ से पर्याय कितनी पावै–४ च्यार मन
भाषा ए होय टलौ। ६ एकन्द्रो में प्राण कितना पावै-४ च्यार पावै स्पर्श इन्द्रौय बलप्राण १ काय बलप्राण २ श्वासोश्वास बलग्राण ३ अायुषो बलप्राण ४ ७ मूरड माठौं मुलतानां पत्थर सोनो चांदी रतना. दिक पृथ्वीकाय का प्रश्नोत्तर :--
प्रश्न
गति काई जाति काई काय किली इन्द्रियां कितनी पाये .. - पर्याय कितनी पावै । प्राण कितना
उत्तर तियंञ्च गति एकेन्द्री पृथ्वीकाय एक स्पर्श इन्द्री ४ च्यार, मन भाषा टली ४ च्यार पावै, स्पर्श इन्द्री बल प्राण १ काय बल २. श्वासोश्वास बल ३ भायु .
पलप्राण ४
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क
( १४२ )
८ पांगी श्रमादि चप्पलायको
प्रण
पति कार्ड
जाति कोई
काय किसी
इन्द्रियां कितनी
पर्याय कितनी
प्राण कितना
चम्नी ते कायनी
प्रश्न
गति कांई
जाति कोई
काय किसी
इन्द्रियां कितनी
पर्याय कितनी
प्राण कितना
१० वायु कायको
प्रश्न
गति कांई
नाति कोई
फाय कोई
इन्द्रियां कितनी
पर्याय कितनी
माण कितना
उत्तर
तियंच गति
एकेन्द्री
अप्पकाय
एक स्पर्श इन्द्री
४ व्यार,
४ व्यार, ऊपर प्रमाणे
मन भाषाटली
उत्तर
तियंच गति
एकेन्द्री
तेउकाय
एक स्पर्श इन्द्री
४ च्यार, मन भाषा टली
४ च्यार, ऊपर प्रमाण
उत्तर
नियंत्र गति
एकेन्द्री
वायुकाय
एक स्पर्श इन्द्री
४ चार, ऊपर प्रमाणे
४ व्यार, ऊपर प्रमाणे
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( १४३ .) . ११ वृक्ष, लता, पान, फूल, फल, सोलण,
फलण धादि वनस्पतिकायनी
।
प्रश्न
गति कोई जाति काई काय काई शन्द्रियां कितनी पर्याय कितनी प्राण कितना..
तियंच गति एकेन्द्री धमस्पतिकाय एक स्पर्श इन्द्रो च्यार, ऊपर प्रमाणे व्यार, ऊपर प्रमाणे
.
१२ लट गिंडोला आदि बेन्द्रौको
उत्तर
.
। गति कांई
जाति काई काय काई .. इन्द्रियां कितनी पर्याय कितनी प्राण कितना .
तियंच गति बेन्द्रो अस काय २ दोय, स्पर्श, रस, इन्द्री ५पांच मन पर्याय टली . ६ छव, रस इन्द्री बल प्राण १ स्पर्श इन्द्री यल प्राण काय पल प्राण , ३ श्वासोश्वासवल प्राण आउखो यल प्राण भाषा बल प्राण · ......
२
पल प्राण
.
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(१४४ ) १३ कोड़ी सोड़ा बादि तइन्द्रीका
प्रश्न
उत्तर মানি না
तिर्यच गति जाति फाई
तेइन्द्रो काय काई
त्रस काय इन्द्रियां कितनी
३ तीन, स्पश १ रस २ घ्राण ३ पर्याय कितनी
५ पांच, मन टली प्राण कितना
सात, छव तो ऊपर प्रमाणे
घाण इन्द्री बल प्राण घध्यो १४ माखौ मच्छर टौडौ पतंगिया विच्छ आदि
चोइन्द्री का
प्रश्न गति काई जाति कांई फाय काई इन्द्रियां कितनी पयाय कितनी प्राण कितना
उत्तर तिथंच गति चोइन्द्रो इस काय ४ च्यार, धृत इन्द्री टली ५ पांच, मन टली ८ आठ, सात तो ऊपर प्रमाणे एक चक्ष इन्द्रो बल प्राण और बध्यो
१५ पंचेन्द्रीकी
प्रत्र मति कितनो पाये .,
४ च्यारं हो पाये
तपासनापाक
,
र
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जाति काई काय काई इन्द्रियां कितनी पर्याय कितनी
( १४५ )
पंचेन्द्री अस काय पांचोंही ६ छवों ही पावै सन्नीमें, और असन्नीमें ५ पांच, मन टल्यो, सन्नीमें तो १० दशुं ही पावे, असन्नी में : पावै मन टल्यो
प्राण कितना पावै
प्राप
माघे
१६ नारको पूछा
उत्तर
गति काई जाति काई काय काई इन्द्रियां कितनी पर्याय कितनी प्राण कितना
नरक गति पंचेन्द्री. प्रस काय ५ पांचोही ५ पांच, मन भाषा भेली लेखवी १० दशोंही
१७ देवताको पूछा
प्रश्न
उत्तर
गति कांई जाति काई काय काई इन्द्रियां कितनी पर्याय कितनी प्राण कितना
देव गति पंचेन्द्री प्रस काय ५ पांचोही ५ मन भाषा भेली लेखपी १० दशोंही
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१८ मनुष्य को पूछा असन्नी को प्रश्न
उत्तर गति काई
मनुष्य गति जाति काई
पंचेन्द्री
त्रस काय इन्द्रियां कितनी
५ पांच पर्याय कितनी
॥ श्वास लेवेतो उश्वास नह प्राण कितना
७॥ श्वास लेवेतो उश्वास न
काय काई
१६ सन्नी मनुष्य को पूछा
उत्तर
प्रश्न
काया कोई
गति कांई
मनुष्य गति जाति काई
पंचेन्द्री
त्रस काय इन्द्रियां कितनी
५ पांच पर्याय कितना
६ छव प्राण कितना
१० दश १ तुमे सन्नौके अमन्नी ? सन्नी, किणन्याय मन २ तुमे सूचमके बादर, ? बादर किगण ? दीखें ३ तुमे चमक स्थावर ? बस, किण० ? हाल चालं ४ एपेन्द्री मन्नी के प्रसन्नी-असन्नी, किण.
नहीं। ५ एकेन्द्रो सूक्ष्म के बादर-दोनं ही छै
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}
( १४७ )
एकेन्द्री दोय प्रकार की है, दोखे ते बादर है, नहीं दौखे ते सूक्ष्म छे ।
६ एकेन्द्री त्रस के स्थावर - स्थावर है, हाल चालै नहीं ।
एकेन्द्रों में इन्द्रियां कितनी - एक स्पर्श इन्द्रौ ( शरीर ) ।
८ पृथ्वीकाय अध्यकाय ते काय वायुकाय वनस्पति
काय ।
प्रश्न
सन्नी के असन्नी
सूक्ष्म के बादर
त्रस के स्थावर
९ बेइन्द्रौ तेइन्द्रो चौइन्द्रो को पूछा
प्रश्न
उत्तर
सन्नी के असन्नी
असन्नी छै मन नहीं
सूक्ष्म केबादर
चादर छै
त्रस के स्थावर
त्रस छै
१० तिर्यंच पंचेन्द्रो को पूछा
उत्तर
असन्नो छे मन नहीं
1
दोनूं ही प्रकार की छै
स्थावर छै
प्रश्न
सन्नी के असन्नी
सूक्ष्म के बादर
बस के स्थावर
उत्तर
दोनं ही छे
घादर छै
प्रस
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( १४८ ) ११ असन्नी मनुष्य चौदे स्थानको नौपजै प्रश्न
. उत्तर मन्नी के असन्नी
असन्नी छ सूक्ष्म के बादर
चादर छ त्रस के स्थावर
त्रस छ
१२ सन्नी मनुष्य ते गर्भ में उपजै जिणारी पूछा प्रश्न
उत्तर सन्नी के असन्नी
सन्नी छ अस के स्थावर
प्रस छ सूक्ष्म के बादर
वादर छै १३ नारकी का नेगैया को पूछा प्रश्न
उत्तर सन्नी के असली
सन्नी छ सूक्ष्म के बादर
वादर छ घस के स्थावर
प्रस छ
१४ देवता की पूछा प्रश्न
उत्तर सन्नी के असन्नी
सन्नी छै स्म के बादर
बादर छ प्रस फे स्थावर १५ गाय भैस हाथी घोड़ा बलद पक्षी आदि पशु
जानवर को पूछा
वस
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। १४६ )
- प्रश्न
उत्तर । सन्नी के असन्नी ।
दोनें ही प्रकार का छै छिमो
छिमके मन नहीं, गर्भेज के मन छ सूक्ष्म के बादर
बादर छ, नेत्रसे देखवा मे आवे छे प्रस के स्थावर
प्रस छै हालै चाल छै १ एकेन्द्रौ मे बेद कितना पावै एक नपुंसक
बेद पावै। २ पृथ्वी पागी बनस्पति अग्नि बायगे यां पांचां में __ बेद कितना पावै ---१ एक नवंसक हो छ। ३ बेइन्द्री तेइन्द्रौ चोंडून्दी मे बेद कितना पावै
एक नपुंसक बेद हो पाव है। ४ पंचेन्द्रीमे बेद कितना पावै-सन्नी में तो तीनों
हो बेद पावे है, असन्नौमे एक नवंसक बेदही है। ५ मनुष्यमें बेद कितना पावै-अमन्नौ मनुष्य चौदे थानक मे उपजे जीणां मे तो वेद ऐक नपंसक हो पावै के, सन्नी मनुष्य गर्भमे उपजे जिणांम
बेद तीनोंही पावै छ। ६ नारकी में बेद कितना पावै--एक नपुंसक बेद
हो पावै छै। ७ जलचर थलचर उरपर भुजपर खेचर यां पांच प्रकार का तिर्यंचा मे बैद कितना पावै-छिमो
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( १५० ) __ छिम उपजे ते असन्नी के जिणांमें तो बेद नपुंसर
हो पावै के, अनें गर्भ में उपजे ते सन्नी है जिप्..
से वेद तीनोंही मावै छै। ८ टेवतामे वेद कितना पावै-उत्तर-भवनपती,
वागाव्यन्तर, जोतिषी, पहिला दूजा देव लोक ताई तो वेद दोय स्त्रौ १ पुरुष २ पावै छै, और तीजा देवलोक से स्वार्थ सिद्ध ताई वेद एक
पुरुष हो छ।
६ चौवीस दण्डक का नौवां के कर्म कितना
उगगीस दण्डकका जीवाम तो कर्म आठही पावै छ, अनें मनुष्य में सात आठ तथा च्चार पावै छै। १ धर्म व्रत में के अव्रत मे-व्रत में। २ धर्म आजा मांहि के बाहिर श्रीबीतरागदेव को
अाज्ञा मांहि छै। ३ धर्म हिंसा में के दया में-दया में। ४ धर्म मोल मिले के नहीं मिले नहीं मिले,
___ धर्म तो अलूल्य के।
५ देव मोल मिले के नहीं मिले-नहीं मिले,
असल्य के।
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________________
( १५१ )
गुरु मोल लियां मिले के नहीं मिले- नहीं मिले, अमूल्य
है ।
• साधुजी तपस्या करै ते व्रत में के अब्रत में व्रत पुष्टको कारण है अधिक निर्जग धर्म है । - साधुजी पारणो करे ते व्रत में के अब्रत में अव्रतमें' नहीं, किगन्याय ? साधुके कोई प्रकार भव्रत रही नहीं सब सावद्य जोगका त्याग छै तिगसूं निरजरा थाय छे तथा व्रत पुष्टको कारण है ।
1
2 श्रावक उपवास आदि तप करे ते व्रत में को अब्रत में - व्रत में ।
--
• श्रावक पारणो करे ते व्रत में के अब्रत में -
――――
अव्रत में किणन्याय ? श्रावक को खाणों पौगों पहरणों ए सर्व अव्रत में है श्रीउववाई तथा सूयगडांग सूत्र में बिस्तारकर लिख्या है । ११ साधुनी नें सूजतो निर्दोष आहार पाणौ दियां कांई होवे, व्रतमें' के अब्रतमें - अशुभ कर्म चय थाय तथा पुन्य बंधे है, १२ मं व्रत है 1 १२ साधुजौ नें सूजतो दोषसहित आहार पाणी दियां कांई होवै तथा व्रत में के अव्रत में - श्री भगवती सूत्र में कह्यो है, तथा श्री ठाणांग
1
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________________
(१५२ ) सूत्र से तौजे ठागों में कयो छै अल्प आयुबंधै असल्यागाकारी कर्म बंधे तथा असूजतो दोधोते
व्रत से नहीं। पाप कर्म बंधै छ। १३ अरिहंत देव देवता के मनुष्य-मनुष्य है। १४ माधु देवता के मनुष्य-मनुष्य छ । १५ टवता साधुनौं बंछा करै के नहीं करै-करै
माधु तो सवका पूजनीक छ। १६ साधु देवताको बंछा करके नहीं करै-नहीं करै। १७ मिद्ध भगवान देवता के मनुष्य-दोनं नहीं। १८ सिङ्घ अगवान सूक्ष्म के वादर-दोन नहौं । १६ सिद्ध भगवान त्रसके स्थावर--दोनं नहीं। २० मिद्ध भगवात सन्नी के असन्नौ-दोन नहौं । २१ सिद्ध भगवान पर्याप्ता के अपर्याप्ता---दोन नहौं ।
॥ इति पानाकी बरचा ॥
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अथः प्रतिक्रमणा।
अर्थ सहित।
णमो अरिहंताणं यामो सिद्धाणं गहमो नमस्कार थावो श्री अरिहन्त नमस्कार थावो श्री नमस्कार भगवन्त में
सिद्ध भगवान ने थावो पायरियाणं णमो उज्झायाचा गमो लोए श्री समाचारज नमस्कार थावो श्री नमस्कार थावो महाराज ने उपाध्याय महाराज ने लोक के विषै
सब्ब साहुणं । सर्व साधु मुनिराजों नें।
॥ अथ तिख्खुता की पाटी ॥
अर्थ सहित तिख्खुत्ता भायाहिणं पयाहिणं बंदामि नम तीन बार दाहिणा प्रदक्षिणा पंदना सत्कार नम पासाथी ई.
