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। १७ ) संवेग रसे करौ जिन भौना ॥ प्याला प्रभु उपशमना पीना ॥ म० ॥२॥ जाण्या शब्दादिक मोह जाला ।। रमणि सुख किंपाक सम काला॥ हेतु नरकादिक दुःख आला ॥ भ० ॥३॥ पुगल शिव भरि जाण्या खामौ ॥ ध्यानथिर चित्त आत्म धामौ ॥ जोड़ी युग केवलनी पामी ॥ अ० ॥ ४ ॥ थाप्या प्रभु च्यार तीरथ तायो॥ भाख्यो धर्म लिन आज्ञा मांयो॥ आज्ञा बाहिर अधर्म दुःखदायो । अ० ॥ ५॥ ब्रतधर्म धर्मजिन पाख्याता ॥ अविरत कही अधर्म दुखदाता ॥ सावद्य निरषद्य जु जुमा कह्या खाता ॥ ५० ॥६॥ बहु जन तार मुक्ति पाया । उगणीसे भासू धुर दिन पाया ॥ धर्मजिन रटवे सुख पाया ॥ अ० ॥ ७॥
श्री शांतिजिन स्तवन ।
हुं बलिहारी भीखणजी साधरी। शांतिकरण प्रभु शांतिनाथजी ॥ शिव दायक सुखकंदकी । बलिहारी हो शांतिजिणंदकौ ॥१॥ अमृत बाणी सुधासो अनुपम ॥ मेटण मिथ्या मंदको । ॥ ब० ॥२॥ काम भोग राग द्वेष कटक फल ॥ विष बेलि मोह धंदकौ ॥ ब० ॥३॥ राक्षसणौ रमणी वैतरणौ पुतली अशुचि दुर्गंधकौ ॥ ब० ॥ ४॥ विविध उपदेश देदू जन तास्या ॥ हु वारी जाउ विश्वानंद