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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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भा० दि० जैन संघ पुस्तकमाला का दूसरा पुष्प
जैन धर्म
जैन धर्मके इतिहास, सिद्धान्त, आचार, साहित्य, कला, पुरातत्व, पन्थ, पर्व, तीर्थक्षेत्र आदिका प्रामाणिक परिचय
भूमिका लेखक श्री सम्पूर्णानन्द मुख्यमंत्री उत्तर प्रदेश
लेखक
श्री कैलाशचन्द्र शास्त्री
प्रधानाध्यापक श्री स्याद्वाद दि० जैन महाविद्यालय
काणी
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राम - मंत्री साहित्य विभाग भा० वि० जैन संघ
चौरासी, मथुरा
प्रथम सत्करण १९४८ एक हजार द्वितीय , १६४६ दो हजार तृतीय , १९५५ दो हजार
मूल्य चार रुपये [सर्वाधिकार सुरक्षित]
मुद्रक :पं० पुदीनाथ भार्गव, भार्गव भूषण प्रेस,
गायघाट, बनारस
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प्राक्कथन
मैजैनधर्मका अनुयायी नहीं हूं, इसलिए जब श्री कैलाशचन जैनने मुझसे जैनधर्मका प्राक्कथन लिखनेको कहा तो मुझको उन सङ्कोच हुआ। परन्तु पुस्तक पढ़ जानेपर सङ्कोच स्वत. दूर हो गया । यह ऐसी पुस्तक है जिसका प्राक्कथन लिखनेमे अपनेको प्रसन्नता होत है। छोटी होते हुए भी इसमें जैनधर्मके सम्बन्धकी सभी मुख्य बात. समावेश कर दिया गया है । ऐसी पुस्तकोंमें, स्वमत स्थापनके साथ सार, कही कही परमत दोषोको दिखलाना अनिवार्य-सा हो जाता है। कम से-कम अपने मतके आलोचकोंकी आलोचना तो करनी ही पड़ती है। प्रस्तुत पुस्तकमे, स्याद्वादके सम्बन्धमें श्रीशङ्कराचार्याने लेखकक' सम्मतिमें इस सिद्धान्तके समझनेमे जो भूल की है उसकी भोर सङ्क किया गया है । परन्तु कही भी शिष्टताका उल्लङ्घन नही होने पायः है। आज कल हम भारतीय इस बातको भूल से गये है कि गम्भीर, विषयोंके प्रतिपादनमे अभद्र भाषाका प्रयोग निन्ध है और सिद्धान्तका खण्डन सिद्धान्तीपर कीचड़ उछाले विना भी किया जा सकता है। यह पुस्तक इस विषयमें अनुकरणीय अपवाद है।
भारतीय संस्कृतिक संवर्द्धनमें उन लोगोंने उल्लेख्य भाग लिया ह जिनको जैन शास्त्रोसे मूर्ति प्राप्त हुई थी। वास्तुकला, मूर्तिकला, वाडमय-सवपर ही जैन विचारोंकी गहिरी छाप है। जैन विद्वानों और श्रावकोंने जिस प्राणपणसे अपने शास्त्रोंकी रक्षा की थी वह हमारे इति
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शासकी अमर कहानी है। इसलिए जैन विचारधाराका परिचय शिक्षित मुदायको होना ही चाहिये। कुछ बाते ऐसी है जिनमे जैनियोको वभावत. विशेष अभिरुचि होगी। दिगम्वर-श्वेताम्बर विवादमे सवको वारस्य नहीं हो सकता और न सब लोगोको उन खाद्याखाद्य व्रतादिके नयमोपनियमोकी जानकारीकी विशेष अवश्यकता है। परन्तु जो लोग चर्म और दर्शनका अध्ययन करते है उनको यह तो जानना ही चाहिये के ईश्वर, जीव, जगत्, मोक्ष जैसे प्रश्नोके सम्बन्ध जैन आचार्योने ज्या कहा है। विशेष और विस्तृत अध्ययनके लिए तो बड़े ग्रंथोंको देखना ही होगा परन्तु प्रारम्भिक ज्ञानके लिए यह छोटी-सी पुस्तक बहुत उपयोगी है।
जैन दर्शन जगत्को सत्य मानता है। यह वात शाङ्कर अद्वैतवादके विरुद्ध तो है परन्तु आस्तिक विचारधारासे असगत नहीं है। उसका अनीश्वरवादी होना भी स्वत. निन्द्य नहीं है। परम आस्तिक साख्य
और मीमांसा शास्त्रोंके प्रवर्तकोंको भी ईश्वरको सत्ता स्वीकार करनेमें अनावश्यक गौरवकी प्रतीति होती है। वेदको प्रमाण न माननेके । कारण जैन दर्शनकी गणना नास्तिक विचार शास्त्रोंमें है परन्तु कर्मसिद्धान्त, पुनर्जन्म, तप, योग, देवादि विग्रहोमें विश्वास जैसी कई ऐसी बातें है जो थोड़ेसे उलटफेरके साथ भारतीय आस्तिक दर्शनो तथा वौद्ध और जैन दर्शनोकी समानरूपसे सम्पत्ति है। इन सबका उद्गम एक है । आर्य जातिने अपने मूल पुरुषोसे जो आध्यात्मिक दाय पाया था उसकी पहिली अभिव्यक्ति उपनिषदोमे हुई। देशकालके भेदसे किञ्चित् नये परिधान धारण करके फिर वही वस्तु हमको महावीर और गौतमके द्वारा प्राप्त हुई।
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अनेकान्तवाद या सप्तभङ्गी न्याय जैन दर्शनका मुख्य सिद्धान्त है प्रत्येक पदार्थके जो सात 'अन्त' या स्वरूप जैन शास्त्रों में कहे गये है उनको ठीक उसी रूपसे स्वीकार करनेमें आपत्ति हो सकती है। कुछ विद्वान् भी सातमे कुछको गौण मानते है । साधारण मनुष्यको यह समझने मे कठिनाई होती है कि एक ही वस्तुके लिए एक ही समय में है और नही है दोनो बाते कैसे कही जा सकती है । परन्तु कठिनाईक होते हुए भी वस्तुस्थिति तो ऐसी ही है। जो लेखनी मेरे हाथमें है वह मेजपर नहीं है । जिस बच्चेका अस्तित्व आज है उसका अस्तित् कल नही था । जो वस्तु पुस्तक रूपसे है वह कुर्सीरूपसे नही है । जे घटना एकके लिए भूतकालिक है वही दूसरेके लिए वर्तमानकी ओर
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तीसरेके लिए भविष्यत्की है । अखण्ड ब्रह्म पदार्थ भले ही एकरस श्रौर ऐकान्तिक हो परन्तु प्रतीयमान जगत्मे तो सभी वस्तुएँ, चाहे वह कितनी भी सूक्ष्म क्यों न हों, अनैकान्तिक हैं । शङ्कराचार्य्यजीने इस बातको स्वीकार नही किया है इसलिए उन्होने मायाको सत् और असत्से विलक्षण, अथच अनिर्वचनीया कहा है । में सप्तभङ्गी न्यायः को तो बाकी खाल निकालनेके समान आवश्यकतासे अधिक बारीकीमे जाना समझता हूँ परन्तु अनेकान्तवादकी ग्राह्यता स्वीकार करता । इसीलिए चिद्विलास में मैंने मायाको सत् और असत् स्वरूप, मत : अनिर्वचनीया माना है ।
अस्तु, सव लोग इन प्रश्नों की गहिराईमें न भी जाना चाहें तब मैं आशा करता हूँ कि इस सुबोध और उपादेय पुस्तकका आदर होगा ऐसी रचनाएँ हमको एक दूसरेके निकट लाती है। ऐसा भी कोई सम था जब 'हस्तिना पीड्यमानोऽपि न विशेज्जैनमन्दिरम्' जैसी उक्तिया
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नकली थी। जैनोमें भी इस जोड़की कहावतें होगी। आज वह दिन ये। अब हमें दार्शनिक और उपासना सम्वन्धी वातीमें वैषम्य रखते ए एक दूसरेके प्रति सौहार्द रखना है। अपनी अपनी रुचिके अनुसार म चाहे जिस सम्प्रदायमें रहें परन्तु हमको यह ध्यानमें रखना है कि पिल, व्यास, शङ्कराचार्य, बुद्ध और महावीर प्रत्येक भारतीयके ए आदरास्पद है। और हमको सबसे ही ऐसी शिक्षा मिलती है जो मारे चरित्रको ऊपर उठाने और हमको नि श्रेयसके पथएर ले जानेमें मर्थ है। विशाख शु० १, । २००५ )
सम्पूर्णानन्द
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लेखकके दो शब्द
यों तो जैनधर्मका साहित्य विपुल है, किन्तु उसमें एक ऐसी पुस्तक को यामी थी जिसे पढकर जन-साधारण जैनधर्मका परिचय प्राप्त क नके । इस कमीको सभी अनुभव करते थे। उज्जनके सेठ लालचन्द ज. सेठीने तो ऐनी पुस्तक लिसनेवालेको अपनी ओरसे एक हजार रुपर। पारितोपिक प्रदान करनेकी घोषणा भी कर दी थी। मुझे भी यह कम बहुत सटका रही थी। नत मैंने इस ओर अपना ध्यान लगारा, जिसन फल स्वरूप प्रस्तुत पुस्तक तैयार हो सकी।
ग प्रत्येक धर्मके दोस्प होते है-एक विचारात्मक और दूसवर आवारात्मक । प्रथम रूपको दर्शन कहते है और दूसरेको धर्म। " दर्शनके अभ्यासियोंके लिये दोनो ही रूपोंको जानना आवश्यक हैन्त
सलिये मैने इस पुस्तकमें जैनधर्मके विचार और आचारका परिचारि तो कराया ही है, साथ ही साथ साहित्य, इतिहास, पन्यभेद, पर्व, तीर्थ क्षेत्र आदि अन्य जानने योग्य वातोंका भी परिचय दिया है, जिसे पढका प्रत्येक पाठक जैनधर्मके सभी अंगों और उपागोंका साधारण ज्ञान प्राप कर सकता है और उसके लिये इधर उधर भटकनेकी आवश्यकता नहीं रहती। इस पुस्तकमें जनवमसे सम्बन्ध रखनेवाले जिन विषयोंदा चर्चा की गई है, सब लोगोंको वे सभी विषय रुचिकर हों यह सम्मान नहीं है, क्योंकि-'भिन्नरुचिहि लोक'। इसीसे विभिन्न रुचिवार लोगोंको अपनी अपनी रुचिके अनुकूल जैनधर्मकी जानकारी प्राप्त कर सकनेका प्रयत्न किया गया है।
भारतीय विद्वानोंकी प्राय यह एक आम मान्यता है कि भारतर प्रचलित प्रत्येक धर्मका मूल उपनिषद है । इस मान्यताके मूलमें हा तो श्रद्धामूलक विचारसरणिका ही प्राधान्य प्रतीत होता है । पुस्तक
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तमे जैनधर्मके साथ इतर धर्मोकी तुलना करते हुए हमने उक्त चारसरणिकी आलोचना की है। तत्त्वजिज्ञासुओंसे हमारा अनुरोध
कि इस विचारसरणि पर नये सिरेसे विचार करके तत्त्वको मीक्षा करे। । अपनी विद्वत्ता और अध्ययनशीलताके कारण श्री सम्पूर्णानन्द जी पट मेरो गहरी आस्था है । मेरी इच्छा थी कि वह इस पुस्तकका एक्कथन लिखे। मैंने भाई प्रो० खुशालचन्दसे अपनी यह इच्छा व्यक्त पार और सयुक्तप्रान्तके मंत्रित्वका भार वहन करते हुए भी उन्होने मर्था लोगोके अनुरोधकी रक्षा की। एतदर्थ हम श्री सम्पूर्णानन्दजीक __ यन्त अभारी है। शा जिन ग्रन्थो और पत्र-पत्रिकाओके लेखोसे हमे इस पुस्तकके लिखनविशेष साहाय्य मिला है उन सभी लेखकोके भी हम आभारी है। में भी प्रोफेसर ग्लजनपके जैनधर्मसे हमे बड़ी सहायता मिली है,
का पर्यवेक्षण करके ही इस पुस्तककी विषय-सूची तैयार की गई । श्री नाथूरामजी प्रेमीके 'जैन साहित्य और इतिहास का उपयोग म्प्रदायपन्य' लिखनेमे विशेष किया गया है। जैन हितपीके किसी
ने अंकमें जगत्कर्तृत्वके सम्बन्धमें स्व० वा० सूरज भानु वकीलका कलेख प्रकाशित हुआ था। वह मुझे बहुत पसन्द आया था। प्रस्तुत तको यह विश्व और उसकी व्यवस्था' उसीके आधारपर लिखा है। अत. उक्त सभी सुलेखकोंक हम आभारी है। अन्तमे पाठकोसे अनुरोध है कि प्रस्तुत पुस्तकके सम्बन्धमे यदि कोई सचना देना चाहें तो अवश्य देनेका कष्ट करे। दूसरे करणमें उनका यथासंभव उपयोग किया जा सकेगा।
श्रुतपञ्चमी वी०नि० सं० २४७४
कैलाशचन्द्र शास्त्री
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दूसरे संस्करणके सम्बन्ध में
जब मैने 'जैनधर्म' पुस्तकको लिखकर समाप्त किया तो मु स्वप्न में भी यह आना नही थी कि इस पुस्तकका इतना समादर होग और पहले संस्करण के प्रकागनके ६ माह बाद ही दूसरा संस्करण प्रका गित करना होगा ।
अनेक पत्र-पत्रिकाओं और लब्धप्रतिष्ठ विद्वानोने मुक्तकण्ठ उनको प्रशंसा की है। ऐसे विरले ही पाठक है जिन्होंने पुस्तकको पढ कर प्रत्यक्ष या परोक्षरूपमें उसकी सराहना नही की है।
t
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय जैसी प्रख्यात शिक्षा संस्थाने दर्शन पास्त्र विषयक वी. ए. ( आनर्स) के परीक्षार्थियों के अध्ययन के लिए इसे स्वीकृत किया है। जैन कालिज वड़ीत आदि अनेक कालिजों श्री स्कूलोने जैनधर्मके अध्ययन के लिये इसे पाठ्यक्रमके रूपमें स्थान दिय है । इस तरह शिक्षा क्षेत्रमे भी प्रस्तुत पुस्तकको यथेष्ट स्थान ओ नाति मिली है ।
उज्जैनके साहित्यप्रेमी सेठ लालचन्द जी सेठीने ७५० ) का पुर स्कार देकर लेखकको पुरस्कृत किया है ।
}
अनेक विद्वान् पाठकोने अपने कुछ उपयोगी सुझाव भी दिये है उनके अनुसार इस संस्करण में परिवर्तन और परिवर्धनके साथ साथ दो नये प्रकरण वढाये गये है— एक जैनकला और पुरातत्त्वने सम्बन्धमे और दूसरा जैनाचार्यो के सम्वन्धमे । तथा अन्तमे जैन पारिव भाषिक शब्दों की एक सूची भी दे दी गई है। प्रथम प्रकरणके लिखने मे मुनि श्री कान्ति सागर जी से विशेष सहयोग प्राप्त हुआ है ।
जिन महानुभावोंने उक्त प्रकारसे मेरे उत्साहको बढ़ाया है उन सभीका आभार हृदयसे स्वीकार करता हूँ ।
वाश्विन—–२००६ }
विनीत लेखक
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तीसरे संस्करणके सम्बन्धम 'जैनधर्म का तीसरा सस्करण उपस्थित है। पिछले एक वर्षसे यह स्तक अप्राप्य थी। पाठको और पुस्तक-विक्रेताओके तकाजोके साथ लाहने भी आते थे। प्रकाशनकी सूचना देते ही पुस्तककी मांगें आनी शुरू हो गई और व्यग्रता भरे पत्र आने लगे-कवतक प्रकाशित होगी, 14 तो छप गई होगी, आदि। यह सव इस वातका सूचक है कि पाठकों की यह पुस्तक कितनी अधिक प्रिय है । अ०भा० राजपूत जैन सघने क सुझाव भेजा कि 'जनधर्म-क्षात्र धर्म-वीरधर्म है। ऐसा एक अध्याय तो सम्पूर्ण क्षत्रिय जातिके लिये पूर्णत आकर्षक हो, जिससे आजके आन्त एवं पथ-भ्रप्ट राजपूत पुन. सत्यके प्रकाशमें आ सकें, रखा ये, तथा पुस्तकका टाइटिल जैनधर्म (क्षात्रधर्म)-भारतका सार्वशिक सनातन सत्य आत्म धर्म' ऐसा रहे । तदनुसार इस सस्करणमें कुछ जैनवीर' शीर्षक एक नया अध्याय जोड़ दिया गया है। टाइटिल दलना कुछ जंचा नही, जनेतर पाठकोंको उसमे मिथ्या अहंकारकी
आ सकती थी। : इस संस्करणमे अन्य भी कुछ सुधार किये गये है। इतिहास-भाग को पुन.व्यवस्थित किया गया है और उसमें 'कालाचूरि राज्यमें नैनधर्म' और 'विजयनगर राज्यमें जैनधर्म' दो नये शीर्षक जोडे
ये है। विविध नामक प्रकरणके पूर्वभागको उससे अलग करके सामाजिक रूप' नामसे दिया गया है। तथा 'स्थानकवासी सम्प्रदाय और मूर्तिपूजा विरोधी तेरापन्थ सम्प्रदाय' को फिरसे लिखा गया
क्योंकि उक्त सम्प्रदायो के व्यक्तियो की ओरसे कुछ सुझाव प्राप्त दए थे। माशा है पाठकोके लिये यह संस्करण और भी अधिक लाभप्रद साबित होगा। फा० ऋ० ११८
विनीत लेखक
२०११
।
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१. इतिहास १- आरम्भ काल श्री ऋषभदेव जैनधर्मके
प्रथम तीर्थकर
भागवतमें ऋषभ देवका
वर्णन
ऐतिहासिक अभिलेख २- श्री ऋषभ देव क ***
३ - जैन धर्मके अन्य
प्रवर्तक भगवान नेमिनाथ भगवान पार्श्वनाथ
भगवान महावीर
४ - भगवान महावीरके
पश्चात् [ बिहार में जैनधर्म
राजा चेटक
राजा श्रेणिक
vermas
21
१-५८
१
-
अजातशत्रु
नन्दवश
मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त
अशोक
1544
विषय-सूची
}}
सम्प्रति [उडीसा जैनधर्म ऊलिंग चक्रवर्ती सारखेल
.. बंगालमें जैनधर्म गुजरातमें जैनधर्म
5
१०
१४ १५
22
२७
राजपूताने में जैनधर्म मव्यप्रान्तमें जैनधर्म उत्तर प्रदेश जैनधर्म
[दक्षिण भारतमें जैनधर्म
१ - जैनधर्म क्या है ? १६२ - नेकान्तवाद -
१७
२५
२६
गग-वश
होय्सल वश
राष्ट्रकूट वश
३०
३२
३३]
३४
कालाचूरिराज्यमें जैनवमं विजयनगर राज्यमे #t २. सिद्धांत / ५९-१
२३
३- द्रव्य व्यवस्था २६४ - जीव द्रव्य
५- अजीव द्रव्य
स्याद्वाद
सप्तभगी
-
पुदगल द्रव्य धर्म-अधर्म द्रव्य
आकाश द्रव्य
काल द्रव्य
६ - यह विश्व और उसकी /
व्यवस्था
७ - जैन दृष्टिसे ईश्वर ८ - उसकी उपासना /
३७ ३५६-सात तत्व
१
१
१
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अहिंसा
। बाँहसाणुव्रत
०कर्म सिद्धान्त ।। १३२१ १० अनुमतिविरत १९६ कर्म का स्वरूप
। ११ उद्दिष्टविरत कर्म अपना फल कैसे देते है १३५ साधक श्रावक १९९ . कर्मके भेद
१३८ । ६-श्रावक धर्म और विश्व • कर्मोकी भनेक दशाएं १४१ की समस्याए २०२
चारित्र १४४-२२९/७-मुनिका चारित्र २१० -ससारमे दुख क्यो है १४४ साधुको दिनचर्या २१६ - मुक्तिका मार्ग १४६ अगस्यान
२२० चारित्र या आचार १५४ / ९-मोक्ष या सिद्धि /२२६
१५८ | १०-क्या जैनधर्म नास्तिक हर२८ गृहस्थती अहिंसा १६४ | ४ जनसाहित्य २३०-२४५ -श्रावकका चारित्र १७० दिगम्बर साहित्य २३१
१७१ श्वेताम्बर साहित्य २४० । रात्रिभोजन और जलगालन १७४ | ४-कुछ प्रसिद्ध जैनाचार्य २४५ सत्याणुमत
1--गौतम गणघर २४५ । अचौर्यागुनत
भद्रवाहु । ब्रह्मचयांणुव्रत १७९
घरसेन परिग्रह परिमाणवत १८१
पुष्पदन्त और भूतवाल । बावकके भेद
गुगधर पाक्षिक श्रावक १८४
कुन्दकुन्द निष्ठिक धावक
उमास्वामी '१ दर्शनिक
समन्तभद्र '२ प्रतिक
१८७ सिद्धसेन ३ सामायिकी
देवनन्दि । ४ प्रोपधोपवासी
पात्रकेसरी ५ सचितविरत
चकलंक ६ स्विामथुनविरत' १९४ विद्यानन्दि ७ ब्रह्मचारी
माणिक्यनन्दि ८ आरम्भरित
मनन्नवीर्य ९ परिग्रहविरत
वीरसेन
१७६
२४६
१९२
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२५२ |
२५६
जिनसेन
तेरापन्थ प्रभाचन्द्र
यापनीय सघ वादिराज
२५३
अर्द्धस्फालक सम्प्रदाय नियुक्तिकार भद्रबाहु
७-विविध २९७-३ मल्लवादी
२५४ १-कुछ जैनवीर जिनभद्र गणि
राजा चेटक हरिभद्र
उदयन अभयदेव
सम्राट चन्द्रगुप्त
२५५ खारवेल यशोविजय
कुमारपाल जैनकला और 4 मारसिंह पुरातत्व २५५-२६५
चामुण्डराय
गगराज चित्रकला मूर्तिकला
२५९
कलचूरि राजा
अमोघ वर्ष स्थापत्यकला
२६०
वच्छावत सरदार ६. सामाजिक रूप२६७-२९७
धनराज १-जैन सघ २६७ जनरल इन्द्रराज २-संघ भेद . २७० वस्तुपाल तेजपाल ३-सम्प्रदाय और पन्थ २७९ सेनापति आभू
[१ दिगम्बर सम्प्रदाय २८० जयपुरके दीवान दिगम्बर सम्प्रदायमे
१-जेन पर्व सघमेद
२८१ - दशलक्षण पर्व तेरह पन्थ और बीसपन्य २८५
अप्टान्हिका पर्व तारणपन्थ
२८७
महावीर जयन्ती [२ श्वेताम्बर सम्प्रदाय ,
वीरशासन जयन्ती श्वेताम्बर चैत्यवासी २९
श्रुत पचमी मूर्तिपूजक श्वेताम्बरोंके
दीपावली गच्छ २९० रक्षावन्धन स्थानकवासी २९२ . २-तीर्थक्षेत्र मतिमा-विरोपी
बिहार प्रदेश
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उत्तर प्रदेश ०कर्म बुन्देलखण्ड व मध्यप्रान्त
३२०
३२५
૩૨૭
क मद्रास प्रान्त
३३१
उड़ीसा प्रान्त
३३३
:
--- जैनधर्म और इतरधर्म ३३४
मु१ जैनवर्म और हिन्दू धर्म
वैदिक साहित्यका
क्रमिक विकास
वेदोका प्रधान विवच
ब्राह्मण साहित्य
का राजपूताना व मालवा
क बम्बई प्रान्त
5
૨૭
वारक
उपनिषद
३३४
३३५
૩૬
३३६
३३७
"
उपनिषदोकी शिक्षा जैनधर्मका लावार
नहीं है
सर राधा कृष्णन्के मतद
वालोचना
भारतीय धर्मो में आदान
प्रदान
हिन्दू धर्म और जैनधर्मम
अन्तर
२ जेनवमं वीर
वोद्ध धर्म
दोनांमें समानता दोनों नेद
जनधर्म और मुसलमान धर्म
४. जैन सूक्तियाँ
ሪ
૪૦
૪૪
૩૪૮
૪૨
२५०
st
३५२
३५४
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जैनधर्म
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-
lseases
ख
衣
3
"TE
जैनोंका मूल मंत्र
णमो अरिहताणं, णमो सिद्धाण, णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं || एसो पंच णमुक्कारो, सव्व पावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्र्व्वेसि, पढम हवइ मंगलं ॥
न
(अर्हन्तोको नमस्कार, सिद्धोको नमस्कार, आचार्योको नमस्कार, उपाध्यायोको नमस्कार, लोकके सव साधुओंको नमस्कार । यह पंच नमस्कार मंत्र सव पापोका नाश करनेवाला है । और सब मंगलोमे आद्य मंगल है | )
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SYSIS
4-PA
45454544!
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बाहुबलि स्वामी
श्रवणवेल गोला (मैसूर) स्थिन
५७ फीट ऊंची दि० जैन मूर्ति जैनधर्म
पृ० १२६
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जैन ध मे १, इतिहास
१-आरम्भ काल एक समय था जव जैनधर्मको बौद्धधर्मकी शाखा समझ लिया ग. था। किन्तु अब वह भ्रान्ति दूर हो चुकी है और नई खोजोके फलस्वर यह प्रमाणित हो चुका है कि जैनधर्म बौद्धधर्मसे न केवल एक ::
और स्वतत्र धर्म है किन्तु उससे बहुत प्राचीन भी है। अब अन्ति तीर्थंकर भगवान महावीरको जैनधर्मका संस्थापक नहीं माना जा
और उनसे अढाई सौ वर्ष पहले होनेवाले भगवान पार्श्वनाथको ए ऐतिहासिक महापुरुष स्वीकार कर लिया गया है। इस तरह
१इस भ्रान्तिको दूर करनेका श्रेय स्व० डा. हर्मान याकोबीको प्राप्त है उन्होने अपनी जनसूत्रोको प्रस्तावनामें इसपर विस्तृत विचार किया है। लिखते हैं-"इस बातसे अब सब सहमत है कि नातपुत्त, जो महावीर अथर वर्षमानके नाम से प्रसिद्ध है, बुद्धके समकालीन थे। बौद्धग्रन्थोमें मिलनेवा उल्लेख हमारे इस विचारको दृढ करते है कि नातपुत्तसे पहले भी निम्रन्योक जो आज जैन अथवा आईतके नामसे अधिक प्रसिद्ध है, अस्तित्व था। ज बौद्धधर्म उत्पन्न हुआ तब निर्गन्योका सम्प्रदाय एक बड़े सम्प्रदायके रूपमें गिर जाता होगा। बौद्ध पिटकोमें कुछ निर्ग्रन्थोका बुद्ध और उसके शिष्योंके विरोधी रूपमें और कुछका वृद्धके अनुयायी बन जानेके रूपमें वर्णन आता है। उस ऊपरसे हम उक्त वातका अनुमान कर सकते है। इसके विपरीत इन ग्रन्थो किसी भी स्थानपर ऐसा कोई उल्लेख या सूचक वाक्य देखने में नही आता निप्रन्योका सम्प्रदाय एक नवीन सम्प्रदाय है और नातपुत्त उसके सस्थापक है इसके ऊपरसे हम अनुमान कर सकते है कि बुद्धके जन्मसे पहले अतिप्राची लसे नियोंका अस्तित्व चला आता है।"
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जैनधर्म
नधर्मका आरम्भकाल सुनिश्चित रीतिसे ईस्वी सन् से ८०० वर्ष पूर्व न लिया गया है। किन्तु जहाँ अब कुछ विद्वान भगवान पार्श्वनाथको नधर्मका सस्थापक मानते हैं वहां कुछ विद्वान ऐसे भी है जो उससे हले भी जैनधर्मका अस्तित्व मानते है। उदाहरणके लिये प्रसिद्ध मन विद्वान् स्व० डा० हर्मन याकोबी और प्रसिद्ध भारतीय दार्शनिक र राधाकृष्णन् का मत उल्लेखनीय है। डा. याकोबी लिखते है
'इसमे कोई भी सबूत नहीं है कि पार्श्वनाथ जैनधर्मके संस्थापक । जैन परम्परा प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेवको जनधर्मका सस्थापक ननेमें एक मत है। इस मान्यतामें ऐतिहासिक सत्यकी संभावना है।) डा० सर राधाकृष्णन् कुछ विशेष जोर देकर लिखते है'जैन परम्परा ऋषभदेवसे अपने धर्मकी उत्पत्ति होनेका कथन
१ उत्तराध्ययन सूत्रके प्राक्कथनमें डा० चार्पेन्टर लिखते है-"हमें स्मरण बना चाहिये कि जन धर्म म० महावीरसे प्राचीन है और महावीरके आदरणीय
ब पार्श्वनाय निश्चित रूपसे एक वास्तविक व्यक्तिके रूपमें वर्तमान थे। व जैनधर्मके मूल सिदान्त भ० महावीरसे बहुत पहले निर्धारित हो चुके थे। विलोग्राफिया जैनकी प्रस्तावनामें, डा. गरीनाट लिखते है इसमें कोई न्देह नहीं है कि पार्श्वनाथ एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे। जैन मान्यताके अनुसार सौ वर्ष तक जीवित रहें और महावीरसे २५० वर्ष पूर्व निर्वामको प्राप्त हुए। त उनका कार्यकाल ईस्वी सन्से ८०० वर्ष पूर्व था। महावीरके माता-पिता विनायके धर्मको मानते थे।"
3 "There is nothing to prove that Parshva was the ounder of Jainism Jain tradition is unanimous in makno Rishabha the first Tirthankara (as its founder) there nay be something historical in the tradition which mares him the first Tirthankara.-Indian Antignary Vol XP.163.
3 "There is evidence to show that so far back as thd irst century B C there were people who were worship! bing Risha is the first Titankara There is ng
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इतिहास करती है, जो बहुतसी शताब्दियो पूर्व हुए है। इस वातके प्रमाण प जाते है कि ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दीमे प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेवकी होती थी। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जैनधर्म वर्धमान और पाश नायसे भी पहले प्रचलित था। यजुर्वेदमे ऋषभदेव, अजितनाथ में अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थरोके नामोका निर्देग है। भागवत । भी इस वातका समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैनधर्मके संस्थापक थे
उक्त दो मतोंसे यह वात निर्विवाद हो जाती है कि व पार्श्वनाथ भी जैनधर्मके सस्थापक नही थे और उनसे पहले भी जैनध प्रचलित था। तथा जैन परम्परा श्रीऋषभदेवको अपना प्रथम तीर्थ मानती है और जनेतंर साहित्य तथा उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री भी इस बातकी पुष्टि होती है। नीचे इन्ही बातोंको स्पष्ट किर जाता है।
जैन-परम्परा जैन परम्परा अनुसार हमारे इस दृश्यमान जगतमे कालका च सदा घूमा करता है । यद्यपि कालका प्रवाह अनादि और अनन्त तथापि उस कालचक्र छ विभाग है-१ अतिसुखरूप, २ सुखरूप, सुख-दुखरूप, ४ दुःखसुखरूप, ५ दुखरूप और ६ अतिदुखरूप । जन चलती हुई गाडीके चक्रका प्रत्येक भाग नीचसे ऊपर और ऊपरसे नी जाता आता है वसे ही ये छ भाग भी क्रमवार सदा घूमते रहते है अर्थात् एक बार जगत् सुखसे दुःखकी ओर जाता है तो दूसरी वा दुःखसे सुखकी ओर बढ़ता है। सुखसे दुखकी ओर जानेको अवसर्पिणी काल या अवनतिकाल कहते है और दुःखसे सुसकी और जानेक doubt that Jainism prevailed even before Vardhaman or Parsvanath The Yajurveda mentions the names o three tirthankaras-Rishabha, Ajitabath and Aristanem The Bhagavata Puran endorses the view that Rishabh was the founder of Jainism. -Indian Philosopby. Vo .P.287.
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जनधर्म सर्पिणीकाल या विकासकाल कहते है। इन दोनों कालोंकी अवधि खों करोडों वर्षोंसे भी अधिक है। प्रत्येक अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीलके दुखसुखरूप भागहें २४ तीर्थड्रोंका जन्म होता है, जो 'जिन' वस्थाको प्राप्त करके जनधर्मका उपदेश देते है। इस समय अवपिणीलि चाल है। उसके प्रारम्भके चार विभाग बीत चुके है और अव म उसके पांचवें विभागमेंसे गुजर रहे है। चूंकि चौथे विभागका न्त हो चुका, इसलिये इस कालमें अब कोई तीर्थङ्कर नहीं होगा। 'स युगके २४ तीर्थङ्करोमेंसे भगवान ऋषभदेव प्रथम तीथंकर थे और भगवान महावीर अन्तिम तीर्थकर थे। तीसरे कालविभागमें व तीन वर्ष ८|माह शेष रहे तब ऋषभदेवका निर्वाण हुआ और
थे कालविभागमें जब उतना ही काल शेप रहा तव महावीरका तर्वाण हुआ । दोनोंका अन्तरकाल एक कोटा-कोटी सागर बतलाया चिाता है। इस तरह जैन परम्पराके अनुसार इस युगमें जैनधर्मके ध्यम प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव थे। प्राचीनसे प्राचीन जनशास्त्र स विषयमें एक मत है और उनमें ऋषभदेवका जीवन-चरित बहुत खस्तारसे वर्णित है।
जैनेतर साहित्य । * जनतर साहित्यमें श्रीमद्भागवतका नाम उल्लेखनीय है। इसके नाँचवें स्कन्धके, अध्याय २-६ में ऋषभदेवका सुन्दर वर्णन है, जो दान साहित्यके वर्णनसे कुछ अंशमें मिलता जुलता हुबा भी है। उसमे लिखा है कि जब ब्रह्माने देखा कि मनुष्यसख्या नहीं वढी तो उसने स्वयंभू मनु और सत्यल्पाको उत्पन्न किया। उनके प्रियव्रत नामका लड़का हुआ। प्रियवतका पुत्र अग्नीघ्र हुआ । अग्नीघ्रके घर नाभिने जन्म लिया। नाभिने मरुदेवीसे विवाह किया और उनसे ऋषभदेव पत्पन्न हुए । ऋषभदेवने इन्द्रके द्वारा दी गई जयन्ती नामकी भार्याते धौ पुत्र उत्पन्न किये, और बड़े पुत्र भरतका राज्याभिषेक करके संन्यात ले लिया। उस समय केवल शरीरमात्र उनके पास था और वे दिगम्वर
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इतिहास
वेषमे नग्न विचरण करते थे। मौनसे रहते थे, कोई डराये, मारे ऊपर थूके, पत्थर फेके, मूत्रविष्ठा फेके तो इन सबकी ओर ध्यान नह देते थे। यह शरीर असत् पदार्थोका घर है ऐसा समझकर अहंकार ममकारका त्याग करके अकेले भ्रमण करते थे। उनका कामदेव समान सुन्दर शरीर मलिन हो गया था। उनका क्रियाकर्म बडा भयान' हो गया था। शरीरादिकका सुख छोड़कर उन्होंने 'भाजगर' व्रत - लिया था। इस प्रकार कैवल्यपति भगवान ऋषभदेव निरन्तर पर, आनन्दका अनुभव करते हुए भ्रमण करते करते कोक, वेक, कुटक, दक्षिण, कर्नाटक देशोंमे अपनी इच्छासे पहुंचे, और कुटकाचल पर्वतके उपवन उन्मत्तकी नाई नग्न होकर विचरने लगे। जंगलमे बांसोकी रगड़से आग लग गई और उन्होने उसीमे प्रवेश करके अपनेको भस्म कर दिया।
इस तरह ऋषभदेवका वर्णन करके भागवतकार मागे लिखते है। 'इन ऋषभदेवके चरित्रको सुनकर कोंक बेक कुटक देशोका राजा अर्हन उन्हीके उपदेशको लेकर कलियुगमे जव अधर्म बहुत हो जायगा तक स्वधर्मको छोड़कर कुपय पाखंड (जनधर्म) का प्रवर्तन करेगा । तु, मनुष्य मायासे विमोहित होकर, शौच माचारको छोडकर ईश्वरको अवज्ञा करनेवाले व्रत धारण करेगे।न स्नान,न आचमन, ब्रह्म, ब्राह्मणां यज्ञ सबके निन्दक ऐसे पुरुष होगे और वेद-विरुद्ध आचरणकरके नरक गिरेगे। यह ऋपभावतार रजोगुणसे व्याप्त मनुष्योको मोक्षमार्गः सिखलानेके लिये हुमा।'
१“यस्य किलानुचरितमुपाकर्ण्य कोतवेलकुटकाना राजा अहंसामोपशिक्ष्य कलावधर्म उत्कृष्यमाणे भवितव्येन विमोहित स्वधर्मपयमकुतोभयमपहाय कुपथपाखण्डमसमजस निजमनीषया मन्द सम्प्रवर्तयिष्यते ॥६॥ येन वाव कला, मनुजापसदा देवमायामोहिता स्वविधिनियोगशौच-चारित्रविहीना देवहेलना, न्यपन्नतानि निजेच्छया गृह्णाना अस्नानाचमनशौचकेशोल्लुचनादीनि कलिना धर्मबहुलेनोपहतधियोब्रह्म-ब्राह्मण-यज्ञ-पुरुषलोकविदूषका प्रायेण भविष्यन्ति।।१०।' ते च स्वपक्तिनया निजलोकयानयाऽन्धपरम्परया श्वस्ता. तमस्यन्यै स्वयमेका पतिष्यन्ति । अयमवतारो रजसोपप्लुतकवल्योपशिक्षणार्थ.॥"स्क० ५, २०६।
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जैनवमं
श्रीमद्भागवतके उक्त कथनमेंते यदि उस अंगको निकाल दिया ये, जो कि धार्मिक विरोधके कारण लिखा गया है तो उससे बरावर ध्वनित होता है कि ऋषभदेवने ही जैनवमंका उपदेश दिया था कि जैन तीर्थङ्कर ही केवल ज्ञानको प्राप्त कर लेने पर 'जिन' हेतु' आदि नामोसे पुकारे जाते है और उसी अवस्थामें वे धर्मोपदेश ते हैं जो कि उनकी उस अवस्थाके नाम पर जैनवमं या आहेत धर्म हलाता है । सम्भवत दक्षिणमें जैनधर्मका अधिक प्रचार देख कर गवतकारने उक्त क्ल्पना कर डाली है । यदि वे सीधे ऋषभदेवसे जैनधर्मकी उत्पत्ति बतला देते तो फिर उन्हें जैनधर्मको बुरा भला हनेका अवसर नही मिलता । अस्तु, श्रीमद्भागवतमें ऋषभदेवजीके रा उनके पुत्रोको जो उपदेश दिया गया है वह भी बहुत नंशनें जैनमँके अनुकूल ही है । उसका सार निम्न प्रकार है
(१) हे पुत्रो ! मनुष्यलोकमें शरीरधारियोंके वीचमें यह रीर कष्टदायक है, भोगने योग्य नही है । अतः दिव्य तप करो, तससे अनन्त सुखकी प्राप्ति होती है ।
(२) जो कोई मेरेसे प्रीति करता है, विषयी जनोसे, स्त्रीसे, त्रसे और मित्रसे प्रीति नही करता, तथा लोकमें प्रयोजनमात्र सक्ति करता है वह समदर्शी प्रशान्त और साबु है ।
(३) जो इन्द्रियोकी तृप्तिके लिये परिश्रम करता है उसे हम अच्छा नही मानते ; क्योकि यह शरीर भी आत्माको क्लेशदायी है ।
(४) जब तक सावू आत्मतत्त्वको नही जानता तब तक वह ज्ञानी है । जव तक यह जीव कर्मकाण्ड करता रहता है तब तक तव मौका शरीर और मन द्वारा आत्मा बन्य होता रहता है।
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(५) गुणोके अनुसार चेष्टा न होनेसे विद्वान् प्रमादी हो, ज्ञानी बन कर मैथुनसुखप्रवान घरमें वसकर अनेक संतापोको प्त होता है । (६)
पुरुषका स्त्रीके प्रति जो कामभाव है यही हृदयकी [न्य है । इसीसे जीवको घर, खेत, पुत्र, कुटुम्ब और धनले मोह होता है ।
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इतिहास
( ७ ) जव हृदयकी ग्रन्थिको बनाये रखनेवाले मनका बन्ध शिथिल हो जाता है तब यह जीव संसारसे छूटता है और मुक्त होक परमलोकको प्राप्त होता है ।
(८) जब सार - असारका भेद करानेवाली व अज्ञानान्धकारक नाश करनेवाली मेरी भक्ति करता है और तृष्णा, सुख दुखका त्या कर तत्त्वको जाननेकी इच्छा करता है, तथा तपके द्वारा सव प्रकारव चेष्टामोंको निवृत्ति करता है तब मुक्त होता है ।
(६) जीवोंको जो विषयोकी चाह है यह चाह ही अन्धकूप समान नरकमे जीवको पटकती है।
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(१०) अत्यन्त कामनावाला तथा नष्ट दृष्टिवाला यह जग अपने कल्याणके हेतुओको नही जानता है ।
(११) जो कुबुद्धि सुमार्ग छोड कुमार्गमे चलता है उसे दया विद्वान कुमार्ग में कभी भी नही चलने देता ।
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(१२) हे पुत्रो ! सब स्थावर जंगम जीवमात्रको मेरे है 'समान समझकर भावना करना योग्य है ।
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ये सभी उपदेश जैनधर्म के अनुसार है । इनमें नम्बर ४ का उप देश तो खास ध्यान देने योग्य है, जो कर्मकाण्डको बन्धका कारणं, बतलाता है । जैनधर्मके अनुसार मन, वचन और कायका निरोध दिना कर्मवन्वनसे छुटकारा नही मिल सकता । किन्तु वैदिक यह बात नही पाई जाती । शरीरके प्रति निर्ममत्व होना, तत्वज्ञाने पूर्वक तप करना, जीवमात्रको अपने समान समझना, कामवासना फन्देमे न फँसना, ये सब तो वस्तुत. जैनधर्म ही है । अत श्रीमद्भागवत अनुसार भी श्री ऋषभदेवसे ही जैनधर्मका उद्गम हुआ ऐसा स्पष् ध्वनित होता है । अन्य हिन्दू पुराणोमे भी जैनवर्मकी उत्पत्ति सम्वत्वमें प्राय इसी प्रकारका वर्णन पाया जाता है । ऐसा एक ग्रन्थ अभी तक देखनेमे नही आया, जिसमे वर्धमान या पार्श्वनाथ जैनधर्मकी उत्पत्ति बतलाई गई हो । यद्यपि उपलब्ध पुराणसाहित
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जैनधर्म
य. महावीरके वादका ही है, फिर भी उसमे जैनधर्मकी चर्चा होते हुए
महावीर या पार्श्वनाथका नाम तक नहीं पाया जाता। इससे भी सी वातकी पुष्टि होती है कि हिन्दू परम्परा भी इस विषयमे एक ज है कि जैनधर्मके संस्थापक ये दोनो नहीं है। नई इसके सिवा हम यह देखते है कि हिन्दू धर्मके अवतारोमे अन्य रारतीय धोंके पूज्य पुरुष भी सम्मिलित कर लिये गये है, यहाँ क्ल कि ईस्वी पूर्व छठी शताब्दीमे होने वाले बुद्धको भी उनमें आम्मिलित कर लिया गया है जो बौद्धधर्मके संस्थापक थे।किन्तु उन्हीके
मकालीन वर्धमान या महावीरको उसमें सम्मिलित नहीं किया है, खिोकि वे जैनधर्मके सस्थापक नही थे। जिन्हें हिन्दू परम्परा जैनधर्मका
स्थापक मानती थी वे श्रीऋषभदेव पहलेसे ही आठवे अवतार माने मए थे। यदि श्रीबुद्धकी तरह महावीर भी एक नये धर्मके संस्थापक ते तो यह सभव नहीं था कि उन्हें छोड़ दिया जाता। अत उनके गम्मलित न करने और ऋपभदेवके आठवे अवतार माने जानेसे भी जस बातका समर्थन होता है कि हिन्दू परम्परामे अति प्राचीनकालसे षभदेवको ही जैनधर्मके सस्थापकके रूपमें माना जाता है । यही जह है जो उनके तथा उनके वादमे होनेवाले मजितनाय और अरिप्टतिमि नामके तीर्थवरोका निर्देश यजुर्वेदमें मिलता है।
ऐतिहासिक सामग्री है इस प्रकार जैन और जैनेतर साहित्यसे यह स्पष्ट है कि भगवान पुषभदेव ही जैनधर्मके आद्य प्रवर्तक थे। प्राचीन शिलालेखोसे भी
ह बात प्रमाणित है कि श्रीऋषभदेव जैनधर्मके प्रथम तीर्थकर थे
और भगवान महावीर के समयमे भी ऋषभदेवकी मूर्तियोकी पूजा जैन “ोग करते थे। मथुराके कलाली नामक टीलेकी खुदाईमें डाक्टर हररको जोजैन शिलालेख प्राप्त हुए वे करीब दो हजार वर्ष प्राचीन और उनपर इन्डोसिथियन (Indo-sythjan ) राणा कनिष्क
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इतिहास
हुविष्क और वासुदेवका सम्वत् है । उसमे भगवान ऋषभदेवक पूजाके लिये दान देनेका उल्लेख है । यहातवा
श्रीविसेष्ट' ए० स्मिथका कहना है कि 'मथुरासे प्राप्त सामग्र लिखित जैन परम्पराके समर्थनमे विस्तृत प्रकाश डालती है और जैन धर्मकी प्राचीनताके विषयमें अकाट्य प्रमाण उपस्थित करती है। तथ यह बतलाती है कि प्राचीन समयमे भी वह अपने इसी रूपमे मौजूद था ' ईस्वी सन् के प्रारम्भमे भी अपने विशेष चिह्नोके साथ चौबीस तीर्थ करोंकी मान्यतामे दृढ़ विश्वास था ।
}
इन शिलालेखोसे भी प्राचीन और महत्त्वपूर्ण शिलालेख खण्ड गिरि उदयगिरि (उड़ीसा) की हाथी गुफासे प्राप्त हुआ है जो ज सम्राट खारवेलने लिखाया था । इस २१०० वर्षक प्राचीन जै शिलालेखसे स्पष्ट पता चलता है कि मगधाधिपति पुष्यमित्रक पूर्वाधिकारी राजा नन्द कलिंग जीतकर भगवान श्री ऋषभदेवक मूर्ति, जो कलिंगराजाओ की कुलक्रमागत बहुमूल्य अस्थावर सम्पत्ि थी, जयचिह्न स्वरूप ले गया था । वह प्रतिमा खारवेलने नन्दरा जाके तीन सौ वर्ष बाद पुष्यमित्रसे प्राप्त की। जब खारवेलने मगव " पर चढाई की और उसे जीत लिया तो भगघाधिपति पुष्यमित्र खारवेलको वह प्रतिमा लौटाकर राजी कर लिया। यदि जैनधर्मक आरम्भ भगवान महावीर या भगवान पार्श्वनाथके द्वारा हुआ होता तो उनसे कुछ ही समय बादकी या उनके समयकी प्रतिमा उन्हीक
1
१--'The discoveries have to a very large exten supplied corroboration to the written Jain tradition an they offer tangible incontrovertible Proof of the antiquit of the Jain religion and of its early existence ver much in its present form. The series of twentyfou, pontiffs (Tirthankaras), each with his distinctive emb lem, was evidently firmly believed in at the beginning of the Christian era.-The Jain strip Mathura Intro.p G1
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जैनधर्म ती। परन्तु जब ऐसे प्राचीन शिलालेखमे आदि तीर्थसरकी प्रति
का स्पष्ट और प्रामाणिक उल्लेख इतिहासके साथ मिलता है तो निना पड़ता है कि श्रीऋषभदेवके प्रथम जैन तीथंडर होनेकी मान्य
में तथ्य अवश्य है। __ अव प्रश्न यह है कि वे कब हुए?