फक' स्कार
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नमस्कार
सामी सक्षारमी समाणेमी कल्लाणं मंगल फझ सत्कार देऊ सनमान करु कल्याणकारी
. . मंगल कारी देवयं चेयं मम वासामी मस्यएगह बंदामी धर्म देव चित्त प्रसन्न सेवना कर्फ मस्तके करी बंदना
कारी ज्ञान
चंत इच्छामि पडिकमित्रो इरिया वहियाए इच्छं, बाच्छु प्रतिक्रमवोते मार्ग में विषै ज्यो
निवत्तेवो । गमगागमगा
पागक्कम विराधना हुई जातां . तां प्राणी वेन्द्रियादि नों होय
आक्रमण करणूं ते
यद्य" वीयक्षमनों हरियकममो पोसा उत्तिंग - पणग योजको दाव" हरि लोलीके ओसको कीडीका
विराइगा ए
नीलण फूलण
दावणूं
बेईदिया
CATT
ulटया
..Cr
दग मट्टौ मकड़ा संताणा संकमरमे ने पाणी को माट्टीका मकड़ी का जाला मई वो तो जो दावलो जीव
उया होय मे नावा विराछिया में जीव विगध्यो होय एकेन्द्री जीव
योनी जीव तेईदिया चरिंदिया पंचेंदिया
पभी तेन्द्रो जीप चौदन्द्रो जीव पंचान्टी जीत्र सनमुक
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{ १५५ । , हया ' पत्तिया लेसिया संघाइया संघ आताहण्यां धूलसे रगड़या छातन कसा । संघट
बरती करी ढक्यां - ट्टिया परियाविया किलामिया उद्दविया किया परिताप्या कीलामना उपजाई उपद्रव किया ठागा उठाणं संकासिया जीवियानो वव एक स्थानसे दूसरे स्थान । पटक्या जीवत से
रोविया , तस्समिच्छामि दुक्कई ॥ १ ॥ नासकिया बेदनो मिच्छामि दुबलं ।
करो
॥ अथ तस्सुत्तरी ॥ सम्सउत्तरी करणोणं पायच्छित करणे तेहनो उत्तर फरवो प्रायश्चित्त
प्रधान विसोहो करोणं बिसलो करणणं
विशुद्धि करको सल्य रहित करो पावागं कमाणं निग्धाय
सट्टाए पाप कर्मका नास करवा
निमित्त ठामि करीमि काउसग्ग
अन्नत्य रिधर फरूं.छं काय उत्सर्ग इण मुजब
एतलो विशेष अससिएणं नौससिएगा . खासिएगा छौएगा अचास्वास नीचास्वास. खांसी
कीक
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________________
भंघल
अधोवायु
( १५६ ) नसाइणं उड्डःएणं वाय निसगणं भमलीए उवासी
डकार पित्तमुच्छाए सुहुमेहिं अङ्गसंचालहिं पित्तकर मूळ सूक्षमपणे शरीरको हालयो सुसेहिं खलसंचालेहिं सुमेहिं दिट्रिसंचालहिं सूक्षमपणे श्लेष्मको संचाल सूक्षम दृष्टी चलायो एवमाइएहिं आगारहिं अभग्गो अविराही इत्यादिक यह माघार से ध्यान भांगे नहीं वीराधना
ज हुज्ज मे काउस्लग जाव अरिहं नहीं होज्यो मर्ने काउसगते ध्यान जिहां तक अरि तागं भगवंताणं नमोकाविणणं
नपारेमि भगवन्तने नमस्कार करीने नहीं पार ताव कार्य ठाणेणं मोगा । तठाताई शरीरसे स्थानले सौनकरी ध्यानकरी अप्पागं वोसगमि ॥ इति ॥ यातमा में पापथको बोसराऊ ।
माणगां
हुन्त
॥ अथ लोगस्स ॥
लोगम्स
धन्म तित्यय रजि धर्म तिर्थ फरता चउवासपि के
चोयीस ये
उनोवगरे उध्योतकारी कित्ताइस फीति करू
लोक यो विषे अरिहन्त परिचन्ताकी
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( १५७ ) - उसम मजियं च बंदे संभव मभिनंदण च । ऋषभ अजित पुन. वंदु संभवनाथ अभिनन्दनजी पुनः
सुमई च मउमप्पहं सुपासं जिण हे पंदप्पहं सुमति पुनः पद्म प्रभु सुपाश्व जिन पुन. चदा प्रभु
नाथजी ___ बंदे सुविहिं च पुष्पदंत सोयल सिज्जस बंदु सुबिध पुनः दूसरो ना सीतल श्रेयांस
पुप्फदत बासुपुज च विमल मणं तंच जिणं घम्स वासुपूज्य पुनः विमलनाथ अनन्तनाथ जिन धर्मनाथ संति च बंदामि ३ कंथ अविहं च मल्लि शान्ति पुनः बंदु कुन्थु अर पुनः मल्लिनाथ
नाथ नाथ __ बंदे मंणिसुब्वयं नमि जिणं च बंदामि
बंदु मुनिसुव्रत नमि जिन पुनः बंदु रिट्टनेमि पासं तह वडमाणं च ४ एवं मरिष्ठनेम पार्श्वनाथ तथारूप पर्द्धमान पुनः बंदु यह मये अभियुया विकृय रयमला पहोगा जर मैं स्तुति करि दूर किया कर्म रूप खीणभया जनम
रंजल मरणा चऊ वोपि जिगावरा तित्य, यरा मे मजिणाका पाहवा चौबीस जिन राज तिथंकर म्हारे
नाथ
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________________
सुहुमेहि
( १५६ ) नभावणं उड्डःएणं वाय निसग्गणं भमलीए उवासी डकार अधोवायु
भंघल पित्तसुच्छाए
अङ्गसंचालहिं पित्तकर मूछो सूक्षमपणे शरीरको हालयो सुहुसेहिं खेलसंचाले हिं सुमेहि दिष्टूिसंचालहिं सूक्षमपणे श्लेष्मको संचाल सूक्षम दृष्टी चलायो एवसाइएहिं आगारीहिं अभग्गो अविराहो इत्यादिक यह भाघार से ध्यान भांगे नही वीराधना
ऊ हुज्ज से काउस्सगं जाव अरिहं नहीं होड्यो मनें काउसगते ध्यान जिहां तक
भगवंताणं _ नमोकारियां
भगवन्तने नमस्कार करीने ताव कायं ठाणेणं मोरोग भाणणं लाताई शरीरसे स्थानले यौनकरी ध्यानकरी अप्पागं वोसगमि ॥ इति ॥ मातमा में पापथकी योसराऊ ।
नपारमि नहीं पारू
तागं
हन्त
॥ अथ लोगस्स ॥
-
-
लोगस्स
धन्म
নিয়ভিৰা धर्म तिर्थ फरता जिन चउवौसीप कैवलो
चोयीस ये
उब्जोयगरी
उध्योतकारी किस इस फीति पार
लोक के विप चरिहन्तं रिहन्ताकी
केवल
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________________
( १५७ ) लभ मजियं च बंद संभव अभिनंदा च भ अजित पुन. बंदु संभवनाथ अभिनन्दनजी पुनः मई च मउमप्पहं सुपासं जिणं च पंदप्प मति पुनः पद्म प्रभु सुपार्श्व जिन पुन. चदा प्रभु
नाथजी बंदे सुविहिं च पुप्फदंत सोयल सिब्जस चंदु सुबिध पुनः दूसरो ना सीतल श्रेयांस
पुप्फदत बासुपुज्ज' च विमल मणं तंच जिणं धम्म' यासुपूज्य पुनः विमलनाथ अनन्तनाथ जिन धर्मनाथ संति च बंदामि ३ कंथ अरिहं च मल्लिं शान्ति पुनः चंदु कुन्थु अर पुनः मल्लिनाथ
__नाथ नाथ ___ बंदे मंगिसुब्वयं नमि जिणं च बंदामि बंदु - मुनिसुव्रत नमि जिन पुनः बंदु रिट्टनेमि पासं तह वद्यमाणं च ४ एवं अरिष्टनेम पार्श्वनाथ तथारूप धद्धमान पुनः बंदु यह मये अभिषया विडूय रयमला पहौण जर मैं स्तुति करि दूर किया कर्म रूप खीणभया जनम
रंजबैल मरणा चऊ वौसंपि जिणवरा तित्य, यरा मे मर्णजिणाका पहवा चौबीस जिन राज तिर्थकर म्हारे
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________________
( १५८ ) पमौयं तु ५ कित्तिय वंदिए महिया जे । प्रसन्नयाको कोर्निकरी वंदु मोटा प्रते तेह
पुज्या ध्याय लोगस्म उत्तमा मिद्धा आरोग्दा वोहिला लोको विप्रै उत्तम सिद्ध के गेग रहित समकित
बोध ला समाहि वर मुत्तमं दितुं ६ देसु निम्मर समाधि प्रधान उत्तम देखो' . चन्द्रमाथी निम. यग भाइहेसु अहियं पयासयग सागर वर घणां सूर्यथी अधिक प्रकाश करी समुद्र समान गम्यौरा मिद्धा मिद्धिं मम दिसंतु ७ गंभीर एहवा सिद्ध सिद्धी मनै देवो
॥ अथः नमाथुणं ॥ नमौत्य गां अरिहताणं भगवंताग नमस्कार थाघो भरिहन्त भगवंत ने धर्म
पाडगग की भादि
करता
तित्ययगगां मयंमवुद्धाण पुग्मिात्तमाणं तीये करता विना गुरू पोने प्रति पुरुषांमें उत्तम
शेध पाम्या पुरिम मिहाग पुरिमवर पंडरौयाग पुरि गुरागर्म सिंह समान पुरुषा ने पुंडरिक पुरुषा
कमल समान
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________________
| मवर, गन्ध · हत्यौगां नोगुत्तमाणं लोगनाहाणं गंध हाथी समान लोक मे उत्तम लोकका नाथ लोहियाणं लोगपईवाणं लोगपज्जोय गराणां लोकमे हित लोकमें प्रदीप लोकमें उद्योत कारी कारी
र समान अभयदयाणं चक्ख टयाणं सगदयाणं सरगदवाणं अभय दान मान चक्षु सुमार्ग दायक शरण दायक दाता दायक नौवदयाणं बोझ्दियाणं धम्मदयाणं धम्मदेश संजम जीत्व बोधदायक धर्म दायक धर्म देशनां “दायक याणं . धम्मनायगाणं, धम्मसार होणं धम्मवर दायक धर्मका नायक
धर्मका सारथी उत्तम धर्मकर चाउरंत चकवट्टोणं दीवोताणं सरणगई पठा ल्यार गतिका अंतकारी चक्र द्वीपा समान शरणागत मैं
वर्त समान , 'पप्पडिय, वरनाणं हंसगं.. धराणं विअट्टछाउ अप्रतिहत प्रधानज्ञान दर्शन धारक निवयों माणं जिणाणं नावयाणं , तिन्नाणं ताग्याणं छमस्थ जीत्या अने जीतावे पोते, तीखा, दुसराने पणो दनाने .
तारे बुदाणं बोल्याण मुत्ताणं मोयगाणं सव्वन यां पोते प्रति दुजाने प्रति कर्मधी .. — दूजाने . सर्यशा 'बोध पाम्या . बोधे · · मुकाध्या ... मुफावे
HALom
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अनन्त
सबद रिमोग शिवमयल मरुध मगात सर्व दाण कल्याणकारी গল
अचल सक्वय सव्वाबाह मप्य गागती सिद्धिगई अक्षय अन्यान्याधि फेरु आवे नहीं इसी सिद्धगति नासधेयं ठाणं सपत्तागं नमो जिग्गाणं ॥ इति ॥ नामवाला स्थान प्राप्त हुआ ज्यां जिनेश्वराने
नमस्कार थायो अथ आवस्सही इछामिणं भंते। धावस्सहो इच्छामिणं भंते तुबहिं अभणं अवश्य इच्छू छू में है भगवान तुम्हारी आज्ञासे नायेसमाणे देवमी पडिक्कमणं ठाएमि देवसी
दिवस प्रति क्रमण करूमैं दिवस
संवन्धी जान दर्शन चारित्र तप अतिचार चितवनाथ शान दर्शन चारित तप अतिचार चिन्तयना के
संवन्धी
भरये
करोमि काउमग्ग ।। फ छू में फाजसग ते ध्यान ____अथ इच्छामि ठामि काउसग । इच्छामि ठामि काउसम्ग' नो मे देवसिउ पर इन्छ ठाऊ फाउसग ज्यो में दियसमें मति
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यार को काईश्री वाईओ मागासी उस्मता चार कीनों शरीरसे वचन से मनले ___झंडा सूत्र उमग्गो अकाप्पो अवारणिज्जो ट्रजकाल दब्जि उनमार्ग अकल्पलीक नहीं करवा जोग दुर ध्यान खोटी चिंतिधो अगायारो अपिच्छिमब्यो चिन्तवना अणाचार नहीं इच्छवा जोग असावनपावरलो नाझे वहदखगो चरिताचरिते श्रावक के नहीं कर ज्ञात दशन देश व्रत
वा जोग पाप त व्रत भंगादि सुए सामाइए निरहं गुत्तौणं चउराहं कसायाणं श्रुत सामायक तीन गुप्ती च्यार कपाय पंचराहं मगब्बयाणं तिराहं गुण वयाणं चउराई पांच अणूव्रत तीन गुण ब्रत च्यार सिक्खावययाणं वारस विहस्स सावग धम्मस्स लिखा ब्रत बारै विधि श्रावक धर्म को जं खंडियं जं विराहियं तस्तमिच्छामि ज्यो खंडमाकरी ज्यो विराधना करी तेहनो मिच्छामि दुक्कडं ॥ दुक्कडं
॥ अथ खमासमणो ॥ इच्छामि खमासमणो वंदिउ जावणिज्जाए इच्छू छू क्षमावंत साधु वंदना सचितादिछांडी निपप.
शरीरपणें हुई निर्जरा अर्थ
२१
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( १६२ ) निसोहियाए अणुजाणह मेमि उग्गहं निस्सही शरीर करी आज्ञा देवो मुजे मर्यादा, अशुभ जोग
माही निवर्ततो हो कायं कायसंफासं खमणिज्जो मे किलामो चर्ण फर्शवाकी म्हारी कायासे खमज्यो हे भगवान फिलामनां आशा देवो तुमारा चर्ण
फर्शता भप्पकिलंताणं वहुसुभेगा भे दिवसोवईमतो थोड़ी किलामना बहुत समाधि भावकर, दिवस वीत्यो हुई हुचेते
तुमारो नत्ता में नवयिाज्जच मे खामेमि खमासमो संयम रुप इन्द्रीनोइन्द्रीना आपङ खमाऊ हे क्षमावंत यात्राधी तुमारा, उपशम थकी
छु साधु निरोग शरीर देवमियं वइक्कसं श्रावसिमाए पडिकमामि दिवस सम्बन्धी व्यतिक्रम अवश्य करणी नां पडिक डूं
अतिचार थकी खुमासनगागां देवसियाए प्रासायगाए हे क्षमायंन श्रमण दिवस संवन्धी
आसातना तेतीसन्नयगए जं किंचिमिच्छाए माटुबडाए तेतीस मांहिली ज्यो कोई किंचित् मिथ्या मनसे दुष्टन
मियाफरी किपा
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( १६३ )
कायदुक्कडाए
वयटुक्कडाए वचन से दुकृत मायाए लोभाए सबकालियाए सव्वमिच्छोवयराए
काया से दुकृत
माया कपट लोभकरी
सर्व कालमें
सर्व मिथ्याउप
कोहाए
सब्बधम्माइक्कमणाए आसायगाए जो
सर्व धर्म क्रियाका
उलंघन किया
क्रोधथी
अर्थ आगम सूत्र अर्थ दोनूं आगम
विषै
चारक्रिया
मे देवसिओ
एहवी आसातनाज्यो में दिवस ने
बिखे
पडिवसामि
मायाए
मानथी
अइयार
कयो तस्स खमासमणो
अति चार किया तेहनों हे क्षमावंत श्रमण निव छू निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ इति । । निन्दू छू गहूं छू आतमांथी वोसराउ छं
अथः आगमें तिविहे पन्नते ।
तिवहे पन्नत्ते
सुत्तागमे
आगमे आगम तीन प्रकारे प्ररूप्यो ते कहे छ
सूत्र आगम
प्रत्यागमे तदुभयागमे # एहवा श्रीज्ञान ने
तंजहा
अतिचार दोष लाग्यो होय ते भालोउ
जंवादूधं वचामेलियं हिमक्खरं अच्चक्रं पयहोणं
जे कोई बचन मिलाया हीणअक्षर
अधिक
पदहीण
होय
अक्षर
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(२६४ )
वियहाँ
विनय होण ते अविनय
टुट्टुपडिच्छियं अकालेकर
घोटा सूत्रकी इच्छा विनाका
करी
जागहिण
मन चच्चन
काया
घोसहियां
उच्चारण
हीण
न कसिन्काउ 'असिकाए सिज्झाए सिञ्झाए कालमे समाय न असज्काय में सज्मा में
करी
सए गणि
प्रवर्गाच्या
सिज्झाउ
सज्झाय करी
सझाय
करी
न सिकाए भगत गुणतां चितारतां चोखतां ज्ञानको
सज्काय न करी
ज्ञानवंत को आमातनां करो हावे तम्समिच्छामिदुक्कडं । नेहनो मिच्छामि दुक्कडं
अथः दंसणश्रीसमकित |
अरिहंतो यहदेवो
मुट्ठदि चोखो सूत्र
दीनूं अवनीतने
काले
1
दलगयाससहित
राना
शमा ने नमकिन, तेह अरिहन्त मांहिरे, जाव जीव
दर्श
लग
देव
सुमागी गुरुगो जिगपन्नतं तत्तं
कुछ नाधु
धम्म
गुरु जिन फल्यो ते तत्व
सज्झा
यनां
यहदेवो नावजीवं
वयसम्मत्त
यह समकित
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( १६५ )
एहवा समकितने विषै जे कोई अतिचार लाग्या होय ते लाडं, जिन बचन सांचा न सध्या होय, न प्रतित्याहोय, न बच्चा होय, पर दर्शगायें। बाकांक्षा बंछा कौधौ होय, फल प्रते संशय संदेह आण्णा होय, पर पाषण्डी को प्रशंसा की हुवे सावतो परिचय कोधी होय । एवात्र समकित रुपौ रत्न उपरे मित्य्यात्व रूप रंज मैल खेह लागो होय तस्समिच्छामि दुक्कडं |
॥ अथ बारे व्रत ॥
पागाइवायाउ
पढमे अगुव्वए प्रथम देशथी व्रत
प्राणाति पात को
विरम, व्रत पांच बोले करौ उलखौजे, द्रव्यथको
निवर्तयो व्रत
थ लाउ
G
मोटको
चस जौव बेईन्द्रो तेईन्द्री चौईन्द्रा पंचेन्द्रौ विन अपराधे आकुटी हणवानी विधि करीन' सउपयोग हणूं नहीं हगाउ नही मनसा वायसा कायसा | द्रव्यथको एहिज द्रव्य, क्षेत्रथको सर्व क्षेत्रां मांहि कालयको जावजीबलग, भावयको गग दोष रहित उपयोग सहित गुणधको संबर निर्जरा, एहवा म्हांरे पहला व्रतने' विषै ने कोई अतिचार दोष लागो होय ते मलाउं ।
