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॥ सुगुरु पच्चीसी ॥
॥सुगुरु
सुगुरु पिछायो दूण पाचार, सम्यक्त्व 'मेहने तुचना । कहणी करणी एकज मरखो, अहनिशि धर्म वलुब्धजी । सु० ॥ १॥ निरतिचार महाव्रत पाले, टाल सगला दाषजी। चारित्रसं लयलीन रहे नित्य, नित्तमे सदा मन्ताषजी। सु० ॥ २॥ 'जोव सहनां जैछ पौहर, पौड़ नहीं षट काय जौ। भाप वेदन पर वैदन सरीखी, न हो न करे घाय जौ। सु० ॥३॥ सोह कर्मने जे वश न पड़े, नौरागी निर्माय जी। जयया करत्तो हलवे चाले, पूंजी सूफ पायजी। सु० ॥ ४ ॥ अरहो पर हो दृष्टि न देख, न करे चालतां वातजी। दूपण रहित सूझतो देख, तो लिये पाणी मातनी । सु० ॥ ५॥ अख वृषा पौधा दुख पौड़े, छटे नो निज प्रागनी । तो मिग अशुद्ध आहार न लेवे, जिनवर बाप प्रमाणली। सु० ॥ ६ ॥ चरस नौरस पाहार गवेषे, सरस तों नहिं चाहनो। इमि करतां जो सरस मिले तो हर्ष नहीं मन मोहजी। भु०॥७॥ नीत काले शीते मनु सूखे, जनाले रवि तापनौ। विघाट परिसह घट पहियास, नाणे मन सम्तापनी । खु०४८ मार कूट कर उपद्रव, कोई कलङ्ग दे