ऊपर बतलाया गया है कि जैन परम्पराके अनुसार प्रथम जैन र्थिङ्कर श्रीऋषभदेव इस अवसर्पिणीकालके तीसरे भागमे हुए, और व उस कालका पांचवां भाग चल रहा है अत उन्हें हुए लाखों करोड़ों र्ष हो गये। हिन्दू परम्पराके अनुसार भी जब ब्रह्माने सृष्टिके पारम्भमें स्वयभू मनु और सत्यरूपाको उत्पन्न किया तो ऋषभदेव नसे पांचवी पीढीमें हुए। और इस तरह वे प्रथम सतयुगके अन्तमें ए। तथा अब तक २८ सतयुग बीत गये है। इससे भी उनके मयकी सुदीर्घताका अनुमान लगाया जा सकता है । अत जैनमिका आरम्भकाल वहुत प्राचीन है। भारतवर्ष में जब आर्योका पागमन हुआ उस समय भारतमे जो द्रविड सभ्यता फैली हुई थी, स्तुत वह जैन सभ्यता ही थी। इसीसे जैन परम्परामे बादको जो संघ कायम हुए उनमें एक द्रविडसघ भी था।
२-श्रीऋषभदेव । कालके उक्त छ भागोमें से पहले और दूसरे भागमे न कोई धर्म होता है, न कोई राजा और न कोई समाज । एक परिवारमें पति और जली ये दो ही प्राणी होते है। पासमें लगे वृक्षोसे, जो कल्पवृक्ष कहे झाते है उन्हें अपने जीवनके लिये आवश्यक पदार्थ प्राप्त हो जाते है, इसीमे वे प्रसन्न रहते हैं। मरते समय एक पुत्र और एक पुत्रीको जन्म
१ मेजर जनरल जे सी आर फलांग महोदय अपनी The ShortStu Tly in Science of Comparative Religion 77977 geus festes -'ईसासे अगणित वर्ष पहलेसे जैनधर्म भारतमें फैला हुआ था। आर्य लोग माना
और
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जनवर्म चौदहवें मनुका नाम नाभिराय था। इनके समयमे उत्पन्न होने ले वच्चोका नाभिनाल अत्यन्त लम्बा होने लगा तो इन्होने उसको टना बतलाया। इसीलिये इनका नाम नाभि पड़ा। इनकी पत्नीका म मरुदेवी था। इनसे श्रीऋषभदेवका जन्म हुमा । यही ऋषभदेव स युगमें जैनधर्मके आद्य प्रर्वतक हुए। इनके समयमे ही ग्राम नगर सादिकी सुव्यवस्या हुई इन्होने ही लौकिक शास्त्र और लोकव्यवहारकी शिक्षा दी और इन्होने ही उस धर्मकी स्थापना की जिसका दूल अहिंता है। इसीलिये इन्हे आदि ब्रह्मा भी कहा गया है।
जिस समय ये गर्भमें थे, उस समय देवतामोने स्वर्णकी वृष्टि की इसलिये इन्हें 'हिरण्यगर्भ" भी कहते है। इनके समयमै प्रजाके सामने जीवनकी समस्या विकट हो गई थी, क्योकि जिन वृक्षोसे लोग अपना जीवन निर्वाह करते आये थे वे लुप्त हो चुके थे और जो नई वनस्पतियाँ पृथ्वीमें उगी थी, उनका उपयोग करना नही जानते थे। तब इन्होंने उन्हें उगे हुए इक्षुदण्डोसे रस निकाल कर खाना सिखलाया। इसलिये इनका वश इक्ष्वाकु वराके नामसे प्रसिद्ध हुआ, और ये उसके आदि पुरुष कहलाये । तया प्रजाको कृषि, मसि, मषी, शिल्प, वाणिज्य और विद्या इन षट्कर्मों से आजीविका करना बतलाया। इसलिये इन्हें प्रजापति गी कहा जाता है। सामाजिक व्यवस्थाको चलानके लिये इन्होने तीन वर्गोकी त्यापना की। जिनको रक्षाका मार दिया १ 'पुरगामपट्टणादी लोयियसत्य च लोयववहारो। धम्मो वि दयामूलो विणिम्मियो आदिवह्मण ।।८०२॥'
–त्रि० सा। २"हिरण्यवृष्टिरिष्टाभूद् गर्भपेपि यवत्त्वयि । हिरण्यगर्भ इत्युच्चीवणिर्गीयते त्वतः ॥ २०६॥ आकन्ती रस प्रीत्या वाहुल्पेन त्वयि प्रभो। प्रजा प्रभो यतस्तस्मादिक्ष्वाकुरिति कोयंसे ॥ २१०॥
-स०८, हरि० पु० । ३ 'प्रजापति प्रथमं निजीवियु. शशास कृप्यादिसु कर्मसुप्रजाः
-स्वयं स्तो०
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इतिहास
गया वे क्षत्रिय कहलाये । जिन्हें खेती, व्यापार, गोपालन आदि कार्यमें नियुक्त किया गया वे वैश्य कहलाये । और जो सेवावृत्ति करनेके योग्य समझे गये उन्हें शूद्र नाम दिया गया ।
भगवान ऋषभदेव के दो पत्नियाँ थी - एक का नाम सुनन्दा था और दूसरीका नन्दा । इनसे उनके सौ पुत्र और दो पुत्रियां हुई। बड़े पुत्रका नाम भरत था । यही भरत इस युगमें भारतवर्ष के प्रथम चक्रवर्ती राजा हुए।
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एक दिन भगवान ऋषभदेव राजसिंहासनपर विराजमान थे राजसभा लगी हुई थी और नीलांजना नामकी अप्सरा नृत्य कर रही थी। अचानक नृत्य करते करते नीलाञ्जनाका शरीरपात हो गया इस आकस्मिक घटनासे भगवानका चित्त विरक्त हो उठा । तुरन्त सब पुत्रोको राज्यभार सौप कर उन्होने प्रव्रज्या ले ली और ह माह की समाधि लगाकर खड़े हो गये। उनकी देखादेखी और भी अनेक राजाओने दीक्षा ली । किन्तु वे भूख प्यासके कष्टको न सह सके और भ्रष्ट हो गये । छ माहके बाद जब भगवानकी समाि भंग हुई तो आहारके लिये उन्होने विहार किया । उनके प्रशान्त नग्न रूपको देखनेके लिये प्रजा उमड़ पड़ी। कोई उन्हें वस्त्र भ
करता था, कोई भूषण भेंट करता था, कोई हाथी घोड़े लेकर उनक सेवामें उपस्थित होता था । किन्तु उनको भिक्षा देनेकी विधि कोई नही जानता था। इस तरह घूमते-घूमते ६ माह और बीत गये ।
इसी तरह घूमते-घूमते एक दिन ऋषभदेव हस्तिनापुरमें ज पहुँचे । वहाँका राजा श्रेयांस बडा दानी था । उसने भगवान्का ७ सत्कार किया । आदरपूर्वक भगवानको प्रतिग्रह करके उच्चासनप बैठाया, उनके चरण धोये, पूजन की और फिर नमस्कार कर बोला - भगवन् ? यह इक्षुरस प्रासुक है, निर्दोष है इसे आप स्वी करें । तब भगवानने खडे होकर अपनी अञ्जलिमें रस लेकर पिया उस समय लोगों को जो आनन्द हुआ वह वर्णनातीत है । भगवा
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जैनधर्म
ह आहार वैशाख शुक्ला तीजके दिन हुआ था । इसीसे यह तिथि क्षय तृतीया कहलाती है । आहार करके भगवान फिर वनको चले ये और आत्म ध्यानमें लीन हो गये। एक बार भगवान 'पुरिमताल' गरके उद्यानमें ध्यानस्य थे । उम समय उन्हें केवल ज्ञानकी प्राप्ति ई। इस तरह 'जिन' पद प्राप्त करके भगवान बडे भारी समुदायके आय धर्मोपदेश देते हुए विचरण करने लगे । उनको व्याख्यान सभा समवसरण' कहलाती थी । उसकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि उसमें पशुओ तकको धर्मोपदेश सुननेके लिये स्थान मिलता था और सह जैसे भयानक जन्तु शान्तिके साथ बैठकर धर्मोपदेश सुनते थे । भगवान जो कुछ कहते थे सबकी समझमे आ जाता था। इस तरह जीवनपर्यन्त प्राणिमात्रको उनके हितका उपदेश देकर भगवान प म़देव कैलास पर्वतसे मुक्त हुए। वे जैनधर्मके प्रथम तीर्थ कर थे । हिन्दू राणो में भी उनका वर्णन मिलता है। इस युगमे उनके द्वारा ही जैनधर्मका आरम्भ हुआ।
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३ - जैनधर्मके अन्य प्रवर्तक
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६ - भगवान ऋषभदेवके पश्चात् जैनधर्म के प्रवर्तक २३ तीर्थङ्कर और हुए, जिनमें से दूसरे अजितनाथ, चौथे अभिनन्दननाथ, पाँचवे सुमतिनाथ और चौदहवें अनन्तनाथका जन्म अयोध्यानगरीमं हुआ। तीसरे, भवदेवका जन्म श्रावस्ती नगरीमे हुआ। छठे पद्मप्रभका जन्म कौशाम्बी हुआ । सातवे सुपार्श्वनाथ और तेईसवे पार्श्वनाथका लिन्म वाराणसी नगरी (बनारस) में हुआ । आठवे चन्द्रप्रभका
जन्म चंद्रपुरीमे हुआ । नौवे पुष्पदन्तका जन्म काकन्दी नगरीमे सुना। दसवें शीतलनाथका जन्म भद्दलपुरमे हुआ । ग्यारहवे श्रेयानायका जन्म सिंहपुरी (सारनाथ) में हुआ । बारहवें वासुपूज्यका जन्म चम्पापुरीमें हुआ। तेरहवे विमलनाथका जन्म कपिला नगरीमें हुआ । पन्द्रहवें धर्मनाथका जन्म रत्नपुरमें हुआ । सोलहवै शान्तिनाथ, तरहवें कुन्थुनाथ और अठारहवें भरनाथका जन्म हस्तिनागपुर में
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हुशाम हुआ। बीसवे अरनाथ और कुमार शेषका जन्म इश्वको त
इतिहास हुआ। उन्नीसवें मल्लिनाथ और इक्कीसवे नमिनाथका जन्म पुरीमे हुमा। बीसवे मुनिसुव्रतनाथका जन्म राजगृही नगरीमे हुन __इनमेसे धर्मनाथ, अरनाथ और कुन्युनाथका जन्म कुरुवंशमे हुल मुनिसुनतनायका जन्म हरिवशमे हुआ और गेषका जन्म इक्ष्वाकुवंर हुआ। सभीने अन्तमे प्रव्रज्या लेकर भगवान ऋषभदेवकी तर तपश्चरण किया और केवल ज्ञानको प्राप्त करके उन्हीकी तरह ध पदेश किया और अन्तमे निर्वाणको प्राप्त किया। इनमेसे भगव वासुपूज्यका निर्वाण चम्पापुरसे हुआ और शेष तीर्थरोका निव सम्मेदशिखरसे हुआ। अन्तिम तीन तीर्थङ्करोंका वर्णन आगे पढिये
भगवान नेमिनाथ भगवान नेमिनाथ वाईसवे तीर्थकर थे। ये श्रीकृष्णके च भाई थे। शौरीपुर नरेश अन्धकवृष्णिके दस पुत्र हुए। सबसे व पुत्रका नाम समुद्रविजय और सबसे छोटे पुत्रका नाम वसुदेव था समुद्रविजयके घर नेमिनाथने जन्म लिया और वसुदेवके घर श्रीकृष्णने जरासन्ध के मयसे यादवगण शौरीपुर छोड़कर द्वारका नगरीमे जाव रहने लगे । वहाँ जूनागढके राजाकी पुत्री राजमतीसे नेमिन या विवाह निश्चित हुआ बड़ी धूम-धामके साथ वारात जूनागढ़के निक पहुंची। नेमिनाथ बहुतसे राजपुत्रोके साथ रयमे बैठे हुए आसपास शोभा देखते जाते थे। उनकी दृष्टि एक ओर गई तो उन्होने देर बहुतसे पशु एक बाड़मे बन्द है, वे निकलना चाहते है किन्तु निकलने कोई मार्ग नही है। भगवानने तुरन्त सारथिको रथ रोकने आदेश दिया और पूछा-ये इतने पशु इस तरह क्यों रोके है। नेमिनाथको यह जानकर बड़ा खेद हुआ कि उनकी वारातमे अ हुए अनेक राजाओके आतिथ्य सत्कारके लिये इन पशुओंका वध कि जानेवाला है और इसी लिये वे बाड़ेमे बन्द है। नेमिनाथके दया हृदयको बडा कष्ट पहुंचा। वे वोले- यदि मेरे विवाहके निमित्त इतने पशुओं का जीवन संकटमें है तो धिक्कार है ऐसे विवाहको। उ
---- (1) श्वताम्बर मान्यताके अनुसार भगवान महावीरकी माता ।
चेटककी वहिन यो। तथा महावीरका विवाह मी हुना था।
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जैनधर्म विवाह नहीं करूंगा। वे रथसे तुरन्त नीच उतर पडे और मुकुट और गनको फेंककर वनकी ओर चल दिये। वारातमें इस समाचारके फैलते
कोहराम मच गया। जूनागढके अन्त पुरमें जब राजमतीको यह माचार मिला तो वह पछाड़ खाकर गिर पड़ी। बहुतसे लोग नेमिनाथको लौटाने के लिये दौड़, किन्तु व्यर्थ । वे पासमे ही स्थित गिरनार हाइपर चढ़ गये और सहलान वनमें भगवान ऋषभदेवकी तरह सब रिपान छोडकर दिगम्बर हो मात्मध्यानमे लीन हो गये और केवलजानको प्राप्तकर गिरनारसे ही निर्वाण लाभ किया।
भगवान पार्श्वनाथ भगवान पार्श्वनाथ २३ वें तीर्थङ्कर थे । इनका जन्म माजसे लगभग तीन हजार वर्ष पहले वाराणसी नगरीमें हुआ था। यह भी राजपुत्र से। इनकी चित्तवृत्ति प्रारम्भसे ही वैराग्यकी ओर विशेष थी। मातापैताने कई बार इनसे विवाहका प्रस्ताव किया किन्तु उन्होंने सदा हमकर टाल दिया। एक बार ये गंगाके किनारे घूम रहे थे। वहाँपर कुछ तापसी आग जलाकर तपस्या करते थे। ये उनके पास पहुंचे और घोले-'इन लक्कडो को जलाकर क्यो जीवहिंसा करते हो।' कुमारकी खात सुनकर तापसी बडे झल्लाये और बोले-'कहाँ है जीव ?" तब कुमारने तापसीके पाससे कुल्हाड़ी उठाकर ज्यो ही जलती हुई लकडीको मचीरा तो उसमेंसे नाग और नागिनका जलतामा जोडा निकला। कुमार
ने उन्हे मरणोन्मुख जानकर उनके कानमें मूलमत्र दिया और दुःखी म्होकर चले गये। इस घटनासे उनके हृदयको बहुत वेदना हुई। पजीवनकी अनित्यताने उनके चित्तको और भी उदास कर दिया गौर
महाभारत में भी लिखा है--
युगे युगे महापुण्प दृश्यते द्वारिका पुरी। अवतीर्णो हरियंत्र प्रभासशशिभूषण.॥ रेवतादी जिनो नेमियुगादिविमलाचले। ऋषीणामाश्रमादेव मक्तिमानस्य कारणम ।।
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इतिहास : राजसुखको तिलाञ्जलि देकर प्रवजित हो गये। एक बार '
अहिच्छेत्रके वनमे ध्यानस्थ थे। परसे उनके पूर्वजन्मका वैरी को देव कही जा रहा था। इन्हें देखते ही उसका पूर्वसचित वैरभा। भडक उठा। वह उनके ऊपर ईंट और पत्थरोकी वर्षा करने लगा। जव उससे भी उसने भगवानके ध्यानमे विघ्न पडता न देखा तो मूसालाधार वर्षा करने लगा। आकाशमे मेघोने भयानक रूप धारण क लिया, उनके गर्जनतर्जनसे दिल दहलने लगा। पृथ्वीपर चारो बोच पानी ही पानी उमड़ पड़ा। ऐसे घोर उपसर्गके समय जो नाग औष नागिन मरकर पाताल लोकमे धरणेन्द्र और पद्मावती हुए थे, वे अप उपकारीके ऊपर उपसर्ग हुआ जानकर तुरन्त आये। पद्मावती अपन मुकुटके ऊपर भगवानको उठा लिया और घरणेन्द्र सहस्रफणवाले सर्पका रूप धारण करके भगवानके ऊपर अपन, फण फैला दिया और इस तरह उपद्रवसे उनकी रक्षा की। उसी सम पार्श्वनायको केवल ज्ञानकी प्राप्ति हुई, उस वरी देवने उनके घर सीस नवाकर उनसे क्षमा याचना की। फिर करीब ७० वर्ष जगह-जगह विहार करके धर्मोपदेश करनेके वाद १०० वर्षकी उम्रमे वे सम्मेद शिखरसे निर्वाणको प्राप्त हुए। इन्हीके नामसे आजसम्म दशिखर पर्वत 'पारसनाथहिल' कहलाता है। इनकी जो मूर्तियाँ पा, जाती है, उनमे उक्त घटनाके स्मृतिस्वरूप सिरपर सर्पका फन बना हुमा होता है। जैनेतर जनतामे इनकी विशेष ख्याति है। ५ कही तो जैनोका मतलब ही पार्श्वनाथका पूजक समझा जाता है।
भगवान महावीर भगवान महावीर अन्तिम तीर्थड्र थे। लगभग ६०० ई० पू० विहार प्रान्तके कुण्डलपुर नगरके राजा सिद्धार्थके धरमे उनक जन्म हुआ। उनकी माता' त्रिशला वैशालीनरेश राजा चेटककी पुत्री
(१) श्वेताम्बर मान्यताके अनुसार भगवान महावीरकी माता त्रिशला चेटककी बहिन थी। तथा महावीरका विवाह भी हुआ था।
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जैनधर्म बवाो । महावीरका जन्म चत्र शुक्ला त्रयोदशीके दिन हुआ था। इस नकदन भारतवर्षमे महावीरकी जयन्ती बडी धूमसे मनाई जाती है । कोहहावीर सचमुचमें महावीर थे। एक वार बचपनमे ये अन्य वालकोके
चाथि खेल रहे थे। इतनेमे अचानक एक सर्प कहीसे आ गया और यकोनकी ओर झपटा । अन्य वालक तो डरकर भाग गये किन्तु महाहाडोरने उसे निर्मद कर दिया। महावीर जन्मसे ही विशेप ज्ञानी थे। रेघाक वार एक मुनि उनको देखने के लिये आये और उनके देखते ही निकनिके चित्तमें जो शास्त्रीय शकाएँ थी वे दूर हो गई । जव महावीर
डे हुए तो उनके विवाहका प्रश्न उपस्थित हुआ, किन्तु महावीरका भवत्त तो किसी अन्य ओर ही लगा हुआ था। उस समय यज्ञादिकका नहुत जोर था और यज्ञोमे पशु-बलिदान बहुतायतसे होता था। वेचारे
क पशु धर्मके नामपर वलिदान कर दिय जाते थे और 'वैदिकी हिंसा पतासा न भवति' की व्यवस्था दे दी जाती थी। करुणासागर महावीरके
तानोतक भी उन मूक पशुओंकी चीत्कार पहुंची और राजपुत्र महामनोरका हृदय उनकी रक्षाके लिये तडप उठा। धर्मके नामपर किये जानेवाले किसी भी कृत्यका विरोध कितना दुष्कर है यह बतलानेकी आवश्यकता नही। किन्तु महावीर तो महावीर ही थे। ३० वर्षकी उम्रमे उन्होने घर छोडकर वनका मार्ग लिया और भगवान ऋषभदेवकी ही तरह प्रव्रज्या लेकर ध्यानस्थ हो गये। र महावीरके जन्म आदिका वर्णन करनेवाली कुछ प्राचीन गाथाएँ
मिलती है जिनका भाव इस प्रकार हैलि १ "सुरमहिदोच्चुदकप्पे भोग दिवाणुभागमणभूदो। आ
पुप्फूतरणामादो विमाणदो जो चुदो सतो॥ बाहत्तरिवासाणि य योवविहीणाणि लद्धपरमाऊ । आसाढजोण्हपक्खे छटठीए जोणिमुवयादो॥ कुण्डपुरपुरवरिस्सरसिद्धत्यक्सत्तियस्स णाहकुले । तिसिलाए देवीए देवीसदसेवमाणाए । अच्छित्ता णवमासे अ य दिवसे चइत्तसियपक्से ।
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इतिहास 'जो देवोके द्वारा पूजा जाता था, जिसने अच्युत कल्प नाम स्वर्गमें दिव्य भोगोको भोगा, ऐसे महावीर जिनेन्द्रका जीव कुछ २५ वहत्तर वर्षकी आयु पाकर, पुष्पोत्तर नामक विमानसे च्युत होक ५ आसाढ शुक्ला षष्ठीके दिन, कुण्डपुर नगरके स्वामी सिद्धार्थ क्षत्रिय घर, नायवंशमे, सैकड़ो देवियोसे सेवित त्रिशला देवीके गर्भमें आयाऔर वहाँ नौ माह आठ दिन रहकर चैत्र शुक्ला त्रयोदशीकी रात्रि उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रके रहते हुए महावीरका जन्म हुआ।
'अट्ठाईस वर्ष सात माह और बारह दिन तक देवोकें द्वारा कि गये मानुषिक अनुपम सुखको भोगकर जो आभिनिबोधिक ज्ञान प्रतिबुद्ध हुए, ऐसे देवपूजितं महावीर भगवानने पप्ठोपवासके सा मार्गशीर्ष कृष्ण दशमीके दिन जिनदीक्षा ली।' -वारहवर्ष पांच माह और पन्द्रह दिन पर्यन्त छमस्थ अवस्था विताकर (तपस्या करके) रत्नत्रयसे शुद्ध महावीर भगवानने जम्भि ग्रामक बाहर ऋजुकूला नदीके किनारे सिलापट्टके ऊपर षष्ठोपवास साथ आतापन योग करते हुए, अपराह्नकालमे, जब छाया पादप्रमा थी, वैशाख शुक्ला दसमीके दिन क्षपक श्रेणिपर आरोहण किया की चार घातिया कर्मोका नाश करके केवल ज्ञान प्राप्त किया।'
तेरसिए रत्तीए जादुत्तरफागुणीए दु॥ मणुवत्तणसुहमतुल देवकय सेविरुण वासाई। अट्ठावीस सत्त य मासे दिवसे य बारसम॥ आभिणिवोहियदी छट्ठण य मगगसीसबहुलाए। दसमीए णिक्यतो सुरमहिदो णिक्खमणपुज्जो॥ गमय छदुमत्यत्त वारसवासाणि पचमासे य। पण्णारसाणि दिणाणि य तिरदणसुद्धो महावीरो॥ उजुकूलणदीतीरे जभियगामे बहिं सिलान । छठेणादावते अबरण्हे पादछायाए। वइसाहजोण्हपले दसमीए सवयसेढिमारुढो। हतूण धाइकम्म केवलणाण ममावण्णो।।"
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जैनधर्म
रताको छोड़कर शान्तिसे भगवानका उपदेश सुनते थे। इस तरह भवान काशी, कोशल, पंचाल, कलिंग, कुरुजांगल, कम्बोज, वाल्हीक, हन्य, गाधार आदि देशोमें विहार करते हुए अन्तमें पावा नगरी बिहार) में पधारे। और वहाँले कार्तिक कृष्णा चतुर्दशीकी रानिमें अर्थात् अमावस्याके प्रातःकालमें सूर्योदयसे पहले मुक्तिलाम किया। सा कि लिखा है। 'उनतीस वर्ष, पांच मास और बीस दिनतक ऋषि, मुनि, यति और अनगार इन चार प्रकारके मुनियो और बारह गणो अर्थात् माओके साथ विहार करनेके पश्चात् भगवान महावीरने पावा नगरमे जतिक कृष्णा चतुर्दशीके दिन स्वाति नक्षत्रके रहते हुए, रात्रिके समय
अघोति कर्मरूपी रजको छेदकर निर्वाणको प्राप्त किया। । वर्तमानमे जो वीर निर्वाण सम्वत् जैनोमें प्रचलित है, उसके अनुर ५२७ ई० पू० में वीरका निर्वाण हुआ माना जाता है। कुछ चीन जन-ग्रन्थोमे शकराजासे ६०५ वर्ष ५ मास पहले वीरके सर्वाण होनेका उल्लेख मिलता है। उससे भी इसी कालकी पुष्टि जाती है।
१ पुज्यपाद रचित सस्कृत निर्वाणभक्तिमें लिखा है"वापुरस्य वहिनतभूनिदेशे पपोत्पलाकुलवता सरसा हि मध्ये।
वर्षनानजिनदेव इति प्रेतीतो निर्वाणमाप भगवान् प्रविवतमामा॥२४॥ ६ जयं-"पावापुरके बाहर स्पित, और कमलोसे व्याप्त सरोवर बीचमें, नेनत निदेशपर काँका नाग करके भगवान् महावीरने निर्वाण लाभ किया।'
२ "वासागूपत्तीतं पच र मासे व बीन दिवसे ।। चविह अगगारेहि य वारहदिहि (नहि) विहरिता ।। पच्छा पावाणयरे कत्तियनासन किण्हचोइसिए। मादीए रत्तीए मेसरयं हेतु मियाओ॥३॥"
-० धव० सं०, १,पृ०१। 'जिवाणे वीरजिणे उवाससदेतु पंचवरिमे। पणमामेमु गदेसु नजादो सुगणिो अहवा॥१४६ET"
-त्रि०प्र०
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इतिहास
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४ - भगवान महावीरके पश्चात् जैनधर्मकी स्थिति
"
भगवान महावीरके सम्बन्धमें जैन और बोद्धसाहित्यसे जो कु ...नकारी प्राप्त होती है, उसपरसे यह स्पष्ट पता चलता है महावीर एक महापुरुष थे, और उस समयके पुरुषोपर उनका मान सिक और आध्यात्मिक प्रभाव बडा गहरा था । उनके प्रभाव दीर्घदृष्टि और निस्पृहताका ही यह परिणाम है जो आज भी जन् धर्म अपने जन्मस्थान भारतदेशमें बना हुआ है जब कि बोद्ध " शताब्दियो पूर्व यहाँसे लुप्त-सा हो गया था ।
1
4
भगवान महावीरका अनेक राजघरानोंपर भी गहरा प्रभाव था M भगवान महावीर ज्ञातृवशी थे और उनकी माता लिच्छवि गणतंत्र प्रधान चेटककी पुत्री थी। ईसासे पूर्व छठी शताब्दीमें पूर्वीय भारत लिच्छवि राजवश महान और शक्तिशाली था । डा० याकोवीने लिख है कि जब चम्पाके राजा कुणिकने एक बड़ी सेनाके साथ रा चेटकपर आक्रमण करनेकी तैयारी की तो चेटकने काशी औ कौशलके अट्ठारह राजाओको तथा लिच्छवि और मल्लोको बुलाय और उनसे पूछा कि आप लोग कुणिककी मांग पूरा करना चाहते ! अथवा उससे लडना चाहते है ? महावीरका निर्वाण होनेपर इ घटनाकी स्मृतिमें उक्त अट्ठारह राजाओने मिलकर एक महोत्सव मनाया था ।'
"
इससे स्पष्ट है कि उस समयके प्रमुख राजवग प्रत्यक्ष य परोक्ष रूपसे महावीरसे प्रभावित थे ।
इसके सिवाय भगवान महावीरके ग्यारह प्रधान शिष्य ये जिनमे मुख्य गौतम गणधर थे । भगवान महावीरके पश्चात् उन शिष्योमेसे तीन केवल ज्ञानी हुए गौतम गणधर, सुधर्मास्वामी श्री जम्बूस्वामी । तथा इनके पश्चात् पाँच श्रुतकेवली हुए - विष्णु, न मित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु । अन्तिम श्रुत केवली मद्रव
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जनवर्म गधमे दुर्भिक्ष पड़नेपर एक बड़े जन संघके साथ दक्षिण देगको चले ये, जिसके कारण तमिल और कर्नाटक प्रदेगमें जैनधर्मका खूब सार हुमा। ___ अत. भगवान महावीरके पश्चात् जैनधर्मकी स्थितिका परिचय
रानके लिये उसे दो भागोमे वॉट देना अनुचित न होगा---एक त्तर भारतमें जैनधर्मकी स्थिति और दूसरा दक्षिण भारतमें जनमकी स्थिति ।
उत्तर भारतमे जैनधर्म उत्तर भारतके विभिन्न प्रान्तोमें जैनधर्मकी स्थिति तथा राजरानोपर उसके प्रभावका परिचय करानेसे पूर्व पूरी स्थितिका विहंवलोकन करना अनुचित न होगा। । विभिन्न वौद्ध इतिहासज्ञोके कथनसे पता चलता है कि बुद्ध नर्वाणके पश्चात् प्रथम शतीमें उत्तर भारतके विभिन्न स्थानोमें जैन होग प्रमुख थे। चीनी यात्री हुएनत्साग ईस्वी सन् की सातवी गतीमे गरत आया था। वह अपने यात्रा विवरणमें नालन्दा विहारका वर्णन करते हुए लिखता है कि एक निर्जन्य (जैन) साधुने जोज्योतिप विद्याका जानकार था, नये भवनकी सफलताकी भविष्यवाणी की थी। इससे प्रकट है कि उस समय मगध राज्यमें जैन धर्म फैला हुआ था। सैनधर्मकी उन्नतिका सूचक दूसरा मुत्य प्रमाण अगोककी प्रसिद्ध गोषणा है, जिसमें निम्रन्योंको दान देनेकी आज्ञा है। जो बतलाती है के अशोकके समयमें जैन-जो पहले निर्जन्यके नामसे त्यात थे योग्य माने जाते थे तथा इतने प्रभावशाली थे कि अनोक की राज्यघोषणा उनका मुख्य रूपसे निर्देश करना आवश्यक समझा गया।
उत्तर भारतसे जैनधर्मकी उन्नतिकी दृष्टिले कलिंगका नान उल्लेखनीय है। ईस्वी पूर्व दूसरी शताब्दीका प्रसिद्ध खारवेल शिलारेख कलिंगमें जैनधर्मकी प्रगतिको प्रमाणित करता है। श्री रगा - वामी आयंगरके मतानुसार वौद्धधर्मके प्रचारके प्रति अशोकने जो
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, इतिहास
उत्साह दिखलाया उसके फलस्वरूप जैनधर्मका केन्द्र मगधसे उठकर कलिंग चला गया जहाँ हुएनत्सागके समयतक जनधर्म फैला हुआ था। ___ खारवेल शिलालेखकी तरह ही प्रसिद्ध मथुराके शिलालेख प्रकट , करते है कि ईसाकी प्रथम शताब्दीसे बहुत पहलेसे मथुरा जैनधर्मका एक मुख्य केन्द्र था।
इस प्रकार भगवान महावीरके निर्वाणके पश्चात लगभग पांच शताब्दियो तक जैनधर्म उत्तर भारतके विभिन्न प्रदेशोमे बडी तेजीकप साथ उन्नति करता रहा । किन्तु सातवी शताब्दीके पश्चात्य उसका पतन प्रारम्भ हो गया।
आगे उत्तर भारतके प्रत्येक प्रान्तमे भगवान महावीरके बाद जनधर्मकी स्थितिका परिचय कराते हुए ऐसे राजवशो और प्रमुख राजाओका परिचय कराया जाता है, जिन्होने जैनधर्मको अपनाया या जिनके साहाय्यसे जैनधर्म फूला और फला । उससे पहले उत्तर भारतके प्रारभिक इतिहासका विहगावलोकन कराना अनुचित न होगा।
भगवान महावीरके समयमे मगधके सिंहासनपर शिशुनाग वशी राजा बिम्बसार उपनाम श्रेणिक विराजमान थे। उनका उत्तरा धिकारी उनका पुत्र अजात शत्रु (कुणिक) हुआ। अजात शत्रुन अपने नाना चेटकके राज्यपर आक्रमण करके वैशाली तथा लिच्छवि देशोको मगध साम्राज्यमे मिला लिया और राजगृहीके स्थानपर वैशालीको राजवानी बनाया। अजात शत्रुके पुत्र उदयनने पाटलीपुत्रको मगधकी राजधानी बनाया। इस वशके राज्यच्युत होनेपर नन्दवशका राज्य हुआ और चन्द्रगुप्त मौर्यने नन्दोका सिंहासन छीन लिया। ___चन्द्रगुप्तके बाद उसका पुत्र विन्दुसार गद्दी पर बैठा। और विन्दुसारके बाद उसका पुत्र अशोक पदासीन हुआ। अशोकके बाद उसके चार उत्तराधिकारी और हुए। अन्तिम मौर्यसम्राट वृहद्रथको ' उसके सेनापति पुष्यमित्रने मारकर सिंहासनपर कब्जा कर लिया और इस तरह शुंगवशका राज्य हुआ।
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जैनधर्म
अभी पुष्यमित्र मगध के सिंहासनपर जम भी न पाया था कि उसे तो प्रबल शत्रुमोका सामना करना पड़ा-उत्तर पश्चिमीय सीमा पान्तसे मनीन्द्रने उसके राज्यपर आक्रमण कर दिया और दक्षिणसे कलिंगराज खारवेलने । तीसरी पीढीके बाद शुगवश भी समाप्त हो गया। उसके बाद आन्ध्रोका राज्य हुआ जो दक्षिणी थे। ईसाकी चौथी शताब्दीके प्रारम्भमें आन्ध्रोके एक अधिकारीने ही जिसका नाम या उपाधि गुप्त थी, गुप्तवंशकी नीव डाली। अस्तु, भव प्रकृत विषय पर आइये।
१बिहारमें जैनधर्म बिहार तो भगवान महावीरकी जन्मभूमि, तपोभूमि और निर्वाण भूमि होनेके साथ-साथ कार्यभूमि भी रहा है। वहाँके रॉजघरानोसे महावीर भगवानका कौटुम्बिक सम्बन्ध भी था। फलत उनके समयमे और उनके बाद भी वहां जैनधर्मका अच्छा प्रसार हुमा और कई राजाओ और राजघरानोने उसे अपनाया, जिनमेंसे कुछका परिचय इस प्रकार है
राजा चेटक । जैनसाहित्यमे वैशालीके राजा चेटककी वडी ख्याति पाई जाती है। इसके कई कारण है। प्रथम तो यह राजा भगवान महावीरका महान उपासक था, दूसरे भगवान महावीरकी माता देवी त्रिशला राजा चेटककी पुत्री थी। राजा चेटकके आठ कन्याएं थी और उस समयके प्रमुख राजघरानोमे उनका विवाह हुआ था । सिन्धुसौवीर देशका राजा उदयन, अवन्तीनरेश प्रद्योत, कौशाम्बीका राजा शतानीक, चम्पाका राजा दधिवाहन, और मगधका राजा श्रेणिक (विबसार) ये सब राजा चेटकके जामाता थे । जनसाहित्यमे कुणिक और बौद्धसाहित्यमें अजातशत्रुके नामसे प्रसिद्ध मगधसम्राट तथा जैन, बौद्ध और ब्राह्मण सम्प्रदायक कथासाहित्यमें प्रसिद्ध वत्सराज उदयन, ये दोनो चेटक राजाके सगे दौहित्र थे। राजा चेटक भारतके तत्कालीन
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इतिहास गणसत्ताक राज्योमेसे एक प्रधान राज्यके नायक थे। वे जैन श्रावर थे, उन्होने प्रतिज्ञा ले रखी थी कि वे जैनके सिवा किसी दूसरेसे अपन कन्यामका विवाह न करेंगे। इससे प्रतीत होता है कि उक्त सब राज घराने जैनधर्मको पालते थे। राजा उदयनको तो जैनसाहित्या स्पष्ट रूपसे जनश्रावक बतलाया है । उदयनकी रानीने अपने महल एक चैत्यालय बनवा लिया था और उसमे प्रतिदिन जिन भगवानर्क पूजा किया करती थी। पहले राजा उदयन तापसर्मियोका भक्त थापीछे धीरे-धीरे जिन भगवानके ऊपर श्रद्धा करने लगा था।
स्व. डा० याकोबी लिखते है कि चेटक जैनधर्मका महान आश्रयदाता था। उसके कारण वैशाली जैनधर्मका एक सरक्षणस्था बना हुआ था। इसीसे बौद्धोंने उसे पाखण्डियोका मठ बतलाया है
राजा श्रेणिक -
(ई० पू० ६०१-५५२) __ भारतके इतिहासमें बहुत प्रसिद्ध मगवाधिपति राजा विम्बसार जैनसाहित्यमे श्रेणिकके नामसे अति प्रसिद्ध है। यह राजा पहले वौद्ध' भगवानका अनुयायी था । एक बार किसी चित्रकारने उसे एक राजकन्याका चित्र भेट किया । राजा चित्र देखकर मोहित हो गया। चित्रकारसे उसने कन्याके पिताका नाम पूछा तो उसे ज्ञात हुआ कि वह वैशालीके राजा चेटककी सबसे छोटी पुत्री चेलना है। श्रेणिकने राजा' चेटकसे उसे मांगा किन्तु चेटकने यह कहकर अपनी कन्या देनेसे इन्कार कर दिया कि राजा श्रणिक विधर्मी है और एक विधर्मीको वह अपनी कन्या नहीं दे सकता । तव श्रेणिकके वडे पुत्र अभयकुमारने कौशलपूर्वक चेलनाका हरण करके उसे अपने पिताको सौंप दिया। दोनो प्रेमपूर्वक रहने लगे। धीरे-धीरे चलनाके प्रयत्नसे राजा श्रेणिक जनवमंकी ओर आकृष्ट हुआ और भगवान महावीरका अनुयायी हो गया। वह महावीरकी उपदेश सभाका मुख्य श्रोता था। जन शास्त्रोके प्रारम्भमे इस बातका उल्लेख रहता है कि राजा श्रेणिक्के
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जनन
पूछनेपर भगवानने ऐसा कहा।धेणिकके चेलनाने कुणिक (मजातन) नामका पुत्र हुमा । जव कुणिक मगरके सिंहासन पर बैग तो उसने अपने पिता श्रेणिकको कैद करके एक पिंजरेमें बन्द कर दिया। एक दिन कुणिक अपने पुत्रको प्यार कर रहा था। उनकी माता चलना उसके पास बैठी हुई थी। उसने अपनी माताने कहा-"मां ! जैमा में अपने पुत्रको प्यार करता हूं, क्या कोई अन्य भी अपने पुत्रको वैसा प्यार कर सकता है। यह नुनकर चेलनाकी आँखोमें आँसू ला गये। कुणिकने इसका कारण पूछा तो चेलना बोली-पुत्र । तुम्हारे पिता तुम्हें बहुत प्यार करते थे। एक बार जब तुम छोटे थे तो तुम्हारे हायकी अंगुलीमें बहुत पीडा थी। तुम्हें रात्रिको नीद नही आती थी। 'तब तुम्हारे पिता तुम्हारी रस्त और पीवसे भरी हुई अंगुलीको अपने मुंहमें रखकर सोते थे क्योंकि इससे तुम्हें गान्ति मिलती थी।' यह सुनते ही कुणिकको अपने कार्यपर खेद हुआ और वह पिंजरा तोड़कर पिताको बाहर निकालनेके लिये कुल्हाड़ा लेकर दोडा । राजा श्रेणिकने जो इस तरह जाते हुए कुणिकको देखा तो समझा कि यह मुझे मारने आ रहा है। अत कुणिकके पहुँचनेके पहले ही पिंजरे में सिर मारकर मर गया। आजसे ८२ हजार वर्ष बाद जब पुन .तीर्थकर होने प्रारम्भ होगे तो राजा श्रेणिक जैनधर्मका प्रथम तीर्थदूर होगा।"
अजातशत्रु
(५५२-५१८ ई०पू०) । यद्यपि बौद्धसाहित्यमें अजातगत्रुके बौद्धधर्म अंगीकार करनेका - उल्लेख मिलता है, तथापि खोज करनेसे प्रतीत होता है कि अजातशत्रु । जनधर्मकी तरफ अधिक आकर्षित था। - स्व. डा० याकोबी जैनसूत्रोकी प्रस्तावनाम लिखते है
'अजातगाने अपने राज्यके प्रारम्भकालमे वौद्धोकी तरफ कोई । सहानुभूति नहीं दिखलाई थी। किन्तु बुद्धके निर्वाणसे ८ वर्ष
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इतिहास
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पहले वह बुद्धका आश्रयदाता बना था। किन्तु उस समय वह सद्भावनापूर्वक बौद्धधर्मानुयायी बना था, यह तो हम नही मान। सकते। कारण यह है कि जो मनुष्य खुली रीतिसे अपने पिताका खूनी था तथा अपने नानाके साथ जिसने लडाई लड़ी थी वह मनुष्य अध्यात्मज्ञानके लिये बहुत उत्सुक हो यह असंभव है। उनके धर्मपरिवर्तन करनेका क्या उद्देश्य था इसका हम सरलतासे अनुमान कर सकते है। बात यह है कि उसने अपने नाना वैशालीके राजाके : साथ युद्ध किया था। यह राजा महावीरका मामा (नाना) था और
जनोका संरक्षक था । इसलिये इसक ऊपर चढाई करनेके कारण अजातशत्रु जैनोको सहानुभूति खो बैठा। इससे उसने जैनोके प्रतिस्पर्धी बौद्धोके साथ मिलनेका निश्चय किया था।'
आगे डा० याकोबी लिखते हैं
'अजातशत्रु एक तो वैशालीको जीतनेमे सफल हुमा था, दूसरो उसने नन्दो और मौर्योक साम्राज्यका पाया खडा किया था। इसर • प्रकार मगध साम्राज्यकी सीमा बढनेसे जैन और बौद्ध दोनों। धर्मोके लिये नया क्षेत्र खुल गया था। इससे वे दोनो तुरन्त ही उस क्षेत्रमे फैल गये । जब दूसरे सम्प्रदाय स्थानीय और मा यी महत्त्व प्राप्त करके ही रह गये तव ये दोनोधर्म इतनी बड़ी सफलता प्राप्त करनम समर्थ हुए थे। इसका मुख्य कारण अन्य कुछ। नहीं, केवल यह मंगलकारी राजनैतिक संयोग था।' ___हमारे मतसे जैनो और बौद्धोकी सफलताका कारण केवल" राजनैतिक संयोग नही था, किन्तु फिर भी वह एक प्रवल कारण अवश्य था। अस्तु ।
नन्दवंश
(६० पू० ३०५) उदायीके बाद मगधके सिंहासनपर नन्दवंशका अधिकार हुमा ! महाराज खारखेलके शिलालेखसे पता चलता है कि महाराज नन्दने
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जनधर्म अपने राज्यकालमे कलिंग देशपर चढाई की थी। और वह कलिगके राजघरानसे श्रीऋषभदेवकी प्रतिमा उठाकर ले गये थे। इस घटनाके ३०० वर्ष वाद कलिगाधिपति खारवेलने जव मगधपर चढाई करके उसे जीत लिया तो मगधाधिपति पुष्यमित्रने वह प्रतिमा खारवेलको लोटाकर उसे प्रसन्न कर लिया । एक पूज्य वस्तुका इस प्रकार ३०० वर्ष क एक राजघरानेमे सुरक्षित रहना इस वातका साक्षी है कि न्दवशमे उसकी पूजा होती थी। यदि ऐसा न होता और नन्दवश निधर्मका विरोधी होता तो उक्त मूर्ति इस प्रकार सुरक्षित नही रहती। द्राराक्षस नाटकमें भी यह उल्लेख है कि चाणक्यने नन्द राजाके मत्री क्षसको विश्वास देकर फांसनेके लिये अपने एक चर जीवसिद्धिको पणक बनाकर भेजा था । और क्षपणकका अर्थ कोषग्रन्थोमे नग्न न साघु पाया जाता है । अत नन्दका मत्री राक्षस जैन था और जा नन्द भी सम्भवत जैन था।
मौर्यसम्राट चन्द्रगुप्त ।
(ई० पू० ३२०) मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त जैन थे। इनके समयमे मगधमे १२ वर्षका कर दुर्भिक्ष पड़ा था। उस समय ये अपने पुत्रको राज्य सौंपकर अपने गुरु जैनाचार्य भद्रबाहुके साथ दक्षिणकी ओर चले गये थे। और प्या करते हुए बारह वर्ष पश्चात् चन्द्र गिरि पर्वतपर मृत्युको त हुए थे। इस घटनाके पक्षमे अनेक प्रमाण पाये जाते है। अति तीन नगन्य तिलोयपण्णत्तिमें लिखा है
"मुकुटधारी राजाओम अन्तिम चन्द्रगुप्तने जिनदीक्षा धारण की। के पश्चात् किसी मुकुटधारी राजाने जिनदीक्षा नहीं ली।' पहले इतिहासज्ञ इस कथनकी सत्यतामे विश्वास करनेको र नहीं थे। किन्तु जब मैसूर राज्यमे श्रवणवेलगुल नामक के चन्द्रगिरि पर्वनपरके लेख प्रकागमे आये तो इतिहामजोको
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इतिहास उसे स्वीकार करना पड़ा। लेविस राइसने सर्व प्रथम इन शिला लेखोंकी खोजकी और उनका अनुवाद करके विद्वानोके लिये उन्हें सुलभ बना दिया। उनके इस मतका कि चन्द्रगुप्त जन था और वह दक्षिण आया था, मि० थामस जैसे प्रमुख विद्वानोने जोरस समर्थन किया। 'जैन धर्म अथवा अगोकका पूर्व धर्म' शीर्षक अपन रेखमे वह कहते हैं-'चन्द्रगुप्त जैन था' इस बातको लेखकोने स्वाभा विक घटनाके रूपमे लिया है और उसे इस रूपमे माना है जैसे वह एव ऐसी सत्य घटना है, जिसके लिये न तो किसी प्रमाण की आवश्यकता और न प्रदर्शन की। इस घटनाक लेख्य प्रमाण अपेक्षाकृत प्राचीन है और स्पष्ट रूपसे सन्देह रहित है। क्योकि उनकी सूचीमे अशोकक नाम नहीं है। अशोक अपने दादा चन्द्रगुप्तसे बहुत अधिक शक्ति गाली था और जैन लोग उसके सम्बन्धमे सयुक्तिक ढगस यह दाव कर सकते थे कि वह जैन धर्मका प्रबल समर्थक था । कही अशोक अपना धर्म परिवर्तन तो नही कर लिया था। मेगास्थिनीजकी साक्ष भी यही सूचित करती है कि चद्रगुप्तने श्रमणोकी धार्मिक शिक्षाओके स्वीकार किया था और ब्राह्मणोके सिद्धान्तोको वह नहीं मानत था ।" इस प्रकार साधारणतया विद्वान् इस विषयमे एकमत है वि चन्द्रगुप्त जैन था। ___चन्द्रगुप्तने राज्य त्याग दिया था और वह श्रवणवेल गोलामे जैन साधु होकर मरा, इस वातका समर्थन स्व० डा० वी० ए० स्मिथन अपने 'भारतका प्राचीन इतिहास' नामक ग्रन्थके प्रथम सस्करण किया था। चन्द्रगुप्तकी मृत्युका उल्लेख करते हुए मि० स्मिथ कहर है कि-'चन्द्रगुप्त छोटी अवस्था में ही राजसिंहासन पर बैठ गय था और चुकि उसने केवल चौबीस वर्ष राज्य किया। अत ५८ वर्षकी अवस्थासे पूर्व अवश्य ही उसका मरण हो जाना चाहिये
१ जर्नल आफ दी रायल सिरीज, लेख ८ । २ स्टडीज इन साउथ इन्डियन जैनिज्म, पृ० २२ ।
में ही राज्य किया। चाहिये
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जैनधर्म
इस प्रकार उसकी मृत्युके समय के विषयमे अनिश्चितताका वाताविरण है । इतिहासन हमें यह नहीं बतलाते कि वह कैसे मरा । यदि ज्वह युद्ध स्थलमें मरा होता या अपने जीवन के सुदिनोंमें मरा होता तो • इस घटनाका उल्लेख होता । लेविस राईसके द्वारा खोज निकाले
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ये श्रardenian शिलालेखोet अविश्वसनीय मानना जनोकी र समस्त परम्परा और उल्लेखोको अविश्वसनीय मानना है । और एक इतिहास के लिये इतनी दूर जाना बहुत अधिके आपत्तिजनक है | ऐसी स्थितिमें लेविस राईसके साथ यदि हम यह विश्वास करें कि चन्द्रगुप्त जैन व्रतोंको धारण करके महान भद्रवाहके साथ चन्द्रगिरि पर्वत पर चला गया था तो क्या हम गल्ती पर है ?"
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अपनी पुस्तके दूसरे संस्करणमें स्मिथने अपने उक्त मतमे परिवर्तन कर दिया था किन्तु तीसरे संस्करणमें उन्होने अपनी भूल स्वीकार करते हुए लिखा
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'मुझे अब विश्वास हो मुख्य-मुख्य बातोमें यथार्थ है कर जैन मुनि हुए थे ।'
चला है कि जैनोका यह कथन प्राय और चन्द्रगुप्त सचमुच राज्य त्याग
स्व० के० पी० जायसवालने लिखा है'
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'कोई कारण नही हैं कि हम जैनियो के इस कथनको कि चन्द्रगुप्त अपने राज्य के अन्तिम दिनोमें जैन हो गया था और पीछे राज्य छोडकर जिन दीक्षा ले मुनिवृत्तिसे मरणको प्राप्त हुआ, न माने । मे पहला ही व्यक्ति यह माननेवाला नही हूँ । मि० राईसने, जिन्होने श्रवणबेलगोला
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के शिलालेखका अध्ययन किया है, पूर्ण रूपसे अपनी सम्मति इसी पक्ष
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में दी है। और मि० वि० स्मिथ भी अन्तमें इसी मतकी ओर झुके है ।' x
सम्राट अशोक
( ई० पू० २७७ }
सम्राट् अशोक चन्द्रगुप्त मौर्यका पौत्र था। जैन ग्रन्थोमे इसके
१ जर्नल आफ दी बिहार उडीमा रिमर्च मोनायटी, जिल्द ३ ।
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इतिहास जैन होनेके प्रमाण मिलते है। कुछ विद्वानोका मत है कि अशोष पहले जैनधर्मका उपासक था, पीछे बौद्ध हो गया। इसम एक प्रम ' यह दिया जाता है कि अशोकके उन लेखोमें जिनमे उसक स्पष्टत बौद्ध होनेके कोई संकेत नही पाये जाते, बल्कि जैन सिद्धान्तोके है भावोका आधिक्य है, राजाका उपनाम 'देवानापिय पियदसी' ५० जाता है। देवनापिय' विशेषत. जनग्रन्थोमे ही राजाकी उपाधि पाई जाती है। पर अशोकके २२ वे वर्षकी भावराकी प्रशस्तिम जिसमें उसके बौद्ध होनेके स्पष्ट प्रमाण है, उसकी पदवी केवर 'पियदसि' पाई जाती है, 'देवाना पिय' नही। इसी बीचमे वह जैनर बौद्ध हुमा होगा। विद्वानोका यह भी मत है कि अशोकने अहिंसावं विषयमे जो नियम प्रचारित किये थे वे बौद्धोकी अपेक्षा जनार अधिक मिलते हैं। जैसे, वहुतसे पक्षियो और चौपायोका, जो वि न भोगमे आते है न खाये जाते है, मारना वर्जित करना, केवल अनर्थ और विहिंसाके लिये जगलोको जलानेका निषेध करना और कुछ खास तिथियो और पर्वोपर जीवहिंसाको बन्द कर देना आदि । प्रो कर्नलने, जो बौद्धशास्त्रोके बहुत बड़े अधिकारी विद्वान् माने जाते रहे है यह स्वीकार किया है कि अशोककी राज्यनीतिमें बौद्धप्रभा खोजने पर भी नहीं मिलता। उसकी घोषणाएं,जो मितव्ययी जीवनसे सम्बद्ध है-बौद्धोकी अपेक्षा जैन विचारोसे अत्यधिक मेल खाती है ।
सम्राट सम्प्रति
(ई० पू० २२०) "सम्प्रति अशोकका पौत्र था। इसे जैनाचार्य सुहस्तीने उज्जैनमे जैनधर्मकी दीक्षा दी थी। उसके बाद सम्प्रतिने 'जैनधर्मके लिये वही
१. इन्डियन ए टीक्वेरी, जिल्द ५ में। २. 'अरली फेथ ऑफ अशोक ।' ३. देखो-भारतीय इतिहासकी रूपरेखा, पृ.० ६१६ ।
जिनप्रम सूरिन पाटलिपुत्र कल्पग्रन्थम एक स्थानपर लिखा है"कुणालसूनुस्त्रिखण्डभरताधिप. परमाहतो अनार्यदेशेष्वपि प्रवर्तितश्रमण
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जनधर्म
म किया जो अशोकने बौद्धधर्मके लिए किया। उत्तर पश्चिमके नार्यदेशोंमे भी सम्प्रतिने जनधर्मके प्रचारक भेजे और वहाँ जैन
ओके लिये अनेक विहार स्थापित किये। अशोककी तरह उसने । अनेक इमारते बनवाई। राजपूतानाकी कई जैन रचनाएं उसी
समयकी कही जाती है। कुछ विद्वानोका मत है कि जो शिलालेख व अगोकके नामसे प्रसिद्ध है, सम्भवत वे सम्प्रतिने लिखवाये थे।
इस प्रकार महावीर स्वामीसे लेकर चार सौ वर्ष तक जैनधर्मी राजा श्रेणिक और महाराज चन्द्रगुप्त मौर्य तथा उनकी सन्तानोके मयमे भारत और उसके बाहर भी जैनधर्मका खूब प्रचार रहा । सके बाद मोय साम्राज्यका ह्रास होना प्रारम्भ हुआ और उसके न्तिम सम्राट् बृहदथको उसके ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्रन मारकर जिदण्ड अपने हाथमे ले लिया। इसने श्रमणोपर बड़ा अत्याचार कया। उनके विहार और स्तूप नष्ट कर दिये।
२. उड़ीसा में जैनधर्म कलिंग चक्रवर्ती खारवेल ।
( ई०पू० १७४ ) कलिंगमें बहुत प्राचीन कालसे जैनधर्मकी प्रवृत्ति थी। इ० पू० १२४ के लगभग मगधसम्राट् नन्द कलिंगको जीतकर वहाँसे प्रथम जनकी मूर्ति मगर ले गया था। सम्राट् सम्प्रतिके समय वहाँ चेदिव
का पुन राज्य हुआ, इसी वगका प्रसिद्ध सम्राट् खारवेल था । कलिंग चक्रवर्ती महाराजा खारवेलको उस युगकी राजनीतिमे सबसे। अधिक महत्वका व्यक्ति माना जाता है। इनके हाथीगुम्फामे पायवहार सम्प्रति महाराजाऽसी अभवत् ।" इसका भाव यह है कि कुणालका इन महाराज सम्प्रति हुआ, जो भारतके तीन खण्डीका स्वामी था, सहन्त
गवानका मक्त-जैन था और जिमने जनाय देशोंमें भी श्रमणो-जैन मनियोकाविहार कराया था।
१. देगो भारतीय इतिहानकी रूपरेखा, पृ० ७१५॥
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इतिहास गये शिलालेखका उल्लेख पहले किया गया है। उस लेखके अनुसा खारवेल जैन था। बल्कि उड़ीसाका सारा राष्ट्र उस समय मुख्यत जैन ही था। स्व० के० पी० जायसवाल लिखते है
'जैनधर्मका प्रवेश उड़ीसामे शिशुनागवंशी राजा नन्दवर्धन समयमे हो गया था। खारवेलके समयसे पूर्व भी उदयगिरि पर्वतपा' अर्हन्तोके मन्दिर थे, क्योंकि उनका उल्लेख खारवेलके लेखमे आय । है। ऐसा प्रतीत होता है कि खारवेलके समयमे जैनधर्म कई शता ब्दियो तक उडीसाका राष्टीय धर्म रह चुका था।' _____ महाराजा खारवेलने १५ वर्षकी अवस्थामे युवराज पद प्राप्त किया और २४ वर्षको अवस्थामे इनका महाराज्याभिषेक हुआ से उसके बाद दूसरे ही वर्ष उसने सातकणिकी परवाह न करके पश्चिम देशको अपनी सेना भेजी और उस सेनाने मूषिक नगरको परास्त किया। चौथे वर्ष खारवेलने फिर पश्चिमपर चढाई की अर' रठिकोके भोजक अपने मुकुट और छत्र-श्रृङ्गार छोडकर उसके चरणो पर झुकनेको बाध्य हुए। वास्नीका यवनराजा एक भारी सेना ले मध्यदेशपर चढ आया। खारवेलने आगे बढ़कर दिमितको निकाल भगाया। मध्यदेशसे यवनोंको पूरी तरह खदेडनेका श्रेय खारवेलको ही है। वारहवे वर्षमे उसने पञ्जावपर चढ़ाई की। सातकर्णीके, राज्यपर दो चढाइयाँ करने और यवनराज दिमितको मध्यदेशसे निकाल भगानेके बाद खारवेल अपने समयके सब भारतीय राजाओमे प्रमुख माना जाने लगा। अभी तक उसने अपने देश कलिंगके पच्छिमी पडोसी राज्य मूपिक और महाराष्ट्रपर तथा उत्तर पडोसी राज्य मगधपर चढाइयों की थी। अब उसने उत्तर और दक्खिनमे दूर दूर तक दिग्विजय करना शुरू किया। उसकी शक्ति भारतके अन्तिम छोरो तक पहुंच गई । बारहवे वर्ष उसने उत्तरापथके राजामोको त्रस्त किया। मगधपर चढ़ाई करके मगधके राजा पुष्यमित्रको पैरो गिर
१ ज० वि० उ०रि० सो० जिल्द ३, पृ० ४४८ । -
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या। राजा नन्दकी ल गइहुई कलिग जिनमतिको स्थापित किया। स महाविजयके बाद, जब कि शुंग और सातवाहन तथा उत्तरापथके' । विन सव दब गये, खारवेलने जैनधर्मका महा अनुष्ठान किया । उन्होने भारतवर्ष भरके जैन यतियो, जैन तपस्वियो, जैन ऋषियों और पडितोको बुलाकर एक धर्म-सम्मेलन किया। जनसंघने खारवेलको महाविज्यों की पदवीके साथ खेमराजा', 'भिनुराजा और धर्मराजाकी पदवी दी। इसके समयमे जैनधर्मका बड़ा उत्कर्ष हुआ। ___ इस शिलालेखमें सं० १६५ दिया है, जिसे स्व० जायसवालने नार्य सम्वत् सिद्ध किया है, जो कि महाराज चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहणकाल (ई० पू० ३२१) से चला होगा । एक स्वतंत्र राजाने इसरे राजाके चलाये हुए सम्वत्का उपयोग क्यो किया? इसके उत्तरम' जायसवालजीका कहना है कि चन्द्रगुप्त मौर्यका जैन होना जननन्थों वशिलालेखोंसे सिद्ध है। अत एक जैन राजाके चलाये हुए सम्वत्का दूसरा जैन राजा उपयोग करे तो इसमे आश्चर्य क्या है ? ___ इस प्रकार विहार व उडीसा, महावीरके पश्चात् भी जैनधर्मका खूब उत्कर्ष हुआ। ईस्वी ३०८ में पाटलीपुत्र नगरके पास एक गांवके छोटेसे राजा चन्द्रगुप्तको लिच्छविक्राको क्न्या कुमारदेवी व्याही थी। यह लिच्छविवश वरणालीके राजा उसी चेटकका वंश है जिनकी कन्वानोसे महावीर स्वामीके पिता राजा सिद्धार्थ और मगवके राजा श्रेणिक वगैरहका विवाह हुआ था। चन्द्रगुप्तने एसे महान वंशकी कन्यासे विवाह होनेको अपना बहुत भारी गौरख माना । वास्तवमें इस सम्बन्धके प्रतापसे ही वह महाराज हो गग। उसने अपने सिक्कोपर लिच्छवियोंकी वेटीके नामसे अपनी स्त्रीको भी मूर्ति वनवाई। उसकी सन्तान बड़े गर्वसे अपनेको लिच्छवियोका दौहित्र कहा करती थी। किन्तु चन्द्रगुप्तने एक बौद्ध सावुके उपदेगसे वौद्धधर्म ग्रहण कर लिया, और उसके पुत्र समुद्रगुप्तने ब्राह्मणधर्म स्वीकार करलिया। फिर भी ई० नं० ६२९ में आये चीनी यात्री हुएनत्सांगने
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इतिहास वैशाली, राजगृह, नालंदा और पुण्डवर्द्धनमे अनेक निर्ग्रन्थ साधुओंक देखा था। वह कलिंग देशको जैनोका मुख्य स्थान कहता है। इस स्पष्ट है कि खारवेलके वाद भी इतने सुदीर्घ कालतक जैनधर्म कलिंग बना रहा। सम्राट् खारवेलके बाद ऐसा प्रतापशाली जैन राज अन्य नहीं हुआ। यद्यपि जैनधर्म प्राय सभी राजवशोके समयमे फला फूला, और अनेक अन्य राजाओने से साहाय्य भी दिया, किन्तु जिन हम पूरी तरहसे जैन कह सकें ऐसे राजा कम ही हुए। च
३. बङ्गालमें जैनधर्भ किन्ही विद्वानोकी दृष्टिसे जैनधर्मका आदि और पवित्र स्थान मगध और पश्चिम बंगाल समझा जाता है। एक सनय वगाल बौद्धधर्मकी अपेक्षा जैनधर्मका विशेष प्रचार बतलाया जाता है। वहाँके मानभूम, सिंहभूम, वीरभूम और बर्दवान जिलोका नामकरण भगवान महावीर और उनके वर्वमान नामके आधारपर ही हुआ है । जर क्रमश जैनधर्म लुप्त हो गया तो बौद्ध धर्मने उसका स्थान ग्रहण किया बंगालके पश्चिमी हिस्सेमे जो सराक जाती पाई जाती है वह जो श्रावकोंकी पूर्वस्मृति कराती है। अव भी बहुतसे जैनमन्दिरोव ध्वंसावशेष, जैनमूर्तियाँ, शिलालेख वगैरह जैन स्मृतिचिह्न बगालव भिन्न-भिन्न भागोमें पाय जाते हैं। श्रीयुत के० डी० मित्राकी खोज फलस्वरूप सुन्दरवनके एक भागसे ही दस जैनमूर्तियां प्राप्त हुई है। वाँकुरा और वीरभूम जिलोमे अभी भी प्राय जन प्रतिमाबोके मिलने का समाचार पाया जाता है। श्री राखलदास वन ने इस क्षेत्र तत्कालीन जैनियोका एक प्रधान केन्द्र बताया था। सन् १९४० ने पूर्व बंगालके फरीदपुर जिलेक एक गाँवमे एक जैनमूर्ति निकली थी जो: फीट ३ इचकी है। बंगालके कुछ हिस्सोंमें विराट जनमूर्तियाँ मर५८ नामसे पूजी जाती है। वांकुडा, मानभूम वगैरह स्थानोमें औ देहातोमे आजकल भी जैनमन्दिरोके ध्वसावशेष पाये जाते है मानभूममें पंचकोटके राजाके अधीनस्थ अनेक गांवो विशाल जैन
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जैनधर्म