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( १६६ ) जीवने गाठे वन्धन बांध्या होय १ गाढा घाव घाल्या होय २ चामड़ी छेदन किया होय ३ अति भार घाल्या होय ४ भात पाणीनां विच्छोहा कीनां होय ५ तम्स सिछामि दुक्कडं । बौण अगावए थ लाउ सूसावायाउ बिग्मणं वोजो अणू व्रत स्थलथी झूट बोलवो निवर्तवो पांचे बाले कगै ओलखौजे द्रव्यथको कनालिक १
कन्याके ताई झूठ गोवालिक २ भौमालिक ३ थापण मोमा ४ गाय भैसादि भूमि निमित लेकर
नटवो कारण झूठ झूठ कूडौमाख ५ झूठी साखी इत्यादिक मोटको झूठ मर्याद उपरांत बोलू नहीं वोलाउं नहीं मनसा वायसा कायसा, द्रव्यघको एहीन द्रव्य, क्षेत्रथको मर्व नेत्रामे कालथको जाव नीव लग, भावधको राग द्वेष रहित, उपयोग सहित, गुगाथको संवर निर्जग, एहवा म्हारै दूजा व्रतन विषै जे कोड अतिचार दोष लागी होय ते भालाऊं।
कियाही प्रते कूड़ो बालदियो होय १ रहस्य कानो वात प्रगट करी होय २ म्त्री पुरुपनां मर्म प्रकाश्या होय ३
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( १६७ ) मृषा उपदेश दोधी होय ४ कूड़ो लेख लिख्यो होय ५ तम्स मिच्छामि दुकडं तद्वये अणुव्वए थ लाउ अदिन्ना दागाउ विरमणं तीजो अणूव्रत स्थूलथकी अणदोयो लेवो ते चोरीको
निवर्तवो पांचे बोले कगै ओलखोजे द्रव्यथनी खात्र खगो गांठखोलो तालो पडकंचौकरी वाटपाड़ी पड़ौवस्तु माटको सधणियां सहित जाणी इत्यादिक मोटको चोरी मर्याद उपरांत करू नहीं कराउं नहीं मनसा बायसा कायसा द्रव्यथको एहिज द्रव्य, क्षेत्रथको सर्व क्षेत्रां मे, कालथको जावजीवलगे, भावथको राग द्वेष रहित, उपयोग सहित, गुणथको संबर निर्जरा एहवा म्हारै तीजाब्रतमें ज्यो कोई अतिचार लागी होय ते आलोउं । - चोरको चुराई बस्तु लोधी होय १ चोग्ने सहाय दौधो होय २ राज विरुद्ध व्योपार कोधी होय ३ कूड़ा वाला कूड़ामापा किया होय ४ बस्तु में भेल सभेल कौधो होय ५ सखरी दिखाय नखरी मापी होय तस्स मिच्छामि टुकडं ।
॥ इति
॥
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उल्यै घणचए थ लाउ सेहुगाउ विरमगं चायो अणवत स्थूलथकी मैथुनकी निवर्तवो पांचा वानांवारी बालखीजे द्रव्ययको तो देवता देवांगना सम्वन्धिया सैथुन सेवू नहौं सेवा नहौं तिबंध नियंचगौ सस्वन्धी अधुन मेवं नहौं सेवा नहीं मनुष्य सबधो संथुन सेवं नहौं सेवावं नहौ, मनुप्यणो सम्बन्धी मैथुन सेवाको मर्याद कौधौ छै तिण उपरांत सेवू नहौ सेवा नही सनसा वारसा कायमा, द्रव्ययको एहिज द्रव्य क्षेत्रको सर्व क्षेत्रांम बालश्रको जावजीव लगे, आवथको राग द्वेष रहित उपयोग सहित, गुगाथको संबर निर्जरा एहबा उहां चौथा व्रतमे ज्यो कोई अतिचार दोष लागो होय ते बालोड। घोड़ा कालको गखी परिग्रही सुं गमन कौधा होह १ अपरिग्रही सं गमन कीधी होय २ अनेक क्रिीड़ा कौधौ होय ३ पगयानाता विवाह जोड्या होय ४ काम भाग तिन अभिलाषासे सेव्या होय ५
तस्स मिच्छामि टुकडं।
॥ इति ॥
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(१६६ ।
पंचम अणबए थूलाउ परिग्गहाउ विग्मणं पांचमू । अणूव्रत स्थूलथकी परिग्रह ते धनको निवर्तवो पांचां ब्रोलां करौ अलखोजे द्रव्य थको खतु
उघाड़ी जमीन वत्य यथा प्रमाण हिरण सवन्न यथा प्रमाण ढकी जमीन जेह प्रमाण कीधो चांदी सोनांको जे प्रमाण कीधो धन धान यथा प्रमान हिपद चउप्पद यथा प्रमाण द्रव्य धाननों जेह प्रमाण कीधो दासदासी हाथी घोड़ा, जे प्रमाण
दिक चोपद कीधो कुंभी धातु यथा प्रमाण । तांबो पीतल लोहादि नो जेह प्रमाण
द्रव्यथको एहिज द्रव्य, चवथको सर्व क्षेत्रांमें कालयको जावजीव लगे, भावथको गग द्वेष रहित उपयोग सहित, गुणथको संबर निर्जरा एहवा म्हारा पांचवां अणुव्रतमें ज्यो काई अतिचार लागी होय ते आलोउं, खत्त वत्थ रो प्रमाणा अतिक्रम्य होय १ हिरण्य सुवर्णरा प्रमाण अतिक्रम्य होय २ धन धानरी प्रमाण अतिक्रम्यं हाथ ३ द्विपद चउपदरी प्रमाण अतिक्रम्यं हाय ४ कुम्भी धातुरी प्रमाण अतिक्रम्यं होय तस्समिच्छामि दुक्कडं ।
-
4
-
-
॥ इति ॥
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( १७० )
कट्टो दिशि व्रत पांचां बालां ओलखीने द्रव्य थकी तो उंची दिशारो यथा प्रमाण, नौची दिशारो यथा प्रसाण, तिरछौ दिशारी यथा प्रमाण, यां दिशारी प्रमाण कौधो तेह उपरान्त जायकर मंच वासव द्वार सेऊं नहीं सेवा नहीं मनसा बायसा कायसा द्रव्यथको तो एहिज द्रव्य न त्रयी सर्व क्षेत्रां सें कालघकी जाव जीवलग भावथको राग द्वेष रहित उपयोग सहित, गुणथको संवर निर्जरा एहवा मांहरे छट्ठा व्रत के विषे जे कोई अतिचार दोषलागो हवे ते आलोडं ।
ऊंची दिशारी प्रमाण अतिक्रम्यो होय १ नौची दिशारो प्रमाण अतिक्रम्यो होय २ तिरछी दिशारी प्रमाण अतिक्रम्यो होय ३ एक दिशा घटाई होय एक दिशा बधाई होय ४ पंघ में आघो संदेह सहित चात्यो चलायो होय ५ तस्समिच्छामि दुक्कडौं । ॥ इति ॥
सात उपभोग परिभोग व्रत पांचां वोलांकरी पोल
खोजे, द्रवग्रघको छवीस बोलांकी मर्याद ते कहै है
उलगीयां विहं १ दंतनविहं २ अंग पूलनादि विधि दांतन विधि
फल विहं २
फल विधि
と
}
"
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विधि
( १७१ ) अभिंगण बिहं ४ उवट्टण बिहं ५ अंजण विहं ६ तेलाभिंगादि उवटणादि की स्नानकी विधि तेल मालिस बत्य बिहं ७ बिलेवण विहं ८ पुष्फ बिह वस्त्र विधि विलेपन विधि पुष्प विधि आभरण बिहं १० धूप बिहं ११ पेज बिहं १२ गहणां पहरवा विधि धूपकी विधि दूध आदि
पीवाकी विधि भख्खण बिहं १३ उदन बिहं १४ सूप बिहं १५ सूखड़ी आदि चावल की विधि दालकी विधि
भक्षण की विधि बिगय बिहं ११ साग बिहं १७ सहर बिहं १८ विगयकी विधि सागकी विधि मधुर तथा वेलादि फल नौमण बिहं १६ पाणी बिहं २० सुखवास बिहं २१ जोमणकी विधि पाणींकी विधि मुखवास तांबूलादि
की विधि बाहण बिहं २२ सयण बिहं २३ पल्ली बिहं २४ गाड़ी प्रमुखकी सोचाकी विधि पगरखी की __विधि
पाटा कुरसी आदिपर विधि सचित्त विहं २५ द्रव्य बिहं २६ सचित्त की विधि द्रव्यकी विधि ___ए छबीस बोलांको मर्याद करो, जिण उपरान्त भोगवं नहीं मनसा वायसा, कायसा, द्रवाथको एहिज द्रवा चवथको सर्व नवांमें, कालथकी जाव
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( १७२ ) जीवलग, भावंघको राग इष रहित, उपयोग सहित गुणथको संवर निर्जरा, एहवा मांहग सातमां ब्रत के विषे जे कोई अतिचार दोष लागी हुवे ते पालो पञ्चखागां उपरान्त सचित्तरी आहार किनी होय १ पञ्चखाजां उपगन्त द्रवारी आहार किना होय २ पञ्चखाणां उपरान्त गहिणां अधिका पहया होय ॥ ३ ॥ पच्चखाणां उपरान्त कपड़ा अधिका पहस्या होय ॥ ४ ॥ पञ्चखाणां उपरान्त उपभोग परिभोग अधिका भोगवा होय । तस्समिच्छामि दुक्कडं ।
पंढरह करमांदान जाणवा जोग छै पण
आदरवा जोग नहीं ते कहै छ। इंगालकम्म १ वणकम्म २ साड़ीकम्मे ३ यग्नि करि लूहा- बन कर्म ते बनमे घास, सकट कर्म ते रादि कर्म
दरखतादि काटचो गाड़ीप्रमुखनो कर्म भाडी कम्म ४ फोड़ी कम्म ५ दन्तवाणिज्जे ६ भाड़ा कर्म लपादि कर्म
दांतको विणज ते नारेल सुपारी
ते व्योपार पत्थर भादि फोड़यो लखवाणिज्ज ७ रसवाणिज्ज ८ केसवाणिज्ज ६ लाप को वाणिज्य ग्स व्यापार ते बाल चमरादि
घी, तैल सहतादि व्यापार
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विषबाणिज्ज १० जन्तु पिलणयां कम्म ११ जहरको व्यापार
कल घाणी प्रमुख व्यापार निलच्छणियां कम्म १२ दवगोदावणियां कम्म १३ कसी वधियादि कर्म ते दावानलदेवो कर्म ज्यानवरांने बाधी कर्म सर द्रह तलाव सोसणियां कम्मे १४ असजण सरोवर द्रह तलाव सोषाया ते कर्म असंजतीने पीसगियां कम्म १५ ॥ इति ॥ पोषावा नो कर्म __ए पन्दी कर्मादान मर्याद उपरान्त सेवा सेवाया होय तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥ इति ॥ ___ आठमं अनर्थ दंड बिरमण ब्रत पांचा बोलांकरी पोलखोज , द्रवाथको अवज्माणचरियं १
भूडा ध्यान नों आचरवो पम्माय चरियं २ सपयाणं ३ पावकम्मोवएसं ४ प्रमाद करवो प्राण हिन्सा पाप कर्मको उपदेश - ए च्यार प्रकारे अनरथ दंड आठ प्रकारका आगार उपरान्त से नहीं आएहिउवा १ नाएहिउवा २ माघारिहिउवा ३ आपणे हित न्यातिके हित . घरके हित , परिवारहिउवा ४ मित्तहिउवा ५ नागहिउवाई परिवार के हित मित्रके हित नाग देवता, निमित्त
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( १७४ ). सूतहिउवा ७ जख्ख हिउवा ८ भूत देवता जक्ष देवता निमित्त निमित्त
द्रवाथको एहिज द्रवा वथको सर्व क्षेत्रांमें कालयको जाव जीव लग, भावथकी राग द्वेष रहित उपयोग सहित, गुणथको संबर निर्जरा, एहवा म्हारा बाठमां ब्रत के विषै जे कोई अतिचार दोष लागीहुवै ते आलोउ। कांदय नी कथा बोधी होय १ भंडकुचेष्टा कोधीहोय २ काम क्रिडाकी कथा करवो भांडनीपरै कुचेष्टाकरी होय मुखसे अरि बचन बोल्या होय ३ अधिकरण मुखसे खोटा वचन बोल्या होय
नाताजोड़कर जोड़ सुकाया होय ४ उपभोग परिभोग तुड़ाया तथा स्त्री भरतार एकवार भोग वारम्बार भोग __नो विरह कियो
में आवै ते में आवै ते अधिका भोगवा होय ५ तस्स मिच्छामि दकडं मर्याद उपरांत अधिक
तो मिच्छामि दुक्कडं भोग्या होय ते
॥ इति ॥
नवमा सामायक ब्रत पांचां वीलांकरी पोलखोज करोमि सन्त सामाईयं सावन्न जोगं पच्चखामि फरूं धूं में है भगवंत सामायका सायद्य जोग पचखाण
th.
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( १७५ ) जाव नियम (मुहर्त एका) पज्जवासामो दुविहेण यावत नियम एक मुहूर्त ते सेऊ शें दोय करण
दोय घड़ी तिबिहेणं नकरीमि नकारवमि मनसा वायसा तीन जोग नहीं करू नहीं कराऊ मनसे बचन से कायसा तसभ ते पडिक्वमामि निन्दामि गरिहामि शरीरसे तिणसं हे पडिक निन्दू छू ग्रहणा ते भगवान
निषेधूं धूं . अप्पाणं वासरामि ॥ पाप ते आतमांनेवोसराऊडूं
द्रवाथको कनै राख्या ते द्रवा क्षबथको सर्व क्षेत्रांमें कालयको एक मुइत तांई भावथको राग द्वेष रहित उपयोग सहित गुणथको संबर निर्जरा एहवा नवमां ब्रतके विषै जे काई अतिचार दोष लागा हुवे ते आला।।
मन बचन कायाका माठा जोग प्रवाया होय १ पाड़वा ध्यान प्रवर्ताया होय २ सामायक में समता नहीं करौ होय ३ अणा पूगी पारी होय ४ पारवा विसास्यो होय ५ तस्स मिच्छामि ढुक्कड।
॥ इति ॥ दशमों देशाबिगासी ब्रत पांचां बोलांकरी ओलखोज द्रवाथको दिन प्रते प्रभातथौ प्रारंभौने पुर्वादि
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छव दिशिरो मर्याद करो तिण उपरान्त जाई पांच आसव द्वार सेऊं नहीं सेवाऊं नहीं तथा जेतली भोमिका आगार राख्या तिगमें द्रवग्रादिकरी मर्याद करोति उपरान्त सेउ नहीं सेवाउं नहीं मनसा वायसा कायसा द्रवाथको एहिज द्रवा क्षेत्रथको सर्व नेत्रां में कालधको जेतलो काल राख्यो भाव थकी राग द्वेष रहित उपयोग सहित गुणघको संबर निर्जरा एहवा म्हांरै दशमा व्रतके विषै जे कोई अतिचार दोष लागते आलोउ ।
नवीं भूमिका वारली वस्तु अणाई होवे १ मुक लाई होवे २ शब्दकरो आपो जगायो होय ३ रुप देखाई आपो जगाया होय ४ पुद्गल न्हाखी आपो नगायो होय तस्स मिच्छामि दुक्कडौं ।
॥ इति ॥
इग्वारमं पोषद व्रत पांचां बोलांकरी श्रलखीन वाधको ।
असाण पाय खादिम खादिमनां पञ्चखाण आहार पाणी मेवादिक पान सुपारीदिक को पचवाण अम्मनां पञ्चखाग उमकमगो सुवन्ननां पञ्चखाण
मैथुन सेवाका त्याग
वोसरायो हुयो रन सोना का पचखाण वाग विलेवन नां पञ्चवाण पुष्पमाला गुलाल रंगादि चंदनादिक नो विलेपनका त्याग
माला
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( १७७ )
सस्थ
मुसलादि
सावज्ज
जोगरा
पच्चखाण
सावध
जोगका पचखाण
सस्त्र मूसलादिक इत्यादि मच्चखाण, कने द्रवाराख्या जिया उपरान्त मंच Tea द्वार सेउं नहीं सेवाऊं नहीं मनसा बायसा कायसा द्रव्यथौ एहिज द्रव्य क्षेत्रघो सर्व क्षेत्रांमें कालकौ (दिवस ) अहो रात्रि प्रमाण भाव थको राग द्वेष रहित उपयोग सहित गुणथको संबर निर्जरा एहवा म्हांरे इग्यारमां व्रत विषे जे कोई प्रतिचार दोष लागो होवे ते आलोउ ।
अपड़िहा होय
पड़िलेहा नहीं होय
सेज्जा संथारो
सोवाकी जगां विसतरी
होय १ अप्रमार्ज्या नहीं प्रमाय
पड़लेहना
फरी
उच्चारपासवगरौ भूमिका अपड़िलेह होय दुपड़ि
नहीं पड़िलेही होय
अथवा
टुपड़िलेहा
आच्छीतरह नहीं
होय दुप्रमार्ज्या होय २ आच्छीतरह नहीं प्रमार्ज्या
छोटी बड़ी नीतको जमीन लेही होय ३ अप्रमार्जी होय दुप्रमार्जी होय ४ पोषहमें निन्दा विकथा कषाय प्रमादकरी होय ५
तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
२३
॥ इति ॥
बार अतिथि संविभाग व्रत पांचां बोलांकरी पोलखीने द्रव्यथकौ ।
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________________
( १७८ ) समगो निगंथे फासू एसणीज्ज गां असाणं १ . श्रमण निग्रन्थ ने फासुक निर्दोष माहार
अचित पाणं २ खादिमं ३ खादिमं ४ वत्थ ५ पड़िगह ६ पाणी मेवो लोंग सूपारी आदि वस्त्र पात्रो कंवलं ७ पाय पुच्छणं ८ पाड़ियारा ६ पौढ कांवलो पग पूंछणो जाचीने पाछा पाट
भोलावे ते फलग १० सेज्या ११ संधारी १२ औषद १३ वाजोटादि जमीन जायगां त्रणादिक दवाई भेषद १४ पडिलाममाणे विहरामि ॥ चूर्णादि घणीं मिली प्रतिलाम तो थको विचलं इत्यादिक चवदे प्रकारनं दान शुद्ध साधुने देउं देवा देवतां प्रतेभलो जागां मनसा वायमा कायसा द्रव्ययको पहिन कलमती द्रव्य, क्षेत्रको कलपे तक क्षेत्रमें, कालयकी कलपै जिन कालसें, भावथको राग दोष रहित उपयोग सहित, गुण धकी संवर निर्जरा, एहवा म्हारा वारसां व्रत के विषे जे कोई अतिचार दोष लागा होवे ते आलोउ सूजती वस्तु सचित पर मैली होय १ सचित्तथी ढांकी होय २ काल अतिक्रम्यो होय ३ अापणी वस्तु पारको पारको
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( १७६ ) वस्तु आपणी कोधी होय ४ भाणे बैठ साधु साध्वौयां को भावनां नहौं आवी होय तो मिच्छामि तुकडं ।' .
