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- अथ जिन कल्पी साधुकी.
हाल लिख्यते।
जिन वाल्यौ कष्ट उदैरिने लेवै। परिसाहा सहै सम परिगासोर ।। आक्रोश विविध प्रकारना उपजै । तो उदेवि न जावे तिण ठामोरे ॥ शूरां वीगंरी सोशुद्ध मारग ॥ १॥ मास मास खमगा कोड करे निरन्तर । इतरा कर्म कटे एक छिनमेंरे ॥ वचन कुवचन सहै सस भावे । “राग द्वेष न आगो सुनि मनसेरे ॥ शू० ॥ २॥ मास सवा नव जीव रह्यो गर्भमेरे । तो ए दुःख कितरा दिनकार ।। एम विचार सह मसभावे। शूर मुनि द्रढ मनकारे ।। शू० ॥३॥ नाभ अलाभ सहै ममसावे। बले जीतव मरण समानोरे ॥ निन्दा स्तुति मुख दुःख समचित। समगिगो मान अपमानोरे ॥ शु० ॥ ४ ॥ वाइस लेतीस मागर तांड। जीव वसियो नरक मझारो ॥ तो किंचित टुःखस्यूं मुंदलगिरी । एम विमासे अण