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( ६७ ) शीश जी । कर्म तणा फल जाणी उदी रे, पिण नाणे मन शैल जौ। सु० ॥ ६॥ मन वच काया जे नवि डण्डे, छाण्डे पांच प्रमाद जौ। पांच प्रमाद संसार बधारे, जायो ते निःस्वाद जी। मु० ॥ १० ॥ सरल स्वताव मावे मन रूड़, न करे बाद विवाद जी। चार कषाय कर्मना कारण, वर्जे मद उन्माद जी। सु० ॥ ११ ॥ पाप स्थान अठारह वर्जे, न करे तासु प्रसङ्ग जो। विकथा मुख थौ चार निवार, सुमति गुप्ति सुरङ्ग जौ। सु० ॥ १२ ॥ अङ्ग उमाङ्ग सिद्धान्त बखाण, दे सूधो उपदेश जी। सूधे मार्गे चाले चलावे, पंचाचार विशेष जौ । सु० ॥ १३ ॥ दश विध यति धर्म जिन भाष्यो, तेहना धारणहारजी। धर्म थकौजे किमि हो न चूकी, जो हुए जोड़ प्रकार जी। सु० ॥१४॥ नौवतणी हिंसा जे न करे, न वदे मृषावाद जी । तृणमात्र अण दौधो न लेवे, सेवे नहौं अब्रह्मजी । सु० ॥ १५ ॥ नव विधि परिग्रह लूल न राखे, निशि भोजन परिहार जी। क्रोध मान मायाने ममता, न करे लोभ लिगार जी। सु० ॥ १६ ॥ ज्योतिष आगम निमित्त न भाष, न करावे आरम्भ जी। औषध न करे नाड़ी न जोवे, सदा रहे निरारम्भजी । सु० ॥१७॥ डाकिनी शाकिनी भूतणी न काढ़े, न करे हलवो हाथ जी । मन्त्र यन्वनी