॥ इति ॥ अथ संलेखणा की पाटी। इह लोगा संसह पगी १ परलागासंसह इह लोककी जशकी तथा
पर लोकमें सुखकी द्रव्यादिक की इच्छा पउगी २ जीविया संसह पउगी ३ माउ संसह बांछा जीवत की इच्छा
मरण की पउगी ४ काम भोगा संसहपउगी ५ मार्नु इच्छा . काम भोगकी इच्छा ए सुजनें जहुज्ज मरणान्त । मान्त तक मत होज्यो। ॥ इति ॥
अथ अठारे पाप। . प्राणातिपात १ मृषावाद २ अदत्तादान ३ मैथुन ४ परिग्रह ५ क्रोध ६ मान ७ माया ८ लोभ ६ राग १० हेप ११ कलह १२ अव्याख्यान १३ पैशुन्य १४ पर परिवाद १५ रति अरति १६ माया मोसी १७ मित्या दर्शन सल्य ॥ इति ॥ . . तस्स सव्वल देवसी यस्ल आयारस्ल दुचिन्तियं दुभासियं ते . सर्व दिवसमें . अतिचार खोटी चिन्तवना खोटी भाषा
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टू चिट्ठीयं खोटी चेष्टा कायाकी
गरिहामि
प्रहणा करू
( १८०
श्री यंते पड़िक्कमामि निंदामि निन्दू
आलोउ तेह पडिकमेउं
वासरामि ॥
आतमां ने वोसराउ'
॥ इति ॥
अथ तस्सधम्मस |
अप्पाणं
पाप कर्मथी
तस्स धम्मस्स केवलौ पन्नत्तस्स अब्भुट्ठि एमि तेह धर्म केवली परूप्यो तेहने विषै उठ्यो छू आराहणाए विरजमि विराहणाए सव्वेतिविहेगां आराधन निमित्त निवर्त छू चीराधनाथी
अतिचार सर्व
त्रिविध करी
पडिक्कतो, वंदामि जिन पड़िकमूं छू वांदू हूं जिनराज
॥ इति ॥
अथ मंगलिक ।
चत्तारि मंगलं
प्यार मंगलिक अरिहन्त
साहु मंगलं केवली
साधु
चौवीसं ॥ चौबीस |
अरिहन्ता मंगलं सिद्धा मंगलं
मंगल छै सिद्ध मंगलकारि छे पन्नत्तो धम्मो मंगलं ॥
धर्म
ते मंगल
लोगुत्तमा
लोकमें उत्तम
घोवलि
केवली
मंगल केवली प्ररूप्यो
अरिहन्ता
अरिहन्त
पत्ताग्लिोगुत्तमा
ए प्यार लोकमें उत्तम जाणवा
सिद्धा
सिद्ध
लोगुत्तमा
लोकमें उत्तम
साहलोगुत्तमा
लोकमें उत्तम
2
साधु
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धम्मो
पन्नत्तो प्ररूप्यो धर्म ते लोक में
पवज्जामि अरिहन्ता
ग्रहणकरूं
सरणं पवज्जामि
( १८१ )
लोगुत्तमा
उत्तम
अरिहन्तों का
म
सरां
शरणां
सिद्धा
शरणां ग्रहण करताहूं सिद्धाका
साहु सरणं पवज्जामि केवल
केवली
सरणं
सरणं
शरणा लेता हूं
पन्नत्तो धम्मो
प्ररूपित धर्मका
शरण
ग्रहण करता हूं
च्चारों सरणा एसगा अवर न सगो कोय ने भव प्राणी
चत्तारि
च्यार
पवज्जामि
आदरे अक्षय अमर पद होय ।
॥ इति ॥
साधुका शरण है पवज्जामि ।
अथ देवसी प्रायश्चित |
दिवसनों
देवसौ प्रायश्चित विसादनार्थं करेमि का सग्ग प्रायश्चित शुद्ध करवाने अर्थ करू छू ॥ इति प्रतिक्रमणं ॥
काउस्सग
अथ पडिक्रमणां करने की विधि |
प्रथम चौबीस्थ करणो नियामें
१ इच्छामि पड़िक्कमेड को पाटो । २ तस्सुत्तरोकौ पाटी | । ध्यान में इच्छामि पड़िक्कमेड को पाटो मनमें चितारकर एक नवकार गुणनों । ३ लोगस्स उज्जोगरे को पाटो । ४ नमोत्थु को माटो ।
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( १८२ ) १ प्रथम श्रावसरग सासायक में ।
१ आवस्सई इच्छामिणं भाते। २ नवकार एक। ३ करमि मते सामाईयं ।। ४ इच्छामिठामि काउसम्ग। ५ तम्सुत्तरी की पाटी।
ध्यानमें 8 नन्नाणवे अतिचार । भागने तिविहे पन्नते की पाटी तिगामें ज्ञानका चवदे अतिचार। दंसण श्रीससत्ते को पाटी तिणमें समकितका ५ पातिचार। बारे व्रतांका अतिचार ६० साठ तथा १५ पंदरह
कर्मदान । इह लोग संसह पउगीको पाटौ अतिचार ५
संलेखणांका। अठारे पाप स्थानक कहगा। इच्छामि ठामि चालोउं जो मैं देवसौ पायारकउ
ए माटी काहगी। एक नवकार काह पारलगो ।
॥ इति प्रथम आवसग समाप्त ॥
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( १८३ )
दूसरा आवस्सग की आज्ञा ।
लोगस्सक पाटी |
॥ इति दूजो आवस्सग समाप्त ॥
तीजा आवरसंगकी आज्ञा ।
1-1
दोय खमा समणां कहणा ।
॥ तीजो आवस्संग समाप्त ॥
C
चौथा आवस्सगकी आज्ञा ।
उभाथकां ध्यान में कह्या सा प्रगट कहणा ।
17
८ आठ पाटी बैठा थकां कही जिगांकी विगत |
१ तस्स सव्वस्तको पाटो ।
२ एक नवकार ।
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३ करेमि भरते सामाईयं को पाटो |
४ चत्तारि मंगलंको पाटो |
{
५ इच्छामि ठामि पड़िक्कमेड जो मैं देवसौ ।
{
६ इच्छामि पड़िक्कमेड को पाटो ।.
७ आगमें तिबिहे को पाटौ ।
८ दंसण श्री समकोत्ते को पाटौ ।
1
Բ
7
ए आठ पाटी कही, बारे व्रत अतिचार सहित कहणा ।
+
पांच संलेखणा का अतिचार कहणा ।
अठारे पाप स्थानक कहा ।
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( १८४ ) इच्छामि ठामि पडिक्कमेउ जो मैं देवसौको पाटी कही तस्स धम्मस केवली पन्नतस्सको पाटी, दोय खमासमणां कहणां । पांच पदांको बंदना कहणौ।
सातलाख पृथ्वीकाय सातलाख अप्यकाय इत्यादि खमत खामणांकी पाटी।
॥ चौथो आवस्सग समाप्त ॥ पंचमा आवसगको आज्ञालई कहै। १ देवसी प्रायश्चित् विसाधनार्थ करेमिकाउसग्ग। २ एक नवकार। ३ करेमिभते सामाईयं को पाटी। ४ इच्छामि ठामि काउसग्ग को पाटो।
५ तस्मुत्तरी की माटी। ध्यानमें लोगस्स कहणांको परममगय गैतीसे । प्रभाते तथा सांस वक्ता ४ च्चार लोगस्सको ध्यान । पखौने १२ वार लोगस्स को ध्यान । चौमासौ पखौ ने २० वास लोगस्मको ध्यान समत्सरोने ४० चालीस लोगस्सको ध्यान । ध्यान पारी लोगसमको एक पाटो प्रगट कहणी । २ दीय स्वमासमगां कहगा।
॥ इति पंचमं आवस्सग समाप्त ॥
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( १८५ )
छट्टा आवसग्गकी आज्ञालेई कहणा तेहनी बिगत |
गये कालनूं पड़िक्कमणों वर्तमान कालमें समता भागमे कालका पच्चखाण यथा शक्ति करणां ।
समाई १ चौवीसत्यो २ बंदना ३ पड़िक्कमणो ४ काउसग्ग ५ पच्चखाण ६ यां छऊ आवसग्गां में ऊ'ची नीची हिणी अधिक पाटी कही होय तस्स मिच्छामि दुक्कडं ।
दाय नमोत्यगं कहां जिगमें महिला मैं तो सिद्धिगई नाम धेयं ठाणं संपतागं नमो निगाणं । टूजा नमोत्यु णं मैं सिद्धिगई नाम धेयं ठाणं संपवेकामो नमो जिणाणं ।
॥ पड़िकमणो समाप्त
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ॐ च्यार निक्षेपां री चौपाई
@ दोहा
।
अरिहंत सिद्धनें आयरिया, उवज्झाय ने सब साध । यांरा गुण ओलखावणां करे, ते पामें परम समाध ॥ १ ॥ केई हिंसा धर्मों नौवड़ा, माने निगुणा देव धर्म | मारे छ: काय ना जीवानें, बांधे अशुभ कर्म ॥ २ ॥ नाम घापना द्रव्य भाव में, ए माने निक्षेपा च्यार । त्यांगै पिगण समझ पड़ े नही, त्यारा घट में घोर अंधार ॥ ३ ॥ ए च्यार निक्षेपां रो नाम ले, भोला ने देवे भरमाय । त्यांरी श्रद्धा नो प्रश्न पूछयां थका, ते झूठे बोले फिर नाय || ४ ॥ ते झूठ बोले है कि विधे, किण विध फिर फिर नाय । हिवे नाम निक्षेपा रो निर्णय कहूं, ते सुगज्यो चित लाय || ५ || ॥ ढाल पहली ॥
( धीज करे सीता सती ने लाल । एदेशी ) एह टेढ़ डूम ने घोगे सग्गग रे लाल, भोल मोगा ने मुसलमान रे, मुगा नर चंडाल धुगधुर
सर्व
1
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( १८७ ) जोत में रे लाल, कडू कांग नाम छै भगवान रे, सु. नाम निक्षेपारी निर्णय करी रे लाल ॥ १ ॥ जे गुण बिना नाम माने तेहनार लाल, सगला नाम भगवान बंदनीक रे सु० तिणने पूछौजे सगलौ न्यातने रे लाल, करणी नाम भगवान रौ ठीक रे, सु० ना० ॥ २ ॥ पछै गुगा बिना नाम भगवानरा रे लाल, जो उन बांदे सगला पाय रे, सु० ता उण श्रद्धा थापौ ते उथप गई रे लाल, ते पिण गहिला ने खबर न काय रे, सु० ना० ॥ ३॥ कई जोगी संन्यास्यांरा नाम छै रे लाल, सिद्धगिरी ने सिद्धनाथ रे, सु० जे गुण बिना नाम माने तिके रे लाल, तिण सिद्ध ने क्यों न बांदे जोड़ी हाथ रे, सु० ना० ॥ ४ ॥ कई करिं मिनखां रे कारटीया रे लाल, ते पिण बाजे आचारज लोकार मांहि रे सु. जे गुण बिन नाम माने तिके रे लाल, क्यूं न बांद तिण आचारज रा पाय रे सु० ना० ॥५॥ कड़क ब्राह्मण लोक में रे लाल, त्यांरी जातां बाजे उपाध्याय रे सु० जे गुण बिना नाम माने तिके रे लाल, क्यूं न बांद उपाध्याय रा पाय रे सु० ना० ॥६॥ कई साध बाजे भगति ढिया रे लाल, ते निगुणा छै रहित समाध रे सु० ते गुण बिना नाम माने तिक रे लाल, क्यूं न बांदे एहवा साध र सु. ना० ॥ ७॥
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ए नाम निक्षेपा पांचू गुण विना र लाल, त्यांरा पूछे पूछे ने नाम रे सु० गुण बिना माने नाम तेहने रे लाल, वदि पूजे करणा गुगा ग्राम रे सु० ना० ॥ ८॥ ए नाम निक्षमा पांचं गुण विना रे लाल, जो उन माने तो श्रद्धा मांहि फट रे सु० भाव भगत कर वांद नहौं रे लाल, तो माननि नाम निक्षेपी गया ऊठ रे सु. ना० ॥ ६ ॥ गुण विना नाम माने तिफ रे लाल, तेहने काम पडयां दे उथाप रे सु. पग पग मठ वाले घणो रे लाल, कर रह्या कुगुरू बिलाप रे मु. ना. ॥ १० ॥ यां ने नाम चन्दन रो कह्या थकां रे लाल, जव तो बोले छै एम रे सु. कहै नाम छै तो पिण गुण नहीं रे लाल, तिगाने शीश नमावां कम रे सु० ना० ॥ ११॥ जे नाम निकोल मानता रे लाल, ते गुण गे शरणा ले किण न्याय रे सु० यांरी खोटी थडा चटके घणो रे लाल, जव साच वाल्या आया ठाम रे सु० ना० ॥१२॥ ते कहिवा ने ठाम आविया रे लाल, माहे न भौजे मूढ़ रे मु. त्यार लागा डंक कुगुगं तणां रे लाल, ते किण विध छोड़े रूढ़ रे मु. ना० ॥ १३ ॥ ए नाम निक्षेपी कर रह्या रे लाल, तिगरी खबर पिण काय रे सु० भरमाया कुगुरां तणां रे लाल, ते चोड़े भूला जाय रे मु. ना० ॥ १४ ॥
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( १८६ )
सोनो रूपो नाम मिनखरो रे लाल, पि कहिवा नो छै नाम रे सु० जो काम पड़ े गहणां तणो र लाल, ते नावे गहणा रे काम रे सु० ना० ॥ १५ ॥ किणही मिनख रो नाम होरो मनो वे
लाल, ते नावे जड़ाव रो रे
गहणा रे काम रे सु०
जे काम पड़
लाल, ते नावे जड़ाव ने काम ने सु० ना० ॥ १६ ॥ किण हो मिनख रो मागक मोतो नाम है रे लाल, ते पण कहविवा नो है नाम रे सु० जो पहरे सिणगार करवा भगो र लाल, ते नावे महिरण रे काम ने सु० ना० ॥ १७ ॥ केशर कस्तूरी नाम है मिनखरो र े लाल, ते पिण कहिवा नो नाम रे सु० जो काम पड़ े बिलेपण गंध रोरेलाल, नावे विलेपन गंध रे काम रे मु० ना० ॥ १८ ॥ किणही मिनखरो नाम लाडू दियो र े लाल, ते पिण कहिवा नो नाम रे लागे तिय अवसरे रे लाल, सु० ਰੇ भूख तो नावे खावा रे काम र सु० ना० ॥ १६ ॥ किणहोक लकड़ी रो नाम घोड़ो दियो रे लाल, ते पिण कहिवा नो है नाम रे सु० जो काम पड़े चालण तणो र े लाल, ते नावे चढ़ रे काम रे सु० ना० ॥ २० ॥ इत्यादिक जीव अजीव रा र लाल, दौधा नाम अनेक र सु० पिण गरज सरो नहीं नामसूं रो
छै
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( १६० ) लाल, समझी आण विवेक रे सु० ना० ॥ २१ ॥ ज्यू गुगा विना नाम भगवान के रे लाल, ते पिण कहिवा नो छ नाम रे सु. ना० ॥ २२ ॥ नाम भगवान सर्व जीव रो रे लाल, दिया अनन्तौ वार रे सु० पिण गुण विना नाम भगवान सं रे लाल, न सरी गरज लिगार रे सु० ना० ॥ २३ ॥ गुण बिना नाम भगवान स्यूं रे लाल, न टले दुर्गत दोष रे सु० जो त्यांने वदिया सदगत होवे रे लाल. तो सगला नौव जाता मोच रे सु० ना० ॥ २४ ॥ गुण बिना नाम मान्यां धकां रे लाल, गरज सरे न लिगार रे सु० गरज सर एक भाव स्यूं रे लाल, जोवी सूत्र मंझार रेसु. ना० ॥ २५ ॥ गुण विना नाम माने तेहने रे लाल, बोल्या नहीं दीसे बंध रे सु. फिरती भाषा बोले घणो र लाल, ते होय रह्यो नाह अंध रे सु. ना० ॥ २६ ॥ गुणा करके अरिहंत छ रे लाल, गुण करने मिद्ध साध र सु. त्यांरा गुण में नाम एकाहीज छ रे लाल, त्यांने वांद्यां परम समाध रे मु. ना. ॥ २७॥ किणरी माता रो नाम सरूपा दियो रे लाल, तेहज नाम असन्नी रो हुव नाय रे मु० ने गुण बिना नाम माने तेहने रे लाल, यां दीयां ने गिण लेगी माय रे सु. ना० ॥ २८॥ के दायां ने
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( १६१ )
गिग न लेगी असन्नी र लाल, उण रो श्रद्धा सामो जोय र े मु० असन्नी ने मा जूदो गुणे र े लाल, तिग 'नाम निक्षेपो दिया खाय रे सु० ना० ॥ २६ ॥ किण रे बाप रो नाम धनरूप है रे लाल, त्यारे मांही मांहि हेत मिलाप रे मु० जे गुण बिनां माने नहीं र लाल, सगला है धनरूमा बाम र सु० ना० ॥३०॥ सगला धनरूपा नाम तेहने रे लाल, संकतो लेखवे नहीं बाप र े सु० श्री धनरूप स्यूं दुजागी कर र लाल, तिग नाम निच पो ताहि दियो उथाप रे सु० | ० ॥ ३१ ॥ बहन बहनोई काका बाबादिके रे लाल, यांरा नाम है नाम अनेक रे सु० त्यांरा नाम प्रमाणें नहीं लेखवे रे लाल, तो छोड़ देगी कूड़ी टेक
ना०
1