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तियोकी पूजा हिन्दू पुरोहित या ब्राह्मण करते है । वे भैरवके नामसे कारी जाती है, और नीच या शूद्र जातिके लोग वहाँ पशुबलि भी करते है । इन सब मूर्तियो के नीचे अब भी जैनलेख मिल जाते है । इस प्रकारकी एक लेखयुक्त मूर्ति स्व० राखलदास बनर्जी पंचकोटके महाराजाके यहाँसे ले गये थे ।
शान्तिनिकेतनके आचार्य क्षितिमोहनसेन' लिखते है
'परीक्षा करनेसे बंगालके धर्ममें, आचारमें और व्रतमे जैनवर्मका भाव दृष्टिगोचर होता है। जैनोके अनेक शब्द बंगालमें प्रचलित है । प्राचीन वगाली लिपिके बहुतसे गन्द विशेष तोरसे युक्ताक्षर देवनागरी के साथ नही मिलते, परन्तु प्राचीन जैनलिपिसे मेल खाते हैं ।' ४ गुजरात में जैनधर्म
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'गुजरातके साथ जैनधर्मका सम्वन्ध बहुत प्राचीन है । २२ बें तीर्थङ्कर श्रीनेमिनाथने यहीके गिरनार पर्वत पर जिनदीक्षा लेकर मुक्तिलाभ किया था । यहाँकी ही वल्मी नगरीमें वीर निर्वाण उम्वत् 883 में एकत्र हुए खेताम्बर संघने अपने आगमग्रन्थोको व्यवस्थित करके उनको लिपिबद्ध किया था। जैसे दक्षिण भारतमे "दगम्बर जैनोका प्राबल्य रहा है, लगभग वसे ही गुजरातमे श्वेतास्वर जैनोंका प्राबल्य रहा है ।
गुजरातमे भी अनेक राजवश जैनधर्मावलम्बी हुए है । राष्टकूटोका राज्य भी गुजरातमें रहा है। गुजरातके संजान स्थानसे प्राप्त एक शिलालेख में अमोघवर्ष प्रथमकी प्रशंसा की गई है तथा "अमोघवर्षके गुरु श्री जिनसेनने अपनी जयधवला टीकाकी प्रशस्तिमे
१. विश्ववाणीका जैन सस्कृति अंक, पू० २०४ |
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२. Architecture of Ahamdabad में लिखा है कि-- यह मालूम नहीं कि जैनधर्म गुजरात में पैदा हुआ या कहोंते नाया, किन्तु जहाँतक इमारा ज्ञान जाता है यह प्रान्त इस धर्मका बहुत उपयोगी वर व मुल्य ध्यान रहा है ।'
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इतिहास अमोघवर्षका उल्लेख 'गुर्जरनरेन्द्र" नामसे किया है। इससे स्पष्ट कि अमोघवर्षने गुजरातपर भी गासन किया और उसके राज्यमे जीप धर्म खूब फूला फला। ___राष्ट्रकूटोके हाथसे निकलकर गुजरात पश्चिमी चालुक्योके अछि। कारमे चला गया। फिर चावडावंशी वनराजने इसपर न. अधिकार कर लिया। इस वनराजका लालनपालन एक जनसाधुव देखरेखमे हुआ था। जिसके प्रभावसे यह जैनधर्मी हो गया। जा इस राजाने अणहिलवाडाकी स्थापना की तब उसमे जैनमत्रोका हस उपयोग किया गया था तथा इसने एक जैनमन्दिर भी उस नगर बनवाया था। चावड़ावंशसे निकलकर गुजरात पुन. चालुक्योके अदि कारमे चला गया। ये लोग भी जैनधर्म पालते थे। इनके जयर राजा मूलराजने अणहिलवाड़ामे एक जैनमन्दिरका निर्माण कराया भीम प्रथमके समयमे उसके सेनापति विमलने आबू पर्वतपर प्रा., जैनमन्दिर बनवाया जिसे "विमलवसही' कहते है । सिद्धराज जयसिंह बहुत प्रसिद्ध राजा हुआ है। इसपर जैनाचार्य हेमचन्द्रका वडा प्रमा था। इसीके नामपर आचार्यने अपना सिद्धहेम व्याकरण रचा यद्यपि इसने जैनधर्मको अंगीकार नहीं किया, किन्तु आचार्यके कहने, सिद्धपुरमें महावीर स्वामीका मन्दिर बनवाया और गिरनार पर्वत यात्रा भी की।
जयसिंहके बाद कुमारपाल गुजरातकी राजगद्दीपर बैठा। इस पर हेमचन्द्राचार्यका बहुत प्रभाव पड़ा और इसने धीरे-धीरे जैनध स्वीकार कर लिया। उसके बाद इस राजाने मांसाहार और सकार भी त्याग कर दिया, तथा अपने राज्यमे भी पशुहिंसा, मांसाहार औ मद्यपानका निषेध कर दिया। कसाइयोको तीन वपकी आय पेरा। दे दी गई। ब्राह्मणोंको यजमे पशुके वदले अनाजसे हवन करने आज्ञा दी। इसने अनेक जैनतीर्थोकी यात्रा की, अनेक जनमन्दिरोद
१. देखो-जयववला १ खं० की प्रस्तावना, पृ० ७४।
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जैनधर्म र्माण कराया। इसके समयमें आचार्य हेमचन्द्रने अनेक ग्रन्थोंकी चना की।
चालक्योका अस्त होनेपर १३ वी शताब्दीमे वघेलोका राज्य आ। इनके समयमें वस्तुपाल और तेजपाल नामक जैन मंत्रियोने बूके प्रसिद्ध मन्दिर वनवाये तथा शत्रुजय और गिरनारपर भी नमन्दिर बनवाये । इस प्रकार गुजरातमे भी राजाश्रय मिलनेसे जैनमकी बहुत उन्नति हुई।
इस तरह भगवान महावीरके पश्चात् विहार, उड़ीसा, तथा जरात वगैरहमे लगभग २००० वर्ष तक जैनधर्मका खूब अभ्युदय आ। इस कालमें अनेक प्रभावशाली जैनाचार्योने अपने उपदेशो और स्वार्थोके द्वारा जैनधर्मका प्रभाव फैलाया। अकेले एक समन्तभद्रने ही मस्त भारतमे घूम-घूम कर अनेक राजदरवारोको अपनी वक्तृत्व शक्ति और प्रखर तार्किक बुद्धिसे प्रभावित किया था । अन्य प्रान्तोमे भी लाये जानेवाले जैन स्मारकोसे जैनधर्मके विस्तारका सबूत मिलता है।
५ राजपूतानेमें जैनधर्म । स्व. ओझाजीने अपने राजपूतानेके इतिहासमे लिखा है कि मजमेर जिलेके वर्ली नामक गांवमें वीर सम्वत् ८४ (वि० स० २८६ पूर्व-ई० स० ४४३ पूर्व) का एक शिलालेख मिला है जो जिमेरके म्यूजियममे सुरक्षित है। उस परसे यह अनुमान होता है क लशोकसे पहले भी राजपूतानेमे जैनवर्मका प्रसार था। जैन ग्सकोका यह मत है कि राजा सम्प्रतिने, जो अशोकका वराज था, जैनमिकी खूब उन्नति की और राजपूताना तथा उसके आसपासके प्रदेगमे से उतने अनेक जैनमन्दिर बनवायें। वि० स० की दूसरी शताब्दीमे ने मधुराके ककालो टीलाके जैन स्तूपसे तथा वहीके कुछ अन्य स्थानोले गप्न प्राचीन शिलालेखो और मूनियोसे मालूम होता है कि उन ‘मय राजपूतानेमे भी जैनधर्मका अच्छा प्रचार था।
.प्र.ग.प.० १०-११॥
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जैनधर्म
कलचुरी राजधानी त्रिपुरी और रतनपुर में अब भी अनेक प्राचीन न मूर्तियाँ और खण्डहर विद्यमान है ।
इस प्रान्तमे जैनो के अनेक तीर्थ है-वैतूल जिलेमे मुक्तागिरि, गर जिलेमें दमोहके पास कुण्डलपुर और निमाड जिलेमें सिद्धवर
अपने प्राकृतिक सौन्दर्यके लिये भी प्रसिद्ध है । भेलसाक मीपका 'वीसनगर' जैनियोका बहुत प्राचीन स्थान है। शीतलनाथ रकी जन्मभूमि होने से वह अतिशय क्षेत्र माना जाता है । जैनन्यो में इसका नाम भद्दलपुर पाया जाता है ।
वुन्देलखण्ड मे भी अनेक जैनतीर्थ है जिनमें, सोनागिर, देवगढ, नागिर, और द्रोणगिरिका नाम उल्लेखनीय है। खजुराहाके प्रसिद्ध नमन्दिर आज भी दर्शनार्थियोको आकृष्ट करते है । सतरहवी ताब्दी से यहाँ जैनधर्मका ह्रास होना आरम्भ हुआ । जहाँ किसी समय लाखो जैनी थे वहाँ अब जैनधर्मका पता जैन मन्दिरोके खण्डहरों और टूटी फूटी जैन मूर्तियोसे चलता है ।
७. उत्तर प्रदेशमें जैनधर्म
उत्तर प्रदेशमे जैनधर्मका केन्द्र होनेकी दृष्टिसे मथुराका नाम उल्लेखनीय है । यहाँके कंकाली टीलेसे जो लेख प्राप्त हुए है वे ई० पू० २री शताब्दी से लेकर ई० स० ५वी शताब्दी तकके है, और इस तरह ये बहुत प्राचीन है । इनसे पता चलता है कि इतने सुदीर्घ काल तक मथुरा नगरी जैनधर्मका प्रधान केन्द्र थी । जैनधर्मके इतिहासपर इन शिलालेखोसे स्पष्ट प्रकाश पडता है । इनसे पता चलता है कि जैनधर्मके सिद्धान्त ओर उसकी व्यवस्था अति प्राचीन है । यहाँके प्राचीनतम गिलालेखसे भी यहाँका स्तूप कई शताब्दी पुराना है इसके सम्बन्धमें फुहरर सा० 'लिखते है
'यह स्तूप इतना प्राचीन है कि इस लेख के लिखे जानेके समय स्तूपका आदि वृत्तान्त लोगोको विस्मृत हो चुका था ।'
१. म्यूजियम रिपोर्ट, १८६०-६१ ।
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इतिहास असलमे उत्तर प्रदेशमे जैनधर्मका इतिहास अभी तक अन्धकार है। इसलिये उत्तर प्रदेशके राजाओंका जैनधर्मके साथ कैसा सम्वन था यह स्पष्ट रूपसे नहीं कहा जा सकता। फिर भी उत्तर प्रदेशमे सर्व जो जैन पुरातत्त्वकी सामग्री मिलती है उससे यह पता चलता है कि कभी यहाँ भी जैनधर्मका अच्छा अभ्युदय था, और अनेक राजाओर उसे आश्रय दिया था। उदाहरणके लिये हर्षवर्द्धन वडा प्रताप' राजा था। लगभग समस्त उत्तर प्रदेशमें उसका राज्य था। इसन पाँच वर्ष तक प्रयागमे धार्मिक महोत्सव कराया। उसमे उसन जैनधर्मके धार्मिक पुरुषोका भी आदर सत्कार किया था। __ जो राजा जैनधर्मका पालन नहीं करते थे, किन्तु जैनधर्मके मार्ग बाधा भी नहीं देते थे, ऐसे धर्मसहिष्णु राजाओके कालमे जैनधर्मक, खूब उन्नति हुई। समग्र उत्तर और मध्य भारतके सभी प्रदेशोमे पार्य जानेवाले जैनधर्मके चिह्न इसके साक्षी है। उत्तर प्रदेशके जिन. जिलोमे आज नाममात्रको जैनी रह गये है उनमे भी प्राचीन जैन चिह्न पाये जाते है। उदाहरणके लिये गोरखपुर जिलेमे तहसील देव रियाम कुहाऊं, व खुखुन्दोके नाम उल्लेखनीय है । इलाहावादसे दक्षिण पश्चिम ११ मीलपर देवरिया और भीतामे बहुतसे पुरातन खण्डित स्थान है। कनिग्धम सा० का कहना है कि यहाँ जादोवशके उदयन राजा रहते थे, जो जैनधर्म पालते थे। उन्होने श्री महावीर स्वामीकी एक प्रसिद्ध मूर्तिका निर्माण कराया था, जिसे लेने के लिए। उज्जैनके राजा और उदयनसे एक बडा युद्ध हुआ था।
वलरामपुर ( अवध ) से पश्चिम १२ मीलपर 'सहेठ महे नामका स्थान है। यहाँ खुदाई की गई थी। यह स्थान ही श्रावस्ती नगरी है। इसके सम्बन्धमे डा० फुहररने अपनी रिपोटमे लिखा है कि ११ वी गताब्दीमे श्रावस्तीम जैनधर्मकी बहुत उन्नति थी क्योकि खुदाईमे तीर्थरोकी कई मूर्तियां, जिनपर सवत् १११२ से ११३३ तक खुदा है यहाँ प्राप्त हुई है । सुहृद्ध्वज श्रावस्तीके जैन
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जनधर्म
Tा जाता है। जनमुतिया २७ भोपडा फहरका गया।
जाओ अन्तिम राजा था। यह महमूद गजनीके समयमे हुआ था। । बरेली जिलेमे अहिच्छत्र नामका एक जैन तीर्थस्थान है। इस पर राज्य करनेवाला एक मोरध्वज नामका राजाहो गया है जो जैन तिलाया जाता है। यहां किसी समय जैनधर्मकी बहुत उन्नति थी। यहाँ अनेक खेडे है जिनसे जनमूर्तियां मिली है। । इसी तरह इटावासे उत्तर दक्षिण २७ मीलपर परवा नामका एक स्थान है जहाँ जैनमन्दिरके ध्वस पाये जाते है। डा० फहररका कहना है कि किसी समय यहाँ जैनियोका प्रसिद्ध नगर आलभी वसा था। वालियरके किलेमे विशाल जैनमूतियोकी बहुतायत वहाँके प्राचीन राजघरानोका जैनधर्मसे सम्वन्ध सूचित करती है। । इस प्रकार उत्तर भारतमें जैन राजाओका उल्लेखनीय पता न चलने पर भी अनेक राजामोका जैनधर्मसे सहयोग सूचित होता है और पता चलता है कि महावीरके पश्चार उत्तर भारतमे भी जनवर्म खूब फूला फला।
८. दक्षिण भारतमें जैनधर्म । उत्तर भारतमे जैनधर्मकी स्थितिका दर्शन करानेके पश्चात् दक्षिण भारतमे आते है । चन्द्रगुप्त मौर्य के समयमें उत्तर भारतमे १२ वर्षका भयंकर दुर्भिक्ष पडनेपर जैनाचार्य भद्रवाहुने अपने विशाल जनसंघके 'साथ दक्षिण भारतकी ओर प्रयाण किया था। इससे स्पष्ट है कि दक्षिण भारतमे उस समय भी जैनधर्मका अच्छा प्रचार था और भद्रबाहुको पूर्ण विश्वास था कि वहां उनके सघको किसी प्रकारका कष्ट न होगा। यदि ऐसा न होता तो व इतने बड़े संघको दक्षिण भारतकी ओर ले जानेका साहस न करते। जैन संघकी इस यात्रासे दक्षिण भारतमें जैनधर्मको और भी अधिक फलने और फूलनेका अवसर' मिला।
श्रमण संस्कृति वैदिक संस्कृतिसे सदा उदार रही है, उसमें भाषा और अधिकारका वैसा बन्धन नहीं रहा जैसा वैदिक संस्कृतिमे
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इतिहास
पाया जाता है। जैन तीर्थ रोने सदा लोकभाषाको अपने उपदेशक माध्यम बनाया | जैनसाघु जैनधर्मके चलते फिरते प्रचारक होते है वे जनता से अपनी शरीरयात्राके लिये दिनमे एक बार जो रूखा-सूख किन्तु शुद्ध भोजन लेते है उसका कई गुना मूल्य वे सत्शिक्षा औ सदुपदेशके रूपमे जनताको चुका देते है और शेष समय में साहित्यक सृजन करके उसे भावी सन्तानके लिये छोड़ जाते है । ऐसे कर्मट और जनहित- निरत साधुओका समागम जिस देशमें हो उस देशम उनके प्रचारका कुछ प्रभाव न हो यह संभव नही । फलतः उत्त भारतके जैनसंघकी दक्षिण यात्राने दक्षिण भारतके जीवनमे एव क्रान्ति पैदा कर दी । उसका साहित्य खूब समृद्ध हुआ और वह जैनाचार्योकी खनि तथा जैन संस्कृतिका संरक्षक और सवर्धक वन गया
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१
जैनधर्मके प्रसारको दृष्टिसे दक्षिण भारतको दो भागोमे बाँट' जा सकता है - तमिल तथा कर्नाटक । तमिल प्रान्तमें चोल और पांड्यनरेशोने जैनधर्मको अच्छा आश्रय दिया । खारवेल) शिलालेखसे पता चलता है कि सम्राट् खारवेलके राज्याभिषेकव अवसरपर पांड्यनरेशने कई जहाज उपहार भरकर भेजे थे
}
१. प्रो० राम स्वामी आयंगर अपनी 'स्टडीज़ इन साउथ इण्डियन जैनिज्म पुस्तकमें लिखते हैं- 'सुशिक्षित जैन साधू छोटे-छोटे समूह बनाकर समस्त दक्षिण भारतमें फैल गये और दक्षिणकी भाषामोमें अपने धार्मिक साहित्यका निर्मा करके उसके द्वारा अपने धार्मिक विचारोंको धीरे-धीरे किन्तु स्थायी रूपर जनतामें फैलाने लगे । किन्तु यह कल्पना करना कि ये साधु साधारणतया लौकि कार्योंमें उदासीन रहते थे, गलत है। एक सीमातक यह सत्य है कि ये संसार ' सम्वद्ध नही होते थे । किन्तु मेगास्थनीज के विवरणसे, हम जानते है कि ईस्ट • पूर्व चतुर्थ शताव्दीतक राजा लोग अपने दूतोंके द्वारा बनवासी जैन श्रमण राजकीय मामलो में स्वतंत्रतापूर्वक सलाह-मशविरा करते थे । जैन गुरुमोन राज्य की स्थापना की थी, और वे राज्य गताब्दियों तक जैन वम के प्रति सहिष्णु बने रहे, किन्तु जैन धर्मग्रन्थोंमें रक्तपात क निपधपर जो अत्यधिक जोर दिया गया उस " कारण समस्त जैन जाति राजनैतिक अधोगतिको प्राप्त हो गई।" पृ० १०५ - १०६
'
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जैनधर्म
नम्राट् खारवेल जैन था और पांड्यनरेश भी जैन थे। पाडयवशने जैनधर्मको न केवल आश्रय ही दिया किन्तु उसके आचार और वचारोको भी अपनाया । इससे उनकी राजधानी मदुरा दक्षिण भारतमें जैनोका प्रमुख स्थान बन गई थी। तमिल ग्रन्थ 'नालिदियर' के सम्बन्धमें कहा जाता है कि उत्तर भारतमे दुष्काल पड़नेपर आठ हजार जैन साधु पांड्यदेशमे आये थे। जव वे वहाँले वापिस जाने लगे तो पाडयनरेशने उन्हें वही रखना चाहा। तब उन्होने एक दिन रात्रिके समय पाड्यनरेशको राजधानीको छोड़ दिया केन्तु चलते समय प्रत्येक साधुने एक-एक ताड़पत्रपर एक-एक पद्य लखकर रख दिया। इन्हीके समुदायसे नालिदियर ग्रन्थ वना। जनाचार्य पूज्यपादके शिष्य वजनन्दिने पांड्योकी राजधानी मदुरामे एक विशाल जनसंघकी स्थापना की थी। तमिल साहित्यमे कुरल' नामका नीतिग्रन्थ सबसे बढ़कर समझा जाता है। यह मिलवेद कहलाता है। इसके रचयिता भी एक जैनाचार्य कहे जाते है,जिनका एक नाम कुन्दकुन्द भी था। पल्लववशी शिवस्कन्दवर्मा महाराज इनके शिष्य थे। ईसाकी दसवी शताब्दी तक राज्य करनेवाले महाप्रतापी पल्लव राजा भी जैनोंपर कृपादृष्टि रखते थे। इनकी राजधानी काची सभी धर्मोका स्थान थी। चीनी यात्री हुए नत्साग सातवी शताब्दीमे काची आया था। इसने इस नगरीमे फलते-फूलते हुए जिन धर्मोको देखा उनमें वह जैनोका भी नाम कता है। इससे भी यह बात प्रमाणित होती है कि उस समय कांची जनोका मुख्य स्थान था। यहाँ जैन राजवशोने वहुत वर्षातक राज्य किया। इस तरह तमिल देशके प्रत्येक अगमें जैनोने महत्त्वपूर्ण भाग लिया । 'सर वाल्टर इलियटके मतानुसार दक्षिणको कला और कारीगरीपर जैनोका वडा प्रभाव है, परन्तु उससे भी अधिक , १. Cons of Southern India (London 1886)
पृ०३८,४०, १२६॥
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इतिहास
प्रभाव तो उनका तमिल साहित्यके ऊपर पडा है । विराप काल्डवेल' का कहना है कि जैनोकी उन्नतिका युग ही तमि साहित्यका महायुग है । जैनोने तमिल, कनडी और दूसरी लोकभापानका उपयोग किया इससे जनता के सम्पर्कमे वे अधिक 14 ओर जैनधर्मके सिद्धान्तोका भी जन साधारणमे खूब प्रचार हुआ।
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एक समय कनडी और तेलगु प्रदेगोसे लेकर उड़ीसा तक जैनधर्मका वडा प्रभाव था । शेषगिरि रावने अपने Andhta karnala Jainism मे जो काव्य-संग्रह किया है उससे पता चलत ह कि आजके विजगापट्टम, कृष्ण, नेलोर वगैरह प्रदेशोमे प्राचीन कालमे जैनवमं फैला हुआ था और उसके मन्दिर बने हुए थे ।
किन्तु जैनधर्मका सबसे महत्त्वपूर्ण स्थान तो कर्नाटक प्रान्तव इतिहास मे मिलता है । यह प्रान्त प्राचीनकालसे ही दिगम्बर जैन सम्प्रदायका मुख्य स्थान रहा है । इस प्रान्तमे मोर्य साम्राज्य के बा आन्ध्रवंजका राज्य हुआ, आन्ध्र राजा भी जैनधर्मके उन्नायक थे आन्ध्रवदाके पञ्चात् उत्तर पश्चिममे कदम्वोने और पूर्व पल्लवोने राज्य किया । कदम्ववके अनेक शिलालेख मिले है जिनमें से बहुतसे लेखो मे जैनोंको दान देनेका उल्लेख मिलता है। इ • राजवंशका धर्म जैन था । सन् १९२२ - २३ की एपिग्राफी र वर्णित है कि वनवास के प्राचीन कदम्ब और चालुक्य, जिन्हो पल्लवोके पश्चात् तुलुव देशमे राज्य किया, निस्सन्देह जेन ये 1 भी बहुत सभव है कि प्राचीन पल्लव भी जैन थे, क्य . "Comparative Grammat of the Dravidian South Indian family of languages"
१९
.
यह
तीसरी आवृत्ति (लडन १६१३) २. "Early kadambas of Banbası and Chalukyas, wh succeeded pallavas as overlords of Tuluva were u doutedly Jains and it is probable that early pall... were the same"
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जनधन
संस्कृतमे मत्तविलास नामका एक प्रहसन है जो पल्लवराज महेन्द्रवमाका बनाया हुआ कहा जाता है । इस ग्रन्थमे उस समयक प्रचलित सम्प्रदायोकी हंसी उड़ाई गई है, जिनमें पाशुपत, कापालिक और एक बौद्ध भिक्षुको हसीका पात्र बनाया गया है। इनमे जैनोको सम्मिलित नहीं किया गया है। इससे पता चलता है कि जिस समय महेन्द्र वर्माने इस ग्रन्थको रचा उस समय वह जन था तथा पीछसे शव होगया क्योकि शैव-परम्परामें ऐसी ख्याति है कि शैव साधु अप्परने महेन्द्रवर्माको गैव बनाया था । अत. कदम्बोंकी तरह चालुक्य भी जनधर्मके प्रमुख नाश्रयदाता थे । चालुक्याने अनेक जैनमन्दिर बनवाये, उनका जीर्णोद्धार कराया, उन्हें दान दिया और कनडीके प्रसिद्ध जैन कवि आदि पम्प जैसे कवियोंका सन्मान किया।
इसके सिवा इतिहाससे यह भी पता चलता है कि कर्नाटकमें महिलामोंने भी जनवर्मके प्रचारमें भाग लिया है। इन महिलाओमे जहाँ राजवरानेकी महिलाएं स्मरणीय है वहाँ साधारण घरानेकी स्त्रियोकी सेवाएं भी उल्लेखनीय है। । सबसे प्रथम परमगूलकी पत्नी कंदाच्छिका नाम उल्लेखनीय है। उसने श्रीपुर नामक स्थानके उत्तरी भागमें एक जैनमन्दिर बनवाया था। परमगूलकी प्रार्थनापर गंगनृपति श्रीपुत्पने इस मन्दिरको एक ग्राम तथा कुछ अन्य भू-भाग प्रदान किये थे। इस महिलाका गंग राजपरिवारपर काफी प्रभाव था। दूसरी उल्लेखनीय महिला जक्कियब्बे है । यह सत्तरस नागार्जुनकी पत्नी थी जो नागर खण्डका शासक था। पतिके मरनेपर राजाने उसकी जगह उसकी पत्लीको नियुक्त किया। पत्नीने अपूर्व साहस और वीरताका परिचय दिया और सल्लेखना पूर्वक प्राणोका त्याग किया।
ईसाकी दसवी गतीमें पश्चिमी चालुक्य राजा तैलपका १ साउथ इण्डियन हिस्ट्री एण्ड कल्चर, मा० १, पृ० ५८४ । २ स्मिय-जी हिस्ट्री नाफ इण्डिया, पृ०४४४।
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इतिहास
सेनापति मल्लप्प था । उसकी पुत्री अत्तिमव्वे आदर्श धर्मचारिणी थी। उसने अपने व्ययसे सोने और कीमती पत्थरों की डेढ हजार ५ मूर्तियां बनवाई थी। राजेन्द्र कोंगाल्वकी माता पोचव्वरासिने ई०१५ १०५० मे एक वसदि बनवाई थी। ___ कदम्वराजा कीर्तिदेवकी प्रथम पली माललदेवीका स्थान भी धर्मप्रेमी महिलाओमें अत्यन्त ऊंचा है । इसने १०७७ ई० मे पद्मनन्दि सिद्धान्तदेवके द्वारा पार्श्वनाथ चैत्यालय बनवाया और प्रसंच ब्राह्मणोंको आमंत्रित करके उन्हीके द्वारा उस जिनालयकाय नामकरण 'ब्रह्म जिनालय' करवाया।
नागर खण्डके धार्मिक इतिहासमें चट्टल देवीका खास स्थान है । यह सान्तर परिवारकी थी। सान्तर परिवार जैनमतावलम्बी :
और उसका धर्मप्रेम विख्यात है। इस महिलाने सान्तरोंकी राजधानी है पोम्वुच्चपुरमे जिनालयोंका निर्माण कराया और अनेक र क. सम्बन्धी कार्य किये। ___ यहाँ दक्षिण भारतके राजनैतिक इतिहासके सम्बन्धमे थोड़ा . डालना उचित होगा। गंग राजाओंने मैसूरके एक बहुत बड़े भागपर ईसाकी दूसरी शताब्दीसे लेकर ग्यारहवी शताब्दी तक राज्य किया । उसके पश्चात् वे चोलोंके द्वारा पराजित हुए। किन्तु चोल लम्बे समय तक राज नहीं कर सके और शीघ्र ही होयसलोके द्वारा निकाल बाहर किये गये। होयसलोने एक पृथक राजवंश स्थापित किया जो -११वी शतीसे १४वी शती तक कायम रहा। ' '
प्राचीन चालुक्योंने छठी शतीके लगभग अपना राज्य स्थापित किया और प्रबल शासनके पश्चात् दो भागोमे बंट गये--एक पूर्वीय चालुक्य और दूसरा पश्चिमीय चालुक्य । पूर्वीय चालुक्योने ७५० ई० से ११वी शती तक राज्य किया। उसके पश्चात् उनके राज्य चोलोके द्वारा मिला लिये गये । पश्चिमीय चालुक्य ७५० ई० के लगभग राष्ट्रकूटोसे पराजित हुए।
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जनधर्म । राष्ट्रकूटोंने १७३ ई. तक अपनी स्वतंतता कायम रखी। उसके पश्चात् वे पश्चिमीय चालुक्योसे पराजित हुए। चालुक्याने लगभग दो सौ वर्ष तक राज्य किया। उसके पश्चात् कालारियोसे वे पराजित हुए। कालाचूरियोंने तीस वर्ष राज्य किया। - अब प्रत्येक राजवश समयमें जैनधर्मकी स्थितिका दिग्दर्शन कराया जाता है।
१. गंगवंश इस वंशकी स्थापना ईसाकी दूसरी शतीमें जैनाचार्य सिंहनन्दिने की थी। इसका प्रथम राजा माधव था, जिसे कोगणी वर्मा कहते हैं। मुष्कार अथवा मुखारके समयमे जैनधर्म राजधर्म बन गया था। तीसरे और चौथे राजामोको छोड़कर उसके शेष पूर्वज निश्चयसे
नधर्मके सहायक थे। माधवका उत्तराधिकारी अवनीत जैन था। भवनीतका उत्तराधिकारी दुविनीत प्रसिद्ध वैयाकरण जैनाचार्य पूज्यसादका शिष्य था।
ईसाकी चौथीसे बारहवी शताब्दी तकके अनेक शिलालेखोसे यह जात प्रमाणित है कि गंगवंशके शासकोंने जनमन्दिरोंका निर्माण कया, जनप्रतिमाओंकी स्थापना की, जैन तपस्वियोके निमित्त गुफाएं तयार कराई और जैनाचार्योको दान दिया।
इस वंशके एक राजाका नाम मारसिंह द्वितीय था। इसका शासनकाल चेर, चोल और पाण्डय वंशोपर पूर्ण विजय प्राप्तिके लिये रसिद्ध है। यह जैन सिद्धान्तोंका सच्चा अनुयायी था। इसने अत्यन्त ऐश्वर्यपूर्वक राज्य करके राजपद त्याग दिया और धारवार प्रान्तके बांकापुर नामक स्थानमें अपने गुरु अजितसेनके सन्मुख समाधिपूर्वक पाणत्याग किया। एक शिलालेखके आधारपर इसकी मृत्यु तिथि ६७५ ई० निश्चित की गई है। ___ चामुण्डराय राजा मारसिंह द्वितीयका सुयोग्य मंत्री था। उसके परनेपर वह उसके पुत्र राजा राचमल्लका मंत्री और सेनापति १ 'स्टडीज इन साउथ इन्डियन जैनिज्म' पृ० १०॥
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इतिहास: हुआ। इस मंत्रीके शौर्यके कारण ही मारसिह अनेक विजय प्राप कर सका । श्रवणवेलगोला (मैसूर) के एक शिलालेखमे इसकी बड़ी प्रशंसा की गई है, घरमधुरन्सुर वीरमार्तण्ड, रणरंगसिंह ए त्रिभुवनवीर, वैरीकुलकालदण्ड, सत्ययुधिष्ठिर, सुभटचूडामणि आलि उसकी अनेक उपाधियाँ थी, जो उसकी शूरवीरता और धार्मिकताकतबतलाती है। चामुण्डरायने ही श्रवणवेलगोला (मैसूर) के विन्ध्यगिरि पर गोमटेशकी विशालकाय मूर्ति स्थापित कराई थी, जो मूर्ति आप दुनियाकी अनेक आश्चर्यजनक वस्तुमोमें गिनी जाती है । वृद्धावस्थामय चामुण्डरायने अपना अधिकांश समय धार्मिक कार्योमे बिताया चामुण्डराय जैनधर्मके उपासक तो थे ही, मर्मज्ञ विद्वान् भी थे। उनका कनड़ी भाषाका त्रिषष्ठि-लक्षण महापुराण प्रसिद्ध है। स्त र भी उनका बनाया हुआ चारित्रसार नामक ग्रन्थ है। चामुण्डरायकई गणना जैनधर्मके महान् उन्नायकोंमें की जाती है। इनके समयमे जर साहित्यकी भी श्रीवृद्धि हुई थी। सिद्धान्त ग्रन्थोंका सारभूत श्रीगोई मट्टसार नामक महान् जैन ग्रन्थ' इन्हीके निमित्तसे रचा गया था । और उन्हीके गोमट्टराय नामपर इसका नामकरण किया गया था । यह कनडीके प्रसिद्ध कवि रत्नके आश्रयदाता भी थे। ___ गंगराज परिवारकी महिलाएं भी अपनी धर्मशीलताके लिये प्रसिद्ध है। एक प्रशस्तिमें गंग महादेवीको 'जिनेन्द्र के चरण कमलों में लुब्ध भ्रमरी' कहा है । यह महिला भुजबल गंगाs: मान्धाता भूपकी पत्नी थी। राजा मारसिंहकी छोटी बहिनका ना: सुग्गिपव्वरसि था । यह जैन मुनियोंकी बड़ी भक्त थी और उन्ह सदा आहार दान किया करती थी। ।
जब चोल राजाने ई० स० १००४ में गंगनरेशकी राजधानी तलकादको जीत लिया, तबसे इस वंशका प्रताप मंद हो गया। वादको भी इस वंशके राजाओने राज तो किया, किन्तु फिर वे उठ नहीं सके।' इससे जैनधर्मको भी क्षति पहुंची।
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जैनधर्म
२. होयसल वंश । इस वंशकी उन्नतिमे भी एक जैनमुनिका हाथ था। इस 'वंशका पूर्वज राजा सल था । एक बार यह राजा अपनी कुलदेवीके मन्दिरमे सुदत्तनामके जैन साधुसे विद्या ग्रहण करता था। अचातक वनमेसे निकलकर एक बाघ सलपर टूट पड़ा। साधुने एक दण्ड सलको देकर कहा-'पोप सल' (भार सल)। सलने वाधको मार डाला। इस घटनाको स्मरण रखनेके लिये उसने अपना नाम पोपसल' रखा, पीछेसे यही 'होयसल हो गया। । गंगवंशकी तरह इस वशके राजा भी विट्टिदेव तक बराबर जैनधर्मी रहे और उन्होंने जैनधर्मके लिये बहुत कुछ किया। दीवान बहादुर कृष्ण स्वामी आयंगरने विष्णु वर्द्धन विट्टिदेवके समयमें मैसूर राज्यकी धार्मिक स्थिति बतलाते हुए लिखा है- 'उस समय मैसूर प्राय. जैन था। गंग राजा जैनधर्मके अनुयायी थे। किन्तु लगभग ई० १००० में जैनोंके विरुद्ध वातावरण ने जोर पकड़ा । उस समय वोलोने मैसूरको जीतनेका प्रयत्न किया । फलस्वरूप गगवाड़ी और नोलम्बवाड़ीका एक बड़ा प्रदेश चोलोके अधिकारमें चला गया, और इस तरह मैसूर देशमे चोलोके शवधर्म और चालुन्योंके जैनधर्मका आमना सामना हो गया । जब विष्णुवर्धनने मैसूरकी राजनीतिमे भाग लिया उस समय मैसूरकी धार्मिक स्थिति अनिश्चित थी । यद्यपि जैनधर्म प्रबल स्थितिमें था फिर भी शवधर्म और वैष्णव धर्मके भी अनुयायी थे। ई० १११६ के लगभग विट्टिदेवको रामानुजाचार्यने वैष्णव बना लिया और उसने अपना नाम विष्णुवर्धन रखा ।' विष्णुवर्धनकी पहली पत्नी शान्तलदेवी जैन थी। श्रवणवेलगोला तथा अन्य स्थानोंसे प्राप्त शिलालेखोमे उसके धर्मकायोकी बड़ी प्रशंसा की गई है । शातल देवीका पिता कट्टर शेव और माता जैन थी। शान्तल देवीके मर जाने पर जब उसके माता पिता भी मर गये तो
१. Ancient India. P. 738-739
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इतिहास
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उनका जामाता अपने धर्मसे च्युत हो गया । किन्तु फिर भी जैनधर्मस् ' उसकी सहानुभूति बनी रही। उसने अपनी विजयके उपलक्षमे हलेवी के जिनालय स्थापित जैनमूर्तिका नाम 'विजय पार्श्वनाथ' रक्खा उसके मंत्री गगराज तो जैनधर्मके एक भारी स्तम्भ थे । उनकी कता और दानवीरताका विवरण अनेक शिलालेखोमे मिलता है इनकी पत्नीका नाम भी जैनधर्मके प्रचार के सम्बन्धमे अति प्रसिद्ध है। उसने कई जिनमन्दिरोंका निर्माण कराया था जिनके लिये गंगर उदारतापूर्वक भूमिदान दिया था । विट्टिदेवके पश्चात् नरसिंह प्र 4 राजा हुआ । इसके मंत्री हुल्लप्पने जैनधर्मकी बडी उन्नति की।
उसने जैनोके खोये हुए प्रभावको फिरसे स्थापित करनेका प्रय. ल किया । किन्तु होयसल' राजाओ के द्वारा संरक्षित वैष्णव धर्म द्रुत अभ्युन्नति, रामानुज तथा कुछ शैव नेताओका व्यवस्थित और कमवद्ध विरोध, और लिंगायतोके भयानक आक्रमणने मैसूर प्रदेशों जैनधर्मका पतन कर दिया । किन्तु भूल कर भी यह कल्पना नही करनी चाहिये कि वहाँसे जैनधर्मकी जड़ ही उखड़ गई। किस वैष्णव तथा अन्य वैदिक सम्प्रदायोके क्रमिक अभ्युत्थानके कारण उसका चैतन्य जाता रहा । यों तो जैनधर्मके अनुयायियों की तब भी अच्छी संख्या थी किन्तु फिर वे कोई राजनैतिक प्रभाव नही प्राप्त कर सके । वादके मैसूर राजाओने जैनोको कोई कष्ट नही दिया इतना ही नही, किन्तु उनकी सहायता भी की। मुस्लिम शासक हैदर नायक तक ने भी जैन मन्दिरोंको गाँव प्रदान किये थे यद्यति उसने श्रवणबेलगोला तथा अन्य प्रदेशोंके महोत्सव बन्द कर दिये थे । ३. राष्ट्रकूट वंश
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राष्ट्रकूट राजा अपने समयके बडे प्रतापी राजा थे । इनके आश्रयसे जैनधर्मका अच्छा अभ्युत्थान हुआ । इनकी राजधानी पहले नासिक के पास थी । पीछे मान्यखेटको इन्होने अपनी राजधानी
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१ 'स्टडीज़ इन साउथ इन्डियन जैनिज्म' |
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जैनधर्म
नाया । इस वंशके जैनधर्मी राजाओ में अमोघवर्ष प्रथमका नाम ल्लेखनीय है । यह राजा दिगम्बर जैनधर्मका बडा प्रेमी था । अपनी न्तिम अवस्थामे इसने राजपाट छोडकर जिन दीक्षा ले ली थी । सके गुरु प्रसिद्ध जैनाचार्य जिनसेन थे। जिनसेनके शिष्य गुणभद्रने पने उत्तरपुराणमें लिखा है कि अमोघवर्ष अपने गुरु जिनसेनके रणकमलों की वन्दना करके अपनेको पवित्र हुआ मानता था । सने जैन मन्दिरोको दान दिया, तथा इसके समयमे जैन साहित्यकी
t खूब उन्नति हुई । दिगम्बर जैन सिद्धान्त ग्रन्थोंकी धवला और raamा नामकी टीकाओका नामकरण इसीके धवल और अतिशय वल नामके ऊपर हुआ समझा जाता है। शाकटायन वैयाकरणने पने शाकटायन नामक जैन व्याकरणपर इसीके नामसे अमोधवृत्ति
की टीका बनाई । इसीके समयमें जैनाचार्य महावीरने अपने णितसारसंग्रह नामक ग्रन्थकी रचना की, जिसके प्रारम्भमे अमोघवर्षमहिमाका वर्णन विस्तारसे किया गया है । अमोघवर्षने स्वयं भी श्नोत्तर रत्नमाला' नामकी एक पुस्तिका रची। स्वामी जिनसेनने अनेक ग्रन्थ रचे ।
अमोघवर्षने जिनसेनके शिष्य गुणभद्रको भी आश्रय दिया । भद्रने अपने गुरु जिनसेनके अधूरे ग्रन्थ आदिपुराणको पूर्ण किया और अन्य भी अनेक ग्रन्थ रचे । अमोघवर्षका पुत्र अकालवर्ष भी धर्मका प्रेमी था । इसके समयमे गुणभद्रने अपना उत्तरपुराण र्ण किया । इसने भी जैनमन्दिरोको दान दिया और जैन विद्वानोT सन्मान किया । जब पश्चिमके चालुक्योने राष्ट्रकूटोकी सत्ताका न्त कर दिया तो इस वशके अन्तिम राजा इन्द्रने अपने राज्यको पुनः प्त करनेका यत्न किया किन्तु उसे सफलता नही मिली । अन्तमें सने जिनदीक्षा धारण करके श्रवणबेलगोलामे समाधिपूर्वक प्राणोका ग किया । लोकादित्य इनका सामंत और वनवास देशका राजा । गुणभद्राचार्यने इसे भी जैनधर्मकी वृद्धि करनेवाला और महान् शस्वी बतलाया है ।
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इतिहास ४. कालाचुरि राज्यमें जैनोंका विनाश राष्ट्रकूटोंके पश्चात् राज्यशक्ति पश्चिमीय चालुक्योंके हाथमा : आ गई। उनके समयमें जैनधर्मका प्रभाव नष्ट हो गया। यदि देश, प्रचलित किंवदन्तीपर विश्वास किया जाय तो कहना होगा कि जै - मन्दिरोंमेसे नमूर्तियां उठाकर फेंक दी गईं और उनके स्थानप' पौराणिक देवताओकी मूर्तियां स्थापित कर दी गई।
चालुक्योंका राज्य बहुत थोड़े समय तक ही रहा; क्योकि उनन कालाचूरियोंने निकाल बाहर किया । यद्यपि कालाचूरियोका राज्य भी बहुत थोड़े समय तक ही रह सका किन्तु जैनधर्मके विनाशर्क दृष्टिसे वह स्मरणीय है। ____ महान कालाचूरिनरेश विज्जल जैन था। किन्तु उसका समर लिंगायत सम्प्रदायके उद्गम और गिवभक्तिके पुनरुज्जीवन को दृष्टिसे उल्लेखनीय है । विज्जलके अत्याचारी मंत्री वसवके नेतृत्वम् इस सम्प्रदायने नोंको बहुत कष्ट दिया।
विज्जलराज चरितके अनुसार वसवने अपने स्वामी जैन राजा विज्जलकी हत्याके लिये, क्या क्या नही किया । फलतः उर देशसे निकाल दिया गया। और निराश होकर वह स्वयं एक कुएर गिर गया। किन्तु उसके अनुयायियोंने उसके इस प्राणत्यागक 'धर्मपर वलिदान' का रूप दिया । और लिंगायत सम्प्रदाय विषयमें ललित और सरल भाषामे साहित्य तयार करके देशमें सर्व वितरित किया। तथा जिन लिंगायत नेताओने कालाचूरि साम्राज्यव अन्दर जैनोंके विनाशमें बहुत बड़ी सहायता की उनके नामोंके प . ओर अनेक कपोलकल्पित कथाएं जुट गई। ऐसी एक कथा जो उर समयके शिलालेखमें अकित है यहाँ दी जाती है
शिव और पार्वती एक शैव सन्तके साथ कैलास पर्वतपर विच रहे थे। इतनेमें नारद आये, उन्होने जैनों और बौद्धोंकी बढ़त
१ स्टडीज इन साउथ इण्डियन जैनिज्म, पृ० ११२।
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जैनधर्म
दुई शक्तिको सूचना दी। जिवने वीरभद्रको आज्ञा दी कि तुम सारमें जाकर मानव योनिमें जन्म लो मोर इन धर्मोको नष्ट करो । माज्ञानुसार वीरभद्रने पुरुषोत्तम पट्ट नामके व्यक्तिको स्वप्न दिया कि
तुम्हारे घरमें पुत्ररूपमें जन्म लूंगा । स्वप्न सत्य हुआ । वालकका राम राम रखा गया और दीवके रूपमें उसका लालन पालन हुआ । शेवका भक्त होनेसे उसे एकान्तद रामैया कहते थे । किंवदन्तीके अनुर यह रामैय्या ही उस देशमें जैनधर्मके विनाशके लिये उत्तरदायी है।
कयामे लिखा है कि एक दिन रामैया शिवकी पूजा करता था । उस समय जैनोने उसे चैलेंज दिया कि वह अपने देवताका देवत्व सिद्ध करे। रामैयाने चैलेंज स्वीकार कर लिया। यह तय हुआ कि रामैया अपना सिर काटकर फिर जोड़ दे । यदि वह ऐसा कर सका तो नोने अपने मन्दिर खाली करके उस देशको छोड़ देनेका वचन दिया। धर्मयाने सिर काटकर फिर जोड़ लिया और जैनोसे अपना वादा पूरा करनेके लिये कहा । जैनोंने अस्वीकार कर दिया। यह सुनते हो रामैयाने जैनोंके मन्दिरोको नष्ट-भ्रष्ट करना प्रारम्भ किया । जनोने विज्जलसे जाकर शिकायत को । विज्जल शेवोपर बहुत कुछ हुआ । किन्तु रामैयाने विज्जलको अपना चमत्कार दिखाकर गंव बना लिया । विज्जलने जनोको आदेश दिया कि वे गवों के साथ शान्तिपूर्वक बर्ताव करें ।
कल्चरी राज्यमें जैनोके विनाशकी साक्षी देनेवाली इस तरहकी कथाएँ और घटनाएं शेव अन्यो अनेक मिलती है ।
५. विजयनगर राज्य
इस तरह दक्षिण भारतमें यद्यपि जैनवमं राजाश्रय विहीन हो या । फिर भी गुणग्राही राजा लोग जैन गुरुओं, विद्वानों और ताओंका यथोचित आदर करते थे । ऐसे राजाओ में विजयनगर साम्राज्यके शासकोंका नाम उल्लेखनीय है । यह राज्य वैदिक
१ स्टडीज इन सा० इ० जैनिज्म, पृ० ११३ |
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इतिहास धर्मका पोषक था किन्तु इसके राजा विभिन्न मतवालोके प्रति उदारताका व्यवहार करते थे। तथा इस राज्यके उच्च पदस्प कर्मचारियोमे अधिकाश जैनधर्मावलम्बी थे। इसलिये राजाओको भी जैनधर्मका विशेष ख्याल रखना पड़ता था ।
। __हरिहर द्वितीयके सेनापति इरुगप्प कट्टर जैनधर्मानुयायी थेउन्होंने ५६ वर्ष तक विजयनगर राज्यके ऊंचेसे ऊंचे पदोको योग्यता पूर्वक निवाहा और जैनधर्मकी उन्नतिके लिये वरावर प्रयत्न करतप रहे। इरुगप्पके अन्य सहयोगियोने भी जैनधर्मकी पूरी सहायता काप और उसके प्रचारमे काफी योगदान दिया ।
विजयनगरकी रानियां भी जैनधर्म पालती थी । श्रवणवेल-ल गोलके एक शिलालेखसे देवराय महाराजकी रानी भीमादेवीका जैन होना प्रकट है।
१३६८ के एक शिलालेखसे पता चलता है कि जैनोने का.. प्रथमसे प्रार्थना की कि वैष्णव लोग जैनोके साथ अन्याय करत है। राजाने काफी जाँच पडतालके बाद जैनों और वैष्णवोंमे मेल करा दिया तथा यह आज्ञा प्रकाशित की__ "यह जैन दर्शन पहलेकी ही भाँति पञ्च महाशब्द और कलशका अधिकारी है। यदि कोई वैष्णव किसी भी प्रकार जैनियोको क्षति पहुँचावे तो वैष्णवोको उसे वैष्णवधर्मकी क्षति समझना चाहिये। वैष्णव लोग जगह-जगह इस बातकी ताकीदके लिये सन कायम करें। जब तक सूर्य और चन्द्रका अस्तित्व है तब तक वैष्णव लोग जैन दर्शनकी रक्षा करेंगे । वैष्णव और जैन एक ही है उन्ह अलग अलग नही समझना चाहिये । "वैष्णवो और जैनोसे जो कर लिया जाता है उससे श्रवण वेलगोलाके लिये रक्षकोकी नियुक्ति की जाय और यह नियुक्ति वैष्णवोके द्वारा हो। तथा उससे जो द्रव्य बचे उससे जिनालयोकी मरम्मत कराई जाये और उनपर चूना पोता जाये । इस प्रकार वे प्रतिवर्ष धनदान देनेसे न चूकेगे और यश
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जैनधर्म
तथा सम्मान प्राप्त करेगे । जो इस आज्ञाका उल्लंघन करेगा वह राजद्रोही संघद्रोही और सप्रदाय द्रोही होगा ।"
एक दूसरे शिलालेखसे जैनों और वीर शैवोके विवादका पता बलता है । यह लेख १६३८ ई० का है, यह जैनधर्मकी प्रशंसासे शुरू होता है और शिवकी प्रगसासे इसका अन्त होता है ।
मामला यह था कि किसी वीर शैवने विजयपार्श्व वसदिके म्भेपर शिवलगकी स्थापना कर दी और विजयप्पा नामके एक नी जैन व्यापारीने उसे नष्ट कर दिया । इससे बडा क्षोभ फैला और जैनोन वीर गैव मतके नेताओके पास इस मामलेके निपटारेके लिये प्रार्थना की। यह निश्चय किया गया कि जैन लोग पहले विभूति और वेलपत्र शिवलिगको चढाकर अपना आराधन - पूजन करें । 'इसके उपलक्ष में वीर शैवोने जैनियो के प्रति अपना सौहार्द प्रदर्शित करनेके लिये उक्त निर्णयमें इतना जोड़ दिया जो कोई भी जैनधर्मका विरोध करेगा वह शिवद्रोही समझा जायेगा । वह विभूति द्राक्ष तथा काशी और रामेश्वरके शिवलिंगों का द्रोही समझा जायेगा । शिलालेख के अन्त में 'जिन शासनकी जय हो इस आशयका वाक्य लिखा हुआ है । इस तरह चौदहवी शती में आकर साम्प्रदायिक द्वेष कुछ कम हुआ और जैनधर्मका दक्षिण भारतसे यद्यपि समूल नाश तो नही हो सका, फिर भी वह क्षीणप्रभ हो गया ।
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२. सिद्धान्त
१. जैनधर्म क्या है? जैनधर्मके सिद्धान्त जाननेसे पहले यह जान लेना आवश्यक है कि जैनधर्म है क्या? जैनधर्म शब्द दो शब्दोंके मेलसे बना है-एक शब्द है जैन और दूसरा शब्द है 'धर्म'। जैसे विष्णुको देवता माननेवाले वैष्णव और शिवको देवता माननेवाले शैव कहलाते है, और उनके धर्मको वैष्णवधर्म या शवधर्म कहते है। वैसे ही 'जिन' को देवता माननवाले जैन कहलाते है और उनके धर्मको जैनधर्म कहते. है । साधारणतया जैनधर्म' का यही अर्थ समझा जाता है। किन्तु - इसका एक दूसरा अर्थ भी है, जो इस अर्थसे कही महत्त्वपूर्ण है। वह
अर्थ है-'जिन' के द्वारा कहा गया धर्म। अर्थात्"जिन' ने जिस धर्मकार कथन किया है, उपदेश किया है वह धर्म है जैनधर्म । शैवधर्म या' वैष्णवधर्ममें यह अर्थ नहीं घटता, क्योंकि शिव या विष्णुने स्वयं किसी धर्मका उपदेश नहीं किया। वे तो देवता माने गये है। और बादम' जब बहुदेवतावादके स्थानमे एकेश्वर भावनाका उदय हुआ तो दोनों ईश्वरके रूप कहलाये। पीछेसे श्रीकृष्णको विष्णुका पूर्णावतार मान लिया गया। उनके भक्तोका धर्म तो मूलमें वेदविहित क्रियानुष्ठान, ही है। किन्तु 'जिन' ईश्वरीय अवतार नही होते, वे तो स्वयं अपने पौरुषके वलपर अपने कामक्रोधादि विकारोंको जीतकर 'जिन' बनते है । 'जिन' शब्दका अर्थ होता है-जीतनेवाला । जिसने अपने आत्मिक विकारोपर पूरी तरहसे विजय प्राप्त कर ली वही 'जिन' है। जो 'जिन' वनते है वे हम प्राणियोमेसे ही वनते है। प्रत्येक जीवात्मा परमात्मा बन सकता है। जीवात्मा और परमात्मामे इतना ही अन्तर है कि जीवात्मा अशुद्ध होता है, काम-क्रोधादि विकारो और उनके
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जैनधर्म
'हम अपना ज्ञान किसी न किसी पुरुषके द्वारा ही दे सकता है, तथा 'उसका व्याख्यान भी पुरुष ही कर सकता है । किन्तु यदि वह पुरुष 'अल्पज्ञ हुआ या रागद्वेषी हुआ तो उसके व्याख्यानमे भ्रम भी हो सकता "है । अत उसे भी कमसे कम विशिष्ट ज्ञानी तो मानना ही पडता है । यह सब इसलिये किया गया है कि वे धर्म पुरुषकी सर्वज्ञता स्वीकार नहीं करते। उनकी दृष्टिसे पुरुषकी आत्माका इतना विकास नही हो सकता । किन्तु जैनधर्म इस तरहके किसी ईश्वरको सत्तामें विश्वास नही करता । वह जीवात्माका सर्वज्ञ हो सकना स्वीकार करता है । अत जैनवम किसी ईश्वर या किसी स्वयंसिद्ध पुस्तकके द्वारा नही कहा गया है। बल्कि मानवके द्वारा, उस मानवके द्वारा जो कभी हम वही जैसा अल्पज्ञ और रागद्वेषी था किन्तु जिसने अपने पौरुषसे प्रयत्न एकरके अपनी अल्पज्ञता और रागद्वेषके कारणोंसे अपने आत्माको मुक्त कर लिया और इस तरह वह सर्वज्ञ और वीतरागी होकर जिन बन गया, इकहा गया है। अतः 'जिन' हुए उस मानवके अनुभवोंका एसार ही जैनधर्म है ।
हु अब हम 'धर्म' शब्दके बारेमे विचार करेंगे । धर्मशन्दके दो अर्थ पपाये जाते है – एक, वस्तुके स्वभावको धर्म कहते है जैसे अग्निका च जलाना धर्म है, पानीका शीतलता धर्म है, वायुका बहना धर्म है। आत्माका चैतन्य धर्म है | और दूसरा, आचार या चारित्रको धर्म कहते है । इस दूसरे अर्थको कोई इस प्रकार भी कहते है - जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस - मुक्तिकी प्राप्ति हो उसे धर्म कहते है। चूँकि आचार या चारित्रसे इनकी प्राप्ति होती है इसलिये चारित्र ही धर्म है । इस प्रकार धर्म शब्दसे दो अर्थोका पत्रबोध होता है एक वस्तु स्वभावका और दूसरे चारित्र या
इस्
वस्
आचारका । इनमें से स्वभावरूप धर्म तो क्या जड़ मोर क्या चेतन, दो रभी पदार्थों में पाया जाता है, क्योंकि ससारमे ऐसी कोई वस्तु नही, सत्जसका कोई स्वभाव न हो । किन्तु आचाररूप धर्मं केवल चेतन
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सिद्धान्त
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आत्मामें ही पाया जाता है । इसीलिए धर्मका सम्बन्ध आत्मासे है । प्रत्येक तत्त्वदर्शी धर्मप्रवर्तकने केवल आचाररूप धर्मका ही उपदेश नही किया किन्तु वस्तु स्वभावरूप धर्मका भी उपदेश दिया है जिसे दर्शन कहा जाता है । इसीसे प्रत्येक धर्म अपना एक दर्श भी रखता है | दर्शनमें, आत्मा क्या है ? परलोक क्या है ? विश् क्या है ? ईश्वर क्या है ? आदि समस्याओं को सुलझानेका प्रयत्न किया जाता है । और धर्मके द्वारा आत्माको परमात्मा बननेका बतलाया जाता है । यद्यपि दर्शन और धर्म या वस्तु स्वभावरूप और आचाररूप धर्म दोनों जुदे - जुदे विषय है परन्तु इन दोनोका परस्परमें घनिष्ट सम्बन्ध है । उदाहरणके लिये, जब आचाररूप धर्मं आत्माको परमात्मा बननेका मार्ग बतलाता है, तब यह जानना आवश्यक है, जाता है कि आत्मा और परमात्माका स्वभाव क्या है ? दोनोमें अन्तर क्या है और क्यों है ? यह जाने बिना आचारका पालना वैसे ही लाभकारी नहीं हो सकता जैसे सोने के गुण और स्वभावसे अनजान द यदि सोनेको शोधनेका प्रयत्न भी करे तो उसका प्रयत्न लाभकारी नहीं हो सकता । तथा यह बात सर्वविदित है कि विचारके अनुसार ही मनुष्यका आचार होता है । उदाहरणके लिये, जो यह मानता है कि आत्मा नहीं है और न परलोक है उसका आचार सदा भोगप्रधान ही रहता है, और जो यह मानता है कि आत्मा है, परलोक है, प्राणी अपने २ शुभाशुभं कर्मके अनुसार फल भोगता है तो उसका आचार उससे बिलकुल विपरीत ही होता है । अत विचारोंका मनुष्यके आचारपर बड़ा प्रभाव पड़ता है । इसीसे दर्शनका प्रभाव धर्मपर बडा गहरा हो । है, और एकको समझे बिना दूसरेको नही समझा जा सकता। जैनधर्मका भी एक दर्शन है जो जैनदर्शन कहा जाता है । किन्तु वह वस्तु स्वभावरूप धर्ममें ही अन्तर्भूत हो जाता है अत उसे भी हम धर्मका ही एक अंग समझते है । और इसलिये जैनधर्मसे 'जिन' देवके द्वारा कहा हुआ विचार और आचार दोनों ही लेना चाहिये ।
ू
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जैनधर्म हम प्रकारान्तरस भी धर्मके दो भेद किये जाते है एक साध्यरूप धर्म उसऔर दूसरा साधनरूप धर्म। परमात्मत्व साध्यरूप धर्म है और आचार मल्या चारित्र साधनरूप धर्म है, क्योकि आचार या चारित्रके द्वारा ही है।आत्मा परमात्मा बनता है। अत यहां दोनो ही प्रकारके धर्मोका यह निरूपण किया गया है।
२. जैनदर्शनका प्राण पक
अनेकान्तवाद ____ ऊपर लिख आये है कि जनविचारका मूल स्याद्वाद या भनेकान्तवाद है। मत. प्रथम उसे समझ लेना आवश्यक है।
जैन दृष्टिसे इस विश्वके मूलभूत तत्त्व दो भागोमें विभाजित है एक जीवतत्त्व और दूसरा अजीव या जड़तत्त्व । अजीव या जडतत्त्व भी पाँच भागो मे विभाजित है-पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकारा और काल । इस तरह यह ससार इन छ तत्त्वोंसे बना हुआ है। इन
होको छै द्रव्य कहते है। इन छै द्रव्योके सिवा संसारमें अन्य कुछ भी """नही है, जो कुछ है, उस सवका समावेश इन्ही छै द्रव्योंमें हो जाता
है। गुण, क्रिया, सम्बन्ध आदि जो अन्य तत्त्व दूसरे दार्शनिकोंने माने पायेहै, जैन दृष्टिसे वे सब द्रव्यकी ही अवस्थाएं है, उससे पृथक् नहीं; जल क्योकि जो कुछ सत् है वह सब द्रव्य है। सत् ही द्रव्यका लक्षण है। भार असत् या अभाव नामका कोई स्वतंत्र तत्व जनदर्शनमे नहीं है। किन्तु कहजो सत् है दृष्टिभेदसे वही असत् भी है। न कोई वस्तु केवल सत्स्वरूप जिरही है और न कोई वस्तु केवल असत्स्वरूप ही है। यदि प्रत्येक वस्तुको कहर केवल सत्स्वरूप ही माना जायेगा तो सब वस्तुओके सर्वथा सत्स्वरूप इस होनेसे उन वस्तुओके बीचमे जो अन्तर देखनेमे आता है, उसका लोप बोध हो जायेगा और उसके लोप हो जानेसे सब वस्तुएं सब रूप हो जायेगी। आउदाहरणक लिये-घट (घडा) और पट (कपड़ा) ये दोनों वस्तु नमी है, घट भी वस्तु है और पट भी वस्तु है। किन्तु जब हम किसास जिस घट लानेको कहते है तो वह घट ही लाता है, पट नहीं लाता। और
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सिद्धान्त जव पट लानेको कहते है तो वह पट ही लाता है, घट नही लाता " इससे प्रमाणित है कि घट घट ही है पट नहीं है, और पट पट ही हो५ घट नही है। न घट पट है और न पट घट है, किन्तु है दोनो। परन्तु ५ दोनोंका अस्तित्व अपनी-अपनी मर्यादामे ही सीमित है, उसके वह नहीं है। अत. प्रत्येक वस्तु अपनी मर्यादामे है और उससे बाहर नहीं। है। यदि वस्तुए इस मर्यादाका उल्लघन कर जायें तो फिर घट और र पटकी तो बात ही क्या, सभी वस्तुए सव रूप हो जायेंगी नाच इस तरहसे सकर दोप उपस्थित होगा। मत. प्रत्येक वस्तु स्वरूप कर अपेक्षासे सत् कही जाती है और पररूपकी अपेक्षासे असत् कह जाती है। इसी दृष्टान्तको गुरु शिष्यके संवधिक रूपमें यहां दियजाता है, उससे पाठक और भी अधिक स्पष्ट रूपसे उसे समझ सकेगे। ___गु०-एक मनुष्य अपने सेवकको आज्ञा देता है कि 'घट लामोई तो सेवक तुरन्त घट ले आता है और जब वस्त्र लानेकी आज्ञा देता है। तो वह वस्त्र उठा लाता है। यह तुम व्यवहारमे प्रतिदिन देखते हो। किन्तु क्या कभी तुमने इस बातपर विचार किया कि सुननेवाला' ८1 शब्द सुनकर घट ही क्यों लाता है और वस्त्र शब्द सुनकर वस्त्र ही क्यों लाता है ?
