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( १५ ) ॥१६॥ पुण्यवन्त पामे बली वे. उत्तम कुल अव. तार । घर मम्पत्ति हुवै घणी रे, बहुत बनावे बहार । सु० ॥ १७ ॥ चारित्र लेडू चूंपस रे, आठ कर्म करि पन्त । पामे परम गति पांचवौं रे, अविचल सुख अनन्त । सु० ॥ १८ ॥ साधुजी चन्दन मारखा, रे, टाले तन मन ताप । निर्भागौ वन्दे नही रे, पोते भारी माप । सु० ॥ १६ ॥ साधुनी नावां सारखा रे, पहचावे भव पार । नेड़ा पिण टू के नहीं रे, निर्भागी नर नार। सु० ॥ २० ॥ भिन्न २ भेद भाष भलाजा, उपकारी प्रयागार । निर्वधि समझे नहीं रे, घटमें घोर अन्धार । सु० ॥ २१॥ वेश्या सङ्गति बेमतांग, ब्रतरी होय विनाश । शुद्ध समकित विनशे सही रे, पांषण्डियां रे पास । सु० ॥ २२ ॥ एक घड़ी पाधी घड़ौरे, साधुनी संगति धाय । चेलायती नामे चोर ज्यों रे, जीव भलौ गति जाय । मु० ॥ २३ ॥ संवत् पठारहसै साठमै रे, वदी पाश्विन सोमवार । बारस तिथि बौदासरे रे, आखौ ढाल उदार । सु० ॥२४॥ उपदेश पच्चीसौ ओपतौ रे, नोड़ी जुगते जाण। ऋषि चन्द्रभान सूडे मने रे, चेतो चतुर सुजाण । सु. ॥ २५॥ . . . . .