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( २२२ ) ते पिण फेरे टुहाई बैगजी। कुगुरु जीव मरावण नयाँ नया, त्यारो कठे न दौसे थागजी ॥ जी० ॥ ३६॥ अनारज विच तो कुगुरु बुरा, त्यांरी मृरख माने बात जी। ते तो धर्म नाणे जीव मार ने, ओ तो करड़ो घणो मिथ्यातजी ॥ जी० ॥ ३७॥ कुगल कहै हिंसा किया विना, धर्म न होय केमजी। पीते त्याग किया हिंसा तगां, त्यांने धर्म किहां थौ होयजी ।। जी. ॥ ३८॥ जो हिंसा कियां धर्म नोपज , ता गृहस्थ हो जाय निहालजो। पिण साधां र हिंसां करणी नहौं, त्यांगे होसी कवगा हवालजी ।। जो. ॥ ३६ ।। जीव मारियां धर्म कहै, ए तो कुगुक तणां के वैगाजी । त्यांने वदि पूजे गुरु जाण ने, त्यांग फ टा अंतर नैगा जी ॥ जी० ॥ ४० ॥ जीवतव्य में प्रशंसा कारगो, बले माने वड़ाई कामजौ। हणे जन्म मरण मुकायवा, वले दुख दूर करवा तामजी ।। जी० ।। ४ १ ।। हां छ कारण छः काय नं, ते तो ए कारण साचातजी। धर्म हेत ति जोव ने हो, समकित जाय भावे मिथ्यातनी ॥ जी० ॥ ४२ ॥ छ कारगा हिंसा कियां बांधे, माठ कर्म गांठ पृरजौ। निश्चय माह ने मार वधे धों, नहीं वरत नरक स्यूं टुरजी ॥ जी० ॥४३॥ छः कारग हिमा करे, ते तो दुख पावे इण समारजी ।
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