शि०---घटको घट कहते है और वस्त्रको वस्त्र कहते है। इसलिये। जिस वस्तुका नाम लिया जाता है, सेवक उसे ही ले आता है।
गु०-घटको ही घट क्यों कहते है ? वस्त्रको घट क्यों नह
शि०-घटका काम घट ही दे सकता है, वस्त्र नहीं दे सकता। गु०-घटका काम घट ही क्यो देता है, वस्त्र क्यो नहीं देता?
शि०-यह तो वस्तुका स्वभाव है, इसमें प्रश्नके लिये स्थान नहीं है।
· गुरु-क्या तुम्हारे कहनेका यह अभिप्राय है कि जो स्वभाव घटका है वह वस्त्रका नही, और जो वस्त्रका है वह घटका नहीं?
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जैनधर्म
शि० - जी हॉ, प्रत्येक वस्तु अपना जुदा स्वभाव रखती है। तुम यह बतलाओ कि क्या हम घटको असत् भी
गु० - अब सकते है ?
शि० ~~ हां, घटके फूट जानेपर असत् कहते ही हैं ।
गु० - टूट फूट जाने पर तो प्रत्येक वस्तु असत् कही जाती है । रा मतलब है कि क्या घटके रहते हुए भी उसे असत् कहा जा रुता है ?
शि० --- नहीं, कभी नही, जो 'है' वह 'नहीं' कैसे हो सकता है ? गु० - किनारे पर अकर फिर वहना चाहते हो। अभी तुम वयं स्वीकार कर चुके हो कि प्रत्येक वस्तुका स्वभाव जुदा-जुदा ता है और वह स्वभाव उसी वस्तुमें रहता है दूसरी वस्तुमे नही ।
शि० --- हाँ, यह तो मैं अब भी स्वीकार करता हूँ, क्योंकि यदि ऐसा न माना जायेगा तो आग पानी हो जायेगी और पानी आग हो जायेगा । कपडा मिट्टी हो जायगा और मिट्टी कपड़ा हो जायेगी । कोई भी वस्तु अपने स्वभावमे स्थिर न रह सकेगी।
1
गु० - यदि हम तुम्हारी ही बातको इस तरहसे कहे कि प्रत्येक तु अपने स्वभावसे है और पर स्वभावसे नही है तो तुम्हे कोई आपत्ति दोनही ?
शि० -- नही, इसमें किसको आपत्ति हो सकती है।
गु० - अब तुमसे फिर पहला प्रश्न किया जाता है कि क्या मौजूदा घटको असत् कह सकते है ?
शि०
O
(चुप)
गु० - चुप क्यों हो ? क्या फिर भ्रममें पड गये हो ?
शि० --- पर स्वभावकी अपेक्षासे मौजूदा घटको भी असत् कह सकते है ।
,
ट गु० -- अब रास्तेपर आये हो । जब हम किसी वस्तुको सत्
कहते हैं तो हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि उस वस्तुके स्वरूपको
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सिद्धान्त
अपेक्षासे ही उसे सत् कहा जाता है। अपनेसे अन्य वस्तुके स्वरूप अपेक्षासे संसारकी प्रत्येक वस्तु असत् है । देवदत्तका पुत्र संसा भरके मनुष्योंका पुत्र नहीं है और न देवदत्त ससार भरके पुत्रोंका पिर है। क्या इससे हम यह नतीजा नहीं निकाल सकते कि देवदत्तका पुर। पुत्र है और नही भी है। इसी तरह देवदत्तका पिता पिता है और - नही भी है। अत. संसारमें जो कुछ है वह किसी अपेक्षासे नहीं। है। सर्वथा सत् या सर्वथा असत् कोई वस्तु नही है।
किन्तु जब जनदर्शन यह कहता है कि प्रत्येक वस्तु सत् भी है औ असत् भी है तो श्रोता इसे असभव समझता है क्योकि जो सत् है वे असत् कैसे हो सकता है? परन्तु ऊपर बतलाये गये जिन दृष्टिकोणोव लक्ष्य करके जनदर्शन वस्तुको सत् और असत् कहता है यदि उन दृष्टि कोणोंको भी समझ लिया जाये तो फिर उसे असभव कहनेका साह नहीं हो सकता। किन्तु जिसे समझनेमे बादरायण जैसे सूत्रकारो औं शंकराचार्य जैसे उसके व्याख्याताओको भी भ्रम हुआ, उसमे या साधारणजनोको व्यामोह हो तो अचरज ही क्या है।
बादरायणके सूत्र 'नकस्मिन्नसभवात्' (२-५-३३) की व्याख्य करत हुए स्वामी शकराचार्यने इस सिद्धान्तपर जो सबसे बड़ा दूष दिया है वह है 'अनिश्चितता' । उनका कहना है कि 'वस्तु है औ नही भी है ऐसा कहना अनिश्चितताको बतलाता है। अर्थात् इस वस्तुका कोई निश्चित स्वरूप नही रहता। और अनिश्चितता संशयक। जननी है। अत यदि जैन सिद्धान्तके अनुसार वस्तु अनिश्चित है त उसमें नि:संशय प्रवृत्ति नहीं हो सकती। किन्तु ऊपरके उदहरणो. इस आपत्तिका परिहार स्वय हो जाता है। हम व्यवहारमे भी + विरोधी दो धर्म एक ही वस्तुमें पाते है-जैसे भारत स्वदेश भी है आ विदेश भी, देवदत्त पिता भी है और पुत्र भी। इसमे न कोई कार तता है और न संशय । क्योकि भारतीयोकी दृष्टिसे भारत स्वदेश और विदेशियोंकी दृष्टिसे विदेश है। यदि कोई भारतीय भारतक
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जनधर्म
देश ही समझता है तो वह भारतको केवल अपने ही दृष्टिकोणले श्विता है, दूसरे भारतीयेतरोंके दृष्टिकोणमे नहीं, और इसलिये उसका गारतदर्शन एकांगी है। पूर्ण दर्शन दिये सब दृष्टिकोणोको दृष्टिमें हसना आवश्यक है | an inaarin यह न वि एक मिमें परस्परमें विरुद्ध तत्त्व वीर जव धर्मो का होना असंभव है। योकि सत्त्वधर्म के रहनेपर असत्त्ववर्म नही रह सकता और असत्त्वधर्मके रहनेपर सत्त्वधर्म नहीं रह नकता । वत नाहंत मत बतंगव " कहाँ तक लगत है यह निप्पल पाठक ही विचार करें।
स्याद्वाद
इस प्रकार जब प्रत्येक वस्तु परस्पर विरोधो प्रतीत होनेवाले मका समूह है तो उस अनेक धर्मात्मक वस्तुका जानना उतना कठिन ही है, जितना शब्दोंके द्वारा उने कहना कठिन है; क्योकि एक न अनेक धर्मो को एक साथ जान सकता है, किन्तु एक शब्द एक समयमें अस्तुके एक ही धर्मका नांगिक व्याख्यान कर सकता है । इसपर नी व्दिकी प्रवृत्ति वक्ता के अधीन है। वक्ता वस्तुके अनेक धर्मोते किसी एक धर्मकी मुख्यतासे वचन व्यवहार करता है । जैसे, देवदत्तको एक ही समय उसका पिता भी पुकारता है और उसका पुत्र भी पुकारता
। पिता उसे 'पुत्र' कहकर पुकारता है और उसका पुत्र उसे 'पिता' किहकर पुकारता है । किन्तु देवदत्त न केवल पिता ही है और न केवल पुत्र ही है किन्तु पिता भी है और पुत्र भी है। इसलिये पिताकी दृष्टिसे देवदत्तका पुत्रत्व धर्म मुख्य है और शेष धर्म गौण है और पुत्रकी दृष्टिते देवदत्तका पितृत्व धर्म मुख्य है और शेप धर्म गौण है; क्योकि अनेक धर्मात्मक वस्तुमेसे जिस धर्मको विवक्षा होती है वह धर्म मुख्य कहाता | है और इतर धर्म गौण । अत. जव वस्तु अनेक धर्मात्मक प्रमाणित । हो चुकी ओर गब्दमें इतनी सामर्थ्य नही पाई गई जो उसके पूरे धर्मों ३ का कथन एक समयमें कर सके । तथा प्रत्येक वक्ता अपनी अपनी
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१. ब्रह्मसूत्र २-२-३३ का शाकरभाय्य ।
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सिद्धान्त
दृष्टिसे वचन व्यवहार करता हुआ देखा गया तो वस्तुका स्वर' समझनेमे श्रोताको कोई धोखा न हो, इसलिये स्याद्वादका आविष्कोप हुआ। __ स्याद्वाद' सिद्धान्तके अनुसार विवक्षित धर्मसे इतर धमा। घोतक या सूचक 'स्यात्' शब्द समस्त वाक्योके साथ गुप्तरूपसे सम्म रहता है । स्यात् गब्दका अभिप्राय 'कथचित्' या 'किसी अपेक्ष से है। अत संसारमे जो कुछ है वह किसी अपेक्षासे नही भी है। इस अपेक्षावादका सूचक 'स्यात्' शब्द है, जिसका प्रयोग अनेकान्तवाल लिये आवश्यक है; क्योकि 'स्यात्' शब्दके विना अनेकान्त' का प्रय शन संभव नहीं है। अत अनेकान्त दृष्टिसे प्रत्येक वस्तु 'स्यात् स्ल और 'स्यात् असत् है।
कोई कोई विद्वान् ‘स्यात्' शब्दका प्रयोग शायद' के अर्थमे कर है। किन्तु शायद शब्द अनिश्चितताका सूचक है, जब कि स्यात् शं' एक निश्चित अपेक्षावादका सूचक है । इस प्रकार अनेकान्तवाद फलितार्थ स्यावाद है, क्योकि स्याद्वादके बिना अनेकान्तवादका प्रका संभव नहीं है। अत एक ही वस्तुके सम्बन्धमे उत्पन्न हुए विरि दृष्टिकोणोंका समन्वय स्याद्वादके द्वारा किया जाता है।
हम ऊपर लिख' आये है कि शब्दकी प्रवृत्ति वक्ताके अधीन अत. प्रत्येक वस्तुमें दोनों धर्मोके रहनेपर भी वक्ता अपने अपने दा' कोणसे उन धर्मोका उल्लेख करते है। जैसे-दो आदमी कुछ खरीदा लिये एक दूकानपर जाते है। वहाँ किसी वस्तुको एक अच्छी बतला है, दूसरा उसे बुरी बतलाता है । दोनोमें बात बढ़ जाती है। तीसरा आदमी उन्हें समझाता है-'भई क्यो झगडते हो ? ' वस्तु अच्छी भी है और बुरी भी। तुम्हारे लिये अच्छी है और इ लिये बुरी है अपनी अपनी दृष्टि ही तो है । ये तीनों व्यक्ति र प्रकारका वचन व्यवहार करते है। पहला विधि करता है, दूसरा नि और तीसरा विधि और निषेध।
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जनधर्म । वस्तुके उक्त दोनों धर्मोको यदि कोई एक साथ कहना चाहे तो तो कह सकता, क्योकि एक शब्द एक समयमे विधि और निषेधमेसे
का ही कथन कर सकता है। ऐसी अवस्थामें वस्तु अवाच्य ठहरती अर्थात् उसे शब्दके द्वारा नहीं कहा जा सकता। उक्त चार वचन वहारोकोदार्शनिकभाषामे स्यात् सत्, स्यात् असत्, स्यात् सदसत् और उत् अवक्तव्य कहते है। सप्तभंगीके मूल यही चार भग है। इन्हीके
गसे सात भंग होते है। अर्थात् चतुर्थ भग स्यात् अवक्तव्यके साथ पश पहले, दूसरे और तीसरे भगको मिलानेसे पांचवां, छठा और तवा भग बनता है । किन्तु लोक व्यवहारमें मूल चार तरहके
नोका ही व्यवहार देखा जाता है। स स्वामी शंकराचार्यने चौथे भग 'स्यादवक्तव्य' पर भी आपत्ति
है। वे कहते है कि-"पदार्थ अवक्तव्य भी नही हो सकते। यदि 'अवक्तव्य है तो उनका कथन नही किया जा सकता है। कथन भी
या जाय और अवक्तव्य भी कहा जाये ये दोनों बातें परस्परमें "रुद्ध है"। किन्तु यदि जैन वस्तुको सर्वथा अवक्तव्य कहते तब तो 'चार्य शंकरका उक्त दोषदान उचित होता। किन्तु वे तो अपेक्षा से अवक्तव्य' कहते है, इसीका सुचन करनेके लिये स्यात् शब्द क्तव्यके साथ लगाया गया है जो बतलाता है कि वस्तु सर्वथा अवहव्य नहीं है, किन्तु किसी एक दृष्टिकोणसे अवक्तव्य है। - इससे स्पष्ट है कि आचार्यशकर स्याद्वादको समझ नही सके । लिये स्वर्गीय महामहोपाध्याय डाक्टर गंगानाथ झा ने लिखा है
"जबसे मैने शंकराचार्य द्वारा जैनसिद्धान्तका खण्डन पढा है से मुझे विश्वास हुमा है कि इस सिद्धान्तमें बहुत कुछ है, जिसे न्तिके आचार्योने नही समझा। और जो कुछ में अब तक जैनधर्मको । न सका हूँ उससे मेरा यह दृढ विश्वास हुआ है कि यदि वे जैनधर्मको T१ "न चपा पदार्थानामवक्तव्यत्व सभवति। अवक्तव्यरचनोच्योरन् । लो नानाति निनिधि" । --ब्रह्मस० शां० २-२-३३ ।
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जैनधर्म
र दिया। उनके पश्चात् आप्तमीमांसापर 'अष्टशती" नामक ष्यके रचयिता श्रीअकलंकदेवने मेष तीन भगोका उपयोग करके स कमीको पूरा कर दिया। उनके मतसे शंकराचार्यका अनिर्वचयवाद सत्वक्तव्य, बौद्धोका अन्यापोहवाद असदवक्तव्य और योगम पदार्थवाद सदसदवक्तव्य कोटिमें गभित है। इस तरह सातो गोंका उपयोग हो जाता है।
३. द्रव्य-व्यवस्था जैनदर्शनके मूलतत्त्व अनेकान्तवाद और उसके फलितार्थ स्याद्वाद रसप्तभंगीवादका परिचय कराकर अव द्रव्यव्यवस्थाको बतलाते है। __ यद्यपि द्रव्यका लक्षण सत् है तथापि प्रकारान्तरसे गुण और र्यायोंके समूहको भी द्रव्य कहते हैं। जैसे, जीव एक द्रव्य है, उसमें ख ज्ञान आदि गुण पाये जाते हैं और नर नारकी आदि पर्याय पाई नाती है। किन्तु द्रव्यसे गुण और पर्यायकी पृथक् सत्ता नहीं है। ऐसा
ही है कि गुण पृथक् है, पर्याय पृथक् है और उनके मेलले द्रव्य बना है। किन्तु अनादिकालले गुणपर्यायात्मक ही द्रव्य है । साधारण तिते गुण नित्य होते हैं और पर्याय अनित्य होती है। अतः द्रव्यको नेत्य-अनित्य कहा जाता है। जैनदर्शनमें सत्का लक्षण उत्साद, व्यय और प्रौव्य माना गया है। अर्थात् जिसमें प्रति समय उत्पत्ति, विनाश मौर स्थिरता पाई जाती है वही सत् है। जैसे, मिट्टीते घट बनाते समय मिट्टीकी पिण्डरूप पर्याय नष्ट होती है, घट पर्याय उत्पन्न होती है और मिट्टी कायम रहती है। ऐसा नहीं है कि पिण्ड पर्यायका नाश पृथक समयमें होता है और घट पर्यायकी उत्पत्ति यक् समयमें होती है। किन्तु जो समय पहली पर्यायके नागका है, ही समय आगेकी पर्यायके उत्पादका है। इस तरह प्रतिसमय पूर्व यिका नाश बोर लागेको पर्यायकी उत्पत्तिके होते हुए भी द्रव्य कायम २. अष्टसहती पृ० १३८-१४२॥
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सिद्धान्त
१
अतः वस्तु प्रतिसमय उत्पाद व्यय और प्रोव्यात्मक
रहता है । कही जाती है ।
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1
आशय यह है कि प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है, और उसमे वह परिवर्तन प्रति समय होता रहता है । जैसे, एक बच्चा कुछ समय बाद युवा हो जाता है और फिर कुछ कालके वाद वूढा हो जाता है । बचपन से युवापन और युवापनसे बुढापा एकदम नही आ जाता, किन्तु प्रतिः समय बच्चेमे जो परिवर्तन होता रहता है वही कुछ समय बाद युवापन च के रूपमे दृष्टिगोचर होता है। प्रति समय होनेवाला परिवर्तन इतन सूक्ष्म है कि उसे हम देख सकनेमे असमर्थ है । इस परिवर्तनके होते हुए भी उस बच्चेमे एकरूपता बनी रहती है, जिसके कारण वडा है, जाने पर भी हम उसे पहचान लेते है । यदि ऐसा न मानकर द्रव्यक), केवल नित्य ही मान लिया जाये तो उसमे किसी प्रकारका परिवर्तन नही हो सकेगा, और यदि केवल अनित्य ही मान लिया जाये तो आत्मा, के सर्वथा क्षणिक होनेसे पहले जाने हुएका स्मरण आदि व्यापार नहीं, वन सकेगा । अत. प्रत्येक द्रव्य उत्पाद, विनाश और धोव्य स्वभाव, वाला है । चूँकि द्रव्यमे गुण ध्रुव होते है और पर्याय उत्पाद विनाश शील होती है; अत. गुणपर्यायात्मक कहो या उत्पादव्यय प्रोव्यात्मव कहो, दोनों का एक ही अभिप्राय है । द्रव्यके इन दोनों लक्षणोमे वास्तव में कोई भेद नही है, किन्तु एक लक्षण दूसरे लक्षणका व्यञ्जकमात्र है द्रव्यका स्वरूप बतलाते हुए आचार्य कुन्दकुन्दने प्रवचनसारम् कहा है
។
♡
'दवियदि गच्छदि ताइ वाइ सम्भावपज्जयाई ज । दवियं तं भष्णते अणण्णभूद तु सत्तादो || ||
6
अर्थ — 'द्र' धातुसे, जिसका अर्थ जाना है, द्रव्य शब्द बना है अतः जो अपनी उन उन पर्यायोको प्राप्त करता है, उसे द्रव्य कहते है। वह द्रव्य सत्तासे अभिन्न है ।'
इससे यह बतलाया है कि द्रव्य सत्स्वरूप है । और जैसे पर्यायोक प्रवाह सतत् जारी रहता है, एकके पश्चात् दूसरी और दूसरी
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जैनधर्म
पश्चात् तीसरी पर्याय होती रहती है, वैसे ही द्रव्यका प्रवाह भी सतत् जारी रहता है। अर्थात् द्रव्य अनादि और अनन्त है। • 'दव्वं सल्लक्खणिय उप्पादव्वयधुवत्तसजुत्त ।
गुणपज्जयासयं वाज तं भण्णति सव्वण्हू ॥१०॥ अर्थ-'भगवान् जिनेन्द्रदेव द्रव्यका लक्षण सत् कहते है। अथवा । उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे संयुक्त है वह द्रव्य है। अथवा जो गुण और पर्यायका आश्रय है वह द्रव्य है।' ___ द्रव्यके इन तीनो लक्षणोंमेसे एकके कहनेसे शेष दो लक्षण वतः ही कहे जाते है, क्योकि जो सत है वह उत्पाद, व्यय और प्रौव्य था गुण और पर्यायसे संयुक्त है, जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यवाला वह सत् है और गुण पर्यायका आश्रय भी है, तथा जो गुण पर्यायवाला वह सत् है और उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे संयुक्त भी है। ___ चूंकि सत् नित्यानित्यात्मक है अत. सत्के कहनेसे उत्पाद, व्यय और नौव्यपना प्रकट होता है तथा ध्रुवत्वसे गुणोंके साथ और उत्पादयस विनागशील पर्यायोके साथ एकात्मकता प्रकट होती है। इसी रह वस्तुको उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य स्वरूप बतलानेसे उसकी त्यानित्यात्मकता और गुणपर्यायविशिष्टिता प्रकट होती है । था वस्तुको गुणपर्यायात्मक बतलानेसे गुणोंसे ध्रौव्यका और पर्यायसे त्पाद विनाशका सूचन होता है और उससे नित्यानित्यात्मक सत्
यह प्रतीत होता है । अत. तीनों लक्षण प्रकारान्तरसे द्रव्यका वश्लेषण करते है और बतलाते है कि
"उप्पत्तीव विणासो दध्वस्त य णत्यि अत्यि सम्मावो।
विगमुप्पादषुवत्तं करति तस्सेव पज्जाया ॥११॥ अर्थ-"द्रव्यका न तो उत्पाद होता है और न विनाश, वह तो त्स्वरूप है। किन्तु उसीकी पर्याय उसके उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यको रती है।"
इसका यह मतलब है कि द्रव्य न तो उत्पन्न होता है और न नष्ट
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सिद्धान्त
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होता है, किन्तु उसकी पर्याय उत्पन्न होती और नष्ट होती है और १ F पर्याय चूंकि द्रव्यसे अभिन्न है अत. द्रव्य भी उत्पाद-व्ययशील है।
जैन दर्शनके इस सिद्धान्तका प्रतिपादन महर्षि पतञ्जलिने भी । अपने महाभाष्यके पशपशाह्निकमें निम्नलिखित शब्दोमें किया है___"व्य नित्यम्, आकृतिरनित्या। सुवर्ण कयाचिदाकृत्या युक्त पिण्डो भवति,' 'पिण्डाकृतिमुपमृद्य रुचका. क्रियन्ते, रुचकाकृतिमुपमृद्य कटका क्रियन्ते, कटकाकृतिमुपमृद्य स्वस्तिका क्रियन्ते । पुनरावृत्तः सुवर्णपिण्ड पुनरपरयाऽकृत्या युक्त. सदिरांगारसदृशे कुण्डले भवत । आकृतिरन्या च अन्या च भवति, दुव्यं । पुनस्तदव, आकृत्युपमर्दैन दुव्यमेवावशिष्यते।"
अर्थात्-द्रव्य नित्य है और आकार यानी पर्याय अनित्य है। सुवर्ण किसी एक विशिष्ट आकारसे पिण्डरूप होता है। पिण्डरूपका . विनाश करके उससे माला बनाई जाती है। मालाका विनाश करके उससे कड़े बनाये जाते है । कडोंको तोड़कर उससे स्वस्तिक बनाये जाते है। स्वस्तिकोंको गलाकर फिर सुवर्णपिण्ड हो जाता है। उसके अमुक आकारका विनाश करके खदिर अङ्गारके समान दो कुण्डल बना लिये जाते है। इस प्रकार आकार बदलता रहता है परन्तु द्रव्य' वहीं रहता है। आकारके नष्ट होनेपर भी द्रव्य शेष रहता ही है।'
इससे द्रव्यकी नित्यता और पर्यायकी अनित्यता प्रमाणित होती है। जैन दर्शन भी ऐसा ही मानता है और इसीसे वह वस्तुका लक्षण उत्पाद-व्यय और प्रौव्य करता है। उसके मतसे तत्त्व त्रयात्मक है। आचार्य समन्तभद्रने दो दृष्टान्त देकर इसी वातको प्रमाणित किया है। आप्तमीमासामे वे लिखते है
'घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्।
शोकप्रमोदमाध्यस्थ्य जनो याति सहेतुकम् ॥५६॥ 'एक राजाके एक पुत्र है और एक पुत्री । राजाके पास एक सोनेका घड़ा है । पुत्री उस घटको चाहती है, किन्तु राजपुत्र उस घटको तोडकर उसका मुकुट बनवाना चाहता है। राजा पुत्रकी हठ पूरी करनेके लिये घटको तुड़वाकर उसका मुकुट बनवा देता है। घटके
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जैनधर्म 5 . दुखी होती है, मुकुटके उत्पादसे पुत्र प्रसन्न होता है और पूकि राजा तो सुवर्णका इच्छुक है जो कि घट टूटकर मुकुट बन जानेपर भी कायन रहता है अत उसे न गोक होता है और न हप। मत. वस्तु त्रयात्मक (तीनरूप) है।' दूसरा उदाहरण
'पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः।
अगोरसन्नतो नोभे तस्मात्तल यात्मकम् ॥६०॥' "जिसने केवल दूध ही खानेका व्रत लिया है, वह दही नहीं खाता । जिसने केवल दही खानेका व्रत लिया है वह दूध नही खाता । और जिसने गोरसमात्र न खानेका व्रत लिया है वह न दूध खाता है और न दही, क्योंकि दूध और दही दोनो गोरसकी दो पर्यायें है अत गोरसत्व दोनोमे है। इससे सिद्ध है कि वस्तु त्रयात्मक-उतादव्यय ध्रौव्यास्मक है।
मीमांसाशनके पारगामी महामति कुमारिल भी वस्तुको उत्साद,व्यय और प्रौव्य-स्वरूप मानते है। उन्होने भी उसके समर्थनके लिये स्वामी समन्तभद्रके उक्त दृष्टान्तको ही अपनाया है। वे उसका खुलासा करते हुए लिखते है
'वर्धमानकभंगे च रुचक. क्रियते यदा। तदा पूर्वाधिन. शोक प्रोतिश्चाप्युत्तराधिन.॥२१॥ हेमापिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु ऋयात्मकम् । नोत्पादस्पितिभगानामनावे स्यान्मतित्रयन् ॥२२॥ न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम् । स्थित्या विना न माध्यत्व्य तेन सामान्यनित्यता ॥२३॥'
-मो० श्लो० वा० । अर्थात्-'जव सुवर्णके प्यालेको तोड़कर उसकी माला वनाई जाती है तव जिसको प्यालेकी जरूरत है, उसको शोक होता है, जिसे मालाकी आवश्यकता है उसे हर्ष होता है और जिसे सुवर्णकी आवश्यकता है उसे न हर्ष होता है और न शोक । अतः वस्तु त्रयात्मक
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सिद्धान्त
है । यदि उत्पाद, स्थिति और व्यय न होते तो तीन व्यक्तियो के तीन प्रकारके भाव न होते, क्योंकि प्यालेके नाशके विना प्यालेकी आवश्य कतावालेको शोक नही हो सकता, मालाके उत्पादके विना मालाक आवश्यकतावालेको हर्ष नही हो सकता और सुवर्णकी स्थिरताके बिन सुवर्णके इच्छुकको प्यालेके विनाश और मालाके उत्पादने माध्यस्थ्य नही रह सकता । अत वस्तु सामान्यसे नित्य है ।' ( और विशेष अर्थात् पर्यायरूपसे अनित्य है ) ।
निष्कर्ष यह है कि जैन दर्शनमे द्रव्य ही एक तत्त्व है, जो कि ६ प्रकारका है और वह प्रति समय उत्पाद व्यय और प्रोव्य स्वरूप है अतएव वह द्रव्यदृष्टिसे नित्य है और पर्यायदृष्टिसे अनित्य है । अ प्रत्येक द्रव्यका परिचय कराया जाता है ।
४. जीवद्रव्य चन्द
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जैनाचार्य श्रीकुन्दकुन्दने जीबका स्वरूप इस प्रकार बतलाया है - ‘अरसमख्वमगघं अव्वत्त वेदणागुणमसछ ।
जाण अलिंगग्गहण जीवमणिद्दिट्ठसठाण ॥२-८०॥ '
-प्रवच०
'जिसमे न कोई रस है न कोई रूप है और न किसी प्रकारक गंध है, अतएव जो अव्यक्त है, शब्दरूप भी नही है, किसी भौतिक चिह्नसे भी जिसे नही जाना जा सकता और न जिसका कोई निर्दिष्ट आकार ही है, उस चैतन्यगुण विशिष्ट द्रव्यको जीव कहते है ।
इसका यह आशय है कि जिसका चेतनागुण है, वह जीव है और वह जीव पुद्गल द्रव्यसे जुदा है, क्योकि पुद्गलद्रव्य रूप, रस । गन्ध और स्पर्श गुणवाला तथा साकार होता है, किन्तु जीवद्रव्य ऐस नही है । अत जीवद्रव्य जडतत्त्वसे जुदा एक वास्तविक पदार्थ है और भी
'जीवो त्ति ह वदि चेदा उवयोगविसेसिदो पहू कत्ता । भोत्ता य देहमत्तो ण हि मुत्तो कम्मसजुत्तो ॥२७॥ - पचास्ति०
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जनधर्म
'यह जीव चैतन्यस्वरूप है, जानने देखनेरुप उपयोगवाला है, भु है, कर्ता है, भोक्ता है और अपने शरीरके बराबर है। तथा द्यपि वह मूर्तिक नहीं है तथापि कर्मोंसे सयुक्त है।'
इस गाथाके द्वारा जीवद्रव्यके सम्बन्धमें जैनदर्शनकी प्रायः सभी ख्य मान्यताओको वतला दिया है। उनका खुलासा इस प्रकार है
जीव चेतन है
जीवका असाधारण लक्षण चेतना है और वह चेतना जानने और देखनरूप है। अर्थात् जो जानता और देखता है वह जीव है । पाख्य भी चेतनाको पुरुषका स्वरूप मानता है, किन्तु वह उसे ज्ञानरूप
ही मानता। उसके मतसे ज्ञान प्रकृतिका धर्म है। वह मानता है के ज्ञानका उदय न तो अकेले पुरुषमें ही होता है और न वुद्धिमें ही होता है। जव ज्ञानेन्द्रियाँ वाह्य पदार्थोको वुद्धिके सामने उपस्थित करती ई तो बुद्धि उपस्थित पदार्थके आकारको धारण कर लेती है। इतने पर भी जब बुद्धिमें चैतन्यात्मक पुरुषका प्रतिविम्ब पडता है तभी जानका उदय होता है। परन्तु जैनदर्शनमें बुद्धि और चैतन्यमे कोई भेद ही नही है। उसमे हर्ष, विषाद आदि अनेक पर्यायवाला ज्ञानरूप एक आत्मा ही अनुभवसे सिद्ध है । चैतन्य, वुद्धि, अध्यवसाय, ज्ञान आदि उसीकी पर्याये कहलाती है। अत चैतन्य ज्ञानस्वरूप ही है । उसकी दो अवस्थाएँ होती है। एक अन्तर्मुख और दूसरी बहिर्मुख जब वह आत्मस्वरूपको ग्रहण करता है तो उसे दर्शन कहते है और जब वह बाह्य पदार्थको ग्रहण करता है तो उसे ज्ञान कहते है। ज्ञान और दर्शनमे मुख्य भेद यह है कि जैसे ज्ञानके द्वारा 'यह घट है, यह पट है इत्यादि रूपसे वस्तुकी व्यवस्था होती है, उस तरह दर्शनके द्वारा नहीं होती। अत जीव चैतन्यात्मक है, इसका आशय है कि जीव ज्ञानदर्श नात्मक है, ज्ञान दर्शन जीवके गुण या स्वभाव है। कोई जीव उनके बिना रहही नही सकता। जो जीव है वह ज्ञानवान् है और जोज्ञानवान्
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सिद्धान्त
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है वह जीव है। जैसे आग अपने उष्ण गुणको छोडकर नही रह सकती, वैसे ही जीव भी ज्ञानगुणके बिना नहीं रह सकता। एकेन्द्रिय वृक्ष रहनेवाले जीवसे लेकर मुक्तात्माओं तकमे हीनाधिक ज्ञान पाया जाता है। सबसे कम ज्ञान वनस्पतिकायके जीवोमे पाया जाता है और सबसे अधिक यानी पूर्णज्ञान मुक्तात्मामे पाया जाता है।
जैनेतर दार्शनिकोमे नैयायिक वैशेषिक भी ज्ञानको जीवका गुण मानते है। किन्तु उनके मतानुसार गुण और गुणी ये दोनो दो पृथक् पदार्थ है और उन दोनोंका परस्परमें समवायसम्बन्ध है। अत. उनके मतसे आत्मा ज्ञानस्वरूप नहीं है, किन्तु उसमें ज्ञानगुण रहता है इसलिये वह ज्ञानवान् कहा जाता है। किन्तु जैनदर्शनका कहना है कि यदि आत्मा ज्ञानस्वरूप नहीं है तो वह अज्ञानस्वरूप ठहरता है। और उसके अज्ञानस्वरूप होनेपर आत्मा और जडमें कोई अन्तर नहीं रहता। इसपर नैयायिकका कहना है कि आत्माके साथ तो शानका सम्बन्ध होता है किन्तु जड घटादिकके साथ ज्ञानका सम्बन्ध नहीं। होता। इसलिये आत्मा और जडमे अन्तर है। इसपर जैन दार्शनिकोंका कहना है कि जब आत्मा भी ज्ञानस्वरूप नही है और जड भी ज्ञानस्वरूप नहीं है, फिर भी ज्ञानका सम्बन्ध आत्मासे ही क्यो होता है, जडसे क्यो नही होता? यदि कहा जायेगा कि आत्मा चेतन है इसलिये, उसीके साथ ज्ञानका सम्बन्ध होता है तो इस पर जैन दार्शनिकोका यह कहना है कि नैयायिक आत्माको स्वय चेतन भी नहीं मानता किन्तु चैतन्यके सम्बन्धसे ही चेतन मानता है। ऐसी स्थितिमे जानकी ही तरह चेतनके सम्बन्धमें भी वही प्रश्न पैदा होता है कि चैतन्यका सम्बन्ध, आत्माके ही साथ क्यो होता है घटादिकके साथ क्यो नही होता? अत. इस आपत्तिसे बचनेके लिये आत्माको स्वय चेतन और ज्ञानस्वरूप मानना चाहिये। जैसा कि कहा है
‘णाणी णाण च सदा अत्यतरिदो दु अण्णमण्णस्स। दोण्ह अचेदणत्त पसजदि सम्म जिणावमद ॥४८॥
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जैनधर्म ण हि सो समवायादो अत्यतरिदो दुणाणदो णाणी। अण्णाणीति य वयण एगत्तप्पसाधकं होदि ||४||
--पञ्चास्ति । अर्थात्-'यदि ज्ञानी और ज्ञानको परस्परमें सदा एक दूसरेसे भिन्न पदार्थान्तर माना जायगा तो दोनो अचेतन हो जायेगे। यदि कहा जायेगा कि ज्ञानसे भिन्न होनेपर भी आत्मा ज्ञानके समवायसे शानी होता है तो प्रश्न होता है कि जानके साथ समवाय सम्बन्ध होनेसे पहले वह आत्मा ज्ञानी था या अज्ञानी ? यदि ज्ञानी था तो उसमें ज्ञानका समवाय मानना व्यर्थ है। यदि अज्ञानी था तो अज्ञानके समवायसे अज्ञानी था या अज्ञानके साथ एकमेक होनेसे अज्ञानी था ? अज्ञानीमे अज्ञानका समवाय मानना तो व्यर्थ ही है। तथा उस समय उसमें ज्ञानका समवाय न होनसे उसे ज्ञानी भी नहीं कहा जा सकता। इसलिये अज्ञानके साथ एकमेक होनेसे आत्मा अज्ञानी ही ठहरता है। ऐसी स्थितिमे जैसे अज्ञानके साथ एकमेक होनेसे आत्मा अज्ञानी हुआ वैसे ही ज्ञानके साथ भी आत्माका एकत्व मानना चाहिये। । साराश यह है जनदर्शन गुण और गुणीके प्रदेश जुदे नहीं मानता।
जो आत्माके प्रदेश है वे ही प्रदेश ज्ञानादिक गुणोके भी है, इसलिये है उनमे प्रदेशभेद नहीं है। और जुदे वे ही कहलाते है जिनके प्रदेश भी 'जुदे हों। अत जो जानता है वही ज्ञान है। इसलिये ज्ञानके सम्बन्धस द आत्मा ज्ञाता नहीं है, किन्तु ज्ञान ही आत्मा है। जैसा कि कहा है-- ___णाण मम ति मद वट्टदि गाणं विणाण अप्पाण। तम्हा गाण अप्पा अप्पा गाण व अण्ण वा ॥२७॥
~प्रवचन ____ अर्थात्-'ज्ञान आत्मा है ऐसा माना गया है। चूंकि ज्ञान आत्मा
के विना नहीं रहता अत ज्ञान आत्मा ही है। किन्तु मात्मामें अनक ९ गुण पाये जाते है अत आत्मा ज्ञानस्वरूप भी है और अन्य गुण
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जैनधर्म
जन्य न होनेसे ही आत्माका कर्तृत्व स्वीकार करना पड़ता है | अत आत्मा कर्ता है |
भोक्ता है
जिस तरह जीव अपने भावोंका कर्ता है उसी तरह उनका भोक्ता मी है । यदि आत्मा सुख दुःखका भोक्ता न हो तो सुख दुखकी अनुभूति ही नही हो सकती और अनुभूति चैतन्यका धर्म है । साख्यका कहना है कि 'पुरुष स्वभावसे भोक्ता नही है किन्तु उसमे भोक्तृत्वका आरोप किया जाता है, क्योंकि सुख दुखका अनुभव बुद्धिके द्वारा होता है 'ओर बुद्धि अचेतन है । बुद्धिमें सक्रान्त सुख दुखका प्रतिविम्व शुद्ध स्वभावमें पड़ता है, अत. पुरुषको सुख दुखका भोक्ता मान लिया जाता है।' इस पर जैनोका कहना है कि जैसे स्फटिकमें जपाकुसुमका प्रतिविम्ब पड़ने से स्फटिक मणिका लाल रूपसे परिणमन मानना पड़ता है वैसे ही पुरुषमें सुख दुखका प्रतिबिम्ब माननेसे पुरुषमें सुख दुखरूप परिणाम मानना ही पडता है। उसके बिना सुख दुखकी अनुभूति नही हो सकती ।
अपने शरीरप्रमाण है।
जैन दर्शनमें जीवको शरीरप्रमाण माना गया है । जैसे दीपक छोटे या वड़े जिस स्थान में रखा जाता है, उसका प्रकाश उसके अनुसार ही या तो सकुच जाता है या फैल जाता है, वैसे ही आत्मा भी प्राप्त हुए छोटे या वडे शरीर के आकारका हो जाता है। किन्तु न तो सकोच होने पर आत्माके प्रदेशोकी हानि होती है और न विस्तार होनेपर नये प्रदेशोकी वृद्धि होती है। प्रत्येक दशामे आत्मा असंख्यातप्रदेशीका असंख्यातप्रदेशी ही रहता है ।
आत्माको शरीरप्रमाण माननमें यह आपत्ति की जाती है कि यदि आत्मा शरीरके प्रत्येक प्रदेशमें प्रवेश करता है तो शरीरकी तरह आत्माको भी सावयव मानना पडता है और सावयव मानने से आत्माका विनाश प्राप्त होता है, क्योंकि जैसे घट सावयव है जब उसके अवयवोका संयोग नष्ट होता है तो घट भी नष्ट हो जाता है, उसी तरह आत्माको
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सिद्धान्त
५३
सावयव माननेसे उसका भी नाश हो सकता है । इस आपत्तिका उत्तर जैनदर्शन देता है कि जैन दृष्टिसे आत्मा कथंचित् सावयव भी है, किन्तु उसके अवयव घटके अवयवोंकी तरह कारणपूर्वक नही है । अर्थात् घट एक द्रव्य नही है किन्तु अनेक द्रव्य है, क्योकि अनेक परमाणुओं के समूहसे घट बना है और प्रत्येक परमाणु एक एक द्रव्य है । अत घटके अवयव उसके कारणभूत परमाणुभोंसे उत्पन्न हुए है । किन्तु आत्मामें यह बात नही है आत्मा एक अखण्ड और अविनाशी द्रव्य है । वह अनेक द्रव्योके संयोगसे नही बना है । अत घटकी तरह उसके विनाशका प्रसङ्ग उपस्थित नही होता । जैसे आकाश एक सर्वव्यापक अमूर्तिक द्रव्य है, किन्तु उसे भी जैन दर्शनमे अनन्त प्रदेशी माना गया है, क्योकि यदि ऐसा न माना जायेगा तो मथुरा, काशी और कलकत्ता एक प्रदेशवर्ती हो जायेंगे । चूंकि ये भिन्न-भिन्न प्रदेशवर्ती है अत सिद्ध है कि आकाश बहुप्रदेशी भी है । बहुप्रदेशी होनेपर भी न तो आकाशका विनाश ही होता है और न वह अनित्य ही है, उसी तरह आत्माको भी जानना चाहिये ।
दूसरी आपत्ति यह की जाती है कि यदि आत्मा शरीर प्रमाण है तो बालकक शरीरप्रमाणसे युवा शरीररूप वह कैसे बदल जाता है। यदि वालकके शरीरप्रमाणको छोड़कर वह युवाके शरीरप्रमाण होता है तो शरीरकी तरह आत्मा भी अनित्य ठहरता है । यदि वालकके शरीरप्रमाणको छोड़े विना आत्मा युवा शरीररूप होता है तो यह संभव नही है, क्योकि एक परिमाणको छोड़े बिना दूसरा परिमाण नही हो सकता। इसके सिवा यदि जीव शरीरपरिमाण है तो शरीरके एकाध अंशके कट जानेपर आत्माके भी अमुक भागकी हानि माननी पड़ती है । इसका उत्तर यह है कि आत्मा बालकके शरीरपरिमाणको छोड़कर ही युवा शरीरके परिमाणको धारण करता है । जैसे सर्प अपने फण वगैरहको फैलाकर वडा कर लेता है वैसे ही आत्मा भी संकोच - विस्तार गुणके कारण भिन्न-भिन्न समयमे भिन्न-भिन्न आकारवाला हो जाता
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जनधर्म । इस अपेक्षासे आत्माको अनित्य भी कहा जा सकता है। किन्तु व्यदृष्टिसे तो आत्मा नित्य ही है। शरीरके खण्डित हो जानेपर
आत्मा खण्डित नहीं होता किन्तु शरीरके खण्डित हुए भागमे आत्माप्रदेश विस्ताररूप हो जाते है । यदि खण्डित हुए भागमें आत्माके देश न माने जाये तो शरीरसे कटकर अलग हुए भागमे जो कंपन खा जाता है उसका कोई दूसरा कारण दृष्टिगोचर नहीं होता, योंकि उस भागमे दूसरी आत्मा तो नहीं हो सकता, और विना सात्माके परिस्पन्द नही हो सकता, क्योकि कुछ देरके वाद, जव आत्मदेश सकुच जाते है तो कटे भागमें क्रिया नहीं रहती। अत. शरीरके तो भाग हो जानेपर भी आत्माके दो भाग नहीं होते। अत. आत्मा शरीर परिमाणवाला है, क्योकि मै सुखी हूँ, इत्यादि रूपसे शरीरमें हो आत्माका ग्रहण होता है। __इस प्रकार आत्माको शरीरपरिमाणवाला सिद्ध करके जैनदार्शनिक आत्माके व्यापकत्वका खण्डन करते है । वे कहते है कि यदि
आत्मा व्यापक है तो उसमें क्रिया नही हो सकती और क्रियाके बिना वह पुण्य-पापका कर्ता नहीं हो सकता। तथा कर्तृत्वके बिना वन्य और मोक्षको व्यवस्था नहीं बनती।
कोस संयुक्त है जैनदर्शन प्रत्येक संसारी आत्माको कर्मोंसे बद्ध मानता है। यह कर्मवन्धन उसके किसी अमुक समयमें नही हुआ, किन्तु अनादिस है। जैसे, खानसे सोना सुमैल ही निकलता है वैसे ही संसारी आत्माएं भा अनादिकालसे कर्मबन्धनमे जकड़े हए ही पाये जाते है । याद आत्माएं अनादिकालसे शद्ध ही हो तो फिर उनके कर्मबन्धन नहीं हो सकता, क्योकि कर्मवन्धनके लिये आन्तरिक अशुद्धिका होना आवश्यक
है। उसके विना भी यदि कर्मवन्धन होने लगे तो मुक्त आत्मालाक , 'भी कर्मवन्धनका प्रसंग उपस्थित हो सकता है और ऐसी अवस्था 'मुक्ति के लिये प्रयल करना व्यर्थ हो जायेगा।
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सिद्धान्त
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इस प्रकार जैन दृष्टिसे जीव जानने देखनेवाला, अमूर्तिक, कर्ता भोक्ता, शरीर परिमाणवाला और अपने उत्थान और पतनके लि स्वयं उत्तरदायी है ।
जीवके भेद
च
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उस जीवके मूल भेद दो है-ससारी जीव और मुक्त जीव कर्मबन्धनसे वद्ध जो जीव एक गतिसे दूसरी गतिमे जन्म लेते और - मरते है वे ससारी है और जो उससे छूट चुके है वे मुक्त है। मुक्त जीवो तो कोई भेद होता ही नहीं, सभी समान गुणधर्मवाले हो " है । किन्तु संसारी जीवोमे अनेक भेद प्रभेद पाये जाते है । ससार जीव चार प्रकारके होते हैं, नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव /ल इस पृथिवीके नीचे सात नरक है, उनमे जो जीव निवास करते ह वे नारकी है । ऊपर स्वर्गोमे जो निवास करते हैं वे देव कहाते है है हम आप सब मनुष्य है और पशु, पक्षी, कीड़े मकोडे, वृक्ष आदि सव तिर्यञ्च कहे जाते है । नारकी, देव और मनुप्योके तो पांचर ज्ञानेन्द्रियाँ होती है, किन्तु तिर्यञ्चोमें ऐसा नही है । पृथ्वीकायिक जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवोव केवल एक स्पर्शन इन्द्रिय ही होती है, उसीके द्वारा वे जानते हैं । इन् जीवोंको स्थावर कहते है । जैनधर्मके अनुसार मनुष्य, पशु, पक्षी कीडे, मकोड़े आदिके सिवा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति" भी जीव है। मिट्टी में कीड़े आदि जीव तो है ही, किन्तु मिट्टी पहा आदि स्वयं पृथ्वीकायिक जीवोके शरीरका पिण्ड है । इसी तर जलमे यंत्रोंके द्वारा दिखाई देनेवाले अनेक जीवोके अतिरिक्त ज स्वय जलकायिक जीवोके शरीरका पिण्ड है । यही बात अग्निकार आदिके विपयमे भी जाननी चाहिये । लट आदि जीवोके स्पर्शन औ रसना ये दो इन्द्रियाँ होती है । चीटी वगैरहके स्पर्शन, रसना मो घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ होती है । भोरे आदिके स्पर्शन, रसना, घा और चक्षु ये चार इन्द्रियाँ होती है और सर्प, नेवला, पशु, पक्षी आदिव
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जनधर्म
पांचों इन्द्रियाँ होती है। इन इन्द्रियोके द्वारा वे जीव अपने अपने योग्य स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्दका ज्ञान करते है। जैन शास्त्रोमे इन सभी जीवोंकी योनि, जन्म और शरीर वगैरहका विस्तारसे वर्णन किया गया है। । यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना जरूरी है कि जनदर्शन जीव बहुत्ववादी है। वह प्रत्येक जीवको स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करता है। उसका कहना है कि यदि सभी जीव एक होते तो एक जीवके सुखी होनेसे सभी जीव सुखी होते, एक जीवके दुःखी होनेसे सभी जीव दुखी होते, एकके बन्धनसे सभी बंधनबद्ध होते और एककी मुक्तिसे सभी मुक्त हो जाते । जीवोकी भिन्न-भिन्न अवस्थाओको देखकर ही सांख्यने भी जीवोकी अनेकताको स्वीकार किया है । जैनदर्शनका भी यही
कहना जीव सुखी होते. धनबद्ध होते और बाको देखकर ही भी यही
५ अजीवद्रव्य . ६ जिन द्रव्योंमें चैतन्य नहीं पाया जाता वे अजीवद्रव्य कहे जाते है। वे पाँच है। उनका परिचय इस प्रकार है
१ पुद्गलद्रव्य यह वात उल्लेखनीय है कि जैन दर्शनमे पुद्गल शब्दका प्रयोग विल्कुल अनोखा है, अन्य दर्शनोमें इसका प्रयोग नही पाया जाता । जो टूटे फूटे, बने और बिगडे वह सब पुद्गलद्रव्य है। मोटे तौरपर हम जो कुछ देखते है, छते है, संघते है, खाते हैं और सुनते है वह सब पुद्गलद्रव्य है। इसीलिये जैन शास्त्रोंमे पुद्गलका लक्षण रूप, रस, गध
और स्पर्शवाला बतलाया है। इस तरह पुद्गलसे आधुनिक विज्ञाना 'मंटर' (Matter) और इनर्जी (Energy) दोनो ही सगृहात हो जाते है । जो परमाणुसम्बन्धी आधुनिक खोजोसे परिचित ह वे पुद्गल शब्दके चुनावकी प्रशंसा ही करेंगे। आधुनिक वैज्ञानिकांक मतानुसार सव अटोम (परमाणु) इलैक्ट्रोन प्रोट्रोन और न्यूट्राना
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सिद्धान्त
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समूह मात्र है । विज्ञानमे यूरेनियम एक धातु है उससे सदा तीन प्रकारकी किरणे निकलती रहती है। जब यूरेनियमका एक अणु, तीनों किरणोंको खो बैठता है तो वह एक रेडियमके अणुके रूपमे वदल जाता है। इसी तरह रेडियम अणु शीशा धातुमे परिवर्तित हो जाता है। यह परिवर्तन बतलाता है कि एलेक्ट्रोन और प्रोट्रोनके विभागों 'मैटर'का एक रूप दूसरे रूपमे परिवर्तित हो जाता है । इस रहो वदला और टूट फूटको पुद्गल' शब्द बतलाता है। छहो द्रव्योंमें एक पुद्गल, द्रव्य ही मूर्तिक है, शेष द्रव्य अमूर्तिक है। न्यायदर्शनकार, पृथिवी, जल, तेज और वायुको जुदा जुदा द्रव्य मानते है, क्योकि उनकी मान्यताके अनुसार पृथिवीमे रूप, रस, गन्ध और स्पर्श चारो, गुण पाये जाते है, जलमे गन्धके सिवा शेष तीन ही गुण पाये जाते है.. तेजमें गन्ध और रसके सिवा शेष दो ही गुण पाये जाते है और वायुमे केवल एक स्पर्श ही गुण पाया जाता है। अत चारोके परमाणु जुदेजुदेह । अर्थात् पृथिवीके परमाणु जुदे है, जलके परमाणु जुदे है, तेजके. परमाणु जुदे है और वायुके परमाणु जुदे है। अत. ये चारो द्रव्य जुदे. जुदे है । किन्तु जैन दर्शनका कहना है कि सब परमाणु एकजातीय" ही है और उन सभीमे चारों गुण पाये जाते है। किन्तु उनसे बने हुए द्रव्योमें जो किसी किसी गुणकी प्रतीति नहीं होती, उसका कारण उन' गुणोंका अभिव्यक्त न हो सकना ही है। जैसे, पृथिवीमे जलका सिंचन करनेसे गन्ध गुण व्यक्त होता है इसलिये उसे केवल पृथ्वीका ही गुण नही माना जा सकता । आँवला खाकर पानी पीनेसे पानीका स्वाद मीठा लगता है, किन्तु वह स्वाद केवल पानीका ही नहीं है, आँवलेका स्वाद भी उसमे सम्मिलित है। इसी प्रकार अन्यत्र भी जानना चाहिये। इसके सिवा जलसे मोती उत्पन्न होता है जो पार्थिव माना जाता है, जंगलमे बांसोकी रगड़से अग्नि उत्पन्न हो जाती है, जौके खाने, पेटमे वायु उत्पन्न होती है। इससे सिद्ध है कि पृथ्वी, जल, अग्नि और वायके परमाणुगोमें भेद नहीं है। जो कुछ भेद है, वह केवल परिणमनका भद है। अतः सभीमें स्पर्शादि चारो गुण मानने चाहिये। और
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जैनधर्म
इसीलिये पृथ्वी आदि चार द्रव्य नहीं है किन्तु एक द्रव्य है। इसीलिये कहा है
'आदेसमत मुत्तो धादुचदुक्कस्स कारण जो दु।। सो णेमो परमाणू परिणामगुणो सयमसद्दो ॥७८, -पचास्ति। अर्थात्-जो पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुका कारण है वह परमाणु । परमाणु द्रव्य है उसमे स्पर्ण, रस, गन्ध और रूप ये चारो गुण इये जाते हैं। इसी कारणसे वह मूर्तिक कहा जाता है। वह परमाणु भविभागी होता है, क्योंकि उसका, आदि, अन्त और मध्य नहीं है। इसीलिये उसका दूसरा भाग नहीं होता। जैन दर्शनकी दृष्टिसे द्रव्य
और गुणमें प्रदेशभेद नहीं होता। इसलिये जो प्रदेश परमाणुका है वही चारो गुणोका भी है। अत इन चारो गुणोको परमाणुसे जुदा नहीं किया जा सकता। फिर भी जो किसी द्रव्यमें किसी गुणकी प्रतीति नहीं होती उसका कारण परमाणुका परिणामित्व है, परिण मनशील होने के कारण ही कही किसी गुणकी उद्भूति देखी जाती है और कही किसी गुणकी अनुभूति । किन्तु परमाणु शब्दरूप नहीं है।
पुद्गलके दो भेद है-परमाणु और स्कन्ध । प्राचीन शास्त्रोमें परमाणुका स्वरूप इस प्रकार बतलाया है
"अत्तादि अत्तमज्झं अत्तत व इदियगेज्झ।
ज दव्व अविभागी त परमाणु वियाणाहि ।'
जो स्वय ही आदि, स्वय ही मध्य और स्वयं ही अन्तरूप है। 'अर्थात् जिसमें आदि, मध्य और अन्तका भेद नहीं है और जो इन्द्रियोके द्वारा भी ग्रहण नहीं किया जा सकता। उस अविभागी द्रव्यको परमाणु जानो।'
'सन्वेसि खंघाण जो अतो त वियाण परमाणू ।
सो सस्सदो असहो एक्को अविमागी मुत्तिभवो ॥७७॥ पञ्चास्तिक
'सब स्कन्धोका जो अन्तिम खण्ड है, अर्थात् जिसका दूसरा खण्ड । नही हो सकता, उसे परमाणु जानो। वह परमाणु नित्य है, शब्दरूप 'नही है, एक प्रदेशी है, अविभागी है और मूर्तिक है।
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सिद्धान्त
'एयरसवण्णगध दो फास सहकारण मसई ।
खपतरिद दन्व परमाणु त पियाणाहि ॥८१॥' -पञ्चास्ति "जिसमे एक रस, एक रूप, एक गन्ध और दो स्पर्श गुण होते है जो शब्दकी उत्पत्तिमे कारण तो है किन्तु स्वयं शब्दरूप नही है . HE स्कन्धसे जुदा है, उसे परमाणु जानो।' ___ ऊपरके इस विवेचनसे परमाणुके सम्वन्धमें अनेक वातें ज्ञात होती है। पुद्गलके सबसे छोटे अविभागी अशको परमाणु कहते है। वह परमाणु एकप्रदेशी होता है, इसीलिये उसका दूसरा भाग नहीं हो सकता। उसमे कोई एक रस, कोई एक रूप, कोई एक गध
और शीत-उष्णमेसे एक तथा स्निग्ध रूक्षसे एक, इस तरह दो स्पर्श होते है। यद्यपि परमाणु नित्य है तथापि स्कन्धोके टूटनेसे उसकी उत्पत्ति होती है। अर्थात् अनेक परमाणुओंका समूहरूप स्कन्ध जी विघटित होता है तो विघटित होते होते उसका अन्त परमाणु रूपीहोता है, इस दृष्टिसे परमाणुलोकी भी उत्पत्ति मानी गई है। किन्तु द्रव्यल्पसे तो परमाणु नित्य ही है। ___अनेक परमाणुओके वन्धसे जो द्रव्य तैयार होता है, उसे स्कन्ध कहते है। दो परमाणुओके मेलसे द्वयणुक बनता है, तीन परमाणुओके मेलसे त्र्यणुक तैयार होता है। इसी तरह, सख्यात, असख्यात.' अनन्त परमाणुओके मेलसे संख्यात प्रदेशी, असख्यात प्रदेशी और अनन्त प्रदशी स्कन्ध तैयार होते है। हम जो कुछ देखते है वह सर्न, स्कन्ध ही है। धूपमे जो कण उड़ते हुए दृष्टिगोचर होते है, वे भी स्कन्ध ही है। __ 'यहाँ यह बतला देना अनुचित न होगा कि आधुनिक रसायन शास्त्र (Chemistry) मे जो 'अटोम' माने गये है वे जैन परमाणुक, समकक्ष नही है । यद्यपि 'अटोम' का मतलव आरम्भमे यही लिया गया था कि जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता। तथापि अद
१. Cosmology old and new, By pro.G. R. Jaun |
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जैनधर्म
यह प्रमाणित हो गया है कि 'अटोम' प्रोटोन स्ट्रोन और एलेक्ट्रोनका एक पिण्ड है। परमाणु तो वह मूल कण है जो दूसरो मेलके बिना त्वयं कायम रहता है ।
पुद्गल द्रव्यकी अनेक पर्यायें होती है । वया
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पज्जाया ||१६||' उन० 1
'शब्द, बन्ध, नूक्ष्मता, स्थूलता, आकार, गण्ड, जन्नवार, छाया, चाँदनी बोर धूप वे नव पुद्गल द्रव्यको पर्यायें है ।
{ अन्य दार्शनिको शव्दको गुण माना है, किन्तु जैन 'दार्शनिक उसे पुद्ग द्रव्यको पर्याय मानते हैं। वे लिखते हैं
'सही समय सपोर
'सही वो सुमो पूलीमाया उज्जोदादवसहिया
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1 पुनु तेनु जायदि नहोउपपनी पि ॥३१॥ पञ्चास्ति । 'शब्द स्कन्वते उत्पन्न होता है । जनेक परमाणुओके बन्ध'विशेषको स्कन्ध कहते है । उन स्कन्धोके परस्परमें टकरानेने मन्दोंको - उत्पत्ति होती है ।'
जैनोका कहना है कि यदि शब्द आफानका गुण होता तो मूर्तिक कर्णेन्द्रियके द्वारा उसका ग्रहण नहीं हो सकता था, क्योंकि मूर्तिक anant गुण भी मूर्ति ही होगा। और अमूर्तिकको मूर्तिक इन्द्रिय नही जान सकती । तथा शब्द टकराता भी है, कुएँ बगैरह नावाज करनेसे प्रतिव्वनि सुनाई पड़ती है। शब्द रोका भी जाता है, ग्रामोफोनक रिकार्ड, टेलीफोन आदि इसके उदाहरण है । मन्द गतिमान भी है । आधुनिक विज्ञान भी शब्द में गति मानता है । तथा स्कूलमें लड़कों'को प्रयोग द्वारा बतलाया जाता है कि शब्द ऐसे आकाशमै गमन नही कर सकता जहाँ किसी भी प्रकारका 'मैटर' न हो। नतः विज्ञानसे 'भी शब्द नाकाशका गुण सिद्ध नही होता। जत. नव्य मूर्तिक है ।
बन्धका मतलब केवल दो वस्तुओका परस्परमे मिल जाना मात्र नही है । किन्तु बन्ध उस सम्बन्ध विशेषको कहते हैं, जिसमें दो चीजे
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सिद्धान्त
अपनी असली हालतको छोडकर एक तीसरी हालत हो जाती है । उदाहरण के लिये आक्सीजन और हाइड्रोजन नामक दो हवाएं है ।। ये दोनों जब परस्परमें मिलती है तो पानीरूप हो जाती है । इसी तरह कपूर, पीपरमेण्ट और सत अजवायन परस्परमें मिलकर एक द्रव औषधीका रूप धारण कर लेते है । यह बन्ध है । यदि ऐसा न माना जाये तो जिस तरह वस्त्रमे रंग-बिरंगे धागोका सयोग होनेपर भी सब धागे अलग अलग ही रहते हैं, एकका दूसरेपर कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नही होता, उसी तरह यदि परमाणुओंका भी केवल सयोगमात्र ही माना जाये और वन्घविशेष न माना जाये तो उनके संयोगसे स्थिर स्थूल वस्तुकी उत्पत्ति नही हो सकती, क्योंकि बन्धमे जो रसायनिक सम्मिश्रण होता है, केवल संयोगमें वह संभव नही है । और रसायनिक मणके बिना tara उत्पन्न नही हो सकता । इसीलिये जैन दशनमें वन्वके स्वरूपका विश्लेषण बड़ी बारीकी से किया गया है । - उसमे बतलाया है कि स्निग्ध और रूक्ष गुणके निमित्तसे ही परमाणुओं का। वन्ध होता है । परमाणुमे अन्य भी अनेक गुण है, किन्तु वन्ध करानेमे ' कारण केवल दो ही गुण है- स्निग्धता - चिक्कणता और रूक्षता-रूखापना | स्निग्ध गुणवाले परमाणुओका भी बन्ध होता है, रूक्षगुणवाले' परमाणुओंका भी बन्ध होता है और स्निग्ध रूक्षगुणवाले परमाणुओका भी वन्ध होता है । किन्तु जघन्य गुणवालोका वन्घ नही होता और न समान गुणवालों का ही बन्ध होता है, क्योकि इस प्रकारके गुणवाले परमाणु यद्यपि परस्परमें मिल सकते है किन्तु स्कन्धको उत्पन्न नही कर सकते । मत. दो अधिक गुणवालोका ही परस्परसे वन्ध हो सकता है; क्योंकि अधिक गुणवाला परमाणु अपनेसे दो कम गुणवाले परमाणुसे मिलकर एक तीसरी अवस्था धारण करता है, इसीका नाम वन्व है । यदि दोसे अधिक या दोसे कम गुणवालोका भी बन्ध मान लिया जाय तो अधिक विषमता हो जानेके कारण अधिक गुणवाला कम गुणवालोको अपने में मिला लेगा, किन्तु कम गुणवाला अधिक गुणवाले - 1
