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( २२४ ) मायां पाप विशेषजी। अधिको मायां अधिको पाप के इस जेण धर्म सामा देखी ॥ जी० ॥ ५२ ॥ कोई हिंसा धर्मों चवडे कहै, हिंसा कीधा बिना न हुवै धर्म जी। कोई चवडे न कहै कपटी थकां, सांच कहतां श्रावै शर्म जी ॥ जी० ॥५३॥ कोई दया धर्मों बाजे लोकमें, चाले हिंसा धर्मों नौ रौती। ते पिण छै तिगा ही पांत रा, बतलायां बोले बिपरीतजी ॥ जी० ॥५४॥ सूत्र मिहान्त में इम कयो, औव हगियां सूं लागे पापजी। न मायां सं पाप लागे नहौं, श्री जिगा मुख भाखियो जापनी ॥ जी० ॥५५॥ वले देहरा प्रतिमा करावतां, जीव हगा रह्या पृथ्वि कायौ । त्यांने मदवद्धि श्री जिन कह्या, दशमां अंग पहला अध्ययन मांयजी ॥ जो० ॥ ५६ ॥ वले चद्र मत कही तेहनी, तेतो दौठ बूढ़ घणो अत्यंतजी । टुरंत पंत लक्षण रो घणो, हिंसा धौं ने कहे भगवंतजी ॥ आ. ॥ ५॥ जीव हिंसा करै तेहने, ओलखाया शोजिनरायजी । हिवै हिमा धर्मो रा फल कहू, ते मांभल ज्यो चितलायजी ॥ जी० ॥ ५८॥ कोई हिंमा धर्मों जावड़ा, मरे उपजे नरका मझारी। विहां कैदन भेदना प्रति घणा, बले वाय अनंती मारी ॥ जी० ॥५६॥ मार खाय नरक थौ निकले, पड़े तौर्यच में