रे सु० ना० ॥ ३२ ॥ गुण और नाम और है रे लाल, ते कहि बावत लावण काम र सु० कोई भूलो मत भूलज्यो र े लाल, सुग सुग एहवा नोम रे सु० ना० ॥ ३३ ॥ शेईक नाम कहिवां ने दिया रे लाल, कोईक गुण निपन्न के नाम रे सु० ते कहिवा ना नाम कहवा भगो र लाल, गुण निपन आवे काम रे सु० ना० ॥ ३४ ॥ इम कहिने कितरो कहूँ रे लाल, नाम निक्षेपारो बिस्तार रे मु० जो गुण बिना नाम बांदे नहीं रे लाल, तिग सफल किया अवतार र सु० ना० ॥ ३५ ॥
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( १९२ )
॥ दोहा ॥ गुण विना नाम दिया लोकीक में, ने प्रत्यक्ष लीनो देख । घोड़ासो परगट करू, ते सुणने मत करज्यो द्वेष ।
॥ ढाल दूजी ॥
( चौपई नौ देशी) नाम दिया है राधाकिशन। सेवता जावे सातों विसन ॥ १ ॥ नाम दिया है गोविंदराय। फिरै चगवै पराई गाय ॥ बाई रो नाम दिया छै लाछ । पिण मागी न मिले कुलड़ी छाछ ॥ २ ॥ सासू कहै म्हारी कपूर दे वह । सांभल नाम वालावे सह ॥ नाम नाम दियो कस्तूरी नास। माहे नहीं हौंग री वास ॥३१ टॅट घणौ न वांका निहाले। दर्भिच पडिया देश दुकालें ॥ नाम दियो छ जगत पाल । पिण सघलां पहली वेच्या वाल ॥ ४ ॥ किणहीक नाम साना दिया। साथ विना एकलो चालियो ॥ घणो दरिद्र बहेन लार । नाउ ने कदे उठे न धार ॥ ५ ॥ वाई रो नाम दियो कुशाल । पिगा मिटियो नहीं मोग रो साल। कुढ़ कुढ़ में दिन पूग करे । कूवे वाबड़ी पड़ी मरे ॥ ६ ॥ नाम दियो छे धर्माशाह । परभव नी नहीं परवाइ। कूड़ कपट लंपट चित
।
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( १६३ ) धरे। इसी धर्मो नरकां पड़े ॥ ७॥ लोक कहै आ लक्ष्मी बाय । ऊगा सूरज छाणा ने जाय ॥ किणहिक नाम सरूपा दियो। एक काली में कुजस लियो ॥८॥ सुन्दर नाम दियो छै अनूप । खाटी बाले बली कुरूप ॥ कुत्ता चाटे छै हांडिया। सेडे करने घर भंडिया ॥६॥ ज्यूं नाम दियी अरिहंत भगवान । पिणा माहे न दौसे अकल गिनान ॥ तरण तारण गै समझ न काय । तिगा में सूरख बांदे जाय ॥ १० ॥ दूण अनुसार दोधा नाम अनेक । त्यां सं गरज सर नहीं एक ॥ ते सुगने समझे चतुर सुजाण । पिगा सूरख न माने मांडे ताणां ताण ॥ ११ ॥
॥ दोहा । नाम निक्षेपी ओलखाविया, हिवै थापना अधिकार । गुण बिन देखो थामना, भूला भरम संसार ॥ १ ॥ बांदे पूजे तीर्थंकर नौ थापना, त्यांरे आकारे पत्थर या राय । साना पीतल धात अनेक सं, त्यांर आकारे बिम्ब सराय ॥ २॥ बले कपड़ादिक कागद ऊपर, भगवंत रो मांडे आकार । तिगा ने शीश नमाय बन्दना करे. जागे हुवा लास अपार ॥ ३॥ कहे जिन प्रतिमा जिन सारखी, फेर न जाणो कोय । दायां ने बांद्यां थकां लाभ सरीखा होय ॥ ४॥ कहे
२५
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गुण लारे पूजा कहो, तोहि निगुण पूजता जाय । ते चोड़े भूला मानवी, तेहनें किम आगोजे वाय ॥ ५ ॥ कदे तो कहे गुण भगी, कदे कहे बांदा आकार | त्यांरौ श्रद्धा मांहे फूट फजीत्यां घणौ, ते कहितां न आवे पार ॥ ६ ॥ चे गुण बिन आकार न बांदतां त्यांने प्रश्न पूछे जाय । तो फिर जावे झूठ बोले घणो, ते सुगाज्यो चितलाय ॥ ७ ॥
|| ढाल तीजी ॥
जिवा चणकंपा आज्ञा साहिए । एदेशी ). चक्र बलदेव वासुदेवा, ते तो तीन खंड छ: खंड रा सिरदार । इत्यादिक मनुष्य ने सर्व जुगलिया, ते सगलाई है भगवंत आकार ॥ थापना निक्षेपाग निरगो कौजा ॥ १ ॥ भवनपति ने व्यं ंतर देवा ज्योतिषी देव ने विमाणिक वखा । ए पिग है भगवंत रे आकार, ममचेारस के सगलां से संठागो ॥ घा० ॥ २ ॥ जे गुगा विना आकार भगवान गवांदे त्यांरे लेख बांदगा कुणकुण आकार । समचोग्स संठाग ग देवां न मिनख हर्ष धरे बांदा वारम्बार ॥ घा० ॥ ३ ॥ जो हर्प धरे व्यांने वांद नहीं, तो उगरी श्रद्धा उगारे लेखे खोटी । आप थापी है ते ग्राप उयपि,
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( १९५ ) आपण रे अंधारे भोलप मोटौ । था० ॥ ४॥ पत्थर धात चित्रामादिक ना करे करवा दे भगवान। आकार तो लाद गोबर धूर कायलादिक ना, आकार कर बन्दना बारस्वार था०॥५॥ जो गोबरादिका आकार ने बांद, तो आपरी श्रद्धा से आप अजाण । पत्थर धात चित्रादिक ना आकार देखौ खूढ़ भ्रम भूलाण ॥ था. ॥ ६ ॥ कई थापना सचित ने अचित द्रव्य नें, भगवंत रे आकार बणावे घेरो। तिण आगे आप पांचूं अंग नमे नै, नमोत्थुणो कहै खूढ़ होय होय नेडो ॥ था. ॥ ७॥ तिण री सेवा पूजा करे भाव भगत स्यं, एहज मांहरी आवागमन निवार। ते तो एकेन्द्री जीव अज्ञानी, ते तर नही ते किण विध तारे ॥ था० ॥८॥ आचारज उवज्झाय साधु गुगवंता, त्यांचे प्राकारे दोसै दढिया भेषधार । जे गुगा बिन आकार ने बांदे तो, ' क्यू न वांदे यारो देख आकार ॥ था० ॥ ६ ॥ जे जे
आकार मिनख तणा के, हिज आकार साधारो जाणो । जे गुण बिना आकार में बांदे तो, सर्व जीवा रे क्यों न बांदै आयाणो ॥ था० ॥ १० ॥ तोऊ सर्व मिनखां ने नहौं बांदे तो, तिण थापना आकार दिया उठाय। ए अकल बिया श्रद्धा परूमै, ते पग पग झूठ बोले फिर जाय ॥ था० ॥ ११॥ जे आकार बांदण
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( १९६ ) से कहे शाई उणा में तब तो सूधा बोले भावसंएमा । कहै आकार के तो पिया गुना नहीं मांहि, तिसने शीश नसावां कमा ॥ था० ॥ १२ ॥ जे थापना आकार मान निकेवल, ते गुगारा शरगो ले छै किण न्याया। घारा खोटो श्रद्धा अटक्या जाव नावै, जब साच वालो जव आया छ ठाया ॥ था० ॥ १३ ॥ ते कहवा ने ठाय आया जाणा, पिगा मनमें न भौजे अज्ञानी छूढ़। त्यारि कुगरू तणा डंक करड़ा लाग्या, ते मिग किरण विध छोडे खोटो रूढ़ ॥ घा० ॥१४॥ ए घापना थापना कर रह्या खुरख, पिश स्थापना गै समझ न काया। कुगगं रा भरमावा रख, चोड़े मारग भूला जायौ ॥ था० ॥ १५ ॥ जो ऊ हाथो सझल्यां भांत कपड़ी वैचे जव, ज्यांग फाड़ी फाड़ कर दोय टुकड़ा। जे गुगा विन आकार वांद तिगा लखे, तो हाथी मछल्यां मारण ग टुका ॥ घा० ॥ १६ ॥ कहै हाथी मछल्यां भांत कपड़ो फाड़या स्यं हाथो मछत्त्यां मारगो न लागे करमा। तो भगवंतरे आकार प्रतिमा बांयां, तिण में गिथय म जागो घरमा ॥ था० ॥ १७ ॥ किय रा सगा मनेही व्याही नातीला, तिगारे रेतग लाडु वणाय ने मेले । ते अगवंत रे आकार प्रतिमा पूजे । ते रेतगनाडु पाझा काय नै ठेले । घा० ॥१८॥ कहे
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। १६७ ) रेतरा लाडु में सवाद नहीं है तो प्रतिमा में गुण मूल म जाणो। गुण बिन बसतु ते काम न आवे, समझो रे थे मूढ़ अयाणो ॥ था० ॥ १६ ॥ पत्थर कारने प्रतिमा बणावे, तिण प्रतिमा ने भगवंत ज्य सेवे। तिण ने तिणही पत्थर रा रुपया देवे ताऊ चोखा रूपया में क्यूं नहीं लेवे ॥ था० ॥ २० ॥ वृत तैलादि करी सादी देव ने, पथर रा रूपया ले पल नहौं बांधे। ते आठा तणा भगवत वणाया, ताज भगवंत किण लेखे बांदै ॥ था० ॥ २१ ॥ भाठा रा रुपया लेई सादी देवे ता, बौं में पड़ जावे जाबकता टोटो। भाठा रा प्रभु बांद तिण हो मत, खोटो रे नियोवल खाटी ॥ था० ॥ २२ ॥ रूपा तणा रूपिया रे ठिकाणे, पत्थर ग कमया कदे न हाले। तो तरण तारण भगवंतरी ठोर, भाठा वा भगवंत क्षिणा विध चाले ॥ था० ॥२३॥ साठा रा रुपया ले घाले खजाना, त्यारे काम पड़े जब घणो सिहावे। ज्यं भाठारा भगवंत थामना बांदे, तो परसव मांहे घणो पिसतावे ॥ था० ॥ २४ ॥ परख बिना खाय रूपया में खोटी, ते तो रूपा तणो भोल हे प्रतापी। ए भगवंत में खोटा खाधा किण लेख, या तो प्रतिमा दौसे पत्थर रौ पापो ॥ था० ॥ २५ ॥ फेईक कागद ऊपर कटक
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( १६८ ) अलके, मांहि भल घोड़िया असवार वणावे। त्यारे सुरमणा रो त्रास न दोसे, वेरो दुश्मन हटावन अरथ न बावे ॥ था० ॥ २६ ॥ ज्यं चौबोस आदि दे अनेक तीर्थंकर जिणा रो यघातथा आकार वणवि। त्यां से जानादिक गुणा आसन न दोसै, ए तारगा तर ने काम न भाव॥ था० ॥ २७॥ जो राखे सरोसा कागद रा कटकारो, तो इज्जत जाय रहे नहौ आबा । ज्यं प्रतिमां ने वांदे तिण र भरोस, ते चहगत होसौ घणा खरावो ॥ था० ॥२८॥ पालर दोऊ करलें हाथी वगाया, ते चढ़वाने काम कादे नहीं आया। ज्यू प्रतिमा वगाव देवल सांय बेसारी, आ पिण जागाजो थाघी माया ॥ था० ॥ २६ ॥ उगारी स्त्री मुवां जो फेर परगीजे तो उगा पिगा श्रद्धा गया है ली। गुण विनाकार वाई तिचा लेवे, स्त्री जाति कर लेगी हनी ॥ घा० ॥ ३० ॥ भरतार .सुवां स्त्री चोवे तो. वो पिगा श्रद्धा गई के सुलो । गुगा विन आकार वांद तिण लेखि, अवतार रे साकार कर लेगोठ लो ॥ था. ॥३१॥ स्त्री गै गरज ठली नहीं सारे भरतार री गरज सारे नहौं ठूलो। दूगा दृष्टान्त आकार वांदे, त्यांरो पिण जापाजो अोहोज सूलो ॥ था० ॥ ३२ ॥ वालपणमे रमें डावड़ा डावड़ी, विकल पणे ठूली न ठूला । ज्यं भग
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( १९६ ) वंत गै प्रतिमा पारी में बांद, तिण पिण भूला रे नि । केवल भूला ॥ था० ॥३३॥ पापड़ रा लोया ने गधेड़ा
रा लौंडा, यो दोवा दो दौस के एक विचार । ज्यं प्रतिमा के भगवंत आकार, ओ गुण बिन अर्थ न आवे लिगार || था० ॥ ३४ ॥ गध लिंडारा पापड़ न थाय, कारा खादां मिण बिगड़े के मुंढी । ज्यं प्रतिमा ने वाद्यां धर्म किहांथी, छोड़ो रे छोड़ो खोटी रूढ़ो ॥ था०॥३५॥ दूण लोक माही आधा लोक घणा छै, जह गैतमु वारौ माह अंध गाय, तिणरो बाछो हुतो ते चल गया चेतन, तिगारौ खाल जाढ़े प्रवास बजाय ॥ था० ॥ ३६॥ बाबै रौ खाल देखी ते गाय भूलो, आ प्रतिमा देख भूला किण लेख । आ प्रतिमा नहौं भगवंतो काया, ते तो मोह अंध गाय मं भूला विशेष ॥ था० ॥ ३७॥ अरिहंत भगवंत सुकतें गया जब, त्यांरी शरीर आकार लार रही काय । ते तो गुण जड़ बिना अचेतन पुदगल, काई तेहने बांद्यां धर्म नहीं होय ॥ था० ॥ ३८॥ त्यांदो शरीर असल आकार शरीर पड़िया ते, तिण ने ही बांद्यां बंधे निश्चय कर्मों। तो आकार और बगाय बांधे, त्यां यांधां ने होसौ किण बिध धर्मो ॥ था० ॥ ३६॥ गुण बिन धाकार बांदगा वालो बोलो, आकार बांद्यां कहै
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( २०० ) लास अनन्त । तिगाम्यं भगवंत री प्रतिमा करे वांदे, तिगा प्रतिमा ने लेखवे भगवन्त ॥ था० ॥४०॥ प्रणाम चले ज्च स्त्री दीठां, विषय न दौठा रहे शुद्ध प्रणाम । ञ्च प्रतिसा दीठां भगवन्त याद अावे, एहवा कुहेत लगावे ताम ॥ था० ॥ ४१ ॥ उण रे मा बहन स्त्री हुवै एक आकारे, कदे एक दौठां याद आवती नाही, मिण एक तीनां ज्य काम न बाई, याद आवे पिण गरज सरै नहौं कांई ॥ था० ॥ ४२॥ कदे प्रतिमा दौठा सगवन्त याद अावे, कादे भगवंत दौठो प्रतिमा याद घाव। पिगा धसे तो अगवन्त नगा वांदया. प्रतिमा गुगा वांद्या कर्म बंध जावे ॥ था० ॥ ४३ ॥ मा बहन आकार स्त्री तिगा स्यं , घरबासो करतां शंकामन आणे. ज्य गुण विन आकार वांदी तिगनें, स्त्री ने मा वहन ज्य को न जाणे ॥ था० ॥ ४४ ॥ माय बहन स्त्री तिगाने दीठां हरखैरे विषै ते कास । ज्य प्रतिमा दौठां मन धो तो, काय सार गाग किया परिणाम ॥ था० ॥४५॥ मा वहन प्राकारे स्त्री हु तो सा बहन री गरज निश्चय नकों सारे, ज्य भगवन्त रे प्राकारे प्रतिमा वौधी, ते बापिण जागो कदे नहीं तारे । था० ॥ ४६॥ भगवन्त रे आकार प्रतिमा वांदे, त्यारे प्राकारे बले अनेक बिलापो । उगारा वाप रे आकारे मिनख घगा
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( २०१ । छै, त्यां सगला ने लेखवणा बापा ॥ थो० ॥ ४७ ॥ तो सगला ने बाप लेखवतो लाजे, ओ मत उगरे लेखे कूड़ो। जे गुण बिन आकार बांदे अज्ञानी, ते कर रह्या मूरख फेन फितूरो ॥ था० ॥ ४८॥ उगरे मा रे उणियारे बौंदगी हुतो, तिण धन खरच ने परण ल्यायो। जे गुण बिना आकार बांदे, तिण लेख या दोना ने लेखणी मायो ॥ था० ॥ ४६॥ कै दोन्या ने लखवले स्त्रो. आपणो श्रद्धावाला रो देखो ले न्यायो। बले माय ने उणहारे अनेक लुगायां, ते सगली में लेखवणी मायो । था० ॥ ५० ॥ बले बहनोई काका बाबादिका रों, आकार के नाम अनेक, थारो आकार प्रमाणे नहौं लेखवे तो, छोड़ देनौ कूड़ी जाबक टेक ॥ था० ॥ ५१ ॥ काई बाई छै हिंसाधर्मी अनारज, तिगा पुत्र जायो ते भरतार ने आकारो। आकार बांद तिगा बाई रे लेख, यां दीया ने लेखव लेगो भरतारो॥ था० ॥ ५२ ॥ के दाया ने बेटा लेखव ले णा, तो उगरी श्रद्धा में वा प्रणवौण पूरी। भरतार बेटी जुदो गिणे तो, उण गै श्रद्धा रे लेखे पड़सौ कूड़ी ॥ था. ॥ ५३ ॥ इत्यादिक जीव अनौव रा घणा है, कोधा अकौधा अनेक आकार, पिण गरज सरे नहीं आकार बाद्यां, थे समझो रे समझो आण बिचार ॥ था० ॥५४॥