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जैनधर्म पर अपना उतना प्रभाव नही डाल सकेगा जितना रसायनिक सम्मिश्रणके लिये आवश्यक है। अत दो अधिक गुणवालोका ही बन्ध होता है, और बन्धसे स्कन्धोकी उत्पत्ति होती है। इस प्रकारका वन्ध पुद्गल द्रव्यमे ही समव है अत. बन्ध भी पुद्गलकी पर्याय है।
इसी तरह मोटापन, दुबलापन, गोल, तिकोन, चौकोर आदि आकार और टूट-फूट भी मूर्तिकद्रव्यमे ही सभव है। मत. वे भी पुद्गलकी पर्याय है । जैनदृष्टिसे अन्धकार भी वस्तु है, क्योकि वह दिखाई देता है और उसमे तरतमभाव पाया जाता है। जैसे, गाढा अन्धकार, हलका अन्धकार आदि । दूसरे दार्शनिक अन्धकारको केवल प्रकाशका अभाव ही मानते है, किन्तु जैनदार्शनिक उसे केवल अभावमात्र न मानकर प्रकाशकी ही तरह एक भावात्मक चीज मानते है। और जैसे सूर्य, चाँद वगैरहका प्रकाश, जो धूप और चाँदनीक नामसे पुकारा जाता है, पुद्गलकी पर्याय है वैसे ही अन्धकार 'भी पुद्गलको पर्याय है। छाया भी पुद्गलकी पर्याय है, क्योकि किसी मूर्तिमान् वस्तुके द्वारा प्रकाशके रुक जानेपर छाया पड़ती है। . इस प्रकार इन्द्रियोके द्वारा हम जो कुछ देखते है, सूंघते है, छूते है, चखते है और सुनते है वह सब पुद्गल द्रव्यको ही पर्याय है ।
२. धर्मद्रव्य और ३. अधर्मद्रव्य ।। धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्यसे मतलव पुण्य' और पापसे नहीं है, किन्तु ये दोनो भी जीव और पुद्गलकी ही तरह दो स्वतन्त्र द्रव्य है जो जीव और पुद्गलोके चलने और ठहरनेमे सहायक होते है । छ द्रव्योमेसे धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य तो निष्क्रिय ह, इनमे हलन-चलन नहीं होता, शेष जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य ' सक्रिय है। इन दोनों द्रव्योको जो चलनेमे सहायता करता है वह धर्मद्रव्य है और जो ठहरनेमे सहायता करता है वह अधर्मद्रव्य है । यद्यपि चलने और ठहरनेकी शक्ति तो जीव पुद्गलमें है ही, किन्तु
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सिद्धान्त
बाह्य सहायताके विना उस शक्तिकी व्यक्ति नही हो सकती। जैसे, परिणमन करनेकी शक्ति तो संसारकी प्रत्येक वस्तुमे मौजूद है, किन्तु कालद्रव्य उसमे सहायक है उसकी सहायताके विना कोई वस्तु परिणमन नही कर सकती। इसी तरह धर्म और अधर्मकी' सहायताके बिना न किसीमें गति हो सकती है और न किसीकी स्थिति हो सकती है। ये दो द्रव्य ऐसे है, जिन्हे जनोंके सिवा अन्य किसी भी धर्मने नहीं माना। दोनो द्रव्य आकाशकी तरह ही अमूर्तिक है और समस्त लोकव्यापी है । जैसा कि कहा है
धम्मत्यिकायमरस अवण्णगध असहमप्फास।
लोगोगाढं पुठ पिहुलमसखादियपदेस ॥५३॥'-पचास्ति। 'धर्मद्रव्यमे न रस है, न रूप है, न गंध है, न स्पर्श है, और न वह शब्दरूप ही है । तथा समस्तलोकमे व्याप्त है, अखडित है और असंख्यात प्रदेशी है।'
'उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहयरं हवदि लोए।
तह जीवपुग्गलाणं घमं दवं वियाणेहि ॥८॥-पचास्ति । 'जैसे इस लोकमे जल मछलियोके चलनेमे सहायक है वैसे ही वर्मद्रव्य जीव और पुद्गलोको चलनेमे सहायक है।'
'जह हवदि धम्मदव्वं तह त जाणेह दब्बमधम्मक्ख ।
ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूद तु पुढवीव ॥६६॥'पचास्ति० । "जैसा धर्मद्रव्य है वैसा ही अधर्मद्रव्य है । अधर्मद्रव्य ठहरते हुए जीव और पुद्गलोको पृथ्वीको तरह ठहरने में सहायक है।'
सहायक होनेपर भी धर्म और अधर्म द्रव्य प्रेरक कारण नहीं है, अर्थात् किसीको बलात् नही चलाते है और न वलात् ठहराते हैं। किन्तु चलते हुएको चलने में और ठहरते हुएको ठहरनेमे मदद करते हैं। ____ यदि उन्हे गति और स्थितिमे मुख्य कारण मान लिया जाये तो जो चले रहे हैं वे चलते ही रहेगे और जो ठहरे है वे ठहरे ही रहेगे। किन्तु जो चलते है वे ही ठहरते भी है। अत. जीव और पुद्गल स्वयं
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जैनधर्म
ही चलते है और स्वयं ही ठहरते है, धर्म और अधर्मं केवल उसमें
सहायकमात्र है । '
४. आकाशद्रव्य
जो सभी द्रव्योको स्थान देता है उसे आकाशद्रव्य कहते है । यह द्रव्य अमूर्तिक और सर्वव्यापी है। इसे अन्य दार्शनिक भी मानते - है । किन्तु जैनोकी मान्यतामे उनसे कुछ अन्तर है । जैनदर्शन में आकाशके दो भेद माने गये है— एक लोकाकाश और दूसरा अलोकाकाश । सर्वव्यापी आकाशके मध्यमे लोकाकाश है और उसके चारो और सर्वव्यापी अलोकाकाश है । लोकाकाशमे छहो द्रव्य पाये जाते है और अलोकाकाशमें केवल आकाशद्रव्य ही पाया जाता है । जैसा कि लिखा है
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'जीवा पुस्गलकाया धम्माघम्मा य लोगदोणण्णा । तत्तो अणण्णमण्ण आयास अतवदिरित ॥ ६१ ॥
पचास्ति ०
+
'जीव, पुद्गल, धर्म और अधर्मद्रव्य लोकसे बाहर नही है । और
१ प्रो० घासीराम जैनने अपनी 'कासमोलाजी बोल्ड एण्ड न्यू नामकी पुस्तकमें धर्मद्रव्यकी तुलना आधुनिक विज्ञानके ईथर नामक तस्वसे और अधर्मं द्रव्यकी तुलना सर आइजक न्यूटनके आकर्षण सिद्धान्तसे की है । क्योकि वैज्ञानिकोने 'ईयर' को अमूर्तिक, व्यापक, निष्क्रिय और अदृश्य मानने के साथ 'गतिका आवश्यक माध्यम भी माना है, जैनोने धर्मद्रव्यको भी ऐसा ही माना है । अधर्मद्रव्य और विज्ञान के आकर्षण सिद्धान्तकी तुलना करते हुए प्रोफेसर जैनने लिखा हे — 'यह जैनधर्मके अधर्मद्रव्य विषयक सिद्धान्तकी सबसे बडी विजय है कि विश्वकी स्थिरताके लिये विज्ञानने अदृश्य आकर्षणशक्तिकी सत्ताको स्वयसिद्ध प्रमाणके रूपमें स्वीकार किया और प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइस्टोनने उसमें सुधार करके उसे क्रियात्मकरूप दिया । अब आकर्षण सिद्धान्तको सहायक कारणके रूपमें माना जाता है, मूल कर्ताके रूपमें नही, इसलिये अब वह जैनधर्मविषयक अधर्मद्रव्यको मान्यताके विल्कुल अनुरूप बैठता है ।' पे-४४ |
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सिद्धान्त
आकाश उस लोकके अन्दर भी है और बाहर भी है, क्योकि उसका अन्त नहीं है।'
सारांश यह है कि आकाश सर्वव्यापी है। उस आकाशके बीचमें लोकाकाशह, जो अकृत्रिम है-किसीका बनाया हुआ नहीं है। न उसका आदि है और न अन्त ही है। कटिके दोनों भागोंपर दोनो हाथ रखकर और दोनों पैरोको फैलाकर खड़े हुए पुरुषके समान लोकका आकार है। नीचेके भागमे सात नरक है। नाभि देशमे मनुष्यलोक है और ऊपरके भागमे स्वर्गलोक है। तथा मस्तक प्रदेशमे मोक्षस्थान है। चूंकि जीव शरीरपरिमाणवाला और स्वभावसे ही ऊपरको जानेवाला है अत कर्मवन्धनसे मुक्त होते ही वह शरीरमेसे निकलकर ऊपर चला जाता है और जाकर मोक्षस्थानमे ठहर जाता है। उससे आगे वह जा नहीं सकता, क्योकि गमनमे सहायक धर्मद्रव्य वहीतक पाया, जाता है, उससे आगे नही पाया जाता । और उसकी सहायताके विना वह आगे जा नहीं सकता। इसीलिये जब कुछ दार्शनिकोने जैनोसे यह प्रश्न किया कि धर्म और अधर्म द्रव्यको आवश्यकता ही क्या। है, आकाश उनका भी कार्य कर लेगा तो उन्होंने उन्हें उत्तर दिया
'आगासं अवगासं गमणद्विदिकारणेहि देदि जदि। उड्ढे गदिप्पधाणा सिद्धा चिट्ठति किध तत्य ॥९॥' -पचास्ति ।
'यदि आकाश अवगाहके साथ-साथ गमन और स्थितिका भी कारण हो जायेगा तो ऊर्ध्वगमन करनेवाले मुक्त जीव मोक्षस्थानमे
कसे ठहर सकेगे। .. इस पर यह कहा जा सकता है कि मुक्तजीव ऊपरलोकके अग्रभाग
में यदि नहीं ठहर सकेगे तो न ठहरे। मात्र उन्हें ठहरानेके लिये ही तो दो द्रव्य नही माने जा सकते ? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते है
'जम्हा उवरिमाण सिद्धाण जिणवरेहि पण्णत्त। तम्हा गमणट्ठाण आयासे जाण णत्यित्ति ॥३॥' –पचास्ति ।।
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। 'यत भगवान जिनेन्द्रने मुक्त जीवोका स्थान अपर लोकके अग्रभागमे बतलाया है, अत आकाश गति और स्थितिका निमित्त नहीं है।'
तथा'जदि हवदि गमणहंदू आगाास ठाणकारण तेसि। पसदि अलोगहाणी लोगस्स अतपरिवुड्ढी ॥६॥-पचास्तिः ।
'यदि आकाश जीव और पुद्गलोक गमन और स्थितिम भी कारण होता है तो ऐसा माननेसे लोककी अन्तिम मर्यादा वढती है और अलोकाकाशकी हानि प्राप्त होती है, क्योकि फिर तो जीव और पुद्गल गति करते हुए आगे बढ़ते जायगे। और ज्यो-ज्यो वे आगे बढते जायगे त्यों-त्यो लोक बढता जायेगा और अलोक घटता जायेगा।' __इसपर भी यह कहा जा सकता है कि लोककी वृद्धि और अलोककी हानि यदि होती है तो होओ, तो उसपर पुन. आचार्य कहते है'तम्हा धम्माधम्मा गमणदिदिकारणाणि णाकासं। इदि' जिणवरेहि भणिद लोगसहाव सुणताण |Mer' –पचास्ति ।
'जिनवर भगवानने श्रोताजनोको लोकका स्वभाव ऐसा ही बतलाया है। अत. धर्म और अधर्मद्रव्य ही गति और स्थितिके कारण ई, आकाश नहीं।' ___ आशय यह है कि एक ही आकाशके दो विभाग कायम रखनेमें प्रधान कारण धर्म और अधर्मद्रव्य है । इन दोनो द्रव्योंकी वजहसे ही जीव और पुद्गल लोकाकाशकी मर्यादासे बाहर नहीं जा सकते । जनेतर दार्शनिकोने आकाश द्रव्यको मानकर भी न तो लोकका कोई बास आकार माना और न आत्माको सक्रिय और शरीर परिमाणवाला ही माना। इसलिये उसका नियमन करने के लिये उन्हें धर्म और अधर्म नामके द्रव्य माननेकी आवश्यकता भी प्रतीत नही हुई। किन्तु जैनधर्ममें वैसी व्यवस्था होनेसे आकाशसे जुदे, किन्तु उसके समकक्ष दो द्रव्य
और माने गये । इस तरह धर्म और अधर्मद्रव्यके निमित्तसे एक ही भाकाश अखण्ड होकर भी दो रूप हो गया है। जितने आकाशमें सब
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सिद्धान्त
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द्रव्य पाये जाते हैं उतने आकाशको लोकाकाश कहते है और उससे अतिरिक्त जो शुद्ध अकेला माकाश है उसे अलोकाकाश कहते है। ___ यहा यह बतला देना अनुचित न होगा कि जब जैनधर्म लोकाकाशको सान्त मानता है और उसके नागे अनन्त आकाश मानता है, तब प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइस्टीन समस्तलोकको सान्त मानते है किन्तु उसके आगे कुछ नहीं मानते, क्योकि प्रो० एडिंगटनका कहना है कि पदार्थविज्ञानका विद्यार्थी कभी भी आकाशको शून्यवत् नही मान सकता।
५ कालद्रव्य जो वस्तुमानके परिवर्तन करानमे सहायक है उसे कालद्रव्य कहते है । यद्यपि परिणमन करनेकी शक्ति सभी पदार्थोमें है, किन्तु वाहय निमित्तके विना उस शक्तिकी व्यक्ति नही हो सकती। जैसे कुम्हारके चाकमें घूमनेकी शक्ति मौजूद है, किन्तु कीलका साहाय्य पाये विना वह धूम नही सकता, वैसे ही ससारके पदार्थ भी कालद्रव्यका साहाय्य पाये विना परिवर्तन नहीं कर सकते । अत. कालद्रव्य उनके परिवर्तनमें सहायक है। किन्तु वह भी वस्तुओंका वलात् परिणमन नही कराता है और न एक द्रव्यका दूसरे द्रव्यरूप परिणमन कराता है, किन्तु स्वयं परिणमन करते हुए द्रव्योंका सहायकमात्र हो जाता है।
, काल दो प्रकारका है-एक निश्चयकाल और दूसरा व्यवहारकाल । लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशपर जुदे-जुदे कालाणु-कालके अणु स्थित हैं, उन कालाणुगोंको निश्चयकाल कहते है। अर्थात् कालद्रव्य नामकी वस्तु वे कालाणु ही है। उन कालाणुओंके निमित्तसे ही संसारमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है। उन्हीके निमित्तसे प्रत्येक वस्तुका मस्तित्व कायम है। आकाशके एक प्रदेशमें स्थित पुद्गलका एक परमाणु मन्दगतिसे जितनी देरमे उस प्रदेशसे लगे हुए दूसरे प्रदेशपर पहुंचता है उसे समय कहते है। यह समय कालद्रव्यकी पर्याय है।
१ Cosmology Old and New, P. 571
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जनधम
समयोंके समूहको ही आवली, उवास. प्राण, तोफ, घटिका, दिन रात आदि कहा जाता है। यह सब व्यव्हारकाल है। यह बवहारकाल सोर मण्डलकी गति और घड़ी वगैरहके द्वारा जाना जाता है तया इसके द्वारा ही निश्चयकाल अर्थात् कालद्रव्य के अस्तित्वका अनुमान किया जाता है; क्योकि जैसे किसी बच्चेमें गेरका व्यवहार करनेसे कि यह वचा शेर है' मेरनामके पके होनेका निश्चय निया जाता है, वैसे ही सूर्य आदिकी गतिर्ने जो कालका व्यवहार किया जाता है वह औपचारिक है, अतः काल नामका कोई स्वतंत्र द्रव्य होना बारश्यक है जिसका उपचार लोकिक व्यवहारमे किया जाता है।
कालद्रव्यको अन्य दार्शनिकोने भी माना है, किन्तु उन्होने व्यवहारकालको ही कालद्रव्य मान लिया है । कालद्रव्य नामकी अगुल्य वस्तुको केवल जनोने ही स्वीकार किया है। यह कालव्य भी 'आकाशकी तरह ही अमूर्तिक है। केवल इतना अन्तर है कि आकाश एक अखण्ड है, किन्तु कालद्रव्य अनेक है, जैसा कि लिखा है
लोयापासपदेचे एक्करके जे दिया हु एक्लेका। रपणाण रातिमिव ते कालाणु बसलदवाणि ।। सवार्य० पृ० १६१
'लोकाकाशके एक एक प्रदेशपर रत्लोकी राशिकी तरह जो एक एक करके स्थित है, वे कालाणु है और वे असल्यात द्रव्य है। अर्थात् प्रत्येक कालाणु एक एक द्रव्य है जैसे कि पुद्गलका प्रत्येक परमाणु एक एक द्रव्य है।'
प्रवचनसार आदि ग्रन्थोंमें इन कालाणुओंके सम्बन्धमें अनेक युक्तियोके द्वारा अच्छा प्रकाग डाला गया है जो मनन करने योग्य है।
इस प्रकार जनदर्शन द्रव्य माने गये है। कालको छोडकर शेष द्रव्योको पञ्चास्तिकाय कहते है। 'मस्तिकाय' में दो पद मिल हुए हैं एक 'अस्ति और दूसरा 'काय' । 'अस्ति मान्दा उप है होताह जो कि अस्तित्व सूचक है और कायशब्दका जपं होगाई 'शरीर । अर्थात जसे शरीर वहदेगी होता है वैसे ही मन
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सिद्धान्त
शेष पाँच द्रव्य भी बहुप्रदेशी है । इसलिये उन्हें अस्तिकाय कहते है किन्तु कालद्रव्य अस्तिकाय नही है, क्योकि उसके कालाणु असत होनेपर भी परस्परमें सदा अवद्ध रहते है, न तो वे आकाशवं प्रदेश की तरह सदासे मिले हुए एक और अखण्ड है और न पुद्गल्ट परमाणुओं की तरह कभी मिलते और कभी बिछुडते ही है । इसलिए वे 'क' ही कहे जाते ।
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प्रदेशके सम्बन्धमे भी कुछ मोटी बाते जान लेनी चाहिये। जितन देशको एक पुद्गल परमाणु रोकता है उतने देशको प्रदेश कहते है लोकाकाशमे यदि क्रमवार एक एक करके परमाणुओको बरावर बरावर सटाकर रखा जाये तो असख्यात परमाणु समा सकते है, अत लोकाकाश और उसमें व्याप्त धर्म और अधर्म द्रव्य असंख्यात प्रदेश' कहे जाते है । इसी तरह शरीरपरिमाण जीवद्रव्य भी यदि शरीरस्त बाहर होकर फैले तो लोकाकाशमे व्याप्त हो सकता है अत. जीवद्रव्यं भी असंख्यातप्रदेशी है । पुद्गलका परमाणु तो एक ही प्रदेशी ह किन्तु उन परमाणुओके समूहसे जो स्कन्ध बन जाते हैं वे सख्यात असंख्यात और अनन्त प्रदेशी होते है । अत. पुद्गल द्रव्य भी बहुप्रदेश है । इस तरह बहुप्रदेशी होनेसे पाँच द्रव्योको पञ्चास्तिकाएं कहते है ।
६. यह विश्व और उसकी व्यवस्था
यह विश्व, जो हमारी आंखोके सामने है और जिसमे हम निवास करते है, इन्ही द्रव्यों बना हुआ है । 'बना हुआ " से मतलब यह नही लेना चाहिये कि किसीने अमुक समयमे इस विश्वकी रचना की है । यह विश्व तो अनादि-अनिधन है, न इसकी आदि ही है और न अन्त ही है, न कभी किसी ने इसे बनाया है और न कभी इसका अन्त ही होता है । अनादिकाल से यह ऐसा ही चला आ रहा है और अनन्तकाल तक ऐसा ही चला जायेगा। रहा परिवर्तन, सो वह तो प्रत्येक वस्तुका स्वभाव है । सर्वथा नित्य तो कोई वस्तु है ही नहीं। हो भी नही सकती.
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जनधर्म योकि वस्तुको सर्वथा नित्य माननेपर विश्वमे जो वैचित्र्य दिखाई ता है वह सभव नही हो सकता । अत परिवर्तनशील ससारकी गोलिक स्थितिमे कोई परिवर्तन न होते हुए विश्वकी व्यवस्था सदा जारी रहती है। . किन्तु कुछ दार्शनिको और जनसाधारणकी भी ऐसी धारणा
कि इस विश्वका कोई एक रचयिता अवश्य होना चाहिये, जिसकी प्राज्ञासे विश्वकी व्यवस्था सदा नियमित रीतिसे जारी रहती है। दृष्टिरचनाके सम्बन्धमे यो तो अनेक मान्यताएं प्रचलित है किन्तु मोटेख्पस उन्हें तीन भागोमे रखा जा सकता है। एक विभागवाले तो यह मानते हैं कि एक परमेश्वर या ब्रह्म ही अनादि अनन्त है। जो एक ब्रह्मको ही अनादि अनन्त मानते है उनका कहना है कि ब्रह्मके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं। यह जो कुछ भी सृष्टि दिखाई दे रही है वह स्वप्नके समान एक प्रकारका भ्रम है। जो परमेश्वरको ही अनादि अनन्त मानते है उनका कहना है कि यह सृष्टि श्रममात्र तो नहीं है। केन्तु इसे परमेश्वरले ही नास्तिसे अस्तिल्प किया है। पहले तो एक परमेश्वरके सिवाय कुछ था ही नही । पीछे उसने किसी समयमें अवस्तुसे ही ये सव वस्तुएं बना दी है। जव वह चाहेगा तब फिर वह इन्हें नास्तिरूप कर देगा और तब सिवाय उस एक परमेश्वरके अन्य कुछ भी न रहेगा। दूसरे विभागवाले कहते है अवस्तुसे कोई वस्तु बन नहीं सकती, वस्तुसे ही वस्तु बना करती है। ससारमे जीव और अजीव दो प्रकारकी वस्तुएं दिखाई देती है, वे किसीके द्वारा बनाई नही गई है। जिस प्रकार परमेश्वर सदासे है उसी प्रकार जीव और अजीवरूप वस्तुएं भी सदासे है, सदा रहेगी। परन्तु इन वस्तुओका अनेक अवस्थाओका बनाना और बिगाडना उस परमेश्वरके ही हाथम है। तीसरे विभागवालोका कहना है कि जीव और अजीव ये दाना ही प्रकारकी वस्तुएँ अनादिसे है और अनन्तकाल तक रहेंगी। इनका अवस्थामोको बदलनेवाला और इस विश्वका नियामक कोई तीसरा
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सिद्धान्त
नही है। इन्ही वस्तुओके परस्परके सम्बन्धसे इन्हीके गुणो और स्वभावोके द्वारा सव परिवर्तन स्वयमेव होता है।
इन प्रकार इन तीनो मतोमे यद्यपि वहुत अन्तर है तो भी एक वात में ये तीनो ही सहमत है। तीनोने ही किसी न किसी वस्तुको अनादि अवश्य माना है। पहला ब्रह्म या ईश्वरको अनादि मानता है। वहीं इन विश्वको वनाता और विगाड़ता है। दूसरा परमेश्वरके ही समार जीवनऔर अजीवको भी अनादि मानता है। तीसराजीव और अजीवकर ही अनादि मानता है। अत इन तीनोमे यह विवाद तो उठ ही नह सकता कि विना बनाये सदासे भी कोई वस्तु हो सकती है या नही नौर जव यह मान लिया गया कि विना वनाये सदासे भी कोई या कुछ वस्तुएं हो सकती है तो यह बात भी सभी स्वीकार करेंगे कि वस्तु कोई न कोई गुण या स्वभाव भी अवश्य होता है, क्योकि विना किसह गुण या स्वभावके कोई वस्तु हो ही नहीं सकती। और जैसे वह वस्ती अनादि है वसे ही उसका गुण या स्वभाव भी अनादि है। साराश यह है कि दो बातोमे संसारके सभी मतवाले एकमत है कि संसारमें को वस्तु विना वनाये अनादि भी हुआ करती है और विना बनाये उसव गुण और स्वभाव भी अनादि होते है। अव केवल यह निश्चय करना है कि कौन वस्तु विना बनी हुई अनादि है और कौन वस्तु सादि है ?
जब हम संसारकी ओर दृष्टि देते है तो संसारमें तो हमें कोई भा.. वस्तु ऐसी नहीं मिलती जो विना किसी वस्तुके ही वन गई हो और न कोई ऐसी वस्तु दिखाई देती है जो किसी समय एकदम नास्तिरूपी हो जाती हो। यहाँ तो वस्तुसे ही वस्तु वनती देखी जाती है। सारा यह है कि न तो कोई सर्वथा नवीन वस्तु पैदा होती है और न कोई वस्तु सर्वया नष्ट ही होती है। किन्तु जो वस्तुएँ पहलेसे चली आती है उन्हीका रूप बदल-बदलकर नवीन-नवीन वस्तुएं दिखाई देती रहती है । जैसे, सोनेसे अनेक प्रकारके आभूपण बनाये जाते है। सोनेके विना ये आभूपण नहीं बन सकते। फिर उन्ही आभूषणोकी,
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होती रहती है। नही होती और नादास चली आती
डकर दूसरे प्रकारके आभूषण बनाये जाते है। सोना उनमें भी हता है। इसी प्रकार मिट्टी, जल, वायु और धूपका संयोग पाकर जि ही वृक्षरूप परिणत होता है। वृक्षको जला देनेपर उसके कोयले जाते है और कोयले जलकर राख हो जाते है। इससे यही सिद्ध ता है कि वस्तुसे ही वस्तुकी उत्पत्ति होती है। तथा जगतमें एक ही परमाणु न तो कम होता है और न बढ़ता है। सदा जितनेके तितने
रहते हैं। हां, उनकी अवस्थाएँ वदल-बदलकर नई नई वस्तुमोकी ष्टि होती रहती है। अत यह बात सिद्ध होती है कि संसारमे कोई स्तु अस्तिसे नास्तिरूप नहीं होती और नास्तिसे अस्तिरूप नहीं होती। कन्तु हरेक वस्तु किसी न किसी रूपमें सदासे चली आती है और आगे भी किसी न किसी रूपमें सदा विद्यमान रहेगी। अर्थात् संसारकी तीव व अजीवरूप सभी वस्तुएँ अनादि अनन्त है और उनके अनेक वीनरूप होते रहनेसे ही यह संसार चल रहा है। } इस प्रकार जीव व अजीवरूप तभी वस्तुलोकी नित्यता सिद्ध हो
नेपर अव केवल एक बात निर्णय करनेके योग्य रह जाती है कि सारके ये सव पदार्थ किस तरहसे नवीन-नवीन रूप धारण करते । इस वातका निर्णय करनेके लिये जव हम संसारकी ओर दृष्टि हालते है तो हमे मालूम होता है कि मनुष्य मनुष्यसे ही पैदा होता है। सी तरह पशु-पक्षी भी अपने माँ वापसे ही पैदा होते देखे जाते है। बना मां-बापके उनकी उत्पत्ति नही देखी जाती। गेहूँ, चना आदि अनाज स्था आम, अमरूद आदि वनस्पतियां भी अपने अपने वीज,जड़ या शाखा गैरहसे ही उत्पन्न होती हुई देखी जाती है। और जैसे ये आज उत्पन्न होती हुई देखी जाती है वैसे ही पहले भी उत्पन्न होती होंगी। इस
रह इन सब वस्तुओंकी उत्पत्ति अनादि माननेपर इस धरतीको भी हनादि मानना ही पड़ता है। । जिस प्रकार वस्तुएं अनादि अनन्त है उसी प्रकार उनके गुण और वभाव भी अनादि अनन्त है। जैसे, अनिका स्वभाव उष्ण है ।
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यह उसका स्वभाव अनादिसे ही है और अनन्त कालतक रहेगा । इसी प्रकार अन्य वस्तुओके सम्बन्ध मे भी समझ लेना चाहिये । यदि वस्तुओं के गुण और स्वभाव सदा बदलते रहते तो मनुष्यको किसी वस्तुको छने या उसके पास जाने तकका साहस भी न होता । उसे सदा भय रहता कि न जाने आज इसका क्या स्वभाव हो गया है परन्तु उनके गुण और स्वभाव के विषयमे वह सदा निर्भय रहता है क्योकि वह उनके स्वभावके विषयमे अपने और अपनेसे पूर्ववर्त सज्जनो के अनुभवपर पूरा भरोसा करता है । अत यह सिद्ध होता ह कि वस्तुओकी ही तरह उनके गुण और स्वभाव भी अनादि अनन्त है ।
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इसी प्रकार ससारकी वस्तुओकी जाँच करनेपर यह भी मालूमर होता है कि दो या तीन वस्तुओको मिलानेसे जो वस्तुएँ आज बन सकती है ' है वे पहले भी बन सकती थी। जैसे नीला और पीला रंग मिलानेसे आज हरा रंग बन जाता है, यह रंग पहले भी बन सकता था और आगेह भी बनता रहेगा। ऐसे ही किसी एक वस्तुके प्रभावसे जो परिवर्तन दूसरी वस्तु हो जाता है वह पहले भी होता था या हो सकता था और आगे भी होता रहेगा । जैसे, आगकी गर्मी से जो भाप माज बनती है वही पहले भी बनती थी और आगेको भी बनती रहेगी । जलानसे ज आज लकड़ी, आग, कोयला राखरूप हो जाती है वैसे ही वे पहले भी होती थी और आगे भी होगी। सारांश यह है कि अन्य वस्तुसोस प्रभा वित होने तथा अन्य वस्तुमोको प्रभावित करनेके गुण और स्वभावत भी वस्तुओं अनादि है ।
इस प्रकार विचार करनेपर जब यह बात सिद्ध हो जाती है कि वृक्षर बीज और बीजसे वृक्षकी उत्पत्तिके समान या मुर्गीसे अण्डा और अण्डे मुर्गी की उत्पत्तिके समान संसारके सभी मनुष्य, पशु, पक्षी और वनस्पति सन्तान दरसन्तान अनादि कालसे चले आते है । किसी समयमें इनक आदि नही हो सकता और इन सबके अनादि होनेसे इस पृथ्वीका भी
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अनादि होना जरूरी है। साथ ही वस्तुओके गुण स्वभाव और एक इसरेपर असर डालने तथा एक दूसरेके असरको ग्रहण करनेकी प्रकृति भी अनादि कालसे ही चली आती है, तब जगतके प्रबन्धका सारा ढांचा ही मनुष्यकी आंखोके सामने हो जाता है। उसे स्पष्ट प्रतीत होने लगता है कि संसारमें जो कुछ हो रहा है वह सब वस्तुओंके गुण और स्वभावके ही कारण हो रहा है । इसके सिवा न तो कोई ईश्वरीय शक्ति ही इसमें कोई कार्य कर रही है और न उसकी कोई जरूरत ही है। जैसे, जव समुद्र के पानीपर सूरजकी धूप पड़ती है तो उस धूपमें जितना ताप होता है उसीके अनुसार समुद्रका पानी भापरूप बन जाता है । और जिघरकी
वा होती है उवरको ही भाप बनकर चला जाता है। फिर जहाँ कही मी उसे इतनी ठंड मिल जाती है कि वह पानीका पानी हो जावे वही शानी हो कर बरसने लगता है। फिर वह बरसा हुआ पानी स्वभावसे ही ढालकी ओर बहता हुआ बहुत-सी चीजोंको अपने साथ लेता हुआ बला जाता है। और बहता-वहता नदियोंके द्वारा समुद्रमे ही जा नहुंचता है। । धूप, हवा, पानी और मिट्टी आदिके इन उपर्युक्त स्वभावोस दुनियामें लाखों करोडों परिवर्तन हो जाते है, जिनसे फिर लाखों करोडो काम होने लग जाते है। अन्य भी जिन परिवर्तनोंपर दष्टि डालते ई उनमें भी वस्तु स्वभावको ही कारण पाते है । जव संसारकी सारी अस्तुएं और उनके गुण स्वभाव सदासे है और जब संसारकी सारी तस्तुएं दूसरी वस्तुओंसे प्रभावित होती है और दूसरी वस्तुओपर सपना प्रभाव डालती है तब तो यह बात जरूरी है कि उनमें सदासे दी आदान-प्रदान होता रहता है और उसके कारण नाना परिवर्तन होते रहते है। यही संसारका चक्र है जो वस्तुस्वभावके द्वारा अपने लाप ही चल रहा है। किन्तु अविचारी मनुष्य उससे, चकित होफर श्रममें पड़े हुए है। । विचारनेकी वात है कि जब समुद्रके पानीकी ही भाप वनकर
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उसका ही वादल बनता है तब यदि वस्तु स्वभावके सिवाय कोई दूसरा ही वर्षाका प्रबन्ध करनेवाला होता तो वह कभी भी उस समुद्रपर। पानी न बरसाता जिसके पानीको भापसे ही वह बादल बना था। परन्तु देखनेमे तो यही आता है कि बादलको जहाँ भी इतनी ठंड .. जाती है कि भापका पानी बन जावे वही वह बरस पड़ता है। यही कारण है कि वह समुद्रपर भी बरसता है और धरतीपर भी। बादलको तो इस बातका ज्ञान ही नहीं कि उसे कहाँ वरसना चाहिये और कहाँ नही। इसीसे कभी वर्षा समयपर होती है और कभी कुसमयमे । बल्किर कभी कभी तो ऐसा होता है कि सारी फसल भर अच्छी वर्षा होकर अन्तमे एक आध वर्षाकी ऐसी कमी हो जाती है कि सारी करी कराई खेती मारी जाती है। यदि वस्तु स्वभावके सिवाय कोई दूसरा प्रबन्ध । कर्ता होता तो ऐसी अन्धाधुन्धी कभी भी न होती। इसपर शायद यह , कहा जाये कि उसकी तो इच्छा ही यह थी कि इस खेतमे अनाज पैदाः न हो या कम पैदा हो। परन्तु यदि यही बात होती तो वह सारी फसल भर अच्छी वर्षा करके उस खेतीको इतनी बड़ी ही क्यो होने देता।। बल्कि वह तो उस किसानको बीज ही न वोने देता । यदि किसानपर उसका काबू नही चल सकता था तो खेतमे पड़े वीजको ही वह न उगने देता। यदि वीजपर भी उसका काबू न था तो बारिशकी एक बूद, भी उस खेतमें न पड़ने देता। तया यदि संसारके उस प्रवन्धकर्ताकी यही इच्छा होती कि इस वर्ष अनाज ही पैदा न हो या कमती पैदा हो तो वह उन खेतोको ही न सुखाता जो बारिशके ही ऊपर निर्भर है वल्कि उन खेतोंको भी जरूर सुखाता जिनमें नहरसे पानी आता है। परन्तु देखनेमे यही आता है कि जिस वर्ष वर्षा नही होती उस वर्ष, उन खेतो, तो कुछ भी पैदा नहीं होता जो वर्षापर निर्भर है, और नहरसे पानी आनेवाले खेतोंमें उसी वर्ष सव कुछ पैदा हो जाता है। इससे सिद्ध है कि ससारका कोई एक प्रवन्वकर्ता नहीं है बल्कि वस्तुस्वभावके कारण ही जव वर्षा निमित्त कारण जुट जाते है तब पानी वरस जाता है और जब वे कारण नही जुटते तब पानी नही वरसता ।।
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वर्षाको इस वातका ज्ञान नहीं है कि उसके कारण कोई खेती हरी होगी या सूखेगी और ससारके जीवोका लाभ होगा या हानि। इसीसे ऐसी गडबडी हो जाती है कि जहाँ आवश्यकता होती है वहाँ एक वूद भी पानी नहीं पड़ता और जहां आवश्यकता नही होती वहां खूब वर्षा हो जाती है। किसी प्रवन्वकर्ताक न होनेके कारण ही मनुष्यने नहर निकालकर और कुएं आदि खोदकर यह प्रवन्ध किया है कि यदि वर्षा न हो तो भी अपने खेतोंको पानी देकर वह अनाज पैदा कर सके।
इसके सिवाय जव प्रत्येक धर्मके अनुसार ससारमे इस समय पापोंकी ही अधिकता हो रही है और नित्य ही भारी भारी अन्याय देखनेमे आते है तब यह कैसे माना जा सकता है कि जगतका कोई 'प्रवन्धकर्ता भी है, जिसकी आज्ञाको न मानकर ही ये सब अपराध
और पाप हो रहे है। शायद कहा जाये कि राजाकी भी तो आज्ञा भंग होती रहती है। किन्तु राजा न तो सर्वज्ञ ही होता है और न सर्वशक्तिमान् । इसलिये न तो उसे सब अपराध करनेवालोका ही पता रहता है और न वह सब प्रकारके अपराधोको दूर ही कर सकता है। परन्तु जो सर्वज और सर्वशक्तिमान हो और एक छोटेसे परमाणुसे लेकर आकाश तककी गति और स्थितिका कारण हो, जिसकी इच्छाके विना एक पत्ता तक भी नहीं हिल सकता हो, उसके सम्वन्धमे यह वात कभी भी नही कही जा सकती। एक ओर तो उसे संसारके एक एक कणका प्रवन्धकर्ता बताना और दूसरी ओर अपराधोंके रोकने में उसे असमर्थ ठहराना, यह तो उस प्रबन्धकर्ताका परिहास है। 1 तथा यदि कोई इस ससारका प्रबन्धक होता तो वह यह अवश्य वितलाता कि इस समय हमें जो सुख या दुख मिल रहा है वह हमारे कौनसे कृत्योंका फल है जिससे हम आगामीको बुरे कृत्योंसे बचत और अच्छे कामोंकी ओर लगते। परन्तु हमे तो यह भी मालूम नहीं कि पुण्य क्या है और पाप क्या है? एक ही कृत्यको कोई पाप कहता है और कोई पुण्य । यही वजह है कि संसारमें सैकड़ों प्रकारके मत फलं
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सिद्धान्त हुए हैं और तमाशा यह है कि सब ही अपने अपने मतको उसी सर्व शक्तिमान् परमात्माका बतलाया हुआ कहते है। जहाँ तक हम समझते है ऐसा अन्धेरतो मामूली राजाओंके राज्यमे भी नहीं होता। प्रत्येक राजाके राज्यमे जो कानून प्रचलित होता है, यदि कोई मनुष्य' उसके विपरीत नियम चलाना चाहता है या उसके विरुद्ध प्रचार करता है तो वह दण्ड पाता है। किन्तु सर्वशक्तिमान् परमात्माके राज्यमे सैकड़ो ही मतोके प्रचारक अपने अपने धर्मका उपदेश करते हैअपने अपने सिद्धान्तोंको उसी एक परमेश्वरकी आज्ञा बताकर उसके ही अनुसार चलनेकी घोषणा करते है। और यह सब कुछ होते हुए भी ससारके प्रबन्धकर्ता उस सर्वशक्तिमान् परमेश्वरकी ओरसे कुछ भी रोकटोक इस विषयमे नहीं होती। ऐसी स्थितिमे तो कभी भी यह नही माना जा सकता कि कोई सर्वशक्तिमान् परमेश्वर इस संसारका प्रबन्ध करता है। बल्कि यही माननेके लिये विवश होना पड़ता है कि वस्तु स्वभावपर ही संसारका सारा ढांचा बंधा हुआ है और उसी. के अनुसार जगतका सब प्रवन्ध चला आता है। यही कारण है कि यदि कोई मनुष्य वस्तु स्वभावके विपरीत आचरण करता है तो ये सब वस्तुएँ उसको मना करने या रोकने नहीं जाती। और न अपने स्वभावके अनुसार कभी अपना फल देनेसे ही चूकती है। जैसे, आगमे चाहे तो कोई वालक नादानीसे अपना हाथ डाल दे या किसी बुद्धिमान पुरुषका हाथ भूलसे पड़ जावे, वह आग अपना काम अवश्य करेगी। मनुष्यके शरीरमे सैकड़ों बीमारियां ऐसी होती है जो उसके अज्ञात दोषोंका ही फल होती है। परन्तु प्रकृति या वस्तु स्वभाव उसे यह नहीं बताते कि तेरे अमुक दोषके कारण तुझको यह बीमारी हुई है। इसी तरह हमारे दोषोंका फल भी हमे वस्तु स्वभावके अनुसार स्वयं मिल जाता है।
इस प्रकार वस्तु स्वभावके अनुसार तो यह वात ठीक बैठ जाती है कि सुख दुख भोगते समय क्यो हमको हमारे उन कृत्योंकी खबर
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ही होती, जिनके फलस्वरूप हमें वह सुख दुःख भोगना पड़ता है । रन्तु किसी प्रवन्धकर्ता के माननेकी हालतमें वह बात कभी ठीक नही ठती, वल्कि उल्टा अन्धेर ही दृष्टिगोचर होने लगता है। यदि हम ह मानते हैं कि जो बच्चा किसी चोर, डाकू या वेश्या नादि पियो के घर पैदा किया गया है वह अपने भले बुरे कृत्योंके फलस्वरूप ऐसे स्थानमें पैदा किया गया है तो सर्वशक्तिमान् दयाल परमेश्वरको विकर्ता माननेको अवस्थामें यह बात ठीक नही बैठती; क्योकि
रावी शराब पीकर और उसका बुरा फल भोगकर भी यदि शराबकी कानपर जाता है और पहले से भी तेज शराव मांगता है तो वस्तु
भाव के अनुसार तो यह बात ठीक बैठ जाती है कि शरावने उसका दमाग ऐसा खराब कर दिया है जिससे अव उसको पहले से भी ज्यादा ज शराब पीनेकी इच्छा होती है । परन्तु जगतके प्रवन्धकर्ता के द्वारा फल मिलनेकी अवस्थामे तो शराब पीनेका ऐसा दड मिलना चाहिये जिससे वह गरावकी दुकानतक पहुँच ही नही सकता या फिर कभी उसका नाम ही नही लेता। इसी तरह व्यभिचार और चोरी आदिको
ऐसी सजा मिलनी चाहिये थी, जिससे वह कभी भी व्यभिचार चोरी करने नही पाता। जो जीव चोरों या वेश्याओंके घर पैदा केये जाते है उन्हें ऐसी जगह पैदा करना तो चोरी और व्यभिचारकी शक्षा दिलानेका ही प्रयत्न करना है । सर्वशक्तिमान् दयालु परमेश्वररे तो ऐसी आशा कभी भी नही की जा सकती।
ऐसी बातें देखकर यही मानना पड़ता है कि संसारका कोई भी एक बुद्धिमान् प्रवन्धकर्ता नही है । वल्कि वस्तु स्वभावके द्वारा और उसीके अनुसार ही जगतका तव प्रवन्ध चल रहा है । खेद है कि मनुष्योने वस्तु स्वभावको न समझकर ससारका एक प्रवन्धकर्ता मान लिया है। पृथ्वीपर राजाको मनुष्योके बीच में प्रबन्ध सम्बन्धी कार्य करता हुआ देखकर सारे संसारके प्रबन्धकर्ताको भी वैसा ही मान लिया है । जित प्रकार राजा लोग खुशामद और स्तुतिसे प्रसन्न होकर खुशामद करने
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वालोंके वशमें हो जाते है और उनकी इच्छाके अनुसार ही कार्य करने लग जाते है उसी प्रकार दुनियाके लोगोने भी संसारके प्रवन्धकर्ताको खुशामद या स्तुतिसे प्रसन्न होनेवाला मानकर उसकी भी खुशामद करना शुरू कर दिया है और अपने आचरणोंको सुधारना छोड बैठे है। इसी वजहसे ससारमे पापोंकी वृद्धि होती जाती है। जब मनुष्य इस भ्रामक विचारको हृदयसे दूर करके वस्तु स्वभावके अटल सिद्धान्तको मानने लग जायेगे, तभी उनके चित्तमे यह विचार जड पकड सकता है कि जिस प्रकार आँखोमे मिर्च और धावपर नमक डाल देनेसे दर्दका होना आवश्यक है वह दर्द किसीकी खुशामद या स्तुतिसे दूर नही हो सकता, जबतक कि मिर्च या नमकका असर दूर न कर दिया जाये । उस ही प्रकार जैसा हमारा आचरण होगा वैसा ही उसका फल भी हमे अवश्य भोगना पडेगा। किसीकी खुशामद या स्तुतिसे उसे टाला नहीं जा सकता। 'जैसी करनी वैसी भरनी' के सिद्धान्तपर पूर्ण विश्वास हो जानेपर ही यह मनुष्य बुरे कृत्योंसे बच सकता है
और भले कृत्योंकी तरफ लग सकता है। परन्तु जब तक मनुष्यको यह ख्याल बना रहेगा कि खुशामद करने, केवल स्तुतियाँ पढने या भेट चढाने आदिके द्वारा भी मेरे अपराध क्षमा हो सकते है तबतक वह बुरे कामोसे नही बच सकता और न अच्छे कामोंकी तरफ लग सकता है। अत संसारके लोगोंको चाहिये कि वे वस्तु स्वभावके अटल सिद्धान्तपर विश्वास लावे, अपने अपने भले बुरे कृत्योंका फल भुगतनेके लिये सदा तैयार रहे और किसीकी खुशामद या स्तुति करनेसे उनका फल टल जाना बिल्कुल ही असंभव समझे। ऐसा मान लेनेपर ही मनुष्योको अपने ऊपर पूरा भरोसा होगा, वे अपने पैरोंपर खडे होकर अपने आचरणोंको ठीक बनानेका प्रयत्न करेंगे और तभी दुनियासे सब पाप और अन्याय दूर हो सकेगे। नहीं तो, किसी प्रवन्धकर्ताको माननेकी अवस्थामे हृदयमे अनेक भ्रम उत्पन्न होते रहेगे और दुनियाके लोग पापोकी तरफ ही झुकते रहेगे। जैसे, कोई एक तो यह सोचेगा कि यदि उस सर्वशक्तिमान् परमेश्वरको मुझसे पाप कराना मंजूर नहीं होता
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जनधर्म तो वह मेरे मनमें पाप करनेका विचार ही क्यों आने देता। दूसरा विचारेगा कि यदि वह मुझसे इस प्रकारके पाप कराना न चाहता तो वह मुझे ऐसा वनाता ही क्यो? तीसरा कहेगा कि यदि वह पापोको न कराना चाहता तो पापोंको पैदा ही क्यों करता। चौथा सोचेगा कि अब तो यह पाप कर ले फिर उस सर्वशक्तिमानकी खुशामद करके उसे भेट चढाकर अपराध क्षमा करा लेगे। सारांश यह है कि ससारका प्रवन्धकर्ता माननेकी अवस्थामे तो लोगोंको पाप करनेके लिये सैकड़ो वहाने बनानेका अवसर मिलता है, परन्तु वस्तु स्वभावके अनुसार ही संसारका सव कार्य चलता हुआ माननेकी अवस्थामें इसके सिवाय कोई विचार ही नहीं उठ सकता कि जैसा करेगे वैसा ही हम उसका फल भी पावेगे। एसा माननेपर ही हम बुरे आचरणोंसे बच सकते है 'और अच्छे आचरणोकी ओर लग सकते है। अत. किसी प्रवन्धकर्ताको
खुशामद करके या भेट चढ़ाकर उसको राजी कर लेनेके भरोसे न रहकर 'हमको स्वयं अपने आचरणोको सुधारनेकी ओर ही दृष्टि रखनी चाहिये और यही श्रद्धान रखना चाहिये कि यह विश्व अनादि-निधन है इसका कोई एक बुद्धिमान प्रबन्यकर्ता नही है। ,
७ जनदृष्टि से ईश्वर 'ईश्वर' शब्दके सुनते ही हमे जिन अर्थोंकावोध होताहै वे है-ऐश्वर्यशाली,वैभवशाली, सर्वशक्तिमान,स्वामी, अधिकारी,कर्ता हर्तामआदि। इस लोकमें जो दर्जा एक स्वतंत्र सम्राटका है वही परलोकमे ईश्वर या परमेश्वरका माना जाता है। जैसे किसी राजवशमे जन्म लेनेवालोको सम्माट्पद अनायास प्राप्त हो जाता है, उसके लिये उन्हे कुछ भी प्रयल नहीं करना पड़ता, वैसे ही वह ईश्वर भी अनादिकालसे संसारक कारण क्लेश, कर्म, कर्मफल और वासनामोसे सर्वथा अछूता है, उनका 'विनाश कर देनेसे उसे ईश्वरत्वपद प्राप्त नही हुआ है, किन्तु सदास 'ही उनस वह सर्वथा रहित है। इसीलिये वह सबसे बड़ा है, सबका गुरु है, सबका ज्ञाता है। जो संसारी जीव क्लेश कर्म आदिको नष्ट
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सिद्धान्त
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करके मुक्त होते हैं, वे कभी भी उसके बराबर नही हो सकते। उसका ऐश्वर्य अविनाशी है, क्योकि कालके द्वारा उसका कभी नाश नही होता । ऐसे अनादि अनन्त पुरुषविशेषको ईश्वर कहा जाता है । किन्तु जैनधर्ममे इस प्रकारके ईश्वरके लिये कोई स्थान नही है । उसका कहना है
'नात्सृष्ट' कर्मभिः शखद् विश्वदृश्वास्ति कश्चन । तस्यानुपायसिद्धस्य सर्वथाऽनुपपत्तित ॥८॥ आप्तप० । 'कोई सर्वद्रष्टा सदासे कर्मोसे अछूता हो नही सकता, क्योकि बिना उपायके उसका सिद्ध होना किसी भी तरह नही बनता ।'
असलमे ईश्वरको अनादि माननेके कारण उसे सदा कर्मोसे अछूता माना गया है और चूंकि वह सृष्टिका रचयिता है इसलिये उसे अनादि माना गया है । किन्तु जैनधर्म किसीको इस विश्वका रचयिता नही मानता, जैसा कि हम पहले बतला आये है । अत वह किसी एक अनादिसिद्ध परमात्माको सत्तासे इंकार करता है । उसके यहाँ यदि इश्वर है तो वह एक नहीं, बल्कि असंख्य है । अर्थात् जैनधर्मके अनुसार इतने ईश्वर हैं कि उनकी गिनती नही हो सकती । उनकी संख्या मनन्त है और आगे भी वे बरावर अनन्तकाल तक होते रहेंगे, क्योंकि जैन सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक आत्मा अपनी स्वतंत्र सत्ताको लिये हुए मुक्त हो सकता है । आज तक ऐसे अनन्त आत्मा मुक्त हो चुके हैं और आगे भी होगे । ये मुक्त जीव ही जैनधर्मके ईश्वर है । इन्ही मेंसे कुछ मुक्तात्माओं को जिन्होने मुक्त होनेसे पहले ससारको मुक्तिका मार्ग बतलाया था, जैनघर्म तीर्थङ्कर मानता है ।
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जैनधर्मका मन्तव्य है कि अनादिकालसे कर्मबन्धनसे लिप्त होनके कारण जीव अल्पज हो रहा है। ज्ञानावरणीय आदि कर्मोके द्वारा उसके स्वाभाविक ज्ञान आदि सद्गुण ढंके हुए है । इन आवरणोके दूर होनेपर यह जीव अनन्त ज्ञान आदिका अधिकारी होता है अर्थात् सर्वन हो जाता है । जो जो महापुरुष कर्मवन्धनको काटकर मुक्त हुए
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जैनधर्म
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रहें, वे सब सर्वज्ञ है । कर्म जीवके स्वाभाविक गुणोका पूर्ण विकास नही होने देता। उसके दूर होनेपर प्रत्येक जीव अपनी अपनी स्वानाविक शक्तियों को प्राप्त कर लेता है। मतलब यह है कि जीवोका कर्मनवन्वन तथा जीवोंका मर्यादित किन्तु हीनाविक ज्ञान इस बातको बतलाता है कि जीवोंकी मुक्ति तथा उनकी सर्वज्ञता असंभव वस्तु नही है उता जो जो सर्वज होता है वह कर्मबन्धनको काटकर ही सर्वज्ञ होता है। प्र उसके बिना कोई सर्वज्ञ हो नही सकता । इसलिये अनादि सिद्ध को नही है ।
हैं कर्मवन्वनका विशेष वर्णन आगे कर्मसिद्धान्तमें किया गया है चार घातिकर्मो का नाश करके यह जीव सर्वज्ञ हो जाता है । सर्वज्ञका दूसरा नाम केवली भी है। क्योकि उसका ज्ञान और दर्शन आत्मा सिवा किसी अन्य सहायककी अपेक्षा नहीं करता, अत. वह केवली कहा जाता है । उसे जीवन्मुक्त भी कहा जा सकता है, क्योंकि यद्यपि अभी वह सगरीर है, किन्तु धातिकर्मो के नष्ट हो जानेके कारण मुक्तात्मा ही समान है। वह चार घातियाकर्मोका नाश कर देता है है इसलिये उसे 'अरिहंत' भी कहते हैं। उसे हो 'जिन' कहते है, क्योंकि वह कर्मरूपी शत्रुओं को जीत लेता है । ये केवली जिन दो प्रकारने होते है -- एक सामान्य केवली और दूसरे तीर्थङ्कर केवली । सामान्य केवली अपनी ही मुक्तिकी साधना करते है, किन्तु तीर्थङ्कर केवली
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'अपनी मुक्तिको तावनाके बाद ससारी जीवोंको भी मुक्तिका समस्य - दुःखों से छूटने का मार्ग बताते है। इनके उपदेशसे संसारके अनेक दर उतर जाते है इसलिये वे तीर्थ-स्त्वरूप गिने जाते हैं ।
जैसे ब्राह्मणवर्ममे रामचन्द्रजी आदिको नवताररूप माना जाता है या वोद्धष में बुद्धको मान्यता है वैसे ही जैनधर्ममें तीर्थंकरोंगे मान्यता है । किन्तु ये तीर्थङ्कर किसी परमात्माका अवताररूप नही
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होते, बल्कि संसारी जीवोंसे ही कोई जीव प्रयत्न करते-करते लोक
कल्याणकी भावनासे तीर्थंकुरपद प्राप्त करता है । जब कोई तीर्यहर
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'पद प्राप्त करनेवाला जीव माताके गर्भ में जाता है तब ती
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सिद्धान्त
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माताको सोलह शुभ स्वप्न दिखाई देते है। तीर्थड्रोके गर्भावतरण, जन्माभिपेक, जिनदीक्षा, केवलज्ञानप्राप्ति और निर्वाण-प्राप्ति ये पञ्च महाकल्याणक होते है, जिनमे इन्द्रादिक भी सम्मिलित होते है। इन पञ्च महाकल्याणकरूप पूजाके कारण तीर्थङ्करको 'अहंत्" भी कहा जाता है।
तीर्थर अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्त वीर्यके धारी होते है। ये साक्षात् भगवान् या ईश्वर होते है। जैनसाहित्यमे इनके ऐश्वर्यका बहुत वर्णन मिलता है। ये जन्मसे ही मति, श्रुत और अवधि ज्ञानके घारी होते है। जन्मसे ही इनका शरीर अपूर्व कान्तिमान होता है। इनके निश्वासमें अपूर्व सुगन्धि रहती है। इनके शरीरका रक्त और मांस सफेद होता है। केवलज्ञान प्राप्त करनेके पश्चात् अर्थात् अर्हत् पद प्राप्त कर लेनेपर उनका उपदेश सुननेके लिये पशुपक्षी तक इनकी सभामे उपस्थित होते है। इस सभाको 'समवसरण' कहते है, जिसका अर्थ होता है 'समानरूपसे सवका शरणभूत' अर्थात् जिसकी शरणमे सव आते है। इस सभामें वारह प्रकोष्ठ होते है, जिनमे एक प्रकोष्ठ पशुओंके लिये भी होता है। तीर्थङ्करकी वाणीको पशु भी समझ लेते है। जहाँ जहाँ इनका विहार होता है वहाँ वहाँ रोग, वर, महामारी, अतिवृष्टि, दुर्भिक्ष, आदि रह नहीं सकते। तीर्थदर भगवान्के पवारनेके साथ ही देश में सर्वत्र शान्ति छा जाती है । कैवल्यलाभ करनेके पश्चात् ये अपना शेष जीवन ससारके प्राणियोंका उद्धार करने में ही व्यतीत करते है। इसीसे जैनोके परमपवित्र पञ्च नमस्कार मंत्रमे अरिहंतको प्रथम स्थान दिया गया है
णमो अरिहताण-अर्हन्तोको नमस्कार हो।
१ सम्भवत. इस 'अर्हत्' नाम परसे हिन्दू पुराणकारोने यह कल्पना कर डाली है. कि किसी 'अहंत' नामके राजाने जैनधर्मकी स्थापना की थी। अहंत कितीका नाम नहीं है बल्कि जैन तीर्थकरोका एक पद है। इस पदको प्राप्त कर लेनेपर ही वे जीवन्मुक्त होकर ससारको कल्याणका मार्ग बतलाते है, वही मार्ग उनके 'जिन' नाम परसे जैनधर्म कहा जाता है।
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जनघम
जब इन अर्हन्तोकी आयु थोडी शेष रह जाती है तव ये योगका तरोध करके वाकी बचे चार अघातिया कर्मो को भी नष्ट कर देते । चारों अघातिया कर्मोंका भी नाश होनेपर इन्हें मुक्तिकी प्राप्ति ती है। इनका शरीर यही छूट जाता है और अपने स्वाभाविक ज्ञानादि गोसे युक्त केवल शुद्ध आत्मा रह जाता है, जो मुक्त होनेके पश्चात् वाभाविक उद्र्ध्वगमनके द्वारा लोकके ऊपर अग्रभागमें जाकर ठहर आता है। मुक्त होनेके पश्चात् सामान्य केवली और तीर्थं कर केवली में कोई अन्तर नही रहता, दोनोंको एक ही प्रकारकी मुक्ति प्राप्त होती
। यद्यपि संसारमे सामान्य केवलीकी अपेक्षा तीर्थङ्कर केवली अधिक पूजनीय माने जाते है, क्योकि तीर्थङ्कर केवलीसे ससारको हुत लाभ पहुँचता है, किन्तु मुक्त होनेपर दोनों में इस तरहका कोई अन्तर नही रहता। संसार अवस्थामें जो कुछ अन्तर था वह तीर्थङ्कर दके कारण था । मुक्त होनेपर इस पदसे भी मुक्ति मिल जाती है, त. मुक्तिमें सामान्य केवली और तीर्थङ्कर केवली में कोई भेद नहीं हता । दोनों मुक्त कहे जाते है । मुक्तोंको जैनसिद्धान्तमें 'सिद्ध'
कहते है । यद्यपि अर्हन्तोसे सिद्धों का पद ऊँचा है; क्योकि अर्हन्त वन्धनसे सर्वथा मुक्त नही होते और सिद्ध उससे सर्वथा मुक्त होते , तथापि सिद्धोको अर्हन्तोंके बाद नमस्कार किया गया है । यथाणमो सिद्धाणं - सिद्धोंको नमस्कार हो ।
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इस प्रकार जैनदृष्टि अर्हन्तपद और सिद्धपदको प्राप्त हुए जीव ईश्वर कहे जाते है । प्रत्येक जीवमे इस प्रकारके ईश्वर होनेकी शक्ति है । परन्तु अनादिकाल से कर्मबन्धनके कारण वह शक्ति ढकी ई है। जो जीव इस कर्मवन्धनको तोड़ डालता है उसके ही ईश्वर की शक्तियाँ प्रकट हो जाती है और वह ईश्वर वन जाता हूँ । इस तरह ईश्वर किसी एक पुरुष विशेषका नाम नही है । किन्तु अनादिकालसे जो अनन्त जीव मर्हन्त मोर सिद्धपदको प्राप्त हो गये है और मागे होगे उन्हीका नाम ईश्वर है ।
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सिद्धान्त
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जैनधर्मके ये ईश्वर संसारसे कोई सम्बन्ध नही रखते । न सृष्टिके संचालनमे उनका हाथ है, न वे किसीका भला बुरा करते है । न वे किसीके स्तुतिवादसे कभी प्रसन्न होते है और न किसीके निन्दावादसे अप्रसन्न । न उनके पास को ऐसी सांसारिक वस्तु है जिसे हम ऐश्वर्यं या वैभवके नामसे पुकार सके, न वे किसीको उसके अपराधोंका दण्ड देते है । जैनसिद्धान्त के अनुसार सृष्टि स्वयसिद्ध है । जीव अपने अपने कर्मो के अनुसार स्वय ही सुख दुख पाते है। ऐसी अवस्थामें मुक्तात्माओ और महतोको इन सब झंझटोमे पड़नेकी आवश्यकता ही नही है। क्योकि वे कृतकृत्य हो चुके है, उन्हें अब कुछ करना बाकी नही रहा है।
सारांश यह है कि जैनधर्ममे ईश्वररूपमे माने हुए अर्हन्तों और मुक्तात्माओका उस ईश्वरत्वसे कोई सम्बन्ध नही है जिसे अन्य लोग ससारके कर्ता हर्ता ईश्वरमें कल्पना किया करते है । उस ईश्वरत्वकी तो जैनदर्शनके विविध ग्रन्थोमें बड़े जोरोंके साथ आलोचना की गई है । और उस दृष्टिसे जैनधर्मको अनीश्वरवादी कहा जा सकता है । उसमे इस तरहके ईश्वरके लिये कोई स्थान नही है ।
८ उसकी उपासना क्यों और कैसे ?
