________________
( २१३ ) विख्यात हो भ० द्रवा तीर्थंकर त्यां ने ही जिन कह्या, पिग भाव तो गृहस्थ साक्षात हो भ० ॥ भा० ॥ २ ॥ तीर्थकर घर छोडी चारित्र लियो, पाले छै शुद्ध आचार हो स० तो द्रवा तीर्थकर काहीजे तेहनें, भावे होया मोटा अणगार हो भ० ॥ मा० ॥ ३॥ केवल जान दर्शन उपनां पछै, थाप तौरथ चार हो भ० भाव तीर्थंकर कहिजे तेहनें, समझो आण विचार हो भ० ॥ भा० ॥ ४ ॥ चोतीत अतिशय करने परबस्या, बाणी गुण पेंतीस हो भ० तौर्य कर ना सगला गुण छ तेहमें, तीर्थ कर भाव जगदौस हो भ० ॥ भा० ॥५॥ अनंता तीर्थ कर आगे होसी, बले' हिवड़ां तो चिहुंगत गोता खाय हो म. द्रव्य तीर्थ कर त्यां नहीं जिन कह्या, पिण भावे तो एकेन्द्रियादिक माय हो भ० ॥ भा० ॥ ६ ॥ घर छोड़ो सूधो पाले साध पणो, पिग हणिया नहौं कर्म चार हो भ. त्यां लग द्रव्य तीर्थङ्कर कह्या तेहने, ते भावे हुया सुध अणगार हो भ० ॥ ॥ ७॥ चार कम घन घातिया के अरि, ए अरि हणियां सं अरिहंत हो अ. भावै अरिहंत कहौज तिण समै, ते वा लखवां दो मतिवंत हो भ० ॥ भा० ॥८॥ अनन्ता सिद्ध आगमिया काले हुसौ, ते तो हिवड़ां चिहगत गीता खाय हो भ० द्रव्ये तो सिद्ध