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गजल जिनेश्वर धर्म सारा है।
मेरे प्राणों से प्यारा है। जिनका ध्यान धर भाई।
श्री जिनराज फरमाई ॥ जिससे होत सुखदाई ।
इसीसे दिल हमारा है ॥ जिने ॥१॥ जिनेश्वर नाम जो गावे।
कि भव से पार हो जावे ॥ जनम यो फेरे ना पावे।
होय भवसिन्धु पारा है ॥ जिने ॥२॥ ऐसे जिनराज प्यारे हैं।
जिन्हों ने भक्त त्यारे है ॥ जिहों ने फर्म मारे है।
उन्हींका मो आधारा है। जिने ॥३॥ विमुन्न जो धर्म से होधे ।
पकड़ शिर अन्त में रोवे ॥ जिनेश्वर धर्म घो खोये ।
जिन्हों को नर्क प्याग है | जिने ॥४॥ नहीं नर भव जनम हारे।
जिनेश्वर धर्म जो धारे ॥ घोही यम फांस फो टारे।
महालचंद दास धारा है । जिने ॥५॥
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