जैनोंमें मूर्तिपूजाका प्रचलन बहुत प्राचीन है । सम्राट् खारवेलके शिलालेखमें कलिङ्गपर चढाई करके नन्दद्वारा अग्रजिन (श्रीऋषभ - देव ) की मूर्तिको ले जानेका और भगघपर चढाई करके खारवेलके द्वारा उसे प्रत्यावर्तन करके लानेका उल्लेख मिलता है । इससे सिद्ध है कि आजसे लगभग अढाई हजार वर्ष पूर्व राजघरानोंतकमे जैनोके प्रथम तीर्थङ्कर श्री ऋषभदेवकी मूर्तिकी पूजा होती थी । स्वामी दयानन्द तो जैनोसे ही मूर्तिपूजाका प्रचलन हुआ मानते है । यों तो भारत के प्राय. सभी प्राचीन धर्मोमे मूर्तिपूजा प्रचलित है, किन्तु जैनमूर्तिके स्वरूप, उसकी पूजाविधि तथा उसके उद्देश्यमे अन्यधर्मोसे
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जनधर्म
बहुत अन्तर है । जो उसे समझ लेगा वह मूर्तिपूजाको व्यर्थं कहनेका साहस नही कर सकता ।
है जैनधर्ममें पाँच पद बहुत प्रतिष्ठित माने गये है-- अर्हन्त, सिद्ध, लाचार्य, उपाध्याय और साधु । इन्हे पंच परमेष्ठी कहते है । जैनोके गरमपवित्र पंचनमस्कार मत्रमे इन्ही पंचपदों को नमस्कार किया गया है । ये ही पांच पद जैनधर्ममे वंदनीय और पूजनीय है ।
जो चार घातिया कर्मोको नष्ट करके अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यरूप स्वचतुष्टयको प्राप्त कर लेते हैं, उन सरम औदारिक शरीरमे स्थित शुद्ध आत्माको अर्हन्त कहते है, जिनका विशेष वर्णन पहले किया जा चुका है । ये जीवन्मुक्त होते हैं । जो आठों कर्मोंसे और शरीर से भी रहित हो जाते है, लोकालोकके जानने और देखनेवाले, सिद्धालयमें विराजमान उस पुरुषाकार आत्माको सिद्ध कहते है | और यह मुक्त होते है । जो साघु साधुसंघके प्रधान होते है, पांच प्रकारके आचारका स्वयं भी पालन करते है और अपने संघके अन्य साधुओं से भी पालन कराते है, वे आचार्य कहे जाते हैं । जो साघु समस्त शास्त्रोके पारगामी होते है, अन्य साधुओको पढाते है तथा सदा धर्मका उपदेश करनेमें लगे रहते है, उन्हें उपाध्याय कहते है ।
जो विषयोकी आशाके फन्देसे निकलकर सदा ज्ञान, ध्यान और तपम लीन रहते हैं, जिनके पास न किसी प्रकारकी परिग्रह होती है | ओर न कोई ठगविद्या, मोक्षका साघन करनेवाले उन शान्त, निस्पृही और जितेन्द्रिय मुनिको साघु कहते है ।
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इन पाँच परमेष्ठियोमसे अर्हन्त परमेष्ठीको मूर्ति जैनमन्दिरोमे बहुतायत से विराजमान रहती है । यद्यपि वे मूर्तियां जैनोके २४ तीथङ्करोमेसे किसी न किसी तीर्थङ्करकी ही होती है, किन्तु होती अर्हन्त अवस्थाकी ही है, क्योकि तीर्थंडर पदका वास्तविक कार्य घर्मतीर्थं प्रवर्तन है, जो अर्हन्त अवस्थामे ही होता है । तीर्थंकर भी
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सिद्धान्त
महन्त अवस्थाको प्राप्त किये बिना पूर्ण वीतरागी और सर्वज्ञ नह' होते और बिना वीतरागता और सर्वज्ञताके धर्मतीर्थका प्रवर्ततीप नही हो सकता। अत धर्मतीर्थके प्रवर्तक जैन तीर्थङ्करोंकी मूर्तिय । जैनमन्दिरोमे बहुतायतसे पाई जाती है। ये मूर्तियाँ पद्मासना होती है और खड्गासन भी होती है, किन्तु होती सभी ध्यानस्थ है एक आत्मध्यानमें लीन योगीकी जैसी आकृति होती है वैसी ही आकृति उन मूर्तियोंकी होती है। भगवद्गीतामे योगाभ्यासीका चित्रण करते हुए लिखा है- 4
'समं कायशिरोग्रीव धारयन्नचल स्थिर । सम्प्रेक्ष्य नासिकानं स्व दिशश्चानवलोकयन् ॥१३॥ प्रशान्तात्मा विगतभी ब्रह्मचारिद्रते स्थित.।
मन. सयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्पर ॥१४॥' अ०६५ भावार्थ-शरीर, सिर और गर्दनको सीधा रखकर, निश्चलैं हो, इधर उधर न देखते हुए, स्थिर मनसे अपनी नाकके अग्रभागपत दृष्टि रखकर प्रशान्त आत्मा, निर्भय हो, ब्रह्मचर्य व्रतमे स्थित होकर तथा मनको वशमें करके मेरेमे मनको लगा।
जैनमूर्तिकी भी विल्कुल ऐसी ही मुद्रा होती है। उसकी दृष्टि नाकके अग्न भागपर रहती है। शरीर, सिर और गर्दन एक सीधर्म रहते है। पद्मासनमे वाई हथेलीके ऊपर दाई हथेली खुली होती है।
और खड्गासनमे दोनों हाथ जानुतक लटके रहते है। चेहरेपर शान्ति निर्भयता और निर्विकारता खेलती रहती है। शरीरपर विकारक ढाकनेके लिये न कोई आवरण होता है और न सौदर्यको चमकानेको लिये कोई आभरण रहता है। न हायमें कोई अस्त्र शस्त्र ही होता है। भगवत्गीतामे कही हुई जिस योगमुद्रासे योगी निर्वाण लाभ करते है, वही मुद्रा जैनमूर्तिमे अंकित रहती है। देखनेवालेको यही प्रतीत होता है कि वह किसी प्रशान्तात्मा योगीकी मूर्तिका दर्शन कर रहा है। न वहाँ राग है और न वैर-विरोध ।
सिद्धोंकी भी मूर्ति रहती है, किन्तु चूकि सिद्ध परमेष्ठी देहरहित
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जनधम
होते है, इसलिये पीतलकी चादरके बीचमेसे मनुष्याकारको काटकर 'मनुष्याकाररूप खाली स्थान छोड़ दिया जाता है। आचार्य, उपाध्याय 'और साधुकी भी मूर्तियां कही कही पाई जाती है। इनकी मूर्तियोमे साधुके चिह्न पीछी और कमण्डलु अकित रहते है। सारांश यह है कि जनमूर्ति जैनोके आराध्य पञ्चपरमेष्ठियोंकी प्रतिकृतिरूप होती है । । जिनमन्दिरमे जाकर देवदर्शन करना प्रत्येक जैन श्रावक और श्राविकाका नित्य कर्तव्य है। वहाँ वह यह विचारता है कि यह मन्दिर जिन भगवानका समवसरण--उपदेशसभा है,वेदीमे विराजमान जिनकी मूर्ति ही जिनेन्द्रदेव है, और मन्दिरमे उपस्थित स्त्री पुरुष ही श्रोतागण है। ऐसा विचार करके अच्छी अच्छी स्तुतियां पढते हुए जिन भगवान्को नमस्कार करके तीन प्रदक्षिणा देता है। और यदि पूजन करना औता है तो पूजा भी करता है। पूजामे सबसे पहले जलसे मूर्तियोंका अभिषेक किया जाता है। कही कही दूध, दही, घी, इक्षुरस और सौंबंधी रससे भी अभिषेक करनेकी पद्धति है। अभिषेकके पश्चात् पूजन किया जाता है । यह पूजन जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल इन आठ द्रव्योसे किया जाता है। एक एक पद्य बोलते जाते है और नम्बरवार एक एक द्रव्य चढाते जाते है। द्रव्य चढाते समय द्रव्य चढ़ानेका उद्देश्य बोलकर द्रव्य चढाते है । यथा-मै जन्म, जरा और मृत्युके विनाशके लिये जल चढ़ाता हूँ। अर्थात् जैसे जलसे जन्दगी दूर हो जाती है वैसे ही मेरे पीछे लगे हुए ये रोग धुलकर दूर हो जावें । मै संसाररूपी सन्तापकी शान्तिके लिये चन्दन चढाता है। मै अक्षय पद (मोक्ष) की प्राप्तिके लिये अक्षत चढाता हूँ ३ । मै कामके विकारको दूर करनेके लिये पुष्प चढाता हूँ ४ । मै क्षुधारूपी रोगको दूर करनेके लिये नैवेद्य चढाता है ५। में अज्ञानरूपी अन्धकार को दूर करनेके लिये दीप चढाता हूँ ६ । मै आठों कर्मोको जलाने के पैलये धूप चढाता हूँ ७। यह घूप अग्निमें चढाई जाती है । में मोक्षफलकी प्राप्तिके लिये फल चढ़ाता हूँ। एक एक करके आठो द्रव्य
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सिद्धान्त
११८ चढानेके बाद आठों द्रव्योंको मिलाकर चढ़ाया जाता है उसे 'अय' कहते है। यह भी अनर्घ अर्थात् अमूल्यपदकी प्राप्ति के उद्देश्यसे चढाया जाता है। - इस प्रकार पूजाका उद्देश्य भी अपने विकारों और विकारोके कारणोंको दूर करके चरम लक्ष्य मोक्षकी प्राप्ति ही रखा गया है । * पूजाके दो भेद किये गये है-द्रव्यपूजा और भावपूजा। शरीर और'
वचनको पूजनमें लगाना द्रव्यपूजा है और उसमे मनको लगाना भावपूर्जा है। शरीरको लगानेके लिये द्रव्य रखे गये है, जिससे हाथ वगैरहका उपयोग उनके चढानेमे ही होता रहता है। और वचनको उसमे लगाने-' के लिये पद्य रखे गये है जिन्हे पढ पढ करके द्रव्य चढाया जाता है इस तरह मनुष्यका शरीर और वचन पूजनमे रहनेपर भी यदि उसका मन उसमे न रम रहा हो तो वह पूजन बेकार ही है क्योकि बिना भावक कोई क्रिया फलदायक नहीं होती। जैसा कि कल्याणमन्दिरस्तोत्रम्ह कहा भी है'आणितोऽपि महितोऽपि निरीक्षतोऽपि
नून न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या। जातोऽस्मि तेन जनवान्धव | दुखपात्र ।
यस्मात् क्रिया प्रतिफलन्ति न भावशून्या. ॥३॥' 'हे जनबन्धु ! तुम्हारा उपदेश सुनकर भी, तुम्हारी पूजा कर भी और तुम्हें बारम्बार देखकर भी अवश्य ही मैने भक्तिपूर्वक तुम्हें, अपने हृदयमे स्थापित नही किया। इसीसे मैं दुखोंका पात्र बना. क्योंकि भावशून्य क्रिया कभी भी फलदायी नहीं होती।
अत द्रव्य पूजाके साथ शारीरिक और वाचनिक पूजाके सार साथ-भावपूजाका-मानसिक पूजाका होना आवश्यक है। किन्तु भावपूजा ऊपर कहे गये आठ द्रव्योके बिना भी हो सकती है। द्रव्य तो मन, वचन और कायको लगानेके लिये एक आलम्बनमात्र है।
इस प्रकार जैनमूर्तिका स्वरूप और उसकी पूजाविधि बतलाक उसके उद्देश्यपर एक दृष्टि डालना आवश्यक है।
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जनधर्म
भित ! तुम्हारी जय हो। भव्य जीवोको स्वानुभव' करानेमें कारण परमगान्त मुद्राके धारक ! तुम्हारी जय हो। हे देव ! भव्यजीवोके माग्योदयसे आपका दिव्य उपदेश होता है, जिसे सुनकर उनका भ्रम दूर हो जाता है । हे देव ! तुम्हारे गुणोंका चिन्तन करनेसे अपने परायेका भेद मालूम हो जाता है। अर्थात् तुम्हारे आत्मिक गुणोंका विचार करनेसे में यह जान जाता हूँ कि आत्मा और शरीरमें तथा शरीरसे सम्बन्ध रखनेवाले कुटुम्बी जन धन-सम्पत्ति आदिमे कितना अन्तर है; क्योंकि तुम्हारी आत्मामे जो गुण है वैसे ही गुण मेरी आत्मामें भी मौजूद हैं मगर मै उन्हे भूला हुआ हूँ। अत तुम्हारे गुणोंका चिन्तन करनेसे मुझे अपने गुणोंका भान हो जाता है और उससे में 'स्व' और 'पर' पहचानने लगता है, जिससे मै अनेक आपदाजोसेमुसीवतोसे बच जाता हूँ। हे देव ! तुम संसारके भूषण हो; क्योकि तुम सब दूषणों और संकल्प विकल्पोसे मुक्त हो। तुम शुद्ध चैतन्यस्वरूप परमपावन परमात्मा हो। तुमने शुभ और अशुभरूप विभाव परिणतिका अभाव कर दिया है। हे धीर ! तुम अठारह दोषोंसे रहित हो और अपने अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यरूप स्वचतुष्टयमें विराजमान हो। मुनि गणपति वगैरह तुम्हारी सेवा करते है। तुम नौ केवल लब्धिरूपी आध्यात्मिक लक्ष्मीसे सुशोभित हो। तुम्हारे उपदेशोपर चलकर अगणित जीवोने मुक्तिलाभ किया है, करते हैं तथा सदा करेंगे। यह भवरूपी समुद्र दुखरूपी खारे पानीसे पूर्ण है, इसे पार करानेमें आपके सिवा और कोई समर्थ नहीं है। यह देखकर और 'मेरे दुखरूपी रोगको दूर करनेका इलाज तुम्हारे ही पास है' यह जानकर मैं तुम्हारी शरणर्मे आया हूँ और चिरकालसे मैने जो दुख उठाये है उन्हें बतलाता हूँ। मैं अपनको भूलकर चिरकालसे इस संसारमें भटक रहा हूँ, मैने विधिके खेल, पुण्य और पापको ही अपना समझा और अपनेको परका कर्ता मानकर तथा परमें इष्ट या अनिष्टकी कल्पना करके अज्ञानवश मै व्याकुल हुमा हूँ। जैसे मृग मारीचिकाको पानी समझ लेता है वैसे ही मन
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सिद्धान्त शरीरको ही आत्मा माना और कभी भी आत्मरसका अनुभव नही किया।
है जिनेश ! तुमको न जानकर मैने जो क्लेश उठाये उन्हें तुम जानते हो। पशुगति, नरकगति और मनुष्यगतिमे जन्म ले लेकर मेह अनन्तवार मरा। अब काललब्धिके आ जानेसे—मुक्तिलाभका कालर समीप आ जानेसे तुम्हारे दर्शन पाकर में बड़ा प्रसन्न हुआ हूँ। मेरा मन शान्त हो गया है। मेरे सब द्वन्द्व फन्द मिट गये है और मैने दुखोका। नाश करनेवाले आत्मरसका स्वाद चख लिया है। हे नाथ ! अब ऐसार करो कि तुम्हारे चरणोका साथ कभी न छूटे। (और इसके लिये) आत्माका अहित करनेवाले पांचों इन्द्रियोके विषयोमे और क्रोधादि, कपायोंमे मेरा मन कभी न रमे। मैं अपने आपमे ही मग्न रहूँ। भग । वन् ! ऐसा करो जिससे मै स्वाधीन हो जाऊँ। हे ईश । मुझे और कुछ चाह नहीं है, मुझे तोसम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चरित्ररूपीरत्नत्रय चाहिये। मेरे कार्य के कारण आप है। मेरा मोहरूपी संताप हरकर मेरा कार्य करो। जैसे चन्द्रमा स्वयं ही शान्ति भी देता है और अन्धकारको भी हरता है, वैसे ही कल्याण करना तुम्हारा स्वभाव ही है। जैसे अमृतक पीनेसे रोग चला जाता है वैसे ही तुम्हारा अनुभवन, करनेसे ससाररूपी रोग नष्ट हो जाता है। तीनो लोको और तीनों, कालोमे तुम्हारे सिवा अन्य कोई आत्मिक सुखका दाता नही है । आज मेरे मनमें यह निश्चय हो गया है। तुम दुखोके समुद्रसे पारउतारनेके लिये जहाजके समान हो। __ इस स्तुतिसे यह स्पष्ट हो जाता है कि मूर्ति मनुष्यके चंचल चित्त को लगानेके लिये एक आलम्बन है। उस आलम्बनको पाकर मनुष्य चंचल चित्त क्षण भरके लिये उन महापुरुषोंके गुणानुवादमें रम जाता, है, जो किसी समय हमारी ही तरह संसार में भटक रहे थे। किन्तु उन्होने स्वयं अपने पैरोंपर खड़े होकर अपनेको पहचाना और आत्मला, करके दुनियाके कल्याणकी भावनासे उस मार्गको बतलाया जिसपर
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जनधर्म चलकर उन्होने स्वयं मुक्तिलाम किया। उनके गुणानुवादका प्रयोजन उन्हें रिझाना या प्रसन्न करना नहीं है। वे तो राग-द्वेपकी इस घाटीसे बहुत दूर है। न वे किसीकी स्तुतिसे प्रसन्न होते है और न निन्दासे नाराज। किन्तु उनके गुणोंका कीर्तन करनेसे हमें अपने गुणोंका बोध होता है, क्योकि जो गुण उनमें है वही हममें भी है, किन्तु हम अपनेको भूले हुए है । अत उनका गुणानुवाद हमें अपनी स्मृति कराकर वुरे कामोसे बचाता है। कहा भी है
न पूजयार्थत्वपि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवरे। तथापि तव पुण्यगुणस्मृतिनं. पुनातु चित्त दुरिताञ्जनेय. ॥५७॥'
बृहत्त्वयं०॥ अर्थ--हे नाथ ! तुम वीतराग हो इसलिये तुम्हें अपनी पूजासे कोई प्रयोजन नहीं है । और चूंकि तुम वीतद्वेष हो इसलिये निन्दासे भी कोई प्रयोजन नहीं है। फिर भी तुम्हारे पुण्य गुणोंकी स्मृति हमारे
अत. मालपी कालिमासे व मी तुम्हारे पुण्य गणालिये निन्दासे
अत. मूर्तिपूजाका उद्देश्य मूर्तिमे अकित भावोको अपनेमें लाकर जिसकी वह मूर्ति है उसके ही समान अपनेको वनाना है । अर्थात् जो जैसा होना चाहता है वह अपने सामने वैसा ही आदर्श रखता है। जैनधर्मका उद्देश्य आत्माको समस्त कर्मबन्वनोसे छुड़ाकर उसके असली स्वरूपकी प्राप्ति कराना है जिसे वह भूला हुआ है। अतः उसका आदर्श वे पुनीत आत्माएं है, जिन्होंने अपनेको वैसा बना लिया है। उन्ही आदर्शोकी मूर्ति स्थापना करके सच्चा जैन अपनेको वैसा ही बनानेका प्रयत्न करता है। . प्रत्येक जैनमन्दिरमें शास्त्रभंडार भी रहता है, जिसमे जैनशास्त्रोंका संग्रह होता है। जो दर्शन या पूजनके लिये जाता है उसे दर्शन या पूजन कर चुकने के बाद शास्त्रस्वाध्याय भी अवश्य करनी होती है। क्योकि उन शास्त्रोंको जाने विना दर्शक या पूजक उन जैन तीर्थड्रोके -उपदेशों और उनके जीवनवृत्तोंको नही जान सकता जिनकी मूर्तिको वह पूजता है। और उनके जाने विना मूर्तिसे उसे जिस आदर्शकी शिक्षा
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मिलती है उस आदर्शको वह प्राप्त नहीं कर सकता। क्योकि मूर्ति तो मनुष्यके उच्च आदर्शकी ओर संकेतमात्र करती है, केवल वही उसे उच्च आदर्श प्राप्त नहीं करा सकती। जैसे, जब बालक वर्णमाला सीखता है तो उसका हाथ साधनेके लिये पट्टीपर पेसिलसे वर्णमालाके आंवटे लिख दिये जाते है । बच्चा उन आंवटोपर ही अपनी कलम चलाता है। जबतक उसका हाथ नही सधता और वह इस योग्य नहीं हो जाता कि बिना आंवटोके भी स्वयं अक्षर लिख सके, तबतक उसे बरावर आंवटोंका सहारा लेना पडता है। किन्तु जब उसका हाथ सध जाता है तब आवटोंकी जरूरत नही रहती और वह बिना किसी सहारेके स्वय लिखने लग जाता है। उसी तरह मूर्तिके साहाय्यकी भी तभी तक जरूरत रहती है जब तक दर्शकका दृष्टिकोण अपने आदर्शकी ओर पूरी तरहसे नहीं होता। जब दर्शक अपने आदर्शकी ओर अग्रसर होकर उसीकी साधनामे लग जाता है, और इस तरह उस पथका साधक बन जाता है तब उसके लिये मूर्तिका दर्शन करना आवश्यक नहीं रहता। ___ अत. जैनोंकी मूर्तिपूजा उस आदर्शकी पूजा है जो प्राणिमात्रका सर्वोच्च लक्ष है। उसके द्वारा पूजकको अपने आदर्शका भान होता है, उसे वह भुला नहीं सकता। प्रतिदिन प्रात काल अन्य सब कार्य करनेसे पहले मन्दिरमे जाना इसीलिये अनिवार्य रखा गया है कि मनुष्य अर्थ और कामके पचड़ेमें पड़कर अपने उस सर्वोच्च लक्षको भूल न जाये। तथा जिन महापुरुषोने उस सर्वोच्च लक्षको प्राप्त कर लिया है उनका गुणानुवाद करके उनके प्रति अपनी श्रद्धाञ्जलि अर्पित कर सके और शान्ति तथा विरागताके उस दर्पणमे अपनी कलुषित आत्माका प्रतिबिम्ब देखकर उसके परिमार्जन करनेका प्रयल करसके ।
ऐसे सर्वोच्च लक्षका भान करानेके लिये निर्मित जैन-मन्दिरोके बारेमे जब हम एक पुरानी उक्ति सुनते है
'हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेद् जैनमन्दिरम्' ।
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अर्थात्- 'हाथी के द्वारा मारे जानेपर भी जैन मन्दिरमें नहीं जाना चाहिये ।'
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तो हमें वडा अचरज होता है । तत्कालीन साम्प्रदायिक मनोवृत्ति के सिवा इसका कोई दूसरा कारण हमारे दृष्टिगोचर नही होता ।
अस्तु,
हम पहले लिख आये है कि जैनमूर्ति निरावरण और निराभरण होती है । जो लोग सवस्त्र और सालङ्कार मूर्तिकी उपासना करते है उन्हें शायद नग्नमूर्ति अश्लील प्रतीत होती है । इस सम्बन्धमे हम अपनी ओरसे कुछ न लिखकर सुप्रसिद्ध साहित्यिक काका कालेलकरके वे उद्गार यहाँ अकित करते है जो उन्होंने श्रमण वेलगोला (मैसूर) में स्थित बाहुबलिकी प्रशान्त किन्तु नग्नमूर्तिको देखकर अपने एक लेखमें व्यक्त किये थे । वे लिखते है -
'सासारिक शिष्टाचारमे आसक्त हम इस मूर्तिको देखते ही मनमें विचार करते है कि यह मूर्ति नग्न है । हम मनमें और समाजमे भांति भांतिकी मैली वस्तुओका संग्रह करते है, परन्तु हमे उससे नही होती है घृणा और नही आती है लज्जा । परन्तु नग्नता देखकर घबराते है और नग्नतामे अश्लीलताका अनुभव करते हैं। इसमें सदाचारका द्रोह है और यह लज्जास्पद है । अपनी नग्नताको छिपानेके लिये लोगोने आत्महत्या भी की है । परन्तु क्या नग्नता वस्तुत. अभद्र है ? वास्तवमे श्रीविहीन है ? ऐसा होता तो प्रकृतिको भी इसकी लज्जा आती । पुष्प नग्न रहते हैं, पशु पक्षी नग्न ही रहते है । प्रकृतिके साथ जिन्होने एकता नही खोई है ऐसे बालक भी नग्न ही घूमते है । उनको इसकी शरम नही आती और उनकी निर्व्याजिताके कारण हमें भी इसमें लज्जा जैसा कुछ प्रतीत नही होता । लज्जाकी बात जाने दें। इसमें किसी प्रकारका अश्लील, वीभत्स, जुगुप्सित, विश्री, अरोचक हमें लगा है, ऐसा किसी भी मनुष्यको अनुभव नही। इसका कारण क्या ? कारण यही कि नग्नता प्राकृतिक स्थितिके साथ स्वभावशुदा है । मनुष्यने
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१२७ विकृत ध्यान करके अपने मनके विकारोंको इतना अधिक वढाया है और उन्हे उल्टे रास्तेकी ओर प्रवृत्त किया है कि स्वभावसुन्दर नग्नता उसे सहन नहीं होती। दोष नग्नताका नही पर अपने कृत्रिम जीवनका है। वीमार मनुष्यके समक्ष परिपक्व फल, पौष्टिक मेव और सात्विक आहार भी स्वतंत्रतापूर्वक रख नहीं सकते। यह दोष, उन खाद्य पदार्थोका नही पर मनुष्यके मानसिक रोगका है। नग्नता छिपानेमें नग्नताकी लज्जा नहीं, पर इसके मूलमें विकारी पुरुपके प्रति दयाभाव है, रक्षणवृत्ति है। पर जैसे वालकके सामने नराधम भी सौम्य और निर्मल बन जाता है वैसे ही पुण्यपुरुषोके सामने, वीतराग विभूतियों के समक्ष भी वे शान्त हो जाते है । जहाँ भव्यता है, दिव्यता है, वहाँ भी मनुप्य पराजित होकर विशुद्ध होता है । मूर्तिकार सोचते तो माघवीलताकी एक शाखा जघाके ऊपरसे ले जाकर कमरपर्यन्त ले जाते । इस प्रकार नग्नता छिपानी अशक्य नही थी। पर फिर तो उन्हें सारी फिलोसोफीकी हत्या करनी पड़ती। बालक आपके समक्ष नग्न खड़े रहते है। उस समय वे कात्यायनी व्रत करती हुई मूर्तियोंके समान अपने हाथो द्वारा अपनी नग्नता नही छिपात । उनकी लज्जाहीनता उनकी नग्नताको पवित्र करती है। उनके लिये दूसरा आवरण किस कामका है ?" ___"जब मैं (काका सा०) कारकलके पास गोमटेश्वरकी मूर्ति देखने' गया, उस समय हम स्त्री, पुरुष, वालक और वृद्ध अनेक थे। हममेंसे किसीको भी इस मूर्तिका दर्शन करते समय संकोच जैसा कुछ भी मालम् । नहीं हुआ। अस्वाभाविक प्रतीत होनेका प्रश्न ही नहीं था। मैने अनेक नग्न मूर्तियां देखी है और मन विकारी होनेके वदले उल्टा इन दर्शनोंद कारण ही निर्विकारी होनेका अनुभव करता है। मैंने ऐसी भी मूर्तियाँ तथा चित्र देखे है कि जो वस्त्राभूपणसे आच्छादित होनेपर भी केवल विकारप्रेरक और उन्मादक जैसी प्रतीत हुई है । केवल एक बोप, चारिक लंगोट पहननेवाले नग्न साधु अपने समक्ष वैराग्यका वातावरण उपस्थित करते है। इसके विपरीत तिरसे पर पर्यन्त वस्त्राभूषणोंमें
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लदे हुए व्यक्ति मखके एक इगितमात्रसे अथवा अपने नखरे के थोड़ेसे इशारेसे मनुष्यको अस्वस्थ कर देते है, नीचे गिरा देते हैं । मत हमारी नग्नताविषयक दृष्टि और हमारा विकारोकी ओर झुकाव दोनों बदलने चाहिये । हम विकारोंका पोषण करते जाते है और विवेक रखना चाहते है ।"
काका साहबके इन उद्गारोंके बाद नग्नताके सम्बन्धमे कुछ कहना शेष नही रहता । अत. जैनमूर्तियोकी नग्नताको लेकर जैनधर्मके सम्वन्धमे जो अनेक प्रकारके अपवाद फैलाये गये है वे सब साम्प्रदायिक प्रद्वेषजन्य गलतफहमी के ही परिणाम है। जैनधर्म वीतरागताका 'उपासक है । जहाँ विकार है, राग है, कामुकप्रवृत्ति है, वही नग्नताको छिपानेकी प्रवृत्ति पाई जाती है। निर्विकारके लिये उसकी 'आवश्यकता नही है । इसी भावसे जैनमूर्तियाँ नग्न होती है । उनके मुखपर सौम्यता और विरागता रहती है । उनके दर्शनसे विकार भागता है न कि उत्पन्न होता है । अत जैनमन्दिरोंमें न जानेकी जनश्रुति भी एक मिथ्या प्रवाद है ।
जनमन्दिर शान्ति और भव्यताके प्रतीक होते है। उनमें जानेसे मनुष्यका मन पवित्र होता है। निर्विकार मूर्ति तत्त्वज्ञानसे परिपूर्ण प्राचीन शास्त्र और उपयोगी चित्रकारी यही वहाँकी प्रवान वस्तुएँ है, जिनके दर्शन और अध्ययनसे मनुष्य के मनको शान्ति मिलती है । ९ सात तत्त्व
यद्यपि द्रव्य है तथापि धर्मका सम्वन्ध केवल एक जीवद्रव्यसे है, क्योंकि उसीको दुखोसे छुड़ाकर उत्तम सुख प्राप्त कराने के लिये ही धर्मका उपदेश दिया गया है । और दुखोका मूलकारण उसी जीवके द्वारा बाँधे गये कर्म है, जो कि 'अजीव और अजीवोंमे
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मी पौद्गलिक है । अत जब धर्मका लक्ष्य जीवको सब दुखोसे छुड़ाकर उत्तम नुस प्राप्त कराना है और दुखोंका मूलकारण जीवके द्वारा
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सिद्धान्त बाँधे गये कर्म ही है तो दुःखोसे छूटने के लिये निम्न बातोंकी जानकारी आवश्यक है--
१--उस वस्तुका क्या स्वरूप है, जिसको छुटकोरा दिलाना है ? : २-कर्मका क्या स्वरूप है ? क्योंकि जसे स्वर्णकारको और उसमे मिले हुए द्रव्यकी ठीक ठीक पहचान होना आवकि है' वैसे ही एक आत्मशोधकको भी आत्मा और उसके साथ मिले हुए परद्रव्यकी पहचान होना आवश्यक है, क्योकि उसके विना वह आत्माका शोधन ही नहीं कर सकता।
३ वह अजीव कर्म जीव तक कैसे पहुंचता है ? ४--और पहुँचकर कैसे जीवके साथ बंध जाता है ?
इस प्रकारजीव और कर्मकास्वरूप और कर्मोका जीवतक आगमन और वन्धनका ज्ञान हो जानेसे संसारके कारणोका पूरा ज्ञान हो जाता है। अब उससे छुटकारा पाने के लिये कुछ बाते जानना आवश्यक है
५-नवीन कर्मवन्धको रोकनेका क्या उपाय है? ६-पुराने बंधे हुए कर्मोको कैसे नष्ट किया जा सकता है ? ७-इन उपायोसे जो मुक्ति प्राप्त होगी वह क्या वस्तु है ?
इन सात वातोंका ज्ञान होना प्रत्येक मुमुक्षुके लिये आवश्यक है, इन्हीको सात तत्त्व कहते है। पौद्गलिक कर्मोके सयोगसे ही यह जीव वन्धनमे है और सव प्रकारके कष्ट भोगता है । इस सम्बन्धका अन्त किस प्रकार किया जाये यह एक समस्या है, जिसे प्रत्येक मुमुक्षुको हल करना है। धर्म ही वह विज्ञान है जिसके द्वारा उक्त समस्याको हल किया जा सकता है और उसीके हल करनेके लिये उक्त सात बाते बतलाई गई है। ये सात बाते ही ऐसी है जिनकी श्रद्धा और ज्ञानपर हमारा योगक्षेम निर्भर है। इसीलिये इन्हे तत्त्व-सज्ञा दी गई है। तत्त्व यानी सारभूत पदार्थ ये ही है। जो व्यक्ति इनको नहीं जानता, सम्भव है वह बहुत ज्ञान रखता हो, किन्तु यथार्थमे उपयोगी बातोका ज्ञान उसे नहीं है।
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जनवर्म
र उक्त सात तत्त्वोंका नाम है--जीव, अजीव, आसव, वन्य,
वर, निर्जरा और मोक्ष । इनमेसे जीव और अजीब दो मूलभूत तत्त्व हैं, जिनसे यह विश्व निर्मित है । इन दोनों तत्त्वोका वर्णन पहले कर आये है। तीसरा तत्व आत्रव है, जो जीवमें कर्ममलके मानेको सूचित करता है। वास्तवमें जीव और कर्मोका बन्ध तभी सम्भव है जब जीवमें कर्म-पुद्गलोंका आगमन हो। मत. कर्मोके मानके द्वारको आनव कहते है। वह द्वार, जिसके द्वारा जीवमें सर्वदा कर्मपुद्गलोंका आगमन होता है जीवकी ही एक शक्ति है, जिसे योग कहते है। वह शक्ति गरीरधारी जीवोंकी मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियामोंका सहारा पाकर जीवकी ओर कर्मपुद्गलोको साकृष्ट करती है। अर्थात् हम मनके द्वारा जो कुछ सोचते है, वचनके द्वारा जो कुछ बोलते हैं और शरीरके द्वारा जो कुछ हलनचलन करते हैं वह सब हमारी ओर कर्मोके मानेमे कारण होता है। इसीलिये तत्त्वार्थ-) सूत्र में कहा है कि मन, वचन और कायकी क्रियाको योग कहते है और - वह योग ही आस्रवका कारण होनेसे यात्रव कहा जाता है। अत. आनव तत्त्व यह वतलाता है कि जीवमें कर्मपुद्गलोंका आगमन किस प्रकारसे होता है ?
