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यूंही हारसी ॥ श्रवा ॥ १ ॥ बरस छवमासी तप बहु कौधा। जघन्य पद नवकारसी ॥ सुर मुख भोग रुल्यो चिहं गतमें। नहीं आयो धर्म बिचारसौ ॥ श्रद्धा ॥ २॥ संका कांक्षा दुरगति लेज्यावे । ते नर टूर निवारसौ ॥ साचौ श्रद्धा जे नर धार। ते नर आतम तारसौ ॥ श्रद्धा ॥ ४ ॥ कुगुरु संगत नर भव हारौ। टुरगत मांय पधारसी ॥ अव भव मांहि रूले चिहुं गतमे। नहीं हुवे छुटकारसौं । श्रद्धा ॥ ५ ॥ पढ़ पढ़ पोथा रह गया थोथा । संस्कृतने फारसी । बिना विचारौ खोटी भाषा बोले । ते किम पार उतारसौ ॥ श्रद्धा ॥ ६ ॥ शुद्ध साधाने आल देइने। डूब गया काली धारसी ॥ कोई शुद्ध साधारौ कौति बोले । ते नर जन्म सुधारसौ ॥ श्रद्धा ॥७॥ शुद्ध साधारो निन्दा कर कर आतम कम उबारसी॥ नरकां नाव महा दुःख पावे। परमा धामी .मारसो ॥ श्रद्धा ॥८॥ इम सांभल उत्तम नरनारी। सौख सतगुरु को धारसी ॥ शुद्ध साधारी कर कर सेवा । आतम कारज सारसौ ॥ श्रद्धा ॥६॥ शुद्ध साधारी सुधौ · श्रद्धा बसला नन्दण सारसी ॥ सुधौ श्रद्धास्यूं शिवगत जायां। आवागमन निवा-- रसी ॥ श्रद्धा ॥ १० ॥ शुद्ध श्रावकरा ब्रतज पालो।