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________________ ( १७२ ) जीवलग, भावंघको राग इष रहित, उपयोग सहित गुणथको संवर निर्जरा, एहवा मांहग सातमां ब्रत के विषे जे कोई अतिचार दोष लागी हुवे ते पालो पञ्चखागां उपरान्त सचित्तरी आहार किनी होय १ पञ्चखाजां उपगन्त द्रवारी आहार किना होय २ पञ्चखाणां उपरान्त गहिणां अधिका पहया होय ॥ ३ ॥ पच्चखाणां उपरान्त कपड़ा अधिका पहस्या होय ॥ ४ ॥ पञ्चखाणां उपरान्त उपभोग परिभोग अधिका भोगवा होय । तस्समिच्छामि दुक्कडं । पंढरह करमांदान जाणवा जोग छै पण आदरवा जोग नहीं ते कहै छ। इंगालकम्म १ वणकम्म २ साड़ीकम्मे ३ यग्नि करि लूहा- बन कर्म ते बनमे घास, सकट कर्म ते रादि कर्म दरखतादि काटचो गाड़ीप्रमुखनो कर्म भाडी कम्म ४ फोड़ी कम्म ५ दन्तवाणिज्जे ६ भाड़ा कर्म लपादि कर्म दांतको विणज ते नारेल सुपारी ते व्योपार पत्थर भादि फोड़यो लखवाणिज्ज ७ रसवाणिज्ज ८ केसवाणिज्ज ६ लाप को वाणिज्य ग्स व्यापार ते बाल चमरादि घी, तैल सहतादि व्यापार
SR No.010500
Book TitleJain Hit Shiksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumbhkaran Tikamchand Chopda Bikaner
PublisherKumbhkaran Tikamchand Chopda Bikaner
Publication Year1925
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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