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( ६३ । सुमति संग सुख पाएँ, गणपति छांड किहां नहौं जावं ॥६॥ सुण इन्दराणी बदन कुमलावखोजौ, आवौ पतिने एम प्रकाशे सेतो नहीं आवे तुम पासे, दम सुण हरि थयो अधिक उदासे ॥७॥ प्रभुता इन्द्र तणी पर पापरौजी, शीतलता शशिहर सम जानौ, कंठ रजत साग्द सुखदानो, पागो विष कमला लहगणी ॥८॥ निशदिन बंछा तुम दरशण तणोजी, लाग रहो मुझ तनमन मायो, दिवस गिणत हिवे दरशन पायो, आजतो हूं बड बखत कहायो ॥ ६ ॥ तुम गुण सिंधु मुझ मति विवोजी। मैं तो पार कदे नहीं पाऊं, पिण निज मननो हंस पूराऊ, किंचित गुणकरी तोय रिझाऊं ॥१. ॥ युग मुनि वत्सर सुचि कृष्ण अष्टमीजी। पायो सोहन शरण तिहारी, मस्तकः कर धर द्यो रिझवारी, प्रमु अपनो विरुद विचारो॥११॥ .. ..
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