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गुण विना थापना भगवान री छ, ते देखीने जाण लेणो आकार। पिण धर्म नहौं तिणमें शीश नमाया, तरगा तारण मत जाणो लिगार ॥ था० ॥५५॥ भगवंत रो आकार सर्व जीव हुवा छ, अनन्त अनन्तौ वार । मिण गुण विना नाम भगवान रा स्यूं, किणरो हो न हुवा दौसे उधार ॥ था० ॥ ५६ ॥ गुण बिन आकार भगवान ग सं, निश्चय नहौं टले आतम दोष। जो पाकार वाद्यां सदगत होय, तो सकला जीव जाय विराजता मोक्ष ॥ था० ॥ ५७॥ गुण बिन आकार भगवंत रा सं , निश्चय गरज सरै नहीं कायो। गरज सरे नहीं अगवंत ने बांदे, संसिा हुवै तो सूत्र में जोया ॥ था० ॥ ५८ ॥ गुण विन आकार माने तिणने, वाली में स्कूल न दोसे बंध। फिरती भाषा बोले अजानी, 'ते रह्या होय मतवाला ज्य' अंध ॥ था. ॥ ५६ ॥ गुण करनें अरिहंत भगवंत छै, गुण करने के ऋषिश्वर साधा। त्यांरा आकार सं गुगा न्यारा नहीं के, त्यांने वाद्यां सँ पामे परम समाधी ॥ था० ॥ ६ ॥ ने गा विन आकार घाप राखै ते, कहवता नावण यावे कामा। भ्रम भुलाया आकार देखने, वलि सुण मया ने आकार रो नामा ॥ घा० ॥२॥ केद्रक भाकार कहिवारा छै, गुण निपन पावे बादण रे कामो। ते
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( २०३ , केहवा आकार कहिवारा कै, गुण निमन चारित परिणामा ॥ था० ॥ ६२॥ इम कहि कहिने कितरोक कहिये, इण थापना निक्षेपा रो अधिकार। गुण बिन थापना बादे नाहौं, त्यांनिश्चय सफल किया अवतार ॥ था० ॥ ६३ ॥
॥ दोहा ॥ ए थापना निक्षेपी कह्यो, हिवै द्रव्यनी करज्यो पिछाण। कई द्रव्य निक्षेपी सांभली, भूल्या लोक अजाण ॥ १ ॥ ते गुण बिन बांदे द्रव्य नें, कूड़ा कुहेतु लगाय। अतीत अनागत कालनी, माने गुण पर्याय ॥ २॥ कह साध हुआ श्री ऋषभ ना त्यां किया चोबिसथी ले नाम । चोबीस तीर्थकर हुआ नहीं, त्याने बाद किया गुगा ग्राम ॥ ३ ॥ इम कहि कदि ने भोला लोक में कर निगुण वादगा गै थाप । जंधी श्रद्धा प्ररूप में बाहला बांध पाप || ४ ॥ त्यां स्यूँ काम पड़े चरचा तणो, ते झूठ बोल फिर जाय । त्यांरी श्रद्धा ने झूठ प्रकट करू, ते सुणज्यो चितलाय ॥ ५ ॥
* ढाल चौथी * ( आउखो टूट्यां ने साधा का नहीं रे। एदेशो) तीर्थंकर होसी आगमिया काल में रे, त्यांने बांदै
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( २०४ ) न करे अज्ञानी पाप रे। तेहनें नमात्य गा में घालिया रे, त्यां कौधौ निगुग बांदण री थाप रे ॥ द्रव्य निक्षेपा गे निरणो सुणो रे ॥ १॥ नमात्यु णं बोवित्यु किया घका रे, कहे गुण रो मत जाणो काम रे । उणरी श्रद्धा लेखे कुण कुण बादणा रे, ते सुणजी राख चित एकण ठाम रे ।। द्र० ॥२॥ एक लूला में जीव निकलौ रे, अनन्ता तीर्थंकर आगे पाय रे । जे द्रव्य तीर्थकर वादे गुण बिना रे, तो मूला ने क्यों न वादे नाय रे ॥ द्र० ॥ ३॥ पृथ्वि आदि देई छः काय में रे, जे द्रव्य तीर्थ कर अनन्ता पिछाण रे । जे द्रव्य तीर्घ कर वादे गुण विना रे, तो क्यूं नहीं बाद याने जाय रे ॥ द्र० ॥ ४॥ अनन्ता जीव द्रव्य छः काय मे रे, सिद्ध होसी जानादिक पाय ऋद्ध रे, जे द्रव्य तीर्घ कर वादे गुगा विना रे, तो क्यू न वांद द्रव्य सिद्धरै ।। द्र० ॥ ५॥ अनंता द्रव्य साधु छः काय में रे, भावे होमी चारित्र आराध रे, जे द्रवा तीर्थंकर वांदे गुण विना गे, तो वे क्यों न वाद द्रवा साधरे ॥ द्र० ॥ ६ ॥ ए द्रवा तीर्घ कर सिद्ध साधु कह्या रे, तहि जन वांद त्याग पाय रे, इगा लेखे इण री श्रद्धा खोटी पगैरे. पिगा आधा ने समझ पड़े नही काय रे ॥ द्र० ॥ ७ ॥ भरत चक्री गे हुवा डीकगे रे, ते
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र २०५ ) महाबीर खामौ री जीव मरौच रे, ते घर छोडी ने हुवा विदंडिया र, तिण दरी करणी सावन न श्रद्धा नौच रे ॥ द्र० ॥८॥ जे द्रव्ये तीर्थंकर हुतो तिण दिने रे, श्री ऋषम जिनेश्वर दियो बताय रे । श्री ऋषभ लिनेश्वर साधु ने साधवी रे, क्य न बांदा त्याग पाय रे ॥द्र० ॥६॥ चोवीसत्थो करता बांदे तेहने रे , तिण स्यं तो भेलो करणो आहार रे। श्री ऋषभ जिनेश्वर सरीखी लेखवी रे, श्री करता बन्दना ने नमस्कार रे ॥द्र० ॥१०॥ श्री ऋषभ जिनेश्वर रा साधु ने साधवी रे, त्या नहीं बाद्यो न गिणो .मरौच रे । जे काई द्रव्य तीर्थ कर बादसौ रे, तिण
रौ पिण सावज करणौ नौच रे ॥द्र० ॥ ११ ॥ भरतजी बांद्या कहे मरौच ने रे, ते पिण नहीं है सूत्र माहि रे । भोला में बिगीय पाड्या भरम में रे, त्या निगुण ने बाद हरकत थाय रे ॥द्र० ॥ १२ ॥ द्रव्य तीर्थंकर होता किशनजी रे, श्री नेम जिनेश्वर दिया बताय रे, पिण नेम जिनेश्वर रा साधु न साधवी रे, कृष्ण रा क्यों नहीं बांद्यां पाय रे ॥ द्र० ॥ १३ ।। त्या उलटो कृष्ण ने पगे लगावियो रे, पिण गुण बिन द्रव्य न बाद्यो काय रे, तो चोवीसत्यो करता तिण ने किम बादसौ रे, तुमे हिये विमासी
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( २०६ )
।।
बुध संजोय र ॥ द्र० ॥ १४ ॥ वले द्रव्य तीर्थंकर होती देवकी र, रोहिणी ने बलभद्र वखाण रे । पिण नंसनिनेश्वर ग साध साधवियां रे, नहीं बांधा ते
,
गुण विना द्रव्य पिछाण ये ॥
द्र० ॥ १५ ॥ यां तीनां ने उल्टा पगे लगाविया रे, पिण गुण विन द्रव्य न वाद्यो काय रे । चोवोसत्यो करता निगुणा किम वादसी रे, तुमे हिरदे विमासी बुध सूं जोय रे द्र० ॥ १६ ॥ वल द्रव्ये तीर्थंकर श्रेणिक राय थोरे, श्रो वीर जिनेश्वर दियो बताय । पिग बौर जिनेश्वर ग़ साधु ने साधवियां रे, श्रेणिक रा क्यूं नहीं वांद्या पाय रे ॥ ० ॥ १७ ॥ तियां उल्टो श्रेणिक ने पगां लगावियों रे, पिया गुग् विन द्रव्य ने वांयो कोये र े । चोवीसत्था करता निगुण किम वांदसौर, हिरदै विमासी बुध सू जोय रे ॥ द्र० ||१८|| मोटी सतियां घी रानी कृष्ण नौ नं, त्यांने तीर्थकर वांदगा गे घणो उलास े । तो द्रव्य तोर्थंकर वांदे गुग विना रे, तो कृष्णा स्यूं नहीं करती घर वास रे ॥ द्र० ॥ १६ ॥ बले मोटी सतियां श्रेणिक री राणियां र, त्यां` तौर्घङ्कर वांदण रो घणो उलास रे । ने द्रव्य तीर्थंकर वांदे गुण विना रे, ते श्रेणिक सूं नहीं करती घर वास से ॥ द्रः ॥ २० ॥ त्यां भरतार
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( २०७ ) जाणी ने कौधौ बिटमणा रे, त्या सू पिण सेव्या काम न भोग रे तो चोवीसत्या करता तिण ने किस बांदसौ रे, आ ग रा रौ श्रद्धा जाणो अजोग रे ॥द्र० ॥२१॥ कृष्ण जी ने श्रेणिक रौ राणियां रे, समदृष्टि में चतुर सुजाण रे । त्या तो सामायक पासा में बदना करी रे, ते भाव तीर्थकर देव जाण रे ॥ द्र० ॥ २२ ॥ जे द्रव्य तीर्थंकर बांदे गुण बिना रे, त्यांने गुण बिना बांदणा द्रव्य साध रे। जोज कहे द्रवा साधु ने बांदगा दे, उगा ने उण री श्रद्धा रौ न पड़ी लाध रे॥ द्र० ॥ २३ ॥ काई आगमिया काले शुद्ध साध हुसी रे, कोई सागल हुसौ चारित्र बिराध रे। ते द्रव्ये छ गुगा बिण ठालो ठीकरा रे, त्यां सगला ने कहौजै द्रव्ये साध है ॥ द्र० ॥ २४ ॥ जो द्रव्ये साधु ने बांदे गुण बिना रे, तो यां सगलां ने बंदणा करणी ताम रे। उगारी श्रद्धा रे लेख गुया कुण बांदणा रे, हिवै द्रवा साधु रा कहं छं नाम रे ॥ द्र० ॥ २५ ॥ तो गोसाला कुपात्र ने बांदणो , ते मिण आगमिया काले साधु थाय है। जे द्रव्ये साधु ने बांदे गुण बिना रे, तो गासाला ने क्यों न बांदे ताय रे ॥ द्र० ॥ २६ ॥ बले इग्यारा श्रेणिक रा डोकरा रे, कोणक कालिदिक कुमार रे । जे द्रवा साधु ने बांदे गुण बिना रे,
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( २०८ ) तो यांने पिण बांदणा बारम्बार रे॥ द्र० ॥ २७॥ जमाली ने कंडरीकादिक जे हुआ रे, ते विगया के संजम समकित खोय रे । जे द्रवे साधु ने बांदे गुण विना रे, तो यांने पिग वांदणा नीचा होय रे ॥ द्र. ॥२८॥ इत्यादिका भागल होया कुसीयालीवा रे त्यांरो द्रव्ये निक्षेपी न गयो ताम रे। जे द्रव्ये साधु ने बांदे गुण विना रे, तो यांने मिण बांदे ले ले नाम रे ॥ द्र० ॥ २६ ॥ जो उन वांद या भाव सं रे, तो उन रो मत उन थाप उथाप रे । जो द्रवा साधु ने वांदे गुण विना रे, त्यांचे के पोते बाहला पाप रे ॥ द्र० ॥ ३० ॥ उण स्त्री परगी सं घर वासा कियो रे, ते तो माता होती माछला भव मांय रे । जो माने कवल गुगा विन द्रवा ले रे, तो स्त्रीने लेखवणी माय रे ॥ द्र० ॥ ३१ ॥ उण जन्म देई ने मा मोटी कियो २.ते तो स्त्री होती पाउला मझार रे । जे माने निकल गुण विन ट्रवा ने रे, इण लेखे माता ने गिण लगी नार रे ॥द्र० ॥ ३२॥ के साता ने लेखव लेगी जीरे, के स्त्री ने लेखवणी माय रे, जे माने निकवल द्रवा ने रे, इण ही श्रद्धा री ओहोज उंधी चाय के ॥ द्र० ॥ ३३ ॥ उप रे जीव हुआ में स्त्री रे, ते मगला ही जीव हुआ मा बहिन रे। जे माने निक
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२०१ ) वल गण बिन द्रवा ने रे, ति रा किण विध चालसौ कूड़ा फेन रे ॥ द्र० ॥ ३४ ॥ बले' बेटी उण रे घर जाय जनमोयो रे तिण रो माछल भव नो बेटो तो बाप रे । ने माने निकेवल गुण बिन द्वा ने रे, तो बेटा ने लेखवयो बाप रे ॥ द्र० ॥ ३५ ॥ दूण गे बाप पाछल भव बेटो हुतो रे, तिण गे हो जे बेटो हुवा आप रे । जे माने निकवल गुग बिना द्रवा में रे, ते बाप ने बेटो गिगा लेगो ताय रे ॥ द्र० ॥ ३६ मेणादिक सर्व जीवनी रे, त्यांग बेटो हतो पाछल भव आप रे । जे माने निकवल गुण बिन दव्य में रे, तो इगा लेख सगलाई दूण रा बाप रे ॥ द्० ॥ ३७ ॥ जो उ सगला ने बाप न लेखवे रे, तो उगा रौ श्रद्धा दूण लेखे कूड़ रे । जे माने निकवल गुगा बिन द्रवा ने रे, त्यांरो चिहु गत में होसौ घयो फितूर रे ॥ द्र० ॥३८॥ बले काका बाबादिक सगपणा तेहनें है, सगलाई हुआ अनन्तौ बार रे । जे माने निकवल गुण बिन दवा ने रे, ते किण विध करसी बिचार रे ॥ द्र० ॥ ३६ ॥ अरिहंत सिद्ध साधु इण जोवरे रे, जे हुवा न्यातीला बार अनन्त रे। जे साने निकवल गुगा रे, त्यांरे लेखे तो सगला एक भांत रे ॥ १० ॥ ४० ॥ औ कुण कुण मारै में कुण कुण पूजसौ रे, तिगा गे के
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र २१० ) दिन कहतां आवै थाग में । ते डूबा अज्ञानी निगुणा बांदने रे, त्यांरो भव भव में होसौ घणो अभाग रे । ट्र० ॥ ४१ ॥ ए दवा निच्छेपी बांदे गुण बिना रे, ते पिणा काम पड्यां देवे उधाप रे । ते पग पग झूठ वाले अति घणो रे, ते कर रह्या लूढ़ कूड़ बिलाप रे ॥ द्र० ॥ ४२ ॥ यांने गुगा विन दुवा बांदण रो कह्यो रे, जब ताऊ वसूधा वाले एम रे। कहै द्रवा छै तो गुण नहीं पिग मांहि रे, तिग में शीश नमावां फेम रे । द्र० ॥४३॥ जे द्रवा निकेवल माने रे, गुण रो शरणो ले जिना चाय रे । बा खोटी श्रद्धा थांरी अटकै घणी २ । जब सांच वालो ने आयो ठाय रे । द्र० ॥४४॥ त कहिवा ना ठाय आया अज्ञानी रे, पिगण मन में न भौज गुरव नृढ़ रे । त्यारे डंक लाग्या कुगुरां तणां करडा , झिगा विध ते छोडे करडी रूढ़ रे । ॥ द्र० ॥ ४५ ॥ बो द्रव्य निजेपी मुख स्यूँ कर रहा '. तिगा गै पिग ममझ पड़े नहीं काय रे । ते भरमाया लागा सुगुल तणां रे, ते प्रत्यक्ष चोड़े मृला जाय रे ॥ ४० ॥ ४६॥ कई द्रव्ये तीसर अनादि काल ना र . त्यांरौ पिग गरन सरी नहीं काय रं । ती बंदगा करसो तिण ने किम तारसो रे, विमा भाग ममको दुगा न्याय रे ॥ द्र० ॥ ४७ ॥
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( २११ ) द्रव्य तीर्थकर छै कई गुण बिना रे, ते पिण कहवा ने द्रव्य नाम रे । पिण धर्म नहौं तिण में बांदिया रे, तरण तारण नहीं छै नाव रे ॥ द्र० ॥ ४८॥ गुणा बिन द्रव्य तीर्थ कर तहसू रे, किण बिध घटसौ आतम दोष रे। जो त्यांने बांदियां सदगत हुवै रे, तो जीव सगलाई जावता मोक्ष रे ॥ दू० ॥ ४६॥ जे द्रव्य तीर्थ कर बांदे गुण बिना रे, त्यार लूल न दौसे बोले बंध रे । फिरतो भाषा बोले कपटी थका रे, ते होय रह्या माह अंध रे ॥ द्र० ॥ ५० ॥ गुण करके तीर्थंकर देव छै रे, गुण करने कह्या छै सिङ्घ साध रे। त्यांरा गुण ने द्रव्य तो एकहौज छै रे, त्यांने बांद्यां सं परम समाध रे ॥ द्र० ॥ ५१ ॥ गुण और ने द्रवा और छ रे, ते तो कहिवता लावगा काम रे । कोई भोले मत भूलो गुगा बिन द्रवा सूं रे, सुरण सुगा द्रवा रा चोखा नाम र ॥ द्र० ॥५२॥ कई द्वारा नाम कहिवा ने दिया रे, कई गुण निपन आवे काम रे । ते कहिवारा द्रवा जाणो कहिवा भणी रे, पिण गुण बिन निपन ते आवे काम रे ॥ द्र० ॥ ५३ ॥ इम कहतां कहतां पूरा हुवै नहौं रे, इण द्रवा निक्षेपा गे विस्तार रे। कई गण बिन थोथा द्रवा माने नहीं रे, त्यां निश्चय सफल कियो अवतार रे॥द्र० ॥५४॥
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( २१२ )
॥ दोहा ॥ नाम घापना द्रवा तयो, यां तीनां रो को विस्तार । ए गुणा निगुणा भाव रहित मे, एकगा नहीं लिगार ॥ १ ॥ गुण विन नाम निकेवलो, गुण विन घापना आकार । जे द्रव्य निक्षे पो गुण बिना, ए तीनों ई नि मा असार ॥ २ ॥ ति कारण मोटो कह्यो, गुण सहित निक्षेपो भव । च्चा निक्षेपा मांहि भाव है, तिण से विग्ला जागे सार ॥ ३ ॥ भाव निक्षेप रूड़ौ रौतसूं, कोलखज्यो नर नार । इगा ओलखियां विन जौव र, घट में घोर अंधार ॥ ४ ॥ जे जे द्रवा रा नाम है, नाम जिसा गुण तिग मांहि । भाव निचेपा श्री जिनवर को ते सुराज्यो चित्त