चौथा वन्ध तत्त्व है। जीव और कर्मके परस्परमे मिल जानेको वन्ध कहते है। यह वन्य यद्यपि संयोगपूर्वक होता है किन्तु संयोगले एक जुदी वस्तु है। संयोग तो मेज और उसपर रक्खी हुई पुस्तकमा भी है, किन्तु उसे वन्य नहीं कह सकते। वन्य तो एक ऐसा मिश्रण (मिलाव) है जिसमें रासायनिक (Chernical) परिवर्तन होता है। उत्तमें मिलनेवाली दो वस्तुएं अपनी बसली हालतको छोड़कर एक तीसरी हालतमें हो जाती है। जैसे दूध और पानीको आपसमें मिला दिये जानेपर न दूव अपनी असली हालतमें रहता है और न पानी अपनी असली हालतमें रहता है, किन्तु दूध पनीलापन आ जाता है और पानी दूधका ना हो जाता है। दोनों दोनोंपर प्रभाव डालते
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सिद्धान्त
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है । इसी तरह जीव और कर्मका परस्परमे सम्बन्ध हो जानेपर न जीव ही अपनी असली हालतमे रहता है और न कर्म पुद्गल ही अपनी असली हालतमे रहते है। दोनों दोनोसे प्रभावित होते है । यही बन्ध है । इसका विशेष विवेचन आगे कर्मसिद्धान्तमे किया गया है । आस्रव और बन्ध ये दोनों ससारके कारण है ।
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पाँचवा तत्त्व संवर है । आस्रवके रोकनेको संवर कहते है अर्थात् नये कर्मोंका जीवमे न आना ही सवर है । यदि नये कर्मोके आगमनको न रोका जाये तो जीवको कभी भी कर्मबन्धनसे छुटकारा नही मिल सकता । अत सवर पाँचवा तत्त्व है । छठा तत्त्व निर्जरा है । बँधे हुए कर्मोके थोडा थोडा करके जीवसे अलग होनेको निर्जरा कहते है । यद्यपि जैसे जीवमे प्रतिसमय नये कर्मोंका आस्रव और वन्व होता है वैसे ही प्रतिसमय पहले बँधे हुए कर्मोकी निर्जरा भी होती रहती है, क्योकि जो कर्म अपना फल दे चुकते है वे झडते जाते है । किन्तु उस निर्जरासे कर्मबन्धनसे छुटकारा नही मिलता, क्योकि प्रतिसमय' नये कर्मो का वध होता ही रहता है, अत सवरपूर्वक जो निर्जरा होती' है, अर्थात् एक ओर तो नये कर्मोके आगमनको रोक दिया जाता है और दूसरी ओर पहले बँधे हुए कर्मो को जीवसे धीरेधीरे जुदा कर दिया जाता है तभी मोक्षकी प्राप्ति होती है जो कि सातवाँ तत्त्व है । समस्त ' कर्मबन्धनों से जीवके छूट जानेको मोक्ष कहते है । मोक्ष या मुक्ति | शब्दका अर्थ ही छुटकारा है । जब जीव सब कर्मवन्धनोंसे छूट जाता है तो उसे मुक्तजीव कहते है ।
इस प्रकार उक्त सात तत्त्वोंमेसे जीव और अजीव दो मूल तत्त्व है, उनके मेलसे ही संसारकी सृष्टि होती है । संसारके मूल कारण आसव और बन्ध है और संसारसे मुक्त होनेके कारण संवर मोर निर्जरा है । संवर और निर्जराके द्वारा जीवको जो पद प्राप्त होता है वह मोक्ष है, जो कि प्रत्येक जीवका चरम लक्ष्य है । उसीकी प्राप्तिके लिये उसका प्रयत्न चाल रहता है, जिसे हम धर्मके नामसे पुकारते है ।
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अत. जो जीव अपने उस चरम लक्ष्यको प्राप्त करना चाहता है उसे उक्त सात तत्त्वोंका ज्ञान होना आवश्यक है ।
१० कर्म सिद्धान्त कर्मका स्वरूप
प्राणी जैसा कर्म करता है उसे वैसा ही फल भोगना पड़ता है। मोटे तोरसे यही कर्मसिद्धान्तका अभिप्राय है । इस सिद्धान्तको जैन, सांख्य, योग, नैयायिक, वैशेषिक, मीमासक आदि आत्मवादी दर्शन तो मानते ही है, किन्तु अनात्मवादी बौद्ध दर्शन भी मानता है। इसी रह ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी भी इसमें प्राय. एकमत है । केन्तु इस सिद्धान्तमें ऐकमत्य होते हुए भी कर्मके स्वरूप और उसके फल देनेके सम्बन्धमें दोनोमें मौलिक मतभेद है । साधारण रसे जो कुछ किया जाता है उसे कर्म कहते है । जैसे - खाना, पीना, वलना, फिरना, हँसना, बोलना, सोचना वगैरह । परलोकको माननेवाले दार्शनिकोंका मत है कि हमारा प्रत्येक अच्छा या बुरा कर्म अपना संस्कार छोड़ जाता है, क्योकि हमारे प्रत्येक कर्म या प्रवृत्तिके मूलमे राग और द्वेष रहते है । यद्यपि प्रवृत्ति या कर्म क्षणिक होता है तथापि उसका संस्कार फलकाल तक स्यायी रहता है । संस्कारसे प्रवृत्ति और प्रवृत्तिसे संस्कारकी परम्परा अनादिकालते चली आती है । इसीका नाम संसार है। यह संस्कार ही धर्म, अधर्म, कर्माशय आदि नामों से पुकारा जाता है। किन्तु जैनदर्शनके मतानुसार कर्मका स्वरूप किसी अंशमें इससे भिन्न है । जैनदर्शन में कर्म केवल एक संस्कारमात्र ही नही है किन्तु एक वस्तुभूत पदार्थ है जो रागी द्वेषी जीवको क्रियासे आकृष्ट होकर जीवके साथ मिल जाता है । यद्यपि वह पदार्थ भौतिक है तथापि जीवके कर्म अर्थात् किनके द्वारा आकृष्ट होकर वह जीवसे बंधता है इसलिये उसे कर्म कहते है । आशय यह है कि जहाँ अन्य धर्मं राग और द्वेषसे युक्त जीवको प्रत्येक क्रियाको कर्म कहते है और उस कर्मके क्षणिक होनेपर भी उसके संस्कारको
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स्थायी मानते हैं, वहाँ जैनदर्शनका कहना है कि राग द्वेषसे युक्त जीवकी प्रत्येक मानसिक, वाचनिक और कायिक क्रियाके साथ एकी द्रव्य जीवमें आता है जो उसके रागद्वेषरूप भावोका निमित्त पाकर जीवसे बँध जाता है, और आगे जाकर अच्छा या बुरा फल देता है इसका खुलासा यह है कि पुद्गलद्रव्य २३ तरहकी वर्गणाओमे बंटास हुआ है। उन वर्गणाओमेसे एक कार्मणवर्गणा भी है, जो सब संसारमे व्याप्त है । जीवके कार्योंके निमित्तसे यह कार्मणवर्गणा ही कर्मरूप हो जाती है, जैसा कि आचार्य कुन्दकुन्दने लिखा है
'परिणमदि जदा अप्पा सुहम्मि असुहम्मि रागदोसजुदो ।
त पविसदि कम्मरय णाणावरणादिभावेहि ॥ ६५॥ ' -- प्रवच० ' जब राग द्वेषसे युक्त आत्मा अच्छे या बुरे कामोंमें लगता तब कर्मरूपी रज ज्ञानावरण आदि रूपसे उसमे प्रवेग करता है ।'
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इस प्रकार कर्म एक मूर्त पदार्थ है जो जीवके साथ बंध जाता है। जीव अमूर्तिक है और कर्म मूर्तिक । अत उन दोनोका वह सम्भव नही है, क्योकि मूर्तिकके साथ मूर्तिकका वन्य हो सकता है ! किन्तु अमूर्तिकके साथ मूर्तिकका बन्ध कैसे हो सकता है ? ऐसी आशंका की जा सकती है, उसका समाधान इस प्रकार है- अन्य दर्शनोकी तरह, जैनदर्शन भी जीव और कर्मके सम्वन्धको अनादि मानता है। किसी समय जीव सर्वथा गुद्ध था, बादको उसके साथ कर्मोंका सम्ब हुआ, ऐसी मान्यता नही है, क्योंकि ऐसा माननेमे अनेक विवाद उठ खड़े होते हैं । सबसे पहला विवाद तो यह है कि सर्वथा शुद्ध जीवके, कर्मबन्ध हुआ तो कैसे हुआ ? और यदि सर्वथा शुद्ध जीव भी कम वन्धनमे पड़ सकता है तो उससे छुटकारा पानेका प्रयत्न करना ही, व्यर्थ हो जाता है । मत. जीव और कर्मका सम्वन्व अनादि है । जैसा, कि पञ्चास्तिकाय नामक ग्रन्थमें आचार्य कुन्दकुन्दने कहा है
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'जो खलु संसारत्यो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो । परिणामादो कम्म कम्मादो होदि गदिसु गदि ॥ १२८|| गदिमधिगदस्स देहो देहादो इदियाणि जायते ।
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तेहि दु विसयगहण तत्तो रागो व दोसो वा॥१२॥ जायदि जीवस्सेवं भावो ससारचक्कवालम्मि ।
इदि जिणवरेहि मणिदो अणादिणिधणो सणिघणो वा ॥१३०॥ अर्थ-जो जीव ससारमें स्थित है अर्थात् जन्म और मरणके क्रम पड़ा हुआ है, उसके रागरूप और द्वेषरूप परिणाम होते है। न परिणामोंसे नये कर्म बंधते है। कर्मोसे गतियोमे जन्म लेना पडता , । जन्म लेनेसे शरीर मिलता है । गरीरमे इन्द्रियाँ होती है । न्द्रियोसे विषयोको ग्रहण करता है। विषयोंको ग्रहण करनेसे इष्ट उपयोंसे राग और अनिष्ट विषयोसे द्वेष करता है। इस प्रकार ससारपी चक्रमें पड़े हुए जीवके भावोसे कर्मवन्ध और कर्मवन्धसे राग-द्वेप प भाव होते रहते है। यह चक्र 'अभव्यजीवकी अपेक्षासे अनादि नन्त है और भन्यजीवकी अपेक्षासे अनादि सान्त है।
इससे स्पष्ट है कि संसारी जीव अनादिकालसे मतिक कोसे घा हुआ है और इसलिये एक तरहसे वह भी मूर्तिक हो रहा है, जैसा क कहा है
'वण्ण रस पच गंधा दो फासा अट्ठ णिच्चया जीवे।
णो सति अमुत्ति तदो ववहारा मुत्ति वधादो॥ ॥ द्रव्यस० । अर्थात्-वास्तवमें जीवमें पांचो रूप, पांचो रस, दोनों गन्ध और आठों स्पर्श नही रहते इसलिये वह अमूर्तिक है, क्योकि जैनदर्शनमे प, रस, गन्ध और स्पर्शगुणवाली वस्तुको ही मूर्तिक कहा है। किन्तु मवन्वके कारण व्यवहारमें जीव मूर्तिक है। अत कथञ्चित् मूर्तिक मात्माके साथ मूर्तिक कर्मद्रव्यका सम्बन्ध होता है।
सारांश यह है कि कर्मके दो भेद है-द्रव्यकर्म और भावकर्म । विसे सम्बद्ध कर्मपुद्गलोको द्रव्यकर्म कहते है और द्रव्यकर्मके प्रभावसे सोनेवाले जीवके राग-द्वेपरूप भावोको भावकर्म कहते है । द्रव्यकर्म सावकर्मका कारण है और भावकर्म द्रव्यकर्मका कारण है । न विना
१ जो जीव इम चत्रका अन्त नहीं कर सकते उन्हें अभव्य कहते है और जो मफा यत कर सकते हैं उन्हें भव्य कहते है।
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सिद्धान्त द्रव्यकर्मके भावकर्म होते है और न बिना भावकर्मके द्रव्यकर्म होते है।
एर कर्म अपना फल कैसे देते है ? ___ ईश्वरको जगत्का नियन्ता माननेवाले वैदिकदर्शन जीवको कम करनेमे स्वतंत्र किन्तु उसका फल भोगनेमे परतंत्र मानते है। उनका मतसे कर्मका फल ईश्वर देता है और वह प्राणियोंके अच्छे या बुरे कर्मके अनुरूप ही अच्छा या बुरा फल देता है। किन्तु जनदर्शनका कहना है कि कर्म अपना फल स्वयं देते है, उसके लिये किसी न्यायाधीशकी आवश्यकता नहीं है। जैसे, शराब पीनेसे नशा होता है और दूध पीनेसे पुष्टि होती है। शराब या दूध पीनेके बाद उसका फल देनेके. लिये किसी दूसरे शक्तिमान नियामककी आवश्यकता नही होती ।। उसी तरह जीवकी प्रत्येक कायिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्तिको साथ जो कर्मपरमाणु जीवात्माकी ओर आकृष्ट होते है और रागद्वेषक' निमित्त पाकर उस जीवसे बच जाते है, उन कर्म परमाणुओमे भी शराब और दूधकी तरह अच्छा और बुरा प्रभाव डालनेकी शक्ति, रहती है, जो चैतन्यके सम्बन्धसे व्यक्त होकर जीवपर अपना प्रभाव डालती है और उसके प्रभावसे मुग्ध हुआ जीव ऐसे काम करता है, जो सुखदायक वा दुःखदायक होते है। यदि कर्म करते समय जीवके, भाव अच्छे होते है तो बँधनेवाले कर्मपरमाणुओंपर अच्छा प्रभाव पड़ता है और वादको उनका फल भी अच्छा ही होता है। तथा यदि बुरे भाव होते है तो बुरा असर पड़ता है और कालान्तरमे उसका फल भी, बुरा ही होता है। ___ मानसिक भावोंका अचेतन वस्तुके ऊपर कैसे प्रभाव पड़ता है और उस प्रभावकी वजहसे उस अचेतनका परिपाक कैसे अच्छा या बुरा होता है ? इत्यादि प्रश्नोंके समाधान के लिये चिकित्सकोंके भोजना, सम्बन्धी नियमोंपर एक दृष्टि डालनी चाहिये। वैद्यकशास्त्रके अनुसार, भोजन करते समय मनमें किसी तरहका क्षोभ नही होना चाहिये।
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गोजन करनेसे आधा घंटा पहलेसे लेकर भोजन करनेके आधा घटा बाद तक मनमें अगान्ति उत्पन्न करनेवाला कोई विचार नही आना वाहिये । ऐसी दशामे जो भोजन किया जाता है, उसका परिपाक अच्छा होता है और वह विकार नहीं करता। किन्तु इसके विपरीत काम, क्रोध आदि विकारोके रहते हुए यदि भोजन किया जाता है तो वह भोजन शरीरमें जाकर विकार उत्पन्न करता है। इससे स्पष्ट है कि कर्ताक भावोका असर अचेतनपर भी पड़ता है और उसके अनुसार ही उसका विपाक होता है। अत जीवको फल भोगनमें परतन्त्र माननेकी आवश्यकता नहीं है।
यदि ईश्वरको फलदाता माना जाता है तो जहाँ एक मनुष्य दूसरे मनुष्यका घात करता है वहाँ घातकको पापका भागी नही होना वाहिये ; क्योकि उस घातकके द्वारा ईश्वर मरनेवालेको दंड दिलाता है। जैसे, राजा जिन पुरुषोके द्वारा अपराधियोंको दण्ड दिलाता है वे पुरुष अपराधी नही कहे जाते, क्योकि वे राजाज्ञाका पालन करते है। उसी तरह किसीका घात करनेवाला घातक भी जिसका घात करता है उसके पूर्वकृत कर्मोका फल भुगताता है, क्योकि ईश्वरने उसके पूर्वकृत कर्मोकी यही सजा नियत की होगी तभी तो उसका वध किया गया। यदि कहा जाये कि मनुष्य कर्म करनेमे स्वतत्र है अत घातकका कार्य ईश्वरप्रेरित नहीं है, किन्तु घातककी स्वतत्र इच्छाका परिणाम है। तो इसका उत्तर यह है कि ससारदशामें कोई भी प्राणी वास्तवमें स्वतंत्र नहीं है, सभी अपने अपने कर्मोसे बंधे है और कर्मके अनुसार ही प्राणीकी वृद्धि होती है। शायद कहा जाये कि ऐसी दशाम तो कोई भी व्यक्ति मुक्तिलाभ नही कर सकता; क्योकि जीव कर्मसे बंधा है और कर्मके अनुसार जीवकी बुद्धि होती है। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योकि कर्म अच्छे भी होते है और बुरे भी होते है। अत. अच्छे कर्मके अनुसार उत्पन्न हुई बुद्धि मनुष्यको सन्मार्गकी ओर ले जाती है और बुरे कर्मके अनुसार उत्पन्न हुई वृद्धि मनुष्यको कुमार्ग
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१३७ की भोर ले जाती है । सन्मार्गपर चलने से मुक्तिलाभ और कुमार्गपर चलनेसे संसारलाभ होता है । अत बुद्धिके कर्मानुसार होनेसे मुक्तिकी प्राप्तिमे कोई वाधा नहीं आती।
इस तरह जव जीव कर्म करनेमे स्वतंत्र नहीं है तो घातकका घातरूपकर्म उसकी दुर्बुद्धिका ही परिणाम कहा जायेगा। और बुद्धिकी' दुष्टता उसके किसी पूर्वकृत कर्मका फल कही जायेगी। ऐसी स्थितिमे यदि हम कर्मफलदाता ईश्वरको मानते है तो उस घातककी दुष्ट बुद्धिका कर्ता ईश्वरको ही कहा जायेगा । इसपर हमारी विचारशक्ति कहती है कि एक विचारशील फलदाताको किसी व्यक्तिके वुरे कर्मका फल ऐसा देना चाहिये जो उसकी सजाके रूपमे हो, न कि उसके द्वारा दूसरोको सजा दिलवानेके रुपमे हो। किन्तु ईश्वर घातकसे दूसरेका घात कराता है, क्योकि उसे उस घातकके द्वारा दूसरेको सजा दिलानी है। किन्तु घातकको, जिस वुद्धिके कारण वह परकाः घात करता है उस वुद्धिको विगाडनेवाले कर्मोंका क्या फल मिला ? इस फलके द्वारा तो दूसरेको सजा भोगनी पड़ी। किन्तु यदि ईश्वरको. फलदाता न मानकर जीवके कर्मोमें ही स्वत फलदानकी शक्ति मान लो जाय तो उक्त समस्या आसानीसे हल हो जाती है, क्योकि, मनुष्य के बुरे कर्म उसकी बुद्धिपर इस प्रकारका सस्कार डाल देते। है, जिससे वह कोवमें आकर दूसरोंका घात कर डालता है और इस तरह उसके बुरे कर्म उसे बुरे मार्गको ओर ही तवतक लिये चले। जाते है जब तक वह उघरसे सावधान नहीं होता। अत ईश्वरको। कर्मफलदाता माननमे इस तरहके अन्य भी अनेक विवाद खड़े होते है। जिनमेंते एक इस प्रकार है--
किसी कर्मका फल हमे तुरन्त मिल जाता है, किसीको कुछ। माह बाद मिलता है, किसीका कुछ वर्ष बाद मिलता है और किसीका जन्मान्तरमें मिलता है। इसका क्या कारण है ? कर्मफलके भोगमे समयको विपमता क्यो देखी जाती है । ईश्वरवादियोकी ओरसे
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जैनवमं
इसका ईश्वरेच्छाके सिवाय कोई सन्तोषकारक समाधान नहीं मिलता। किन्तु कर्ममे ही फलदानकी शक्ति माननेवाला कर्मवादी जनसिद्धान्त उक्त प्रश्नोका बुद्धिगम्य समाधान करता है जो कि आगे बतलाया है । अतः ईश्वरको फलदाता मानना उचित नही जँचता ।
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कर्मके भेद
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पहले बतलाया है कि जैनदर्शनमे कर्मसे मतलब जीवकी त्येक क्रियाके साथ जीवकी ओर आकृष्ट होनेवाले कर्मपरमाणुओसे है । वे कर्मपरमाणु जीवको प्रत्येक क्रियाके साथ, जिसे जैनदर्शनमें के नामसे कहा गया है, जीवकी ओर आकृष्ट होते है और आत्माके राग, द्वेप और मोह आदि भावोंका, जिन्हें जैनदर्शनमें कपाय कहते हूँ, निमित्त पाकर जीवसे बंध जाते हैं । इस तरह कर्मपरमाणुओंको जीवतक लानेका काम जीवको योगशक्ति करती है और उसके साथ न्ध करानेका काम कपाय अर्थात जीवके राग-द्वेपरूप भाव करते है । रांग यह है कि जीवकी योगशक्ति और कपाय ही वन्धका कारण ई । कषायके नष्ट हो जानेपर योगके रहनेतक जीवमें कर्मपरमाणुओका आस्रव-आगमन तो होता है किन्तु कपायके न होनेके कारण वे हर नही सकते । उदाहरणके लिये, योगको वायुकी, कषायको
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की, जीवको एक दीवारकी और कर्मपरमाणुओको वूलकी उपमा दी जा सकती है। यदि दीवारपर गोंद लगी हो तो वायुके साथ उड़कर भानेवाली धूल दीवारसे चिपक जाती है, किन्तु यदि दीवार साफ, चिकनी और सूखी होती है तो धूल दीवारपर न चिपककर तुरन्त झ ड़ती है । यहाँ धूलका कम या ज्यादा परिमाणमें उड़कर आना वायुके त्रेगपर निर्भर है। यदि वायु तेज होती है तो धूल भी खूब उडती
और यदि वायु धीमी होती है तो घूल भी कम उड़ती है । तथा दीवारपर घूलका थोड़े या अधिक दिनोंतक चिपके रहना उसपर की गोद मादि गीली वस्तुओंकी चिपकाहटको कमीवेशी पर निर्भर है। यदि दीवारपर पानी पड़ा हो तो उसपर लगी हुई धूल जल्दी झड़
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सिद्धान्त
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जाती है। यदि किसी पेडका दूध लगा हो तो कुछ देरमे झडती है और यदि कोई गोंद लगी हो तो बहुत दिनोमे झडती है। साराश यह कि चिपकानेवाली चीजका असर दूर होते ही चिपकनेवाली चीज स्वय सड़ जाती है। यही वात योग और कपायके सम्बन्वमें भी जाननी चाहिये। योगशक्ति जिस दर्जेकी होती है आनेवाले कर्मपरमाणुमोकी संख्या भी उसीके अनुसार कमती या वढती होती है। यदि योग उत्कृष्ट होता है तो कर्मपरमाणु भी अधिक तादादमे जीवकी ओर आते है। यदि योग जघन्य होता है तो कर्मपरमाणु भी कम तादादमे जीवकी ओर आते है। इसी तरह यदि कपाय तीन होती है तो कर्मपरमाणु जीवके साथ बहुत दिनोतक बंधे रहते है और फल भी तीन देते है। यदि कपाय हल्की होती है तो कर्मपरमाणु जीवके साथ कम समय तक बंधे रहते है और फल भी कम देते है। यह एक साधारण नियम है किन्तु इसमें कुछ अपवाद भी है।
Vइस प्रकार योग और कषायसे जीवके साथ कर्मपुद्गलोंका वन्ध होता है । वह वन्य चार प्रकारका है-प्रकृतिवन्ध, प्रदेशवन्ध, स्थितिवन्ध और अनुभागवन्ध । बन्धको प्राप्त होनेवाले कर्मपरमाणुओमें अनेक प्रकारका स्वभाव पड़ना प्रकृतिबन्ध है। उनकी संख्याका नियत होना प्रदेशवन्य है। उनमें कालकी मर्यादाका पड़ना, कि ये अमुक कालतक जीव के साथ बंधे रहेगे, स्थितिवन्ध है और उनमें फल देनेकी शक्तिका पड़ना अनुभागवन्व है। कोंमें अनेक प्रकारका स्वभाव पड़ना तथा उनकी सख्याका कमती वढती होना योगपर निर्भर है। तथा उनमे जीवके साथ कम या अधिक कालतक ठहरनेकी शक्तिका पड़ना और तीव्र या मन्द फल देनेकी शक्तिका पडना कषायपर, निर्मर है। इस तरह प्रकृतिवन्ध और प्रदेशवन्ध तो योगसे होते है, और स्थितिवन्ध तथा अनुभागवन्ध कपायसे होते है।
इनमें से प्रकृतिवन्धके आठ भेद है-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय। ज्ञानावरण नामका
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जैनधर्म अधिक कलुषित हो जाते है और वह और भी अधिक बुरे काम करनेपर उतारू हो जाता है तो बुरे भावोका असर पाकर पहले बांधे हुए कर्मोको स्थिति और फलदानगक्ति और भी अधिक बढ जाती है। इस उत्कर्षण और अपकर्षणके कारण ही कोई कन जल्द फल देता है और कोई देरमें। किसी कर्मका फल तीन होता है और किसीका मन्द।
सत्ता-वंचनेके बाद ही कर्म तुरन्त अपना फल नहीं देता, कुछ समय बाद उसका फल मिलता है। इसका कारण यह है कि बंधनेके वाद कर्म सत्तामे रहता है। जैसे शराब पीते ही तुरन्त अपना असर नही देती किन्तु कुछ समय बाद अपना असर दिखलाती है। वैसे ही कर्म भी बंधनेके बाद कुछ समयतक सत्तामें रहता है। इस कालको जैनपरिभाषामे आवाधाकाल कहते है। साधारणतया कर्मका आवाधाकाल उसकी स्थिति के अनुसार होता है। जैसे जो शराव जितनी ही अधिक नशीली और टिकाऊ होती है वह उतने ही अधिक दिनोतक सड़ाकर बनती है, वैसे ही जो कर्म अधिक दिनोतक ठहरता है उसका आवाधाकाल भी उसी हिसाबसे अधिक होता है। एक कोटी कोटी सागरकी स्थितिमें सौ वर्ष आबाधा काल होता है। अर्थात् यदि किसी कर्मकी स्थिति एक कोटि कोटि सागर बाँधी हो तो वह कर्म सौ वर्पके बाद फल देना शुरू करता है और तबतक फल देता रहता है जबतक उसकी स्थिति पूरी न हो। किन्तु आयुकर्मका आवाधाकाल उसकी स्थितिपर निर्भर नहीं है। इसका खुलासा अन्य ग्रन्थों में देखना चाहिये। इस प्रकार बंधनेके वाद कर्मके फल न देकर जीवके साथ मौजूद रहुनेमात्रको सत्ता कहते है।
उदय-कर्मक फल देनेको उदय कहते है। यह उदय दो तरहका । होता है-फलोदय और प्रदेशोदय । जव कर्म अपना फल देकर नष्ट होता है तो वह फलोदय कहा जाता है। और जव कर्म बिना फल दिये ही नप्ट होता है तो उसे प्रदेशोदय कहते है।
उदीरणा-जैसे, आमोके मौसममें आम बेचनेवाले आमोंको जल्दी पकानेके लिये पेडसे तोड़कर भूसे वगैरहमें दवा देते है, जिससे
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सिद्धान्त वे आम वृक्षकी अपेक्षा जल्दी पक जाते है। इसी तरह कभी कभी नियत समयसे पहले कर्मका विपाक हो जाता है। इसे ही उदीरण कहत है। उदीरणाके लिये पहले अपकर्षण करणके द्वारा कर्मकी स्थितिको कम कर दिया जाता है, स्थितिके घट जाने पर कर्म नियन समयसे पहले उदयमे आ जाता है। जब कोई असमयमे ही मर जाता है तो उसकी अकालमत्यु कही जाती है। इसका कारण आयुकर्मकी उदीरणा ही है। स्थितिका घात हुए बिना उदीरणा नहीं होती।
सक्रमण-एक कर्मका दूसरे सजातीय कर्मरूप हो जानेको सक्रमण करण कहते है। यह सक्रमण मूल भेदोंमें नहीं होता। अर्थात् ज्ञानावरण दर्शनावरण रूप नहीं होता और न दर्शनावरण ज्ञानावरणरूप होता है। इसी तरह अन्य कर्मोके बारेमे भी जानना। किन्तु एक कर्मका अवान्तर
भेद अपने सजातीय अन्य भेदरूप हो सकता है। जैसे, वेदनीय कर्मके दो । भेदोंमेंसे सातवेदनीय असातवेदनीय रूप हो सकता है और असातवेद,
नीय सातवेदनीयरूप हो सकता है। यद्यपि सक्रमण एक कर्मके अवान्तर, भेदोंमे ही होता है, किन्तु उसमे अपवाद भी है। आयुकर्मके चार भेदोंमें परस्परमे सक्रमण नही होता । नरकगतिकी आयु वाँध लेनेपर जीवको नरकगतिमे ही जाना पड़ता है, अन्य गतिमे नही । इसी प्रकार बाकीकी तीन युमोंके बारेमे भी जानना चाहिये।
उपशम-कर्मको उदयमें आ सकनेके अयोग्य कर देना उपशम करण है।
निधत्ति-कर्मका संक्रमण और उदय न हो सकना निधत्ति है। • निकाचना-उसमे उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण और उदीरण • का न हो सकना निकाचना है। ___कर्मकी इन अनेक दशाओके सिवाय जैनसिद्धान्तमें कर्मका स्वामी कर्मोकी स्थिति, कब कौन कर्म बंधता है ? किसका उदय होता है, किस कर्मकी सत्ता रहती है, किस कर्मका क्षय होता है आदि बातोका विस्तारसे वर्णन है।
कान हो
न अनेक दशा में बंधता
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३. चारित्र जैनधर्मके दार्शनिक मन्तव्योका परिचय कराकर अब हम उस परित्रकी ओर आते है, जो वस्तुत. धर्म कहा जाता है।
रत्नकरंडश्रावकाचार नामक प्राचीन जैन-ग्रन्यमें समर्थ जैनाचार्य त्री समन्तभद्र स्वामीने धर्मका वर्णन करते हुए लिखा है'देशवामि समीचीन धर्म कर्मनिवर्हणम्।। संसारदुःखत सत्वान् यो घरत्युत्तम सुते॥२॥'
'म कर्मवन्धनका नाश करनेवाले उस सत्यधर्मका कथन करता ईजो प्राणियोंको संसारके दुःखोंसे छुड़ाकर उत्तम सुखमें घरता है।'
इससे निम्न निष्कर्ष निकलते है(१) संसारमें दुःख है। (२) उस दुखका कारण प्राणियोंके अपने अपने कर्म है।
(३) धर्म प्राणिमात्रको दुखते छुड़ाकर न केवल सुख किन्तु उत्तम सुख प्राप्त कराता है। ___ अब विचारणीय यह है कि संसारमे दुल क्यों है और धर्म कैसे उससे छुडाकर उत्तम सुख प्राप्त कराता है।
१ संसारमें दुःख क्यों है ? ' संसारमे दु.ख है यह किसीसे छिपा नहीं। और सब लोग सुसके इच्छुक है और सुखके लिए ही रात दिन प्रयत्न करते है यह भी किसीसे छिपा नहीं। फिर भी सव दु.खी क्यों है ? जिन्हें पेट भरनेके लिये न मुट्ठी भर अन्न मिलता है और न तन ढाँकनके लिये वस्त्र, उनकी गत जाने दीजिये। जो सम्पत्तिगाली है उन्हें भी हम कित्ती न किसी दुःखसे पीड़ित पाते है। निर्धन बनके लिये छटपटाते हैं और धनवानोको धनकी तृष्णा चैन नहीं लेने देती। निसन्तान सन्तानके लिये रोते है तो सन्तानवाले सन्तानके भरणपोषणके लिये चिन्तित है।
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चारित्र किसीका पुत्र मर जाता है तो किसीकी पुत्री विधवा हो जाती है। कोई पत्नीके बिना दु:खी है तो कोई कुलटा पत्लीके कारण दुखी है। साराश यह है कि प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी दु खसे दुखी है। और अपनी अपनी समझके अनुसार उसे दूर करनेकी चेष्टा करता है, किन्तु फिर भी दुखोंसे छुटकारा नहीं होता। सुखकी चाहको पूरा करनेके प्रयत्नमे जीवन बीत जाता है किन्तु किसीकी चाह पूरी नहीं होती। आइये । जरा इसके कारणोंपर विचार करे। __सुखके साधन तीन है-धर्म, अर्थ और काम। इनमें भी धर्म ही सुखका मुख्य साधन है और बाकीके दोनो गौण है, क्योंकि शुभा चरणरूप धर्मके बिना प्रथम तो अर्थ और कामकी प्राप्ति ही असंभव है। जरा देरके लिये उसे संभव भी मान लिया जाये तो अधर्मपूर्ण साधनोंसे उपार्जन किया हुआ अर्थ और काम कभी सुखका कारण हो नहीं सकता, बल्कि दुःखोंका ही कारण होता है। इसके दृष्टान्तके लिये चोरीसे धन कमानेवालों और परस्त्रीगामियोको उपस्थित किया जा सकता है। मोहवश इन कामोंमे बहुतसे लोग प्रवृत्त हुए देखे जाते है, पर उन कामोंको स्वयं वही अच्छा नही बतलाते । और उस धन और कामभोगसे उन्हें कितना सुख मिलता है यह भी उनकी आत्मा ही जानती है। यथार्थमें अर्थ और कामसे तभी सुख हो सकता है जब उसमे सन्तोष हो । सन्तोषके बिना धन कमानेसे धनकी तृष्णा बढती जाती है और तृष्णाकी ज्वालासे जलते हुए मनुष्योको सुखका लेश भी नही मिल सकता। इसी प्रकार जो कामभोगकी तृष्णामें पडकर कामभोगके साधन शरीर, इन्द्रिय वगैरहको जर्जर कर लेते हैं वे क्या कभी सुखी हो सकते है ? फिर अर्थ और काम सदा ठहरनेवाले नहीं है, इनका स्वभाव ही नश्वरता है, किन्तु मनुष्योने उन्हें ही सुखका साधन मान रखा है। अर्थ और काममे जो जितनी उन्नति कर लेता है, जितनी अधिक संपत्ति, भोग-उपभोगके साधन, ऊंची अट्टालिकाएं, सुन्दर सुन्दर गाडियाँ आदि जिसके पास है वह
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जैनधर्म उतना ही अधिक सुखी माना जाता है, उसका उतना ही अधिक आदर होता है। और यह सब देखकर सवलोग, क्या मूर्ख और क्या विद्वान, क्या ग्रामीण और क्या शहरी, वालकसे बूढेतक अर्थ और कामके लिये ही शक्तिभर उद्योग करते है। यदि कोई धर्ममें लगता भी है तो अर्थ और कामके लिये ही लगता है। ऐसी स्थितिमें यदि मनुष्य दुखी न हों तो क्यों न हो? फिर मनुष्योंकी यह अर्थलालसा और कामलालसा केवल उन्हें ही दुखी नही करती बल्कि समाज और राष्ट्र भरको दुःखी बनाती है, क्योकि जो मनुष्य स्वार्थवश धन कमाताहै और उचित अनुचितका विचार नहीं करता वह दूसरोंके कप्टका कारण अवश्य होता है, साथ ही साथ यदि वह दूसरोको कष्ट पहुंचाकर चोरी या छलसे अपनेको धनी बनाता है तो दूसरे चतुर मनुष्य उसका ही अनुकरण करके उसी रीतिसे धनवान बननेकी चेष्टा करते है और इस तरह परस्परमें ही एक दूसरेके द्वारा सताया जाकर समाजका समाज दुःखी हो उठता है । यही वात कामभोगके सम्बन्धमे भी है । अत यदि धर्मके द्वारा अर्थ और कामकी मर्यादा रखी जाय तो वे सुखके साधन हो सकते है, परन्तु धर्मकी मर्यादाके विना वे सुखकी अपेक्षा दुख ही अधिक उत्पन्न करते है। अतः सुखके साथ धर्मका ही घनिष्ठ सम्बन्ध सिद्ध होता है और सुखके साधनोमे धर्म ही प्रधान ठहरता है।
तथा शास्त्रोमें जो सुखका विचार किया गया है, उसपर दृष्टि डालने से तो यह बात और भी अधिक स्पष्ट हो जाती है। शास्त्रोम सुखको जीवका स्वभाव बतलाया है, क्योकि सुख जीवके भीतरसे ही प्रकट होता है, बाहर संसारमे कही भी सुखका स्थान नहीं है। यदि हम अपनेसे बाहर अन्य पदार्थोंमें सुखकी खोज करते रहें तो हमें कभी भी सुख नहीं मिल सकता। यह सत्य है कि इन्द्रियोके भोग हमसे बाहर इस संसारमें विद्यमान है, किन्तु उनमेसे कोई भी स्वय सुख नही है । उदाहरणके लिये, एक व्यापारीको तार द्वारा यह
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चारित्र
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सूचना मिलती है कि उसे व्यापारमें बहुत लाभ हुमा है। सूचना पाते ही वह आनन्दमे निमग्न हो जाता है। अब प्रश्न यह है कि तार द्वारा सूचना मिलते ही उसके हृदयमे जो आनन्द हुआ वह कहाँसे आया? क्या वह उस तारके कागजसे उत्पन्न हुआ जिसपर सूचना लिखी थी? नही, क्योंकि यदि उस कागजपर हानिकी सूचना लिखी होती तो वहीं कागज उसी व्यापारीके दुखका कारण बन जाता। शायद आप कहो कि उस तारके कागजपर जो वाक्य लिखे हुए थे उनमे सुख विद्य' ना था। किन्तु यह भी ठीक नहीं है, क्योकि यदि उन वाक्योमे सुख है तो जो कोई उन वाक्योको पढे या सुने उन सभीको उससे सुख होना चाहिये, मगर ऐसा नही देखा जाता। शायद कहा जाये कि उन वाक्यों, का सम्बन्ध उसी व्यापारीसे है अत उनसे उसीको सुख होता है दूसरोको. नहीं। किन्तु यदि उस व्यापारीको उस तारकी सत्यतामे सन्देह हो। तो उन वाक्योसे उसे भी तब तक सुख नही होगा जब तक उसका सन्देह, दूर न हो। इसके सिवा एक ही वस्तु किसीके सुखका साधन होती है, और किसीके दुखका साधन होती है। तथा एक ही वस्तु कभी सुखका, साधन होती है और कभी दुखका साधन होती है। जैसे, पुत्र जब तक माता-पिताका आज्ञाकारी रहता है तब तक उनके सुखका साधन होता है और जब वही उद्दण्ड हो जाता है तो दुखका कारण बन जाता है। अत' यदि बाह्य वस्तु सुखस्वरूप होती तो उससे सबको सदा सुख ही होना चाहिये था, किन्तु ऐसा नहीं देखा जाता। अत: यह मानना पड़ता है कि सुख जीवका ही स्वभाव है, इस लिये वह अन्दरसे ही उत्पन्न होता है। किन्तु बाहरमे जिस वस्तुका सहारा पाकर सुख। उत्पन्न होता है, अज्ञानसे मनुष्य उसे ही सुख समझ बैठता है। परन्तु, वास्तवमे वाहिरी वस्तु न स्वय सुख है और न सुखका साधन ही है। शरीरमें उत्पन्न होनेवाले विकारोकी क्षणिक शान्तिके उपायोंको मनुष्य भ्रमसे सुखका साधन मानता है, किन्तु वास्तवमे वे सुखके साधन नहीं है, बल्कि शारीरिक विकारोके प्रतीकारमात्र है, जैसा कि भर्तृहरिने भी लिखा है
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जनवमं
" तृषा धुप्यत्यात्ये पिवति मल्लि स्वादु सुरभि घातं सन् घालीन् स्वचयति माकादिवलितान् । 1 प्रदीप्ते कामान्नो सुरमालिङ्गति वर्ष
प्रतीकारो व्याघे सुसमिति विषयस्यति जन ॥
अर्थात् - 'जव प्यासले मुख नखने लगता है तो मनुष्य सुगन्धित स्वादु जल पीता है। भूखसे पीति होनेपर नाक आदिके साथ भात खाता है । कामाग्निके प्रज्वलित होनेपर पत्नीका आलिंगन करना 1 इस प्रकार रोगके प्रतीकारोको मनुष्य भूलने सुस मान रहा है।'
साराग यह है कि बाह्य वस्तुओंके संग्रहका उद्देश्य केवल शरीर और मनके अन्दर उत्पन्न होनेवाली दुराजनित चंचलताको मिटाना मात्र है। सच्चा सुख तो अपने अन्दरने स्वत विकसित होता है, " वह वाह्य वस्तुकी अपेक्षा नही करता । उसके लिये नगर और वन, स्वजन और परजन, महल और श्ममान तथा प्रियाकी गोद और शिलातल सव समान है । अत न अर्थ सुख का सावन है और न काम, किन्तु
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इच्छाका निरोध ही सच्चे सुसका सावन है । जो इस सत्यको नहीं समझते वे इच्छाको न रोक कर इच्छाके अनुकूल पदार्थ प्राप्त करके सुखी होनेका प्रयत्न करते हैं, किन्तु एक इच्छाक पूरी होनेपर दूसरी , इच्छा उत्पन्न होती है और इस तरह इच्छाका स्रोत वहता रहता है। सव इच्छाएँ किसीकी पूरी नही होती, और यदि हो भी जाएँ तो लागे 'कोई इच्छा उत्पन्न न हो यह संभव नही है । अत. फिर इच्छा उत्पन्न होनेसे फिर दुखको ही सभावना है । अत. प्रत्येक प्रकारकी इच्छा नियमन करना ही सुखका सच्चा उपाय है, न कि उसके अनुकूल 'पदार्थ जुटाकर उसकी तृप्ति करना । तृप्ति करनेसे तो इच्छा वढती 'है और वह तृष्णाका रूप धारण कर लेती है ।
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निष्कर्ष यह है कि सब सुख चाहते है, किन्तु दु खोका अभाव हुए f विना सुखकी प्रतीति नही हो सकती । नर्थ और कामते जो सुख ' होता है वह सुख सुख नही है, किन्तु शारीरिक और मानसिक रोगोंका उ प्रतीकारमात्र है । भ्रमसे लोगोंने उसे सुख समझ लिया है और सव
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चारित्र
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उसीकी प्राप्तिके उपायोंमे लगे रहते है, तथा न्याय और अन्यायक विचार नही करते । इसीसे ससारमें दुख है । हमारी अर्थ और कामक अनियत्रित वाञ्छा ही स्वयं हमारे और दूसरोके दुखका कारण बर्न हुई है । यदि हम उसे धर्मके अंकुशसे नियंत्रित कर सके धर्म अविस् अर्थ और कामके सेवन करनेका व्रत लेलें तो हम स्वयं भी सुखी हो सकत हैं और दूसरे भी, जो कि हमारी अनियत्रित अर्थतृष्णा और कामतृष्णा के शिकार बने हुए है, सुखी हो सकते है । इसीलिये धर्म उपादेय है वह हमारी इच्छाओका नियमन करक हमे सुखी ही नही, किन्तु सुखी बनाता है, क्योकि जो सुख हमे इन्द्रियोके द्वारा प्राप्त होता है वह पराधीन है। जब तक हमे भोगनेके लिये रुचिकर पदार्थ नहीं मिलते तब तक वह होता ही नही, तथा उनके भोगने पर तत्काल सुख मालूम होता है किन्तु बादमे जब भोगकर छोड देते है तो पुन उनके बिना विकलता होने लगती है । जैसे, भूख लगनेपर रुचिक भोजन मिलने से सुख होता है, न मिलनेसे दुख होता है। तथा ए बार भर पेट भोजन कर लेनेपर दूसरी बार फिर क्षुधा सताने लगत है और हम भोजनके लिये विकल हो उठते है । अत इस प्रकार प्राप्त होनेवाला सुख सुख नही है किन्तु दुख ही है। सच्चा सुख वह है जिसे एक बार प्राप्त कर लेनेपर फिर दुखका भय ही नहीं रहता । इसीसे कहा है- 'तत्सुखं यत्र नासुखम् ' । सुख वही है जिसमें दुख न हो । धर्मसे ऐसे ही स्थायी सुखकी प्राप्ति होती है ।
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२. मुक्तिका मार्ग
'ससारमे दुःख क्यों है' यह हम जान चुके है। और यह भी जा चुके है कि सुखका साधन धर्म है वह हमें दु खोंसे छुड़ाकर सुख ही नही किन्तु उत्तम सुख प्राप्त करा सकता है । अब प्रश्न यह है कि दुखोसे छूटने और सुखको प्राप्त करनेका वह मार्ग कौनसा है, जो धर्मक नामसे पुकारा जाता है। आचार्य समन्तभद्र लिखते है
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जैनधर्म
"सदृष्टिज्ञानवृत्तानि धर्म धर्मेसरा विदु। यदीयप्रत्यनीकानि भवन्ति भवपद्धति ॥३॥" रलकरंड।
अर्थात्--'धर्मके प्रवर्तक सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्रको धर्म कहते है। जिनके उल्टे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचरित्र संसारके मार्ग है।'
इन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकोही, जोकि धर्मक नामसे कहे गये है, प्रसिद्ध सूत्रकार उमास्वामीने मुक्तिका मार्ग क्तलाया है। असलमें जो मुक्तिका मार्ग है-दुःखों और उनके कारणोसे छूटनेका उपाय है, वही तो धर्म है। उसीको हमे समझना है।।
दु.खोंसे स्थायी छुटकारा पानेके लिये सबसे प्रथम हमें यह दृढ श्रद्धान होना जरूरी है कि__"एगो में सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्सणो।
खेसा मे वाहिरा भावा सवे संजोगलक्खणा ।।१०२॥' नियमसार।
'जानदर्शनमय एक अविनाशी आत्मा ही मेरा है । शुभाशुभ कर्मोके सयोगसे उत्पन्न हुए वाकीके सभी पदार्थ वाह्य है-मुझसे भिन्न है मेरे नहीं है।'
जब तक हम उन वस्तुओसे, जो हमे हमारे शुभाशुभ कर्मोंक फलस्वरूप प्राप्त होती है, ममत्व नही त्यागेगे, तबतक हम अपने छुटकारेका प्रयत्ल नहीं कर सकेगे । और करेगे भी तो वह हमारा प्रयल सफल नहीं होगा, क्योकि जवतक हमे यही मालूम नहीं है कि हम क्या है और जिनके बीचमे हम रहते है उनके साथ हमारा क्या सम्बन्ध है तबतक हम किससे कित्तका छुटकारा करा सकेंगे? जैसे, जिसे सोनेकी और उसमें मिले हुए खोटकी पहचान नही है कि यह सोना है और यह मैल है, वह खानसे निकले हुए पिण्डमेंसे सोनेको शोधकर नहीं निकाल सकता । सोनेको गोधकर निकालनके लिये उसे सोने और मलका ज्ञान तथा यही सोना है और यही मल है ऐसा दृढ विश्वास होना चाहिये, क्योंकि दृढ विश्वास न होनेपर वह किसी दूसरेके वहकावमे आकर मलको सोना और सोनेको मल समझकर
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चारित्र
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भ्रममें भी पड सकता है । वैसे ही आत्मशोधकका भी अपनी आत्मा, उसकी खरानियां, उन खरावियोके कारण और उनसे छुटकारा पानेके उपायोंका भली भांति ज्ञान होनेके साथ ही साथ अपने उस ज्ञानकी सत्यतापर दृढ आस्था भी अवश्य होनी चाहिये । यह आस्या ही सम्यग्दर्शन है । छुटकारेका प्रयत्न करनेसे पहले इसका होना नितान्त आवश्यक है। जो कुछ सन्देह वगैरह हो उसे पहले ही दूर कर लेना चाहिये। जब वह दूर हो जाये और पहले कहे गये सा तत्त्वोकी दृढ प्रतीति हो जाये तब फिर मुक्तिके मार्गमे पैर बढान चाहिये और फिर उससे पीछे पैर नही हटाना चाहिये, जैसा कि कहा है
"विपरीताभिनिवेश निरस्य सम्यग्व्यवस्य निजतत्त्वम् ।
यत्तस्मादविचलन स एव पुरुषार्थसिद्धयुपायोऽयम् ॥ १५ ॥ " पुरुषार्थ० । 'शरीरको ही आत्मा मान लेनेका जो मिथ्याभाव हो रहा है, उसे दूर करके आत्मतत्त्वको अच्छी तरह जानकर उससे विचलित न होना ही परमपुरुषार्थ मुक्तिकी प्राप्तिका उपाय है।'
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अत. मुक्ति के लिये उक्त सात तत्त्वोपर दृढ आस्थाका होना सम्यग्दर्शन है और उनका ठीक ठीक ज्ञान होना ही सम्यग्ज्ञान है । ये दोनो ही आगे बढनेकी भूमिका है, इनके बिना मुक्तिके लिये यत्नकरना व्यर्थ है । जिस जीवको इस प्रकारका दृढ श्रद्धान और ज्ञान हो। जाता है उसे सम्यग्दृष्टि कहते है अर्थात् उसकी दृष्टि ठीक मानी जाती । है । अब यदि वह आगे वढेगा तो धोखा नही खा सकेगा । जबतक मनुष्यकी दृष्टि ठीक नही होती - उसे अपने हिताहितका ज्ञान नही, होता तबतक वह अपने हितकर मार्गपर आगे नही बढ सकता । अत: प्रारम्भमे ही उसकी दृष्टिका ठीक होना आवश्यक है । इसीलिये सम्यग्दर्शनको मोक्षके मार्गमे कर्णधार बतलाया है। जैसे नावको ठीक दिशामे ले जाना खेनेवालोके हाथमें नही होता, किन्तु नावके पीछे लगे हुए डाँडका सञ्चालन करनेवाले मनुष्यके हाथमे होता है । वह उसे जिघरको घुमाता है उघरको ही नावकी गति हो जाती है। यही
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जैनधर्म वात सम्यग्दर्शनके विषयमे भी जानना चाहिये। इसीसे जैनसिद्धान्तमें सम्यग्दर्शनका बहुत महत्त्व वतलाया है। इसके हुए बिना न कोई (ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहलाता है और न कोई चारित्र सम्यक चरित्र कहलाता है, अत मोक्षके उपासककी दृष्टिका सम्यक् होना बहुत जरूरी है। उसक रहते हुए मुमुक्षु लक्ष्यभ्रष्ट नही हो सकता। । इस सम्यग्दर्शनके आठ अंग है। जैसे शरीरमें आठ अंग होते है, उनके विना शरीर नहीं बनता, वैसे ही इन आठ अगोके विना सम्यग्दर्शन भी नहीं बनता। सबसे प्रथम जिस सत्य मार्गका उसने अवलम्बन किया है उसके सम्बन्धमें उसे निशंक होना चाहिये । जवतक 'उसे यह शंका लगी हुई है कि यह मार्ग ठीक है या गलत, उसकी आस्था 'दृढ कैसे कही जा सकती है? ऐसी अवस्थामे आगे बढनेपर भी उसका
लक्ष्यतक पहुंचना सम्भव नहीं है। अत. उसे अपनेपर अपने गन्तव्य 'पथपर और अपने मार्गद्रष्टापर अविचल विश्वास होना चाहिये । 'दूसरे, उसे किसी भी प्रकारके लौकिक सुखोकी इच्छा नहीं करना 'चाहिये--विलकुल निष्काम होकर काम करना चाहिये, क्योकि कामना और वह भी स्त्री, पुत्र, धन वगैरहकी, मनुष्यको लक्ष्यभ्रष्ट कर देती है । इच्छाका दास कभी आगे बढ ही नहीं सकता। जैसे कोई आदमी अपने देशको स्वतंत्र करनेके मार्गको अपनाता है और यह 'कामना रखकर अपनाता है कि इस मार्गको अपनानेसे मेरी ख्याति होगी, प्रतिष्ठा होगी, मुझे कौसिलमें मेम्बरी मिलेगी। यदि ये चीजें 'उसे मिल जाती है तो वह फिर इनको ही अपना लक्ष्य मानकर उनमें 'ही रम जाता है और देशकी स्वतत्रताको भल बैठता है। यदि ये चीजे नहीं मिलती और उल्टी यातना सहनी पड़ती है तो वह लोगोको भलाबुरा कहकर उस मार्गको ही छोड़ बैठता है। वैसे ही सांसारिक सुखको कामना रखकर इस मार्गपर चलना भी लक्ष्य भ्रष्ट कर देता है। अत निरीह होकर रहना ही ठीक है। तीसरे, रोगी, दुखी और दरिद्रीको देखकर उससे ग्लानि नहीं करनी चाहिये, क्योकि ये सब जीवोके
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चारित्र
१५३ अपने अपने किये हुए पुण्य पापका खेल है। आज जो अमीर है कल वह ? दरिद्र हो सकता है। आज जो नीरोग है कल वह रोगी हो सकता है। अत मनुष्यके वैभव और शरीरकी गन्दगीपर दृष्टि न देकर उसके गुणोपर दृष्टि देनी चाहिये । चौथे, उसे कुमार्गकी और कुमार्गपर। चलनेवालोंकी कभी भी सराहना नहीं करनी चाहिये, क्योकि इससे कुमार्गको प्रोत्साहन मिलता है। तथा उसमे इतना विवेक और दृढताका होना जरूरी है कि यदि कोई उसे सन्मार्गसे च्युत करनेका प्रयत्न करें तो उसकी बातोमे न आ सके। पाँचवे, उसे अपने में गुणोंको बढाते, रहनेका प्रयत्न करते रहना चाहिये और दूसरोके दोषोंको ढाँकनेका प्रयल करना चाहिये। तथा अज्ञानी और असमर्थ जनोके द्वारा यदि सन्मार्गपर कोई अपवाद आता हो तो उसे भी दूर करनेका प्रयत्न करना चाहिये, जिससे लोकमे सन्मार्गको निन्दा न हो। छठे, स्वय या कोई दूसरा मनुष्य सन्मार्गसे डिगता हुआ हो, किसी कारणसे उसका त्याग कर देना चाहता हो तो अपना और उसका स्थितिकरण करन: चाहिये। सातवें, अपने सहयोगियोंसे, और अहिंसामयी धर्मसे अत्यन्त स्नेह करना चाहिये। आठवे, जनतामे फैले हुए अज्ञानरूपी अन्धकारको दूर करके अहिंसामयी धर्मका सर्वत्र प्रसार करते रहना चाहिये। ये सम्यग्दर्शनके आठ अंग है, जिनका होना जरूरी है। ___ इसके सिवा सम्यग्दृष्टिको अपने ज्ञान, तप, आदर-सत्कार वल, ऐश्वर्य, कुल, जाति और सौन्दर्यका मद नही करना चाहिये। मद बहुत बुरा है। जो कोई मदमे आकर अपने किसी भी सहधर्मीका' अपमान करता है, वह अपने धर्मका ही अपमान करता है, क्योकि धार्मिकोके बिना धर्मकी स्थिति नहीं है।
इस प्रकार सम्यदृष्टि तथा सम्यग्ज्ञानी होकर जीवको आगे बढने का प्रयत्न करना चाहिये । इतनी भूमिका तैयार किये विना अहिंसा धर्मरूपी उस महावृक्षका अकुरारोपण नही हो सकता, जिसके शान्तरससे परिपूर्ण सुस्वादु मधुरफल मुक्तिके मार्गमे पाथेयका काम देते है।
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जनधर्म और जिसकी शीतल सुखद छायामे यह सचराचर विश्व-युद्धोकी वभीषिकासे त्रस्त्र और आकुल यह संसार, शान्तिलाभ कर सकता है। अब रहा सम्यक्चारित्र या आचार।
३. चारित्र या आचार प्रारम्भमे जैनधर्मका आरम्भकाल बतलाते हुए यह बतलाया है के जैनशास्त्रोंके अनुसार वर्तमान अवसर्पिणीकालके प्रारम्भमे जब पहाँ भोगभूमि थी, उस समय यहाँ कोई भी धर्म नहीं था। सब मनुष्य सुखी थे। सवको आवश्यकताके अनुसार आवश्यक वस्तुएं मिल जाती थी। मनुष्य सतोषी और सरल होते थे। वैयक्तिक सम्पत्तिवादका तब जन्म नही हुआ था । अत विषमता भी नहीं थी। प्राकृतिक साम्यवाद था। न कोई छोटा था और न कोई बडा। न कोई अमीर था और न कोई गरीव । न कोई शासक था और न कोई शास्य । किन्तु पीछे प्रकृतिने पलटा खाया, आवश्यक वस्तुओका यथेष्ट परिमाणमें मिलना बन्द हो गया। मनुष्योंमें असन्तोष और घबराहट सैदा हुई । उनसे संचयवृत्तिका जन्म हुआ। फलत विषमता बढने लगी और उसके साथ साथ अपराधोंकी भी प्रवृत्ति हो चली। सुखका स्थान दुखने ले लिया। तब भगवान ऋषभदेवका जन्म हुआ। उन्होंने लोगोको असि, मषी, कृषि, शिल्प, सेवा और व्यापारके द्वारा आजीविका करनेका उपदेश दिया तथा अपने प्रत्येक कार्यमें अहिंसामूलक व्यवहार करनेका उपदेश देकर अहिंसाको ही धर्म बतलाया और उस महिंसा धर्मकी रक्षा लियो सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन चार अन्य धर्मोका पालन भी आवश्यक बतलाया। ये पांच यमरूप धर्म ही जैनाचारका मूल है इसीको एकदेशसे गृहस्थ पालते है और सर्वदेशसे मुनि पालते है। ' चारित्र या आचारका अर्थ होता है आचरण । मनुष्य जो कुछ सोचता है या बोलता है या करता है वह सब उसका आचरण कहलाता है। उस आचरणका सुधार ही मनुष्यका सुधार है और उसका बिगाड
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चारित्र
१५५ ही मनुष्यका बिगाड़ है। मनुष्य प्रवृत्तिशील है और उसकी प्रवृत्तिके तीन द्वार है-मन, वचन और काय । इनके द्वारा ही मनुष्य अपना काम करता ह और इनके द्वारा ही एक मनुष्य दूसरे मनुष्यके परिचयमें जाता है। यही वे चीजे है, जो मनुष्यको मनुष्यका दुश्मन बनाती है और यही वे चीजे है जो मनुष्यको मनुष्यका मित्र बनाती है। यही वे. चीज है जिनके सत्प्रयोगसे मनुष्य स्वय सुखी हो सकता है और दूसरोंको सुखी कर सकता है और यही वे चीजे है, जिनके दुष्प्रयोगसे मनुष्य स्वयं दुखी होता है और दूसरोके दुखका कारण बनता है। अत. इनका सत्प्रयोग करना और दुष्प्रयोग न करना शुभाचरण कहा जाता है।
यथार्थमें चारित्रके दो अश है-एक प्रवृत्तिमूलक और दूसरा निवृत्तिमूलक । जितना प्रवृत्तिमूलक अश है वह सव वन्धका कारण है और जितना निवृत्तिमूलक अश है वह सव अवन्धका कारण है।
यहाँ प्रवृत्ति और निवृत्तिके विषयमे थोडा सा प्रकाश डाल देन अनुचित न होगा। प्रवृत्तिका मतलब है इच्छा-पूर्वक किसी कार्य लगना और निवृत्तिका मतलब है प्रवृत्तिको रोकना । प्रवृत्ति अच्छी भी होती और बुरी भी भी। प्रवृत्तिके तीन द्वार है-मन, वचन और काय । किसीका बुरा विचारना, किसीसे ईर्षाभाव रखना आदि बुरी मानसिक प्रवृत्ति है। किसीका भला विचारना, किसीकी रक्षा । उपाय सोचना आदि अच्छी मानसिक प्रवृत्ति है। झूठ बोलना, गाली वकना आदि बुरी वाचनिक प्रवृत्ति है। हित मित वचन बोलना. अच्छी वाचनिक प्रवृत्ति है । किसीकी हिंसा करना, चोरी करना" व्यभिचार करना आदि बुरी कायिक प्रवृत्ति है और किसीकी ६१ करना, सेवा करना आदि अच्छी कायिक प्रवृत्ति है। इस तर प्रवृत्ति अच्छी भी होती है और वुरी भी होती है। किन्तु प्रवृत्तिक अच्छापन या वुरापन कर्ताकी क्रिया या उसके फलपर निर्भर नह है किन्तु कर्ताक इरादेपर निर्भर है। कर्ता जो कार्य अच्छे इरान करता है वह कार्य अच्छा कहलाता है और जो कार्य बुरे इरादेसे करत
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जनधर्म है वह कार्य बुरा कहलाता है। जैसे, एक डाक्टर अच्छा करनेके भावसे रोगीको नश्तर देता है। रोगी चिल्लाता है और तड़फता है फिर भी डाक्टरका कार्य बुरा नहीं कहलाता, क्योकि उसका इरादा बुरा नहीं है। तथा एक मनुष्य किसी धनी युवकसे मित्रता जोडकर उसका धन हथियानेके इरादेसे प्रतिदिन उसकी खुशामद करता है, उसे तरह तरहके सिब्जबाग दिखाकर वेश्या और शराबसे उसकी खातिर करता है। उसका यह काम बुरा है क्योकि उसका इरादा बुरा है। इसी तरह और भी अनेक दृष्टान्त दिये जा सकते है। अत. प्रवृत्तिका अच्छा या दुरापन कर्ताके भावोपर निर्भर है, न कि कार्यपर। ऐसी स्थितिमे मजो लोग लौकिक सुखकी इच्छासे प्रेरित होकर धर्माचरण करते है
उनका वह धर्माचरण यद्यपि बुरे कार्योंमे लगनेकी अपेक्षा अच्छा नाही है तथापि जिस दृष्टिसे धर्माचरणको कर्तव्य बतलाया है उस दृष्टिसे वह एक तरहसे निष्फल ही है, क्योकि लौकिक वैषयिक सुखकी लालसामें फंसकर हम उस चिरस्थायी आत्मिक सुखकी बातको भूल जाते है,
जो धर्माचरणका अन्तिम लक्ष्य है, और ऐसे ऐसे कार्य कर बैठते है हु जिनसे बहुत कालके लिये उस चिरस्थायी सुखकी आशा नष्ट हो जाती है
यद्यपि सुखलाभकी प्रवृत्ति जीवका स्वभावसिद्ध धर्म है। वही प्रवृत्ति जीवोंको अच्छे या बुरे कार्यों में लगाती है। किन्तु एक तो जीवोंको सच्चे सुखकी पहिचान नहीं है। वे समझते हैं कि इन्द्रियोके विषयोंमे ही सच्चा सुख है । इसलिये वे उन्हीकी प्राप्तिका प्रयत्न करते है और उसीके लोभसे धर्माचरण भी करते है। किन्तु ज्यो ज्यों उन्हे विषयोंकी प्राप्ति होती जाती है त्यो-त्यों उनकी विषयतृष्णा बढती जाती है। उस तृष्णाकी पूर्तिके लिये वे प्रतिदिन नये नये उपाय रचते है, अनर्थ करते है, बलात्कार करते है, दूसरोंको सताते है,
उचित अनुचितका विचार किये विना जो कुछ कर सकते है करते है, प्रताकिन्तु उनकी तृष्णा शान्त नहीं होती। अन्तमे तृष्णाको शान्त करनेकी उनमें वे स्वयं ही गान्त हो जाते है और अपने पीछे पापोंकी पोटरी
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चारित्र
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बाँधकर दुनियासे चल बसते है । इसीलिये वैषयिक सुखकी खोज इतनी निन्दनीय है । दूसरे, प्रवृत्तिमे एक बड़ा भारी दोप यह है कि प्रवृत्ति 4 मात्र ही सहजमे असंयत हो उठती है और उचित सीमाको लांघकर कार्य करने लगती है । इसीसे प्रवृत्तिके दमनपर इतना जोर दिया गया छ है मोर प्रवृत्तिको विश्वस्त पथ-प्रदर्शक नही माना जाता । इसीलिये दूरदर्शी धर्मोपदेष्टाओने प्रवृत्ति-मूलक कार्यकी अपेक्षा निवृत्तिमूलक कार्यकी ही अधिक प्रशंसा की है । और निवृत्तिमार्गको ही ग्रहण च करनेका उपदेश दिया है ।
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अनेक लोग सोच सकते है कि प्रवृत्ति मनुष्यको यथार्थकर्मा बनाकर जगतका हित करनेमे लगाती है और निवृत्ति मनुष्यको निष्कर्माल बनाकर जगतका हित करनेसे रोकती है । किन्तु यह बात ठीक नही र है । यह सच है कि निवृत्तिमार्गकी अपेक्षा प्रवृत्तिमार्ग आकर्षक है । है f पर उसका कारण यह है कि प्रवृत्तिमार्गंसे जिस सुखकी खोज की जाती है वह क्षणिक होनेपर भी सहज लभ्य और सहजभोग्य है । उरह निवृत्तिमार्ग से जिस सुखको खोजा जाता है वह नित्य होनेपर भी अतिदूर है और सयतचित्त हुए बिना कोई उसे भोग नही सकता । अत. निवृत्तिमार्ग यद्यपि आकर्षक नही है तथापि एक बार जो उसपर पग रख देता है वह बराबर चलता रहता है, क्योकि उस मार्ग पर चलने से। ' जो सुख प्राप्त होता है वह नित्य है और उसको भोगनेकी शक्तिका कभी हास नही होता । इसके विपरीत प्रवृत्तिमार्ग से जो सुख प्राप्त होता है उस सुखके लिये जिन भोग्य सामग्रियोकी आवश्यकता है वे सव अस्थायी है और उस सुखको भोगनेके लिये हममे जो शक्ति ने वह भी क्षय होनेवाली है । दूसरे, प्रवृत्तिसे प्रेरित होकर जो कार्य किय जाता है उसके अन्त तक चालू रहनेमे बहुत कुछ शका रहती है, क्योकि कर्ता किसी लौकिक इच्छासे ही उसमें प्रवृत्त होता है । किन्तु निवृत्तिमार्गपर चलनेवालेके विषयमे यह शका नही रहती, क्योकि वह अपने सुख - लाभपर दृष्टि न रखकर कार्य करनेमे ही रत रहता है । शायद
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जनवम कोई कहे कि प्रवृत्तिमार्गी लोगोने ही परिश्रम करके अनेक प्रकारके विषय-सूखके उपायोका आविष्कार करके मनुष्यजातिका महान् हित किया है और निवृत्तिमागियोने कुछ नहीं किया। तो उन्हें स्मरण रखना चाहिये कि उन सब सुखसाधनोके रहते हुए भी जब कोई आदमी दुस्सह शोकसागरमें निमग्न होता है, या निराशाके गतम पड़ा होता है या असाध्य रोगसे पीडित होता है तो निवत्तिमागियोंके जीवनक उज्ज्वल दृष्टान्त ही उसको धीरज बंधाते है, और उनके अनुभवपूर्ण उपदेशोंके द्वारा ही उसे सच्ची शान्तिका लाभ होता है। अत जो सच्चे सुख और शान्तिको खोजमें है उन्हें कुछ-कुछ निवृत्तिमार्गी भी होना चाहिये और प्रवृत्तिमार्गपर चलते हुए भी अपनी दृष्टि निवृत्तिमार्गपर ही रखनी चाहिये।
कोई कह सकते है कि इस तरह यदि सभी नितिमार्गी हो जायग तो दुनियाका काम कैसे चलेगा? किन्तु ऐसा सोचनेकी जरूरत नहीं है क्योकि हमारी स्वार्थमूलक प्रवृत्तियों इतनी प्रवलं है कि निवृत्तिक अभ्याससे उनकी जड़ उखड़नकी संभावना नहीं है। उससे इतना ही हो सकता है कि वे कुछ शान्त हो जायें, किन्तु इससे हमे और जगतका लाम ही पहुंचेगा, हानि नहीं। मत चारित्रके दो रूप हे एक प्रवृत्ति'मूलक और दूसरा निवृत्तिमूलक । इन दोनों ही चारित्रोंका प्राण है अहिंसा, और उसके रक्षक है, सत्य, अचार्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।
४. अहिंसा
___जनचारका प्राण हि अहिंसा ही परमधर्म है। अहिंसा ही परमब्रह्म है । अहिता हो सुख शान्ति देनेवाली है, अहिंसा ही संसारका नाण करनेवाली है। सही मानवका सच्चा धर्म है, यही मानवका सच्चा कर्म है । यही वीरोका सच्चा बाना है, यही धोरोंकी प्रवल निशानी है। इसके बिना न मानवको शोभाहै न उसकी शान है। मानव और दानवमें केवल मोहता और हिंसाका ही तो अन्तर है। अहिंसा मानवी है और हिंसा दानवी ही
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१५६ जवसे मानवने अहिंसाको भुला दिया तभीसे वह दानव होता जाता है
और उसकी दानवताका अभिशाप इस विश्वको भोगना पड रहा है । फिर भी मानव इस सत्यको नहीं समझता। किन्तु वह दिन दूर नहीं है जव मानवससार उसे समझेगा, क्योंकि उसके कष्टोका दूसरा इलाज ही नही है।
ससार सुख शान्ति चाहता है, इसका मतलब है कि ससारमे निवास करनेवाला प्रत्येक प्राणी सुखशान्तिका इच्छुक है। कोई मरना नहीं चाहता। दुखीसे दुखी प्राणी भी जीवित रहनेकी चाह रखता है। सबको अपना जीवन प्रिय ही नहीं, बल्कि अतिप्रिय है। ऐसी अति प्यारी चीजको जो नष्ट कर डालता है वह हिंसक है, दानव है, पातकी है। और जो उसकी रक्षा करता है, अपने प्राणोका बलिदान करके
भी त्रस्तोंको बचाता है, उन्हें जीवनदान देता है, वह अहिंसक है 1 और वही सच्चा मानव है। इस मानवताका मूल्य वही आंक सकता है, जिसके प्राणोपर कभी सकट आया है । जो केवल मारना जानते है, सताना जानते है, उनसे यह आशा कैसे की जा सकती है ?
कहावत प्रसिद्ध है-'जाके पैर नहिं फटी बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई' जिसके जीवनपर कभी दुखकी घटा नही घहराई, कभी किसी आततायीकी तलवार नही पडी, वह क्या जान सकता है कि दूसरोंको मारनेमे या सतानेमे क्या दुख है ? काश यदि मानवने अपने जीवनपर बीती दुखद घटनाओसे शिक्षा ली होती तो आज मानव मानवके खूनका प्यासा न होता। किन्तु मानव इतना स्वार्थी है या उसकी स्वार्थपरक वृत्तियाँ इतनी प्रबल है, कि वह स्वयं तो जीवित रहना चाहता है किन्तु दूसरोके जीवनकी कतई परवाह नहीं करता। उसकी दशा नशेमे मस्त उस मोटरचालककी सी है जो सरपट मोटर दौड़ाते हुए यह भूल जाता है कि जिस सडकपर में मोटर चला रहा हूँ। उसपर कुछ अन्य प्राणी भी चल रहे है, जो मेरी मोटरसे दबकर मर सकते है । उसे अपने जीवनकी व अपने सुख चैनकी तो चिन्ता है
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जैनधर्म किन्तु दूसरोकी नही। मुझे स्वादिष्टसे स्वादिष्ट पदार्थ खानेको मिलने चाहिये चाहे दूसरोको सूखा कौर भी न मिले । मेरे खजानेमे बेकार सोने-चाँदीका ढेर लगा रहना चाहिये चाहे दूसरोके तनपर फटा चीथडा भी न हो। मेरी साहूकारी सैकडोको गरीव वनाती है तो मुझे क्या? मेरे भोगविलासके निमित्तसे दूसरोके प्राणोंपर वन आती है तो मुझे क्या हमारे साम्राज्यवादकी चक्कीमे देशका देश पिस रहा है तो हमें क्या? व्यक्ति, समाज और राष्ट्रकी ये भावनाएं ही दूसरे व्यक्तियो, समाजो और राष्ट्रोका निर्दलन कर रही है। इनके कारण किसीको भी सुखसाता नहीं है। परस्परमे अविश्वासकी तीन भावना रात दिन आकुल करती रहती है। सब अवसरकी प्रतीक्षामें रहते है कि कब दूसरेका गला दबोचा जाय। ये सब हिंसक मनोवृत्तिका ही दुष्परिणाम है जो विश्वको भोगना पड़ रहा है। इससे बचनेका एक ही उपाय है और वह है 'जियो और जीने दो' का मंत्र । उसके विना विश्वमे शान्ति नहीं हो सकती। , कुछ लोग अहिंसाको कायरताकी जननी समझते है और कुछ उसे अच्छी मानकर भी मशक्य समझते है। उनका ऐसा ख्याल है कि अहिसा है तो अच्छी चीज मगर वह पाली नहीं जा सकती। ये दोनो ही ख्याल गलत है। न अहिंसा कायरताको पैदा करती है और न वह ऐसी ही है कि उसका पालन करना अशक्य हो। अहिंसापर गहरा विचार न करनेसे ही ऐसी धारणा बना ली गई है। हिंसा न करनेको अहिंसा कहते है। किन्तु अपने द्वारा किसी प्राणीके मर जानेसे या दुःखी हो जानेसे ही हिंसा नहीं होती। ससारमें सर्वत्र जीव पाये जाते है और वे अपने निमित्तसे मरते भी रहते है फिर भी जैनधर्मके अनुसार इसे तबतक हिंसा नहीं कहा जा सकता जबतक अपने हिसारूप परिणाम न हो । वास्तवमें हिसारूप परिणाम ही हिंसा है। अर्थात् जबतक हम प्रमादी और अयत्नाचारी न हो तबतक किसीका घात हो जान अमावसे हम हिंसक नही कहलाये जा सकते।
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चारित्र
आशय यह है कि हिंसा दो प्रकारसे होती है एक कषायसे अर्थात जानबूझकर और दूसरे अयत्नाचार या असावधानीसे। जब एक मनुष्य क्रोध, मान , माया या लोभके वश दूसरे मनुष्यपर वार करता है तो वह हिंसा कषायसे कही जाती है और जब मनुष्यकी विधानता किसीका पात हो जाता है या किसीको कष्ट पहुंचता है तो वह ह. अयत्नाचारसे कही जाती है। किन्तु यदि कोई मनुष्य देख भालकर अपना कार्य कर रहा है और उस समय उसके चित्तम किसीको १५ पहुँचाने का भी भाव नहीं है, फिर भी यदि उसके द्वारा किसीको ४५६ पहुंचता है या किसीका घात हो जाता है तो वह हिंसक नहीं कहा ज सकता। इसी वातको स्पष्ट करते हुए शास्त्रकारोने लिखा है
"उच्चालिदम्मि पादे इरियासमिदस्स पिगमट्ठाणे। आवादेज्ज कुलिंगो मरेज्ज त जोगमासेज्ज । ण हि तस्स तणिमित्तो बधो सुहमो वि देसिदो समये।"
-प्रवच० पृ० २६२। अर्थात् 'जो मनुष्य आगे देख भालकर रास्ता चल रहा है उसके पैर उठानेपर अगर कोई जीव पैरके नीचे आ जावे और कुचलकर मर जावे तो उस मनुष्यको उस जीवके मरने का थोड़ा सा भी पाप आगममे नहीं कहा।'
किन्तु यदि कोई मनुष्य असावधानतासे कार्य कर रहा है उसे इस बातकी बिल्कुल परवाह नहीं है कि उसके इस कार्यसे किसीको हानि पहुँच सकती है या किसीके प्राणोंपर बन आ सकती है, और उसके द्वारा उस समय किसीको कोई हानि पहुंच भी नहीं रही हो, फिर भी वह हिंसाके पापका भागी है
'मरदु व जीवदु जीवो अजदाचारस्स णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स पत्थिवधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ॥१७॥ --प्रवच०३।
अर्थात्-'जीव चाहे जिये चाहे मरे, असावधानतासे काम करनेवालेको हिंसाका पाप अवश्य लगता है। किन्तु जो सावधानीसे काम कर रहा है उसे प्राणिवघहो जानेपर भी हिंसाका पाप नही लगता।'
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नपर्न
अहिंसाकी इस व्याख्याने जनुनार अपनेने किनी जीववा घात हो जाने या किनके दुमी हो जानेपर भी तबतक हिना नहीं बहलाती नवता अपने भाव उसे मारने या दुसी करनेके न हो, अथवा हम अपना कार्य करते हुए अनावधान न हो । किन्तु यदि हमारे भाव विसीको आरने या कष्ट पहुंचाने के हो, परन्तु प्रयत्न करने भी हम उस कुछ भी अनिष्ट नही कर सकें, तब भी हम नही समझे जायेंगे। योकि जो दूसरोंका बुरा करना चाहता है वह सबसे पहले अपना बुरा करता है । जैसा कि कहा है
qlaşanğıcanlarımı
'स्वयमेवात्मनाऽऽत्मानं हिनस्यात्मा प्रमादवान् ।
पूर्व प्राप्यन्तराणा तु पश्चाद् स्याद्वा न वा वय ॥ ० ० २०९ ॥ अर्थात् - 'प्रमादी मनुष्य पहले अपने द्वारा अपना ही घात करता
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पीछे दूसरे प्राणियोका घात हो या न हो ।'
"
असलम जैनधर्ममे हिंसाको दो भागों में वोट दिया गया हैव्यहिता और भावहता । जब किनीको मारने या मनाने अथवा साववानताका भाव न होनेपर भी दूसरेका घात हो जाता है तब उसे द्रव्यहसा कहते है और जब किसीको मारने या सताने अथवा पसावधानताका भाव होता है तब उसे भावहता कहते है । वास्तवमें
हाही हिंसा है । द्रव्यहिताको तो केवल इसलिये हिता कहा कि उसका भावहता के साथ सम्बन्ध है । किन्तु द्रव्यहसाके होनेपर माता अनिवार्य नही है, अर्थात् जिस नादमीके द्वारा किसीका रात हो जाता है या किसीको कष्ट पहुँचता है उस आदमीका इरादा ही ऐसा करनेका था ऐसा एकान्तरूपसे नही कहा जा सकता । अत. जहाँ कर्ताके भावों में हिंसा है वही हिंसा है, उसके द्वारा कोई मारा जाय या न मारा जाये । और जहाँ कर्ता के भावोंमें हिता नही है वहाँ हिंसा भी नही है, भले ही उसके निमित्तते किसीकी जान चली जाये । अगर द्रव्यहसा और भावहिंसाको इस प्रकार अलग न किया गया होता तो कोई भी अहिंसक न वन सकता और यह शंका बराबर खड़ी रहती
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चारित्र
'जले जन्तु स्थले जन्तुराकाशे जन्तुरेव च।
जन्तुमालाकुले लोके कय भिक्षुरहिंसक ॥' 'जलमे जतु है, स्थलमे जतु है और आकाशमे भी जतु है। इस तरह जव समस्त लोक जन्तुओसे भरा हुआ है तो कोई मुनि कैसे अहिंसक, हो सकता है ? इस गंका का उत्तर इस प्रकार दिया है
'सूक्ष्मा न प्रतिपीडयन्त प्राणिन. स्थूलमूर्तय ।
ये शक्यास्ते विवय॑न्ते का हिंसा सयतात्मन. ॥' । 'जीव दो प्रकारके है सूक्ष्म और वादर यास्थूल। जो जीव सूक्ष्म अर्थात् अदृश्य होते है और न तो किसीसे रुकते है और न किसीको रोकते है, उन्हे तो कोई पीडादी ही नही जा सकती। रहे स्थूल जीव,। उनमें जिनकी रक्षा की जा सकती है उनकी की जाती है। अतः जिसने, अपनेको संयत कर लिया है उसे हिंसाका पाप कैसे लग सकता है?'
इससे स्पष्ट है कि जो मनुष्य जीवोकी हिंसा करनेके भाव नही रखता बल्कि उनके बचानके भाव रखता है और अपना प्रत्येक काम ऐसी सावधानीसे करता है कि उससे किसीको भी कष्ट न पहुंच सके। उसके द्वारा जो द्रव्यहिंसा हो जाती है उसका पाप उसे नहीं लगता। अतः जैनधर्मकी अहिंसा भावोके ऊपर निर्भर है और इसलिये कोई । भी समझदार उसे अव्यवहार्य नहीं कह सकता। मनुष्यसे यह आशा । की जाती है कि वह अपने स्वार्थके पीछे किसी भी अन्य जीवको सताने-1 के भाव चित्तमे न आने दे और अपना जीवन निर्वाह इस तरीकेसे करे कि उससे कमसे कम जीवोका कमसे कम अहित होता हो। जो मनुष्य इस तरहकी सावधानी रखता है वह अहिंसक है।
अहिंसाको व्यवहार्य बनानेके लिये जैसे हिंसाके द्रव्यहिंसा और । भावहिंसा भेद किये गये है, वैसे ही अहिंसाके भी अनेक भेद किये। गये हैं। सबसे प्रथम तो गृहस्थ और साधुकी अपेक्षासे अहिंसा दो भागोमे वाँट दी गई है। गृहस्थकी अहिंसाकी सीमा जुदी है और साधुकी अहिंसाकी सीमा जुदी है । जो एकके लिये व्यवहार्य है वही दूसरेके लिये
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जैनधर्म
अव्यवहार्य है, क्योकि दोनोंके पद और उत्तरदायित्व विभिन्न है । दूसरे, गृहस्थकी दृष्टिसे भी उसके अनेक प्रभेद किये गये है। यदि उन पीमाओ और भेद प्रभेदोको भी दृष्टिमे रखकर जैनी अहिंसाको देखा जाये तो हमे विश्वास है कि उसपर अव्यावहारिकताका दोषारोपण नही किया जा सकेगा।
गृहस्थकी अहिंसा हिंसा चार प्रकारकी होती है-संकल्पी, उद्योगी, आरम्भी मौर विरोधी । बिना अपराधके जान बूझकर किसी जीवका वध करनेको संकल्पी हिंसा कहते है । जैसे, कसाई पशुवध करता है । जीवन निर्वाहके लिये व्यापार खेती आदि करने, कल कारखाने चलान स्था सेनामें नौकर होकर युद्ध करने आदिमे जो हिंसा हो जाती है उसे उद्योगी हिंसा कहते है। सावधानी रखते हुए भी भोजन आदि इनानेमे जो हिंसा हो जाती है उसे आरम्भी हिंसा कहते है । और प्रपनी या दूसरोंकी रक्षाके लिये जो हिंसा करनी पडती है उसे विरोधी हंसा कहते है। ___जैनधर्ममें सव संसारी जीवोको दो भेदोमे बांटा गया है एक स्थावर और दूसरा त्रस। जैनधर्मके अनुसार मनुष्य, पशु, पक्षी, कीडे, मकोई आदिक अतिरिक्त पृथ्वी, जल, अग्नि, वाय और वनस्पतिमें भी जीव है। मिट्टीमे कीड़े आदि जीव तो है ही, परन्तु मिट्टीका ढेला स्वय पृथ्वीकायिक जीवके शरीरका पिण्ड है। इसी तरह जलविन्दुमें यत्रोक द्वारा दिखाई देनेवाले अनेक जीवोके अतिरिक्त वह स्वय जलकायिक जीवके शरीरका पिण्ड है। ऐसे ही अग्नि आदिके सम्बन्धमे भी समझना चाहिये । इन जीवोको स्थावर जीव कहते है। और जो जीव चलतं फिरते दिखाई देते है, जैसे मनुष्य, पश, पक्षी, कीडे, मकोडे वगैरह, वे सब स कहे जाते है । इन दोनों प्रकारके जीवोंमेंसे गृहस्थ स्थावर जीवोकी रक्षाका तो यथाशक्ति प्रयत्न करता है, और विना जरूरत न पृथ्वी खोदता है, न जलको खराव करता है, न आग जलाता है।
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चारित्र
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न हवा करता है और न हरी साग सब्जीको या वृक्षोंको काटता है । तथा त्रस जीवोंकी केवल सकल्पी हिंसाका त्याग करता है । इस दीप हिंसाका त्याग कर देनेसे उसके सासारिक जीवनमें कोई कठिनाई ए उपस्थित नही होती, क्योकि सकल्पी हिंसा मनोविनोदकेछ। लिये या दूसरोंको मारकर उसके माँसका भक्षण करनेके लिये की जात ह | खेद है कि मनुष्य 'जिओ और जीने दो' के सिद्धान्तको भुलाकर दिलबहलाव के लिये जंगलमे निर्द्वन्द विचरण करनेवाले पशु पक्षियोका'च शिकार खेलता है और उनके माँससे अपना पेट भरता है। यदि मनुष्य ऐसा करना छोड़ दे तो उससे उसकी जीवनयात्रामे कोई कठिनाई उपस्थित नही होती । मनुष्यके दिलबहलावके साधनोकी कमी नही | है और पेट भरनेके लिये पृथ्वी से अन्न और हरी साग सब्जी उपजाई ज २ सकती है जिससे तरह तरहके स्वादिष्ट भोजन तैयार हो सकते है । है आजके युगमे वैज्ञानिक साधनोसे सब जगह खाद्यान्न उपजाया जा सकता - है और अनावश्यक जानवरोकी पैदायशको भी रोका जा सकता है | ह यदि मनुष्य यह सकल्प करले कि हम अपने लिये किसी जीवकी हत्या न करेगे तो वह दूसरी दिशामे और भी अधिक उन्नति कर सकता है।
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फिर मांसाहार मनुष्यका प्राकृतिक भोजन भी नही है, उसके ' दाँतो और तोकी बनावट इसका साक्षी है । न माँसाहारसे वह बल । और शक्ति ही प्राप्त होती है जो घी, दूध और फलाहारसे प्राप्त होती है । इसके सिवा मांसाहार तामसिक है, उससे मनुष्यकी सात्विक वृत्तियोका घात होता है। इसके विषयमे काफी लिखा जा सकता है किन्तु यहाँ उसके लिये उतना स्थान नही है। इसी तरह शिकार खेलना भी मनुष्यकी नृशसता है । व्याघ्र वगैरह हिंसक पशु भी तभी दूसरे जानवरोंपर आक्रमण करते है जब उन्हे भूख सताती है। किन्तु मनुष्य उनसे भी गया वीता है, जो डरसे भागते हुए पशुओंके पीछे घोडा दौड़ाकर और वाण या वन्दूककी गोली से उनको भूनकर अपना दिल बहलाता है । कुछ लोगों का कहना है कि शिकार खेलनेसे वीरता
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आती है, इसलिये मृगया करना क्षत्रियका कर्तव्य है । उन्होंने शायद क्रूरता और निर्दयताको ही वीरता समझा है । किन्तु वीरता आन्तरिक शौर्य है जो तेजस्वी पुरुषोमे समय समयपर अन्याय व अत्याचारका दमन करनेके लिये प्रकट होती है । डरकर भागते हुए मूक पशुओके जीवनके साथ होली खेलना शूरवीरता नही है, कायरता है । जो ऐसा करते है, वे प्राय कायर होते है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमने हिन्दू मुस्लिम दगेके समय वनारसमे देखा । हमारे मुहालमे अधिकतर वस्ती मल्लाहोंकी है । वे इतने क्रूर होते है कि बड़े बड़े घडियालोको पकड़कर साग सब्जीकी तरह काट डालते है, और खा जाते हैं । किन्तु हिन्दू मुस्लिम दगेके समय उनकी कायरता दयनीय थी। अपनी नांवों में बैठ बैठकर सब उस पार भाग गये थे और जो शेष थे वे भी जैन विद्यार्थियोसे अपनी रक्षा करनेकी प्रार्थना किया करते थे । अत मांसाहार या शिकार खेलनेसे शूरवीरताका कोई सम्बन्ध नही है । इसलिये इनसे बचना चाहिये ।
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इसी तरह धर्मं समझकर देवीके सामने बकरों, भैंसो और सूकरोंका बलिदान करना भी एक प्रकारकी मूढता और नृशसता है । इससे देवी प्रसन्न नही होती । धर्माराधनके स्थानोंको बूचडखाना बनाना शोभा नही देता । अत. सबसे पहले गृहस्थको धर्मके लिये, पेटके लिये और दिलबहलावके लिये किसी भी प्राणीका घात नही करना चाहिये ।
कुछ लोग कहते है कि जब जैनधर्मके अनुसार जल तथा वनस्पति वगैरह भी जीवोंका कलेवर ही है, तब निरामिष भोजियोंको वनस्पति वगैरह भी नही खाना चाहिये । परन्तु जो सप्तधातु युक्त कलेवर होता है उसकी ही माँस सज्ञा है । वनस्पतिने सप्तधातु नही पाई जाती । अत उसकी माँस संज्ञा नही है । इसी तरह कुछ लोग स्वय मरे हुए प्राणी के माँस खानेमे दोष नही बतलाते। यह सत्य है कि जिस प्राणीका वह माँस है, उसे मारा नही गया । किन्तु एक तो मांसमें तत्काल अनेक सूक्ष्म जीवोंकी उत्पत्ति हो जाती है, दूसरे माँस भक्षणसे
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चारित्र जो बुराइयां उत्पन्न होती है, उनसे मनुष्य कभी भी नहीं बच सकता । कहा भी है'मांसास्वादनलुब्धस्य देहिनो देहिन प्रति । हन्तु प्रवर्तते वृद्धिः शकुन्य इव दुधियः॥२७॥ --योगशा० ।
अर्थात्-'जिसको मांस खानेका चसका पड़ जाता है, उस प्राणीकी बुद्धि दुष्ट पक्षियोके समान दूसरे प्राणियोंको मारने लगती है।' ___ आज मांस भक्षणका बहुत प्रचार है उसका ही यह फल है नि... अपने स्वार्थके पीछे मनुष्य मनुष्यका दुश्मन बना हुआ है । एकक दूसरेका वध करते हुए जरा भी सकोच नहीं होता। अत इससे वचन चाहिये।
इस तरह गृहस्थको बस जीवोंकी सकल्पी हिंसाका त्याग जरूर करना चाहिये । अव रह जाती है, उद्योगी आरम्भी और विरोध हिंसा । एक नीची श्रेणीके गृहस्थ के लिये इनका त्याग करना शक्य नहीं है, क्योकि उसे अपने और अपने कुटुम्वियोंके भरण-पोषणक लिये कोई न कोई उद्योग और कुछ न कुछ आरम्भ अवश्य करना पड़ता है, उसके विना उसका निर्वाह नही हो सकता। किन्तु उसे ऐसा ही उद्योग और आरम्भ करना चाहिये जिसमें दूसरे प्राणियोंका कमसे कम कष्ट पहुंचनेकी सभावना हो। इसी तरह विरोधी हिंसासे भी गृहस्थ नहीं बच सकता । यद्यपि वह स्वय किसीसे अकारण विरोध पैदा नहीं करता, किन्तु यदि कोइ उसपर आक्रमण करे ता उससे वचनेके लिये वह बराबर प्रयत्न करेगा। आक्रमणकारीका सामना न करके डरकर घरमें छिप जाना अहिंसाकी निशानी नही है इस मानसिक हिंसासे तो प्रत्यक्ष हिंसा कही अच्छी है। जैनशास्त्रमें तो स्पष्ट लिखा है'नापि स्पष्टः सुदृष्टिर्य. स सप्तभि भयर्मनाक । ---पञ्चाध्यायो। '
'जैनधर्मका जो सच्चा श्रद्धानी है वह सात प्रकारके भयोसे सर्वथा अछूता रहता है।
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जैनधर्म जैनधर्मके सभी तीर्थङ्कर क्षत्रियवशी थे। उन्होने अपने जीवनमे अनेक दिग्विजये की थी। मौर्य-सम्राट चन्द्रगुप्त, महामेघवाहन सम्राट खारवेल, वीर सेनापति चामुण्डराय आदि जैन वीर योद्धा तो भारतीय इतिहासके उज्ज्वल रत्न है। वस्तुत जैनधर्म उन क्षत्रियोका धर्म था जो यद्धस्थलमें दुश्मनका सामना तलवारसे करना जानते थे और उसे तमा करना भी जानते थे। जैन क्षत्रियोके लिये आदेश है
“य. शस्त्रवृत्ति समरे रिपु स्याद् य कण्टको वा निजमण्डलस्य। अस्त्राणि तत्रैव नपा. क्षिपन्ति न दीनकानीनशुभाशयेषु॥"
यशस्तिलक. पृ० ६६ 'अस्त्र शस्त्रसे सुसज्जित होकर युद्धभूमिमे जो शत्रु बनकर आया ते, या अपने देशका दुश्मन हो उसीपर राजागण अस्त्रप्रहार करते , कमजोर, निहत्थे कायरो और सदाशयी पुरुपो पर नहीं।'
यही जनी राजनीति है। अत जो लोग अहिंसा धर्मपर कायरतालाञ्छन लगाते है, वे भ्रममे है। अहिंतामे तो कायरताके लिये थान ही नहीं है। अहिंसाका तो पहला पाठ ही निर्भयता है। निर्भयता और कायरता एक ही स्थानमे नही रह सकती। शौर्य आत्माका एक ण है, जब वह आत्माके ही द्वारा प्रकट किया जाता है तब वह अहिंसा हलाता है और जब वह गरीरके द्वारा प्रकट किया जाता है तव रिता। जनधर्मकी अहिंसा या तो वीरताका पाठ पढाती है या क्षमाTI आपत्तिकालमे गृहस्थका कर्तव्य बतलाते हुए एक जैनाचार्यने उखा है
"अर्यादन्यत्तमस्योच्चद्दिष्टेषु स दृष्टिमान् । सत्सु घोरोपसर्गेषु, तत्पर स्यात्तदत्ययं ॥१२॥ यद्वा न ह्यात्मसामयं यावन्मत्रासिकोशकम् । तावद् दृष्ट च श्रोतुं च तद्वाघा सहते न स.८१३॥"-पञ्चाध्या० ।
अर्थात्-'धर्मके आयतन जिन मन्दिर, जिन विम्व आदिमते सीपर भी आपत्ति आ जानेपर सच्चे जैनीको उसे दूर करनेके लिये दा तत्पर रहना चाहिये । अथवा जबतक उसके पास आत्मबल,
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चाहिये। अतः
यमका अनुयायी
मान
युद्ध नहीं कर
मंत्रवल, तलवारका वल और धनवल है, तबतक वह उस आपत्तिको १ न तो देख ही सकता है और न सुन ही सकता है।' ____ जो कुछ धर्मपर आई हुई आपत्तिके प्रतीकारके बारेमे कहा गया ए है वही देशपर आई हुई आपत्तिके वारेमे भी समझना चाहिये । अतः। जो लोग ऐसा समझते हैं कि जैनधर्मका अनुयायी सेनामे भर्ती नहीं होसे सकता या युद्ध नहीं कर सकता, वे भ्रममे है। आजकल जैनधर्मको . माननेवाले अधिकांश वैश्य है। और सदियोंकी दासता और उत्पीडननेच उन्हें भी कायर और डरपोक वना दिया है। यह अहिंसाधर्मका दोष नही है। जवतक भारतपर अहिंसाधर्मी जैनोका राज्य रहा तवतक भारत गुलाम नहीं हो सका। वे मरना जानते थे और समयपर मारना भी जानते थे किन्तु रणसे विमुख होकर भागना नही जानते थे। प्राणोरे मोहसे कर्तव्यच्युत होना तो सबसे बड़ी हिंसा है।
एक बार एक लेखकने गीतामे प्रतिपादित अर्जुन व्यामोहके सम्बन्वमें लिखा था--"अर्जुनका आदर्श अनार्योका-बौद्ध औरह
नोका मार्ग है । वह आर्योका-हिन्दू जातिका आदर्श कदापि नही। है। हिन्दू-जाति ऐसे झूठे अहिंसाके आदर्शको नही मानती।" हम नही समझते लेखकने इस आदर्शको जैनोका आदर्श कैसे समझ लिया?, गीतासे स्पष्ट है कि अर्जुन हिंसाके भयसे युद्धसे विरत नही हो रहा 4 किन्तु अपने बन्यु वान्धवों और कुलका विनाश उसे कर्तव्यच्युत कर रहा था। अर्जुनके हृदयमें अहिंसाकी ज्योति नही झलकी थी, जिसमें प्रकाशमे मनुष्य प्राणिमात्रको अपना वन्धु और संसारको अपना कुछ मानता है, उसके हृदयमें तो कुटुम्ब मोहने अपना साम्राज्य जमा लिया था। अत वह अहिंसाका आदर्श नही था। अहिंसा कर्तव्यच्युत नहीं करती, किन्तु कर्तव्य और अकर्तव्यका बोध कराकर अकर्तव्यसे बचात है और कर्तव्यपर दृढ करती है। अत. अहिंसा न अव्यवहार्य है और न कायरता और निवलताकी जननी है। उसकी मर्यादा, व्यास्य और शक्तिसे जो परिचित है वह ऐसा कहनेका साहस नही कर सकता,
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ह्सा तो एक गृहस्यके लिये अपरिहार्य है, किन्तु गृहस्थको ऐसा air करना चाहिये जिसमें जीवधात कमसे कम हो, और उतना उद्योग करना चाहिये जितनेसे उसका निर्वाह बखूबी हो सकता हो, योंकि जो गृहस्थ थोड़े बारम्भ और थोड़ी परिग्रहमे सन्तुष्ट रहता . वही अहिंसा अणुव्रतको पाल सकता है। जिसे रातदिन धनको चिन्ता सताती रहती है, जो रात दिन नये नये कल कारखाने खोलकर निसंग्रह करनेमे तत्पर रहता है और अपने कर्मचारियों और नौकरोंको कमसे कम देकर उनसे अधिक से अधिक काम कराता है, न्याय और अन्यायका कतई विचार नही करता, वह क्या खाक अहिंसाको पाल कता है ? अहिंसा सन्तोषीके लिये है, असन्तोषी कभी अहिंसक हो
नही सकता । गृहस्थका यह कर्तव्य बतलाया है कि वह अपने श्रितों और यथाशक्ति अनाश्रितोको भी पहले भोजन कराकर तब वयं भोजन करे। जो सन्तोषी होगा वही ऐसा कर सकता है । सन्तोषी तो पहले अपना पेट हो नही, किन्तु अपने भण्डारको भरनेकी चिन्ता करेगा, उसकी दृष्टिमे तो आश्रितोकी चिन्ता करना ही बेकार [ । वह समझता है कि मैने मोलभाव करके उन्हें रखा है, हर महीने उन्हे उसके अनुसार वेतन दे दिया जाता है । उतनमें उनका और उनके
बच्चोंका पेट भरे या न भरे। इतनेमे यदि वे काम नही करना हते हों तो न करें हम दूसरे आदमी रख लेगे। वाजारमें आदमियोंकी कमी नही है । ऐसे विचारवाला मनुष्य कोरा व्यापारी है किन्तु अहिंसक व्यापारी नही है | अहिसक व्यापारी तो वह है जो अपनी ही तरह अपने आश्रितोंकी भी चिन्ता करता है और उनके ऊपर जोर जुल्म न करके उन्हें समयपर भरपेट भोजन देता है और उतना ही काम लेता
जितना वे कर सकते हों। यह बात अपने आश्रित मनुष्यों और पगुनी दोनोंके सम्बन्धमे समानरूपसे लागू होती है । जैन शास्त्रकारोंने अहिंसा अणुव्रत पाँच दोष बतलाये है और उनसे बचते रहनेको ताकीद की । वे दोष इस प्रकार है
१. बुरे इरादे से मनुष्य और पशुओंको रस्सी वगैरहसे वाँधना ।
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नोकर चाकरोको तो गुस्सेमे आकर मालिक लोग बँधवा डालते है किन्तु पालतू पशु तो विना बाँधे रह नही सकते । इसलिये उनको इस तरहसे बाँधना चाहिये कि यदि कभी घरमे आग लग जाये तो वे बन्धन छुड़ाकर भाग सके ।
२. क्रूरता पूर्वक डण्डे या कोडेसे पीटना ।
३. निर्दय होकर हाथ, पैर, कान, नाक वगैरहका काट डालना, किन्तु यदि किसी पशु या मनुष्यके शरीरका कोई अवयव सड़ गया है या शरीरमे फोडा हो गया हो तो उसके काटने या चीरनेमे कोई दो नही है ।
४. गुस्सेमे आकर या लोभसे मनुष्य या पशुके ऊपर उसक शक्तिसे ज्यादा बोझा लादना या शक्तिसे अधिक काम लेना । श्रावक चाहिये कि मनुष्य जितना वोझा स्वयं उठाकर ले जा सके और उता कर नीचे रख सके उतना ही बोझा उससे उठवाये और रखवाये इसी तरह चौपाया जितना बोझा लादकर अच्छी तरह चल सके उतन ही उसपर लादे । उसमे भी समयका ध्यान अवश्य रखे । उचित सम तक ही उनसे काम लेना चाहिये । यदि श्रावक खेती करता हो तो ह और गाडी वगैरहमे बैलोको समयसे जोते और समयसे खोल दे शक्ति से अधिक काम लेना भी हिंसा ही है ।
५. भूख प्यास से पीडित प्राणी मर भी जाता है इसलि खाना किसीका भी न रोकना चाहिये । यदि किसीने अपराध किया ह तो उसे डाटनेके लिये मुंहसे यह चाहे कह दे कि आज तुझे भोजन नहीं मिलेगा, किन्तु भोजनका समय आनेपर तो नियमसे दूसरोको खिलाक ' ही स्वयं खाना चाहिये । हाँ, यदि कोई अपना आश्रित बीमार हो उसने स्वय ही उपवास किया हो तो बात दूसरी है । अत. श्रावकको इ बातका बराबर ध्यान रखना चाहिये कि अहिंसाव्रतमे दोष न आने पाये
यदि असाव्रती श्रावक अपने आश्रितों के साथ ऐसा प्रेमम
व्यवहार रखे तो उसे इससे आर्थिक दृष्टिसे भी लाभ ही रहेगा, क्योि
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इस ममय व्यवहारसे कर्मचारीगण उसके कामको अपना समझकर दिल गाकर काम करेंगे और उसके हानि-लाभको अपना हानि-लाभ नेगे । इस तरहसे अहिंसामूलक व्यवहार स्वार्थ और परमार्थ दोनो यो दृष्टिसे लाभदायक है । यदि जमीदार और मिलमालिक अपने वाश्रित किसानो और मजदूरों के साथ ऐसा ही प्रेममय व्यवहार करते बनाते तो आज उन दोनो के बीचमे जो खीचातानी चलती रहती है वह निरतना कटुरूप धारण न करती और न जमीदारी और कल कारखानोपर मारकारी नियत्रणकी बात ही पैदा होती । अस्तु ।
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कि
रात्रिभोजन और जलगालन
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त्वर
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चिर
उन्न
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अहिंसाव्रती श्रावकको रातमे भोजन नही करना चाहिये और नी भी कपड़े से छानकर काममे लेना चाहिये । रातमें भोजन करनेके ष्परिणाम प्राय समाचारपत्रोमे प्रकट होते रहते है | कही चायकी टली में छिपकलीके चुर जानेके कारण चाय पीनेवाले मनुष्योंका मरण नने आता है, कभी किसी दावतमे पकते हुए बरतनमे साँपके घ जानेके कारण मनुष्योंका मरण सुननेमें आता है । प्रतिवर्ष इस रहकी दो चार घटनाएं घटती रहती है, मगर फिर भी मनुष्यों की आँखें ही खुलती । भोजन हमेशा दिनके प्रकाशमें ही देख भालकर करना हिये। रात्रिमे तेजसे तेज प्रकाशका प्रवन्ध होनेपर भी एक तो उतना कष्ट दिखलाई नही देता, जितना दिनमे दिखलाई देता है । दूसरे, के प्रकाशमें जो जीव जन्तु इधर उधर जा छिपते है, रात्रि होते ही सब अपने अपने खाद्यकी खोजमे निकल पड़ते है, कृत्रिम प्रकाश हे रोक नही सकता, वल्कि अधिक तेज प्रकाशसे पतगे वगैरह और - अधिक आते है । खानेवाला भोजन करता जाता है और पतगे टप टप गिरते रहते है। रात्रिको हलवाईकी दूकानपर जाकर । नीचे भट्टीपर दूधकी कडाही चढी होती है और ऊपर बिजलीके स्वपर पतगे मंडराते रहते है और कड़ाहीमे गिर गिरकर पीनेवालोके 'लिये लाईका लच्छा बनानेका काम करते रहते है । पास ही छिपकली
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छ
रह
महार
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उनके शिकारके लिये लपकती रहती है, जो कभी-कभी दूधमे भी जा' पड़ती है। एक बार इसी तरहके दूधको जमा दिया गया। सुबहको जिसने उस दूधके दहीकी लस्सी पी उसीकी हालत खराब हो गई। पीछे दहीके कुंडमे नीचे छिपकली मरी हुई पाइ गई। यदि भोजनमें। जूंखा ली जाये तो जलोदर रोग हो जाता है और मकडी खा ली जाये, तो कुछ हो जाता है। तथा वैद्यकशास्त्रके अनुसार भी भोजन करनेके तीन घटेके पश्चात् जब खाये हुए भोजनका परिपाक होने लगे तवन गय्यापर सोनेका विधान है। जो लोग रात्रिमे भोजन करते है। वे प्राय. भोजन करके पड़ रहते है और विषयभोगमे लग जाते है। इससे स्वास्थ्यकी बडी हानि होती है। अत. नीरोगताकी दृप्टिसे भी.. दिनमे ही भोजन करना हितकर है।
इसी तरह पानी भी हमेशा छानकर ही काममे लाना चाहिये। विना छने पानीमे यदि कीडे हों तो वे पेटमे जाकर अनेक सक्रामक रोग पैदा करते है। जब हैजा वगैरह फैला होता है तब पानीको पकाकर पीनेकी सलाह दी जाती है। वास्तवमें पका हुआ पानी कभी भी विकास नहीं करता। जैन साधु पका पानी ही काममे लाते है। किन्तु जैन गृहस्थोंको पके पानीका तो नियम नहीं कराया जाता, किन्तु छने, पानीका नियम कराया जाता है। अनछने पानीसे छना पानी साफ होता है और छने पानीसे पका पानी शुद्ध होता है। आजकल तो जगह। जगह नल लगे हुए है। किन्तु नलोंका पानी भी छानकर ही काममे. लेना चाहिये, क्योकि नलोंके पानीमे भी जग मिट्टी वगैरह मिली आती है, जो कपड़ेपर जम जाती है। एक बार तो एक साँपका बच्चा, कहीसे नलमे आ गया था। अत. चाहे नलका पानी हो या कुएका हो या नदीका हो, सवको छानकर ही काममे लेना गहिये । इससे हम अनेक रोगों और कष्टोंसे वच जाते है । एक बार समाचारपत्रमे मुरादाबाद जिलेकी एक घटना प्रकाशित हुई थी। एक लड़का रातको खाटके नीचे पानी रखकर सो गया। उसमे विच्छु गिर गया। अचानक
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जनधम उकेको रातमें प्यास लगी और उसने विना देखे ही गिलास उठाकर हसे लगा लिया। विच्छु उसके मुंहमे चला गया और उसके हलकमे चपट कर डक मारने लगा। लडका तिलमिला उठा। बहुत उपचार कया गया मगर विच्छू छुड़ाया न जा सका। आखिर लडकेने तडफ तडफ कर जान दे दी । ऐसी आकस्मिक दुर्घटनाओसे शिक्षा लेना वाहिये और रात्रिभोजन तथा विना छने पानीसे बचना चाहिये । वामिक विषयोमें केवल धर्मकी ही मर्यादा नहीं है, उनमें व्यक्ति और समाजका सामूहिक हित भी छिपा हुआ है।
२. सत्याणुव्रत - जो वस्तु जैसी देखी हो या सुनी हो, उसको वैसा ही न कहना लोकमें असत्य कहलाता है। परन्तु जैनधर्ममे सत्य स्वय कोई स्वतन्त्र नत नहीं है, किन्तु अहिंसावतकी रक्षा करना ही उसका लक्ष्य है। इसलिये जैनधर्ममें जो वचन दूसरोको कष्ट पहुंचानेके उद्देश्यसे बोला हजाता है वह सत्य होनेपर भी असत्य कहलाता है। जैसे, काने पुरुपको चुकाना कहना यद्यपि सत्य है, किन्तु यदि उससे उस मनुप्यके दिलको
चोट पहुंचती है, या यदि उसे चोट पहुंचानेके विचारसे काना कहा - जाता है तो वह असत्यमें ही गिना जायेगा। इसी दृष्टिसे यदि सत्य बोलनेसे किसीके प्राणोपर सकट बन आता हो तो उस अवस्थामे सत्य बोलना भी बुरा कहा जायेगा। किन्तु ऐसे समयमें असत्य वोलकर किसीके प्राणोकी रक्षा करनेसे यदि उसके जुल्म और अत्याचारोसे दूसरोंके प्राणोंपर सकट आनेकी संभावना हो तो उक्त नियममे अपवाद
भी हो सकता है, क्योकि यद्यपि व्यक्तिके जीवनकी रक्षा इष्ट है, । किन्तु व्यक्तिके जुल्म और अत्याचारोको रक्षा किसी भी अवस्थामें इष्ट
नही है। और अत्याचारोंके परिशोधके लिये व्यक्ति या व्यक्तियोंकी
जान ले लेनेकी अपेक्षा उनका सुधार कर देना अति उत्तम है, किन्तु । यदि यह शक्य न हो तो अन्याय और अत्याचारको सहायता देना
तो कभी भी उचित नहीं है। मगर व्यक्ति सुधर सकता है और इसलिये
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१७७ उसे अवसर अवश्य देना चाहिये । प्राणरक्षाके लिये असत्य बोलनेके मूलमे यही भाव है। - असत्य वचनके अनेक भेद है, जैसे-१-मनुष्यके विषयमे झूठ बोलना। शादी विवाहके अवसरोंपर विरोधियोके द्वारा इस तरहके झूठ बोलनेका प्रायः चलन है। विरोधी लोग विवाह न होने देनेके लिये किसीकी कन्याको दूपण लगा देते है, किसीके लडकेमे बुराइयां वतला देते है। २-चौपायोंके विषयमे झूठ बोलना । जैसे, थोड़ा दूध देनेवाली गायको बहुत दूध दनेवाली बतलाना या बहुत दूध देनेवाली गायको थोड़ा दूध देनेवाली बतलाना । ३-अचेतन वस्तुओंके विषयमे झूठ वोलना। जैसे, दूसरेकी जमीनको अपनी बतलाना या टैक्स वगैरहसे वचनेके लिये अपनी जमीनको दूसरेकी बतलाना। ४-लाचके लोभसे याई होनेसे किसी सच्ची घटनाके विरुद्ध गवाही देना। ५-अपने पास रखी हुई कित्तीकी धरोहरके सम्वन्धमे असत्य बोलना। ये और इस तरहके अन्य झूठ वचन गृहस्थको नहीं बोलना चाहिये। इनसे मनुष्यका विश्वास जाता रहता है और अनाचारको भी प्रोत्साहन मिलता है, तथा जिनके विषयमें झूठ बोला गया है उन्हे दुख पहुंचता है और वे जीवनके वैरी बन जाते है। जो लोग कारवार रुजगारमे अधिक झूठ बोलते है और सच्चा व्यवहार नहीं रखते, बाजारमे । उनकी साख जाती रहती है। लोग उन्हें झूठा समझने लगते है और उनसे लेन देन तक बन्द कर देते है।।
वहुतसे लोग झूठ बोलनेकी आदत न होनेपर भी कभी कभी क्रोध आकर झूठ बोल जाते है, कुछ लोग लोभमें फंसकर झूठ बोल जाते है, कुछ लोग पुलिस वगैरहके डरसे झूठ बोल जाते है और कुछ लोग हसी मजाकमे झूठ बोल जाते है । अत. सत्यवादीको क्रोध, लालच
और भयसे भी बचना चाहिये और हंसी मजाकके समय तो एकदम सावधान रहना चाहिये; क्योकि हंसी मजाकमें झूठ बोलनेसे लाभ तो कुछ भी नही होता, उल्टे झगड़ा टंटा बढ़ जानेका ही भय रहता है और आदत भी विगड़ती है।
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३. अचौर्याणवत जो मनुष्य चुरानके अभिप्रायसे दूसरेकी एक तृण मात्र वस्तुको। भी ले लेता है या उठाकर दूसरेको दे देता है वह चोर है, और जो इस तरहकी चोरीका त्याग कर देता है वह श्रावक अचौर्याणुअती कहा जाता है। किन्तु जो वस्तुएँ सर्वसाधारणके उपयोगके लिये हैं, जैसे, पानी मिट्टी वगैरह, उनको वह बिना किसीसे पूछे ले.सकता है, इसी तरह जिस कुटुम्बीके धनका उत्तराधिकार उसे प्राप्त है, यदि वह मर जाये तो उसका धन भी ले सकता है। किन्तु उसकी जीवित अवस्थामे उसका धन छीन लेना चोरी ही कहा जायेगा। यदि कभी अपनी ही वस्तुमे यह संदेह हो जाये कि ये मेरी है या नहीं? तो जवतक वह सन्देह दूर न हो तब तक उस वस्तुको नहीं अपनाना चाहिये। ___ तथा चोरीको बुरा समझकर छोड़ देनेवालोंको नीचे लिखे कार्य भी नही करना चाहिये
१-किसी चोरको स्वयं या दूसरेके द्वारा चोरी करनेकी प्रेरणा करना और कराना या उसकी प्रशंसा करना। तथा कैची वगैरह चोरीके औजारोंको बेचना या चोरोको अपनी ओरसे देना । जैसे, 'तुम देकार क्यो बैठे हो ? यदि तुम्हारे पास खानेको नहीं है तो में दता हूं। यदि तुम्हारे चुराये हुए मालका कोई खरीदार नही ह तो में उसे बैच दूंगा । इस प्रकारके वचनोसे चोरोको चोरीम लगाना भी एक तरहसे चोरी ही है।
२-चोरीका माल खरीदना । जो लोग ऐसा काम करते है वे समझते है कि हम तो व्यापार करते है, चोरी नहीं करते। किन्तु चोरीका माल खरीदनेवाला भी चोर ही समझा जाता है, तभी तो ऐसा देन-लेन छिपकर होता है।
३-बाट तराजू गज वगैरह कमती या वढती रखना। कमतीस तोलकर दूसरोको देना और बढतीसे तोलकर स्वय लेना।
४-किसी वस्तुमें कम कीमतकी समान वस्तु मिलाकर वेचना।
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१७६ जैस, धान्यमें मरा हुआ धान्य, घीमे चर्बी, हीगमें खर, तेलमे मूत्र खरे सोने चांदीमे मिलावटी सोना चादी आदि मिलाकर बेचना । व्यापारी समझता है कि ऐसा करके में चोरी नहीं कर रहा हूँ यह तो व्यापारकी एक कला है, किन्तु उसका ऐसा समझना ठीक नहीं है, क्योकि इस तरहके व्यवहारसे वह दूसरोंको ठगता है और ऐसा करना "निन्दनीय है।
५-राज्यमे गडबड उत्पन्न होनेपर वस्तुओंका मूल्य बढ़ा देना, जैसा युद्धके जमानेमे किया गया था। या एक राज्यके निवासीका छिपकर दूसरे राज्यमे प्रवेश करना और यहाँका माल वहाँ ले जाना या वहाँका माल यहाँ लाना। इसी तरह बेटिकिट यात्रा करना, चुंगी महसूल आयकर वगैरह छिपाना , इस तरहके कार्य चोरी ही समझे जाते है। अत इनसे बचना चाहिये। 5 ऊपर जो बाते बतलाई गई है यद्यपि वे व्यापारको लेकरही वतलाई
गई है, किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि चोरीके काम व्यापारी ही करते है और राजा या उसके कर्मचारी नहीं करते। यदि वे भी राज्यमे चोरी करवाएं, चोरीका माल खरीदे, चोरोसे लांच घूस वसूल करें, राजाकी ओरसे वस्तुओकी खरीद होनेपर कमती बढती दे ल, और अपने राज्य या देशके विरुद्ध काम करतो वे भी चोरीके दोषके भागीदार कहे जायेंगे।
वास्तवमें धन मनुष्यका प्राण है, अत. जो किसीका घन हरता है वह उसके प्राण हरता है। यह समझ कर किसीको किसीकी चोरी नहीं करनी चाहिये।
४. ब्रह्मचर्याणुव्रत कामवासना एक रोग है और उसका प्रतिकार भोग नही है। भोगसे तो यह रोग और भी अधिक वढता है। किन्तु जिनके चित्तमे यह बात नही जमती, या जमनेपर भी जो अपनी कामवासनाको रोकने में असमर्थ है उन्हे चाहिये कि वे अपनी विवाहिता पत्नीमे ही
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सन्तोष रक्खे | इसीका नाम ब्रह्मचर्याणुव्रत है । ब्रह्मचर्याणुव्रती अपनी पत्नीके सिवा जितनी भी स्त्रियाँ है, चाहे वे विवाहिता हो, अविवाहिता हो अथवा वेश्या हों, उनसे रमण नहीं करता है और न दूसरोसे ही ऐसा कराता है। ऐसा न करनेका कारण इज्जत आवस्का सवाल नही हैं, किन्तु इस कामको वह अन्तःकरणसे पाप समझता है । जो केवल अपनी मान प्रतिष्ठाके भयसे ऐसे कार्यों से बचता है, वह ऐसे कार्योको बुरा नही समझता और इसलिये जहाँ उसे अपनी मान प्रतिष्ठा जानेका भय नही रहता, वहाँ वह ऐस अनाचार कर बैठता । और कर बैठनेपर कभी कभी धोखेमे मानप्रतिष्ठा भी गवां देता 1 किन्तु जो ऐसे कार्योको पाप समझता है वह सदा उनसे बचा रहता है । इसलिये पाप समझकर ही उनसे बचे रहनेमें हित है । परस्त्रीगमन और वेश्यागमनको बुराइयाँ सब कोई जानते हैं, मगर फिर भी मनुष्य अपनी वासनापर कावू न रख सकनेके कारण अनाचार कर बैठते है। अनेक युवक छोटे लड़कों के साथ कुत्सित काम कर बैठते हैं और अपने तथा दूसरोंके जीवनको धूलमे मिला देते है । कुछ हस्तमैथुनके द्वारा अपनी कामवासनाको तृप्त करते हैं । ये काम तो परस्त्रीगमन और वेश्यागमनसे भी अधिक निन्दनीय है । किन्तु आजकलकी शिक्षाका लक्ष इस तरहके अनाचारोंको रोकनेकी और कतई नही रहा है। शिक्षार्थी अपना जीवन कैसे बिताता है कोई शिक्षक या प्रवन्धक इधर ध्यान नही देता । सब जगह शिक्षाकी भी खानापूर्ति की जाने लगी है । जो ऐसे अनाचारोमे पड़ जाते है वे अपने और दूसरोके आत्मा और शरीर दोनों का ही घात करते है और इसलिये वे किसी भी हिंसक से कम नही
। अत. जो अपनी आध्यात्मिक और लौकिक उन्नति करना चाहते है और चाहते है कि समाजमें इस तरहका अनाचार न फैले, उन्हें कामवासनाका केन्द्र केवल अपनी पत्नीको हो बनाना चाहिये और उसके तिवा ससारकी समस्त स्त्रियोंको अपनी माता वहिन या पुत्री समझना चाहिये तथा छोटे लडकोंको अपना भाई या पुत्र समझकर उन्नत बनाना चाहिये |
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१८१ पत्नीको कामवासनाका केन्द्र बनानेसे कोई यह न समद कि एकपलीवत या विवाह अनियत्रित कामाचारका सर्टिफिकेट है वह तो कामरोगको शान्त करनेकी औषधि है। स्तम्भक और उत्तेजब औषधियोके द्वारा रोगको बढाकर स्त्रीरूपी औषधिका अधिक सेवन करना तो औषधिके साथ अत्याचार करना है। ऐसे अत्याचारके फल 'स्वरूप ही आजकल विवाहित लडके और लड़कियाँ क्षय रोगसे ग्रस्त होकर अकालमें ही कालके गालमे चले जाते है । अत अनियंत्रित कामाचार भी आध्यात्मिक और शारीरिक स्वास्थ्यको चौपट कर देता है, इसलिये उससे भी बचना ही चाहिये।
प्रत्येक सद्गृहस्थको नीचे लिखी बातोसे बचनेकी सलाह दी गई है
१-दुराचारिणी स्त्रियोसे बचते रहो । २-मुंहसे अश्लीर बातें मत वको। ३-शक्ति से अधिक काम सेवन मत करो। ४, अप्राकृतिक मैथुनसे बचो। ५-और दूसरोंके वैवाहिक सम्बन्धोद
झगड़े में मत पड़ो। जो बाते पुरुषोंके लिए कही गई है वे ही स्त्रियों लिये भी है। स्त्रियोंको भी पर-पुरुष और अधिक कामाचारसे वचना चाहिये, और अपनेको संयत रखनेकी चेष्टा करना चाहिये।
५. परिग्रह परिमाणवत स्त्री, पुत्र, घर, सोना आदि वस्तुओंमें 'ये मेरी है। इस तरहका जो ममत्व रहता है, उस ममत्व परिणामको परिग्रह कहते है। और ममत्वको घटाकर उन वस्तुओके घटानेको परिग्रह परिमाणवत कहते है। लोकमें तो रुपया पैसा जमीन जायदाद ही परिग्रह कहलाता है। , किन्तु वास्तवमे तो मनुष्यका ममत्वभाव परिग्रह है। इन वाहिरी
चीजोंको तो उस ममत्वका कारण होनेसे परिग्रह कहा जाता है। यदि बाहिरी चीजोंको ही परिग्रह माना जायेगा तो जिन असंख्य लोगोंके पास कुछ भी नही, किन्तु उनके चित्तमें बड़ी-बडी आकांक्षाएं है वे सब अपरिग्रही कहलायेगे। किन्तु वात ऐसी नही है। सच्चा अपरिग्रही वही है जिसके पास कुछ भी नहीं है और न जिसके चित्तमे किसी
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चीजकी चाह ही है, क्योकि चाह होनपर मनुष्य परिग्रहका संचय किये विना नही रह सकता। और सचयकी वृत्ति आनेपर न्याय अन्याय
और युक्त अयुक्तका विचार नही रहता। फिर तो मनुष्य धनका कीजा वन जाता है, वह धनका स्वामी न रहकर उसका दास हो जाता है। द्रव्य दान करके भी उससे उसका ममत्व नहीं छूटता। उस वह अपने पास ही रखना चाहता है। उसे भय रहता है कि उसके दिये हुये द्रव्यको कोई हडप न जाये । वह चाहता है कि उससे उसकी खूब कीति हो, लोग उसका गुणगान करे, उसके दोषोपर परदा डाल दिया जाये, अखवारोंमे उसकी खूब बडाई छापी जाये। यह सब ममत्वभावका ही फल है। उससे छुटकारा मिले विना परिग्रहसे छुटकारा नही मिल सकता । देखा जाता है कि जब तक हम किसी वस्तुको अपनी नही समझते तब तक उसके भले बुरेसे न हमे प्रसन्नता होती है और न रंज। किन्तु ज्योंही किसी वस्तुमें यह हमारी है' ऐसी भावना हो जाती है त्योही मनुष्य उसकी चिन्तामें पड़ जाता है । इसलिये ममत्व ही परिग्रह है। उसके कम किये विना परिग्रहरूपी पापसे छुटकारा नही मिल सकता। __जैसे रुपया वगैरह वाय परिग्रह है वैसे ही काम, क्रोध, मद, मोह आदि भाव अभ्यन्तर परिग्रह है । बाहय परिग्रहके समान ही 'इन आन्तर परिग्रहोको भी घटाना चाहिये। परिग्रहको घटानेका एक
ही उपाय है कि मनुष्य अपनी आवश्यकताओंको ध्यानमे रखकर ररुपया पैसा जमीन जायदाद वगैरह सभी वस्तुओंकी एक मर्यादा नियत किर ले कि इससे ज्यादा में अपने पास नही रखूगा। ऐसा करनेसे उसके [पास अनावश्यक द्रव्यका संग्रह भी नहीं हो सकेगा, और आवश्यकिताके अनुसार द्रव्य उसके पास होनेसे स्वयं उसे भी कोई कप्ट न होगा। हंसाथ ही साथ वह बहुत सी व्यर्थकी हाय हायसे भी बच जायेगा और अपना जीवन सुख और सन्तोषके साथ व्यतीत कर सकेगा। आज दुनियामें जो आर्थिक विपमता फैली हुई है उसका कारण मनुप्यकी
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अनावश्यक सचयवृत्ति ही है। यदि सभी मनुष्य अपनी अपनी आव श्यकताके अनुसार ही वस्तुओंका सचय करें और अनावश्यक संग्रहको समाजके उन दूसरे व्यक्तियोंको सौप दे जिनको उसकी आवश्यकता है तो आज दुनियामें जितनी अशान्ति मची हुई है उतनी न रहे और सम्पत्तिक बँटवारेका जो प्रश्न आज दुनियाके सामने उपस्थित है, वह विना किसी कानूनके स्वय ही बहुत कुछ अशोमे हल हो जाये।।
दुनियाकी अनियत्रित इच्छाको लक्ष्य करके जैनाचार्य श्री गुणभद्र स्वामीने संसारके प्राणियोको सम्बोधन करते हुए कहा है
"आशागतः प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् -- कस्य किं कियदायाति वृथा वो विषयषिता ॥३६॥" मात्मानु।
'प्रत्येक प्राणीमे आशाका इतना बडा गढा है जिसमे यह विश्व अणुके बराबर है। ऐसी स्थितिमे यदि इस विश्वका बंटवारा किया जाये तो किसके हिस्समे कितना आयेगा ? अत ससारके तुष्णालु प्राणियो! तुम्हारी विपयोकी चाह व्यर्थ ही है।'
अत प्रत्येक श्रावकको विश्वकी सम्पत्ति और उसकी चाहमें तडपनेवाले असंख्य प्राणियोंका विचार करके धनकी तृष्णासे विरत ही रहना चाहिये, क्योकि न्यायकी कमाईसे मनुष्य जीवन निर्वाह कर सकता है किन्तु धनका अटूट भण्डार एकत्र नहीं कर सकता । अटूट भण्डारतो पापकी कमाईसे ही भरता है, जैसा कि उन्ही गुणभद्राचार्यने कहा है
शुद्धनिविवर्धन्ते सतामपि न सम्पदः । न हि स्वच्छाम्वभि पूर्णाः कदाचिदपि सिंघव. ॥४५॥" आत्मानु० ।
'सज्जनोंकी भी सम्पत्ति शुद्ध न्यायोपार्जित धनसे नहीं बढती। क्या कभी नदियोंको स्वच्छ जलसे परिपूर्ण देखा गया है।'
नदियाँ जब भी भरती है तो वर्षाक गदे पानीसे ही भरती है, उसी तरह धनकी वृद्धि भी न्यायकी कमाईसे नहीं होती। अत. आ श्यक धनका परिमाण करके मनