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( २११ ) द्रव्य तीर्थकर छै कई गुण बिना रे, ते पिण कहवा ने द्रव्य नाम रे । पिण धर्म नहौं तिण में बांदिया रे, तरण तारण नहीं छै नाव रे ॥ द्र० ॥ ४८॥ गुणा बिन द्रव्य तीर्थ कर तहसू रे, किण बिध घटसौ आतम दोष रे। जो त्यांने बांदियां सदगत हुवै रे, तो जीव सगलाई जावता मोक्ष रे ॥ दू० ॥ ४६॥ जे द्रव्य तीर्थ कर बांदे गुण बिना रे, त्यार लूल न दौसे बोले बंध रे । फिरतो भाषा बोले कपटी थका रे, ते होय रह्या माह अंध रे ॥ द्र० ॥ ५० ॥ गुण करके तीर्थंकर देव छै रे, गुण करने कह्या छै सिङ्घ साध रे। त्यांरा गुण ने द्रव्य तो एकहौज छै रे, त्यांने बांद्यां सं परम समाध रे ॥ द्र० ॥ ५१ ॥ गुण और ने द्रवा और छ रे, ते तो कहिवता लावगा काम रे । कोई भोले मत भूलो गुगा बिन द्रवा सूं रे, सुरण सुगा द्रवा रा चोखा नाम र ॥ द्र० ॥५२॥ कई द्वारा नाम कहिवा ने दिया रे, कई गुण निपन आवे काम रे । ते कहिवारा द्रवा जाणो कहिवा भणी रे, पिण गुण बिन निपन ते आवे काम रे ॥ द्र० ॥ ५३ ॥ इम कहतां कहतां पूरा हुवै नहौं रे, इण द्रवा निक्षेपा गे विस्तार रे। कई गण बिन थोथा द्रवा माने नहीं रे, त्यां निश्चय सफल कियो अवतार रे॥द्र० ॥५४॥