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लगाय ॥ ५ ॥
|| ढाल पांचवीं ॥
( पूज्यनी पधारे नगरों सेविया । एदेशी ) अनन्ता तीर्थंकर आगे होसी वले, ते अवास् रुले च्यारु' गत मांहि हो भविक नग, जे द्रवा तीर्थकर कहिजे तेहने, पिण भावे एकेन्द्रियादिक ताहि हो भविक जण, भाव निचे पो भवियण ओलखो ॥१॥ तीर्थकर घर वासे वमतां मकां नव भोगी पुरुष
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( २१३ ) विख्यात हो भ० द्रवा तीर्थंकर त्यां ने ही जिन कह्या, पिग भाव तो गृहस्थ साक्षात हो भ० ॥ भा० ॥ २ ॥ तीर्थकर घर छोडी चारित्र लियो, पाले छै शुद्ध आचार हो स० तो द्रवा तीर्थकर काहीजे तेहनें, भावे होया मोटा अणगार हो भ० ॥ मा० ॥ ३॥ केवल जान दर्शन उपनां पछै, थाप तौरथ चार हो भ० भाव तीर्थंकर कहिजे तेहनें, समझो आण विचार हो भ० ॥ भा० ॥ ४ ॥ चोतीत अतिशय करने परबस्या, बाणी गुण पेंतीस हो भ० तौर्य कर ना सगला गुण छ तेहमें, तीर्थ कर भाव जगदौस हो भ० ॥ भा० ॥५॥ अनंता तीर्थ कर आगे होसी, बले' हिवड़ां तो चिहुंगत गोता खाय हो म. द्रव्य तीर्थ कर त्यां नहीं जिन कह्या, पिण भावे तो एकेन्द्रियादिक माय हो भ० ॥ भा० ॥ ६ ॥ घर छोड़ो सूधो पाले साध पणो, पिग हणिया नहौं कर्म चार हो भ. त्यां लग द्रव्य तीर्थङ्कर कह्या तेहने, ते भावे हुया सुध अणगार हो भ० ॥ ॥ ७॥ चार कम घन घातिया के अरि, ए अरि हणियां सं अरिहंत हो अ. भावै अरिहंत कहौज तिण समै, ते वा लखवां दो मतिवंत हो भ० ॥ भा० ॥८॥ अनन्ता सिद्ध आगमिया काले हुसौ, ते तो हिवड़ां चिहगत गीता खाय हो भ० द्रव्ये तो सिद्ध
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( २१४ ) कहौज तेहनें, पिण भाव एकन्द्रियादिक माह हो भ० ॥ भा० ॥६॥ वले अदिहंत माधु मुक्ति ने निजल्या, त्यंरा भाव प्रमायो गुला कड हो भ० पिण ज्यां लग मुक्ति न पोहता, या लगे द्रव्य कहीज सिद्ध हो भ० भा० ॥१०॥ सकल काज सानो मत गया, त्यां आठों हो कर्म चय कोध हो भ. त्यां आवागमन मेट्यो गत चार नौ, त्यांने भाव कहौज हो भ० ॥ भा० ॥ ११ ॥ घनन्ता प्राचारज उपाध्याय साधु होसौ, ते हिवड़ा नरका ना मांहि हो, भ० ते पाचारज उपाध्याय साधु द्रव्ये कह्या, भावे नेरियादिक नाम हो स० ।। भा० ॥ १२ ॥ बले आचारज उपाध्याय घर मे थकां, ते द्रव्ये छ भाव दहित हो भ. त्यांरा गुण प्रगट होवा घर छोडिया पखें, जब भावे गुग सहित हो स० भा० ॥ १३ ॥ कोई आचा. ग्ज उपाध्याय साधु भागल धया, ते द्रव्ये छ गु गारहित हो भ. त्यां में आगमिया काले ग गा परगट्या, जब होसो वले भाव महित हो भ० ॥ भा० ॥ १४ ॥ छत्तीस गुण पाचारज पडिवज्यो पचौस ग गा उपाध्याय हो भ० सतावाम गण सहित साधु कहा, ए भावे सगला भावे मुनिराय हो भ० ॥ भा० ।। १५ ।। ए भावे परिहंत सिद्ध माधु कया, त्यांने बांटा
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( २१५ )
निर्जरा धर्म हो भ०
बांधे सात आठ सब
निग या तौन निक्षेपा मानिया, कर्म हो भ० ॥ भा० ॥ १६ ॥ ने माता पितारा अंग सुं अपनो, ते भावे पुत्र साक्षात हो भ० मात पिता पण भावे छे तेहना, नौवे ज्यां लग त्यांरो अंग जात हो भ० ॥ भा० ॥ १७ ॥ ते पुत्र मरे और जायगा, उपनो जब यांरो नहीं अँग जात हो, भ० ए माता पिता पिय भावे नहीं तेहना भावे सगपण नहीं तिल मात हो भ० ॥ भा० ॥ १८ ॥ कोई स्त्री परगों घर बासी करे, ते भावे बरते नार हो भ० ते पाछल भव बूरा गे माता हुतो, ऊ सगपण नही रह्यो लिगाव हो स० ॥ भा० ॥ १६ ॥ इम भाई भतीजा काका बाबादिक, बहन बहनोई आदि पिछाण हो भ० जे जे सगपण वर्त्तमान काल में, ते भाव सगपण जाग हो भ० ॥ भ० ॥ २० ॥ भाव सगपण ज े संसार मे, ते आवे गुण परमाणें काम हो भ० द्रव्ये सगा सगला एक एक रे, त्यांरा कुण कुण कहीजे नाम हो अ० ॥ भ० ।। २१ ।। आवे सगपण बीता पढ़ें भावे ज्यूं अर्थ न श्राय हो स० पिण भावे मांहि नहीं, त्यां
द्रव्ये तो
सूं गरज सरे नही काय सगला ई जीव है द्रव्य मस्कार हो अ० तिहां
•
हो भ० ॥ भ० ॥ २२ ॥ नेरिया, पिय भावे तो नारको
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( २१६ ) छेदन वेदन नत्र वेदना, ते खाय अनन्ती मार हो म. ॥ मा० ।। २३ ।। जो देवता हासौ आगमिया कोल में, जे द्रव्य छै देवता पिछाण हो भ० भवनपति व्यतर ज्योतिषी विमाणीया, ते भावे तो देवता जाण हो भ० ॥ भा० ॥२४॥ नारको आदि चौबीस डंडक मझ, तिहां नौव उपजे आय हो भ० ते भावे तो कहौज ब्रते तेहवा, जोवी सूत्र माहि हो भ० ॥ भा० ॥ २५ ॥ अणघड़िया रूपा ने द्रव्ये रुपया कह्यो, तिण रो घड़ आकार तेह हो भ० पछै उपर सिक्को दियो चलग हुवै जहवा, जव भावे रुपया एह होय हो भ० ॥ भा० ॥ २६ ॥ सूत पूणो ने द्रव्ये कपड़ो काहै, मुगा विन तेहनो नाम हो भ० मावे तो कपड़ो कहौज वणिया पळे, ते आवे पहरण के काम हो भ० ॥ भा० ॥ २७॥ इत्यादिक साव निपा अनेक छ, ते पृरा केस कहाय हो स० अने अनुसार बुधवंत समझ ने. ओलख लीजो न्याय हो भ० ॥ भा० ॥२८॥
॥ दोहा ।। दुनियां मे सानप घगो. ते कही कठां लग जाय । पर्य अनर्घ धर्म कारणे, हण रया जीव छ काय ॥१॥ अर्थ हगा ते पाठां कर गा. आतम न्यात घर परवार । मित्र न्याती ने मृत जक्ष. यांग घणो को विस्तार ॥२॥
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( २१७ ) ए आठ करणां बिना हणे, ते अकल बिना बे फाम । ते अनर्थ दंड श्री जिन कह्यो, छ काय हणे बिन काम ॥३॥ देव गुरु धर्म कारणे, जाणे जौव हण्या छै धर्म । धर्म हेत हौ छै किण विध, ते भूला अज्ञानी भर्म ॥४॥ अर्थ अनर्थ धर्म कारण, सगले ठाम हण रह्या के प्राण । ते दया किसी पर पालसी, झै मूढ़ मिथ्याती अयान ॥ ५ ॥ ते हिंसा धर्मों जीवड़ा, तिण रे उदय मिथ्यात अज्ञान । यार छ काय मारण तणो, रहे निरंतर ध्यान ॥ ६ ॥ देव गुरु धर्म कारगो, किण बिध हणे छ काय । त्यांरी खाटी श्रद्धा प्रगट करू, ते सुण न्यो चितलाय ॥ ७॥
* ढाल छठी *
(बिछिया नौ देशी) अरिहंत देव गै करै थापना, हग रह्या जीव छ काय नौ । देव काजे हणे जीव किण बिध, ते सांभल ज्यो चितलायजी ॥ जीव मार ते धर्म आछो नहीं ॥१॥ ते देवलादिक कगवता लगावे हजारां दाम जी । धन खरचे पूजादिक कारगणे, बले कर अनेक हगाम जौ ॥ जौ० ॥२॥ मत्थर कान सं काढ़ मंगावतां, बस थावर मारे अनेकजी। त्यांरो लेखो करे घट भौतरे, काई
२८
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( २१८ , वधवंत आया विवेक जी ॥ जो० ॥ ३ ॥ पत्थर फोद्यां पृथ्वि काय में रे, पांगी घाले चूनादिक मांहिजी। बायु काय मरे लेतां मेलतां, टांची बाजाां उठे तेज काय जी ॥ जो० ॥४॥ वनस्पति बस जीवड़ा, गाडादिक हेठे चिंथ्या जाय जी। नौव देई देवल चुणता घका, तठे पण मरे छः काय जी ॥ जी० ॥ ५॥ धूनी वाले ऊपर देती थकां, तिहां पिण जीव मरे पथाग जो। अनन्ता जीव मार देवल किया, भो तो नहीं के मुगत गे मागजी ॥ जो० ॥ ६ ॥ देवल करांवता हिंस्या हुई, ते पूरौ कम कहायजी । पछै पूजादिक कगवतां, नितरानित मारी छ कायजी ॥ जो० ॥ ७ ॥ कठे टांची वाजे निरंतर, नित नित मारे पृथ्वीकाय जी । त्यांने दुख उपजे तिगण समें, घणी तु अतुल वदना घायजी ॥ जी० ॥८॥ नित पाणी ढोले नवगवतार । अगन मार दोवा उजवालतांजी। नित नित ग वाजकाय मारे घगां, कूट मजीरा तालजी । नौ ॥ ६॥ नित काची कलियां तोड़ ने, माथा गूंथ चढ़ावे आग जौ। दोवादिक सं मरे पतंगिया, बस काय रा बाय पिंगा घमसान जो ॥ जी० ॥ १० ॥ इत्यादिक क; काय मारवा, नितका करे के संग्राम जी । वले कई महान पाप लागी न हो. हगिया परि
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( २१६ । हंत देव रे काम जी ॥ जी० ॥११॥ आवै दया पालण रे पगथीयो, तिथ पूर्व पजसण मास जौ। ते तो तिण दिन जीव मारे घणां, करे जनेक जीवां रो बिनास जौ ॥ जो० ॥ १२ ॥ पछै सतरह भदै पूजा रचे, तिण गे माडे घणो बिस्तारजी। तह दया तणो सौचो नहौं, करे छ काय रो संहारजो ॥ जो० ॥ १३ ॥ बांध मगां मे घूधग, हाथ मे लेवे मजीरा तालजी । ते तो बजावै गावै कुदड़का करै, छः काय रो खिंगारजी ॥ जी. ॥ १४ ॥ देव काज हणे जौव दूण बिध, तिण में मूल मजाणो दोषजी। जाणे लाभ हुया जिन धर्म रो, तिण स्यूं नेडी के अविचल मोक्षजी ॥ जी ० ॥ १५॥ इत्यादिक देवल काजे हणे तिण री कहता न आवे पारजी। हिवै गुरु रे काजे हो जीव में, ते सांमल ज्यो बिस्तारजी ॥ जो० ॥ १६ ॥ देव रे काजे देवल करावतां थकां, बस थावर रा ल व्या प्राणजी। तिन गुरु काजे थानक किया, हुवै छ काय रो घमसानजी ॥ जी० ॥ १७॥ थानक करावता हिंसा हुई, ते तो देवल नौ परे जाणजी। छः काय मारी है किण बिधे, तिण रौ बधवन्त करज्यो पिछाणजी ॥ जी० ॥ १८॥ बले बांधे परदाने परचनें, चन्दवा भारादिक प्राणजी। इत्यादिक थानक रे कारण हो, बस थावगं रा प्राण
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( २२० ) जी ॥ जी० ॥ १६ ॥ खीर खांड फौन्यां रोट्यां करे, पाणी उकाले भरभर ठामजी। और अनेक वस्तु करै घगी, गुरुने पडिलाभगा कामजी ॥ जी० ॥२०॥ आहार पाणियादिक निपजावतां, कर छ कायरो विनासजी । पक्के तेड़ बहरावै तेहनें, वले कर मुक्तिनी आसजी ॥ जो० ॥ २१ ॥ इत्यादिक गुरू काजे हिंसा की, ते तो पूरी फेम कहायजौ। धर्म काजे हिंसा करै जोवरी, ते सांभल ज्यो चितलायजौ ॥ जी० ॥ २२ ॥ करे उजवणा में पारणा, बले साहमी बछल जाणजी । त्यांन चीत जिमायां कारगणे, करै छ: कायारो घममागाजी ॥ जी० ॥ २३ ॥ वले धर्म काजि धंकल करे, सिंघ काड लेव नावे जातजी। चोमासादिक में शावता जावता, करे त्रस थावर गै घातजी ॥ जी० ॥ २४ ॥ तप मांड्यो ते पूरो हुआ पछे, जीमगा कर लोक जायजौ । बले लाडुयादिक करावता, ते तो इगई जीव छ शायजी ॥ जी० ॥ २५ ॥ वले समदंड होई दान दे, उपर वाडा ग फल देई जागजी । भांवादिक ना फल नौ चोवीसी देई, इत्यादिक दान पिझोण जौ ॥ जो० ॥ २६ ॥ हगो अर्थ अनर्घ जीव में, ते तो भागै हावे वाद पायनी । धर्म हैते हगो कः काय ने, श्रीता कुगुगं तगा प्रतापजी ॥ जी० ॥ २७॥
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{ २२१ पंखो पाला घाल देवल मझे, इंडा मेलव से तिणे मांहिजौ। तें निजरां पडें कुगुरां तो, तो बाला दे तुरत पडायजौ ॥ जो० ॥ २८॥ कई इंडा पंखौ जीवां मारें, कई उड़ता जाय आकासजी। तिणमें धर्म परुमै पापिया, करै जीवां रो बिनासजी ॥ जो० ॥२६॥ जे अनारज आव देस उपरे, जब करे अकारज काम जी। दुख उपजावे रांक गरीब ने, फिर फिर मारे नगर ने गामजी ॥ जी० ॥३०॥ तिम कुगुरु अनारज सारिखा, त्यांरा दुष्ट घणा परिणामजी । ते पिण गांवां नगरां फिरता थकां, मरावे पंखियां रा ग्रासजी ॥ जी० ॥३१॥ अनारज देस मार गयां पिछे, बले ग्राम नगर वेसें कमजौ। अनारज फेर अावे तिहां, तो बले मार करे घमसानजी ॥ जौ० ॥३२॥ ज्यूँ कुगुरु बिहार किया पछ, पंखौ फेर आला घाले लागजी । बले कुगुरू आवे तिण ग्राम में, पंख्यां रो जाणो अभागजी ॥ जौ० ॥ ३३ ॥ मोटा विरद महाजन रा कुल मझे, बाजे जीव दया प्रतिपालजी । पिण कुगुरु तिण भरमाविया, पाडै पंखियारा मालजी ॥ जौ० ॥३४॥ अनारज ग्राम नगर मास्यां पक्छ, कई आणे मन में पश्चातापजी। कुगुरु जीव मार हर्षित हुदै, त्यारे हिंसा धर्मोरी थाप जौ ॥ जो० ॥ ३५ ॥ अनारज करै कतल जौवां तणी,
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( २२२ ) ते पिण फेरे टुहाई बैगजी। कुगुरु जीव मरावण नयाँ नया, त्यारो कठे न दौसे थागजी ॥ जी० ॥ ३६॥ अनारज विच तो कुगुरु बुरा, त्यांरी मृरख माने बात जी। ते तो धर्म नाणे जीव मार ने, ओ तो करड़ो घणो मिथ्यातजी ॥ जी० ॥ ३७॥ कुगल कहै हिंसा किया विना, धर्म न होय केमजी। पीते त्याग किया हिंसा तगां, त्यांने धर्म किहां थौ होयजी ।। जी. ॥ ३८॥ जो हिंसा कियां धर्म नोपज , ता गृहस्थ हो जाय निहालजो। पिण साधां र हिंसां करणी नहौं, त्यांगे होसी कवगा हवालजी ।। जो. ॥ ३६ ।। जीव मारियां धर्म कहै, ए तो कुगुक तणां के वैगाजी । त्यांने वदि पूजे गुरु जाण ने, त्यांग फ टा अंतर नैगा जी ॥ जी० ॥ ४० ॥ जीवतव्य में प्रशंसा कारगो, बले माने वड़ाई कामजौ। हणे जन्म मरण मुकायवा, वले दुख दूर करवा तामजी ।। जी० ।। ४ १ ।। हां छ कारण छः काय नं, ते तो ए कारण साचातजी। धर्म हेत ति जोव ने हो, समकित जाय भावे मिथ्यातनी ॥ जी० ॥ ४२ ॥ छ कारगा हिंसा कियां बांधे, माठ कर्म गांठ पृरजौ। निश्चय माह ने मार वधे धों, नहीं वरत नरक स्यूं टुरजी ॥ जी० ॥४३॥ छः कारग हिमा करे, ते तो दुख पावे इण समारजी ।
