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वाणी, दान पात्र न दीना है। तप जप क्रिया कछ न कौधी, नरभव लाभ न लौना है। चे० ॥ १४ ॥ चक्री केशव राजा राणा, इन्द्र सुरों का इन्दा है। सेठ सेनापति सबही मानव, पड्या कालो फन्दा है। चत० ॥ १५ ॥ यौवन गंवाय बूढ़ा होय बैठा, तो पिण समय न पाना है। धर्म रत्न तुझ हाथ न आयो, परभवमें पछताना है। चेत० ॥ १६ ॥
॥ कर्मनी सिज्झाय ॥
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देव दानव तीर्थकर गणधर, हरि हर नरवर सवला। कर्म प्रमाणे सुख दुख पाम्यां, सबल हुआ महा निवला रे। प्राणी कर्म समो नहीं कोई ॥ १ ॥ { मांकड़ी) आदीश्वरजीने कर्म पटाखा, वर्ष दिवस रहा भूखा। वीरने वारह वर्ष टुग्ख दोधा, उपना ब्राह्मणी कूखा रे । प्रागौ० ॥२॥ बत्तीस सहस्व देशांरो साहिव, चक्री सनत्कुमार। सोलह रोग शरीरमें उपना, कर्म किया तनुशार रे । प्रागी० ॥ ३॥ साठ सहस्र मुत माया एकगा दिन, जोधा नवान नर जैसा । सगर हुवो महापुत्र नो दुखियो, कर्मतणा फल ऐमारे । प्रागी० ॥ ४॥ कर्म हवाल किया हरि