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________________ ( २१८ , वधवंत आया विवेक जी ॥ जो० ॥ ३ ॥ पत्थर फोद्यां पृथ्वि काय में रे, पांगी घाले चूनादिक मांहिजी। बायु काय मरे लेतां मेलतां, टांची बाजाां उठे तेज काय जी ॥ जो० ॥४॥ वनस्पति बस जीवड़ा, गाडादिक हेठे चिंथ्या जाय जी। नौव देई देवल चुणता घका, तठे पण मरे छः काय जी ॥ जी० ॥ ५॥ धूनी वाले ऊपर देती थकां, तिहां पिण जीव मरे पथाग जो। अनन्ता जीव मार देवल किया, भो तो नहीं के मुगत गे मागजी ॥ जो० ॥ ६ ॥ देवल करांवता हिंस्या हुई, ते पूरौ कम कहायजी । पछै पूजादिक कगवतां, नितरानित मारी छ कायजी ॥ जो० ॥ ७ ॥ कठे टांची वाजे निरंतर, नित नित मारे पृथ्वीकाय जी । त्यांने दुख उपजे तिगण समें, घणी तु अतुल वदना घायजी ॥ जी० ॥८॥ नित पाणी ढोले नवगवतार । अगन मार दोवा उजवालतांजी। नित नित ग वाजकाय मारे घगां, कूट मजीरा तालजी । नौ ॥ ६॥ नित काची कलियां तोड़ ने, माथा गूंथ चढ़ावे आग जौ। दोवादिक सं मरे पतंगिया, बस काय रा बाय पिंगा घमसान जो ॥ जी० ॥ १० ॥ इत्यादिक क; काय मारवा, नितका करे के संग्राम जी । वले कई महान पाप लागी न हो. हगिया परि
SR No.010500
Book TitleJain Hit Shiksha Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumbhkaran Tikamchand Chopda Bikaner
PublisherKumbhkaran Tikamchand Chopda Bikaner
Publication Year1925
Total Pages243
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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