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( २२३ )
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आचारंग पहला अध्ययन में, छऊं उदेशां कह्यो बिस्तारजी || जी० ।। ४४ । के समय माहा अनारज थकां करें हिंसा धर्म नौ थापक्षी । कहै प्राण भूत जौवां सतबनें, धर्म हेत हयां नहीं पापजौ || नी० ॥ ४५ ॥ एहवी ऊंधौ परूपे तेहने, भारनायें साधु बोल्या केमजौ। तुमे भूठो दौठो सांभल्यो, भूडी दौठो भूडी सांभलो केमजी || जो० ॥ ४६ ॥ जीव मायां रो दोष गिणनें, ए बचन अनारज जाणजी । एहवा मूढ़ मिथ्याती में दुर्मती । त्यां सुध बुध नहीं है ठिकाण जौ ॥ जौ ० ॥ ४७ ॥ कोई हिंसा धर्मी ने इम कहै, यांने मायां वै धर्म के पापनी । जब कहे म्हांने मायां पाप है, सुधौ सांच बोल्या साची थापनी ॥ जौ ० ॥ ॥ 10 11 8 5 11 जो थांने मायां रो पाप है, तो इम सर्व जीवां मायां जाणजी । और में मायां धर्म परूपै, थे कांई बूड़ो कर कर तागाजी || जी० ॥ ४६ ॥ ए आचारंग चौथा अध्ययन में, टूजे उद्देशे जागा विस्तार जौ । हिंसा धर्मी नारज तेहनें, कौधा जिन मार्ग स्यूं- न्याग्ज || जौ० ॥५०॥ धर्म होसी एकेन्द्रौ मारियां, जो बेन्द्रौ मायां पाप न थायजी । अधिक मायां अधिक धर्म छे, इग से श्रद्धा से ओहोज न्यायओ ॥ ओ० ० ॥ ५१ ॥ जो एकेन्द्रौ मायां पाम है, तो बेन्द्री
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( २२४ ) मायां पाप विशेषजी। अधिको मायां अधिको पाप के इस जेण धर्म सामा देखी ॥ जी० ॥ ५२ ॥ कोई हिंसा धर्मों चवडे कहै, हिंसा कीधा बिना न हुवै धर्म जी। कोई चवडे न कहै कपटी थकां, सांच कहतां श्रावै शर्म जी ॥ जी० ॥५३॥ कोई दया धर्मों बाजे लोकमें, चाले हिंसा धर्मों नौ रौती। ते पिण छै तिगा ही पांत रा, बतलायां बोले बिपरीतजी ॥ जी० ॥५४॥ सूत्र मिहान्त में इम कयो, औव हगियां सूं लागे पापजी। न मायां सं पाप लागे नहौं, श्री जिगा मुख भाखियो जापनी ॥ जी० ॥५५॥ वले देहरा प्रतिमा करावतां, जीव हगा रह्या पृथ्वि कायौ । त्यांने मदवद्धि श्री जिन कह्या, दशमां अंग पहला अध्ययन मांयजी ॥ जो० ॥ ५६ ॥ वले चद्र मत कही तेहनी, तेतो दौठ बूढ़ घणो अत्यंतजी । टुरंत पंत लक्षण रो घणो, हिंसा धौं ने कहे भगवंतजी ॥ आ. ॥ ५॥ जीव हिंसा करै तेहने, ओलखाया शोजिनरायजी । हिवै हिमा धर्मो रा फल कहू, ते मांभल ज्यो चितलायजी ॥ जी० ॥ ५८॥ कोई हिंमा धर्मों जावड़ा, मरे उपजे नरका मझारी। विहां कैदन भेदना प्रति घणा, बले वाय अनंती मारी ॥ जी० ॥५६॥ मार खाय नरक थौ निकले, पड़े तौर्यच में
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( २२५ )
जायजी | तिहां पिण दुख पायें अति घणां, ते तो पूरा केम कहायजी ॥ जो० ॥ ६० ॥ बली निगोद में पडियां पक्कै, दुख पामें अनन्त कालजी | परिभ्रमण करे संसार में, जाणे अरट तणी घडमालजी ॥ जी ० ॥ ६१ ॥ इम रुलतो संसार में, कदे मनुष्य तणो भव पायनी । ते किम पावै है अवसाता, ते सांभल ज्यो चितलायनी ॥ जी० ॥ ६२ ॥ त्यांरी बाल पणे माता मरे, बले पितारो पड़े बिजोगनी । सयण सगारी बिछोह पड़ े, मिले दुश्मणरो संजोगजी ॥ जी० ॥६३॥ बालक थको मरे बेटा बेटियां, बले घर भांगे अंघगालजी । दुख दुख जमारो पूरो हुवै, बले आवे अण'तो आली ॥ ज० ॥ ६४ ॥ केई होय टंटां पांगला, कोई गूंगा बेहरा जागजी । कई होय जावे अांधां ने दरिद्री, रहे दिन दिन तापा तागओ ॥ ज० ॥ ६५ ॥ सोलह रोग शरीर में उपजै, तिणस्यूं पामें दुःख संतापजी । जनम मेरण ग दुख पायें घणा हिंसा धर्म तणे प्रतापजी ॥ जौ० ॥ ६६ ॥ सूयगडांग अंग अध्ययन अठारमें, ए भावे कया जिनरायजी । इम सांभल ने नर नारियां, धर्म हेत मत हो छः कायनी ॥ जौ ० ॥ ६७ ॥ देवल हिंसा निषेधौ सांभलै, कोई पाछो उत्तर देवे हामनी । माप हुवै तो नहीं लगावता,
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( २२४ ) मागां पाप विशेषजी। अधिको मायां अधिको पाप के इस जेण धर्म सामा देखजी ॥ जो० ॥ ५२ ॥ कोई हिंसा धर्मों चवडे कहै, हिंसा कीधा बिना न हुवै धर्म जी। कोई चवडे न कहै कपटी थकां, सांच कहतां आवै शर्म जी ॥ जी० ॥५३॥ कोई दया धर्मों बाजे लोकमें, चाले हिंसा धौ नौ रौतजी। ते पिण छै तिगा ही पांत रा, बतलायां बोले बिपरीतजी ॥ जी० ॥५४॥ सूत्र मिद्धान्त मे इम कह्यो, औव हगियां सूं लोगे पापजी। न सायां सं माप लागे नहौं, श्री जिगा मुख भाखियो बापजी ॥ जी० ॥५५॥ वले देहग प्रतिमा करावतां, जीव हगा रह्या पृथ्विकायौ । त्यांने मदवुद्धि श्री जिन कह्या, दशमां अंग पहला अध्ययन मांयजी ॥ जी० ॥ ५६ ॥ वले क्षुद्र मत कही तेहनी, तेता दीठ छूढ़ घणो अत्यंती । टुरंत पंत लक्षगा री घगी, हिंसा धमों ने कहे भगवंतजी ॥ ओ० ॥ ५ ॥ जीव हिंसा करै तेहने, ओलखायो श्रोजिनगयी। हिवै हिंमा धौरा फल कहू, ते सांभल ज्यो चिततायी ॥ जी० ॥ ५८ ॥ कोई हिंमा धर्ना औरड़ा, मरे उपजे नरका समारो। तिहां छेदन भेदना यति घणा, बग्ने खाय अनंती मारी ॥ जी० ॥ ५६ || मार खाय नरक थी निकले, पड़े तीर्यच में
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( २२५ ) जायजी। तिहां पिण दुख पामें अति घणां, ते तो पूरा कम कहायजौ ॥ जी० ॥ ६० ॥ बली निगोद में पडियां पछे, दुख पामें अनन्तो कालजी। परिभ्रमण करे संसार में, जाणे अरट तणी घडमालजी ॥ जी० ॥ ६१ ॥ इम हलतो संसार में, कदे मनुष्य तणो भव पायजी । ते किम पावै छै अवसाता, ते सांभल ज्यो चितलायजौ ॥ जी० ॥ ६२ ॥ त्यांरी बाल पणे माता मरे, बले पितारो पड़ बिजोगनी । सयण सगारी बिछोह पड़े, मिलै दुशमणरो संजोगजौ ॥ जी० ॥६३॥ बालक थको सी बेटा बेटियां, बले घर भांगे अंघगालजी । दुख दुख जमारी पूरो हुवै, बले आवे अणणहुतो आलजी ॥ जौ० ॥६४॥ कई होय ट्रॅटां पांगला, कोई गूंगा बेहरा जाणजी। आई होय जावे आंधां ने दरिद्रौ, रहे दिन दिन ताणा ताणजी ॥ जी० ॥ ६५ ॥ सोलह रोग शरीर में उपजे, तिणस्यूं पामें दुःख संतापजी । जनस मरण ग दुख पामें घणा हिंसा धर्म तणे प्रतापजी ॥ जो० ॥ ६६ ॥ सूयगडांग अंग अध्ययन अठारसें, ए आवे कह्या जिनरायजी। ड्रम सांभल ने नर नारियां, धर्म हेत मत हणो छः कायजी ॥ जी० ॥६॥ देवल हिंसा निषेधी सांभलै, कोई पाछो उत्तर देवे हामजी । पाम हुवै ती नहीं लगावता,
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( २२६ )
लाखां कोडां हजारां दामजी | जी० ॥ ६८ ॥ आगे बड़ा बड़ ेरा भोला था नहीं, धन खरचे लगावे पाप जौ । किाही री उठाई उठे नहीं, माहरा बड़ा बूढ़ा घापजी || जी० ॥ ६६ ॥ आगे सर्व मार्ग हुआ घणा, त्यांरो जोवो पुराण विचारजी । त्यां पिण लाखां कोडां लगाविया, कराया देवल हरदुवारजी || जी० ॥ ७० ॥ आगे बड़ा बड़ेरा तुरकां तयां, त्यां पिय कराई मसौतनी । त्यां पिग लाखां कोड़ां लगाविया, मगलां वे आहोज गैतजी ॥ जी० ॥७१॥ नैनी, शिव, ने सुसलमान रे, सगलां रे बड़ा से ही तनी ।
त्यां पिग लाखां कोड़ां लगाविया ने कराया देवल यदि मसीतजी || जी० ॥ ७२ ॥ और देवल मसीत कगविया, त्याने पाप बतावे पूरनी । जैन रा देहरा कियां तेहने, धर्म कहै ते एकन्त कूरजी || जी० ॥ ७३ ॥ धर्म होसी तो सगला धर्म है, पाप होसी तो सगला पापजी । ए लेखो कियां तो लड़ पड़े, खोटो श्रद्धा करवा से धापजी || जी० ॥ ७४ ॥ आपरा देवल गै करै घामना, और देवल देवे उद्यापनी । पिग धर्म नहीं हिंसा कियां, कोई मत करो कूड़ बिलाप नी ॥ नी० ॥ ७५ ॥ दया धर्म है जिन तयो, तिगा ने जीव न हगावो विशेषजी । जीव माग्यां
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( २२७ ) तूं धर्म निपंजे नहीं, इम प्रवचन सामी देखजौ ॥ जी० ॥ ७६ ॥
इतिश्री चार निक्षेपां री चौपाई सम्पूर्ण।
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हेमनवरसे की ढाल ७ मी. ***************** ढाल ७ मी वारी रे जाउं ॥ एदेशौ ॥ मुनिवररे उपवास बेला बहुला कियारे । तेला चोला तंतसारही लाल पांच २ नां थोकड़ारे कोधा बहुली वारहो लाल ॥ हेम क्ट षि भजिये सदार ॥ १ ॥ मु० षट दिन कीधा खंत सं रे पूरी तपसू प्यारहो लाल आठ किया उचरङ्ग सूं रे हेम बड़ा गुणधारहो ला० ॥ हेम० ॥२॥ मु० रसना त्याग किया ऋषिर बहुविगै तणो परिहार ही लाल हेम वैरागी देखनेरे पामे अधिको प्यारहो लाल ॥ ३॥ सीतकाल बहु सो खम्योरे एक पछेवड़ी परिहारही लाल घणा वर्षा' लग जागाज्योरे हेम गुगाांग भण्डारहो लाल ॥ ४ ॥ उभा काउसग्ग
आदग्योर सीतकालमें सोयहो लाल पछेवड़ी छांडी करौर बहु कष्ट सद्यो अवलोयही लाल ॥५॥ सज्झाय करवा खामजोर तनमन अधिको प्यारहो लाल दिवस गत्रि मे हेमनोरं एहिज उद्यम सारही लाल ॥ ६ ॥ काउसग मुद्रा स्थापनेर ध्यान मुधारम लीनही लाल
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। २२६ ) नित्यप्रति उद्यम अति घणोरे मुक्त हामी धुन कौनही लाल ॥ ७॥ स्त्रियादिक ना संगनेरे जाण्या विष फल जेमहो लाल हांसकितीहलने हणौहे हिये निर्मला हेमहो लाल ॥ ८॥ सौयल धयो नवबाड़ सं रे धुर बोला ब्रह्मचारहो लाल ए तप उत्कृष्टो घणोरे सुरपति प्रणमें सारहो लाल ॥ ६॥ उपशम रस माहे रम रह्यार बिबिध गुणारौ खाणहो लाल एकंत कार्म काटण भणौरे संवेग रस गलताणहो लाल ॥ १०॥ खाम गुणारा सागरूर, गिरवो अति गम्भीरही लाल । उजागर गुण आगलारे मेरु तणो पर धौरहो लाल ॥ ११ ॥ कठिन बचन कहिवा तणोरे, जाणके लोधी नेमहो लाल । बहुल पणे नहौं बागस्योरे बचनामृत संप्रमही लाल ॥ १२॥ बिबिध कठिन बच सांभलौरे, ज्यारे मनमें नहौं तमायहो लाल । तन मन वच मुनि बश कियोरे ए तप अधिक अथायहो लाल ॥ १३ ॥ मु० ॥ चोथे आरे सांमल्यारे क्षमा शूरा अरिहन्तहो लाल बिरला पंचम काल मेरे हेम सरिषा संतही लाल ॥ १४ ॥ मु. निरलोभी मुनि निर्मलारे आर्जव निर अहंकारहो लाल हलका कर्म उपधिकरौरे सत्यवच महा सुखकारहो लाल ॥ १५ ॥ मु. संयम में शूरा घणारे । बर तप निविध प्रकारहो लाल उपधि अना.
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( २३० ) दिक मुनि भगोरे दिलरो हेम दातारहो लाल ॥१६॥ मु० घोर ब्रह्म मुनि हेमनोरे स्यं कहिये बहु बारहो लाल अखिल ब्रत उचरङ्ग सुंरे पाल्यो अधिक उदारहो लाल ॥ १७॥ इर्या धुन अति ओपतिरे जाणे चाल्यो गजराजहो लाल गुण मुरत गमती घोरे प्रत्यन भव दधि पाजहो लाल ॥ १८ ॥ मु० मो सं उपकार कियो घणोरे कयो कठा लग जायहो लाल निश दिन तुझ गुण संभरे बस रह्या मन मांयहो लाल ॥ १६ ॥ सुपने में सूरत खामनौरे पेखत पामें प्रेमहो लाल याद कियां हियो हुलसरे कहणी भावे कमहो लाल ॥ २० ॥ मु. हुतो विन्दु समान थो रे तुम कियो सिन्ध समानहो लाल तुम गुणा कव हुन विममरे निश दिन धरूं तुझ ध्यानहो लाल ॥ २१ ॥ साचा परिश ये सहौरे करदेवो पाप सरिसही लाल विरह तुमागे दोहिलोरे जागा रहा जगदीशही लान्त ॥ २२ ॥ मु. जीत तणी जय थे करो विद्यादिक विस्तारही लाल निपुग कियो सतीदास नेरे वलि अवर संत अधिकार हो लाल। २३ ॥ वाम गुणाग सागरे किम कहिये मुख एकहो लाल उडी तुझ मालोचनार वाम तुम विवेकहो लाल ॥२४॥ म. अखंड आचार्य भागन्चार, से पाली एकाधारहो लाल मान मेट मन वश कियोरे
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( २३१ ) नित्य कीजे नमस्कारहो लाल ॥२५॥ मु० साझ घणा संता भणोरे, तें दौधो अधिक उदारही लाल गण बछल गण बाल हाई समरे तौरथ च्यारहो लाल ॥२६॥ मु० सुखदाइ सहु अग भगोरे, कर्म काटण ने शूरही लाल तन मन रंज्यो भाप रे तुं मुझ आशा पूरहो लाल ॥ २७ ॥ म. हेम ऋषि दूण रौतसूरे लोधी जनम नो लाहहो लाल हेम तणा गुण देखनेरे गुणीजन कहै वाह २ हो लाल ॥ २८॥ म. चर्म चौमासो आमेटमें है आप कियो उचरङ्गहो लाल ध्यान सुधारस ध्यावतार सखरी भांत सुरङ्गहो लाल ॥२६॥ मु. सातमी ढाल विष कह्यारे हेसतणा गुण सारहो लाल हम गुणारी पोरसोर याद कर नरनारहो लाल ॥३०॥
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( २३२ )
* ढाल *
गाफिल तू सोच मनमे हरिनाम क्यों विसारा ॥ एदेशी ॥ श्री पूज्य यह विनय है, फिर शौघ्र दर्श देना । करके कृपा हमागे, जल्दी तलास लेना ॥ ए आंकड़ो ॥ दिन वीसही करा, कोन्हा विहार साहिब । अब आपके विना तो, हम चित्तही लगेना ॥ श्र० ॥ १ ॥ हम ज्ञान नित्य मुनते, सेवा तुम्हारी करते । प्रभु आपके दर्श विन, दिल धैर्य तो धरेना ॥ २ ॥ प्रभु ग्राम २ जाके, उपकार तो वाराके । फिर यहां भी शीघ्र आके, हमको संभाल लेना ॥ ३ ॥ तुम ध्यान हम धरेंगे, तुम जाप हम करेंगे । निज व्याधिको हरेंगे देखेंगे मार्ग नैना ॥ ४ ॥ विनती ये गौर करके, सवको हृदय में धरके । जल्दी ही आयेंगे हम, मुखसे
यह वाक्य कहना ।
॥ इति समाप्तम् ॥
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