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गखड़ी करौ ते, नवि आपे परमार्थ जौ । सु० ॥ १८ ॥ विचरे ग्राम नगर पुर सगले, न रहे एक ठाम जौ । चौमासो ऊपर चौमासो, न करे एका ग्राम जी । सु० ॥ १६ ॥ चाकर नौकर पास नवि राखे, न करावे कोई काज जी । न्हावण धोवण वेश वणावण, नहीं
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करे शरीर नो साज नी । सु० ॥ २० ॥ व्याज बट्टानो नाम न जाणे, न करे वणिज व्यापार जौ । धर्म हाट माण्डी ने वेठा, वणिजे पर उपकार जौ । मु० ॥२१॥ ते गुरु त भोगने तारें, सागर मां जिमि नहान at | काठ प्रसङ्गे लाह तरे जिमि, तिमि सुगुरु सङ्गति पाज जौ । सु० | २२ ॥ सुगुरु प्रकाशक लोचन सखििा, ज्ञान तथा दातार जौ । सुगुरु दीपक घट अन्तर केरा, टूर करें अन्धकार जी । सु० ॥ २३ ॥ सुगुरु अमृत सरीखा शीतल, देय असर गति वासजी । सुगुरु तौ सेवा नित्य करतां, छूटे कर्मनो पाशनी । मु० ॥ २४ ॥ गुरु पचासी श्रवणे सुणौने, करज्यो मुगुरु प्रसङ्ग जा । कहे जिन हर्ष सुगुरु सुपणाये, ज्ञान दर्प उद्भजौ । सु० ॥ २५ ॥