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( ६ ) ॥ कुगुरु पच्चीसी ॥
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श्रौजिनवाणौ हिये धरो, कुगुरु तगी संगति परिहगे। लोह खोलारां साधौ जेह, कुगुरु तणा छै लच्छन एह ॥१॥ कालो सांप कुगुरु स्यूं अलो, एक बार करै मामलो। कुशुरु भवोभव दुःख देह । कुगुरु ॥ २ ॥ पृथ्वौ पाणी अग्नि ने वाय, वनस्पती छठी बस काय । एह तणौ रक्षा न करेह । कुगुरु० ॥ ३॥ पापतणा थानक अठार, तेतो सेबै बारम्बार । संयसलार उड़ावे खेह । कुगुरु० ॥ ४ ॥ धुरसं पञ्च महाव्रत धाने, सर्व सावद्य त्याग उच्चारें। चारित्र भांजे रंजे देह । कु. गुरु० ॥ ५॥ परिग्रह सेती गरी सोह, धनने काजे करे पर द्रोह । प्रभु वचसं बोहै नवि जेह। कुगुरू. ॥ ६ ॥ अशनादिक चारों आहार, राते पिण न करे परिहोर । दोष दुर्गतिनौ विधारी देह। कुगुरु० ॥७॥ पाणी काचो ने बावरे, आपतणो दूषण झावरे । चारित्र भंज्या रंजन देह। कुगुरु० ॥ ८॥ मोटी पदवी बाजै घणी, लोकां मांहे प्रभुता घणौ। तेपण करगी खोटी करेह । कुगुरु० ॥ ६ ॥ पावा दिवगवै वौटया, गुण होना ने अवगुणा घणा। गृहवासीनी परे