________________
( २४ ) संगम दुःख दिया आकरारी। पिण सुप्रसन्न निजर दयाल ॥ जग उद्धार हुवै मो थकोरे। v डूबे इण काल ॥ नहीं ॥ २ ॥ लोक अनार्य बहु किया रे । उपसर्ग विविध प्रकार ॥ ध्यान सुधा रस लीनता जिन । मन में हर्ष अपार ॥ नहीं ॥३॥ इण पर कर्म खपाय में प्रभु । पाया केवल नाथ ॥ उपशम रसमय वागरी प्रभु । अधिक अनूपम वाण ॥ नहौं ॥ ४ ॥ पुद्गल सुख भरि शिव तणारे । नरक तणा दातार ॥ छोड़ि रमणी किंपाक बेलि । संवेग संयम धार ॥ नहौं० ॥५॥ निंदा स्तुति सम पगैरे। मान अनें अपमान ॥ हर्ष शोक मोह परिहस्यां रे । पामै पद निर्वाण ॥ नहौं ॥६॥ इम बहुजन प्रभु तारिया रे प्रगम चरम जिनेंद ॥ उगगोस आसोज चोथ वदि। हुवो अधिक आनंद ॥ नहौं० ॥ ७॥
इति श्रीभौखगजी खामी तस्य शिष्य भागेमालजी खामी, तस्य शिष्य रिषरायचंदजी स्वामौ तस्य शिष्य जीतमलजी खामी कृत चतुर्विंशति जिनस्तुति समाप्तः