________________
( १९६ ) वंत गै प्रतिमा पारी में बांद, तिण पिण भूला रे नि । केवल भूला ॥ था० ॥३३॥ पापड़ रा लोया ने गधेड़ा
रा लौंडा, यो दोवा दो दौस के एक विचार । ज्यं प्रतिमा के भगवंत आकार, ओ गुण बिन अर्थ न आवे लिगार || था० ॥ ३४ ॥ गध लिंडारा पापड़ न थाय, कारा खादां मिण बिगड़े के मुंढी । ज्यं प्रतिमा ने वाद्यां धर्म किहांथी, छोड़ो रे छोड़ो खोटी रूढ़ो ॥ था०॥३५॥ दूण लोक माही आधा लोक घणा छै, जह गैतमु वारौ माह अंध गाय, तिणरो बाछो हुतो ते चल गया चेतन, तिगारौ खाल जाढ़े प्रवास बजाय ॥ था० ॥ ३६॥ बाबै रौ खाल देखी ते गाय भूलो, आ प्रतिमा देख भूला किण लेख । आ प्रतिमा नहौं भगवंतो काया, ते तो मोह अंध गाय मं भूला विशेष ॥ था० ॥ ३७॥ अरिहंत भगवंत सुकतें गया जब, त्यांरी शरीर आकार लार रही काय । ते तो गुण जड़ बिना अचेतन पुदगल, काई तेहने बांद्यां धर्म नहीं होय ॥ था० ॥ ३८॥ त्यांदो शरीर असल आकार शरीर पड़िया ते, तिण ने ही बांद्यां बंधे निश्चय कर्मों। तो आकार और बगाय बांधे, त्यां यांधां ने होसौ किण बिध धर्मो ॥ था० ॥ ३६॥ गुण बिन धाकार बांदगा वालो बोलो, आकार बांद्यां कहै