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के ॥ धर्म शुक्ल थिर चित्त धरै । उपशम रस में होय रह्या लौन के । सं० ॥ २ ॥ मुखइन्द्रादिकनां सह । जाण्या हे प्रभु अनित्य असार कै ॥ भोग भयंकर कटुक फल । देख्या हे दुर्गति दातार कै ॥ सं० ॥ || ३ || सुधा संवेग रसे भया । पेख्या हे पुद्गल मोह पाशके ॥ अरुचि अनादर आण में आत्मध्यानें करता विलास के । सं० ॥ ४ ॥ संग छांड मन वशकरी । ४॥
इन्द्रिय दमन करो दुर्दतकै ॥ विविध तपे करी खामजी । घाती कर्मनो कोधो अंत के ॥ सं० ॥५॥
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हूं तुज शरणे पावियो । कर्म विदारन तु' प्रभु वीर के तें तन मन बच वश किया । दुःकर करणी करण महाधीर कै ।। सं० ॥ ६ ॥ संबत उगणीसै भाद्रवै । सुदि इग्यारस आण विनोद के ॥ संभव साहिब समरिया । माम्यो हे मन अधिक प्रमोद के || सं० ॥७॥
श्री अभिनन्दन जिनस्तवनं ।
( सती कलूजी हो हुआ. संजमने त्यार एदेशी )
तीर्थंकर हो चोथा जग भाग छांडि गृहवास करो मति निरमली । विषय विटम्बण हो तनिया विष फल जाण । अभिनंदन बान्दु' नित्य मनरली ॥१॥ ए आंकणौ । दुःकर करणो हो कौधो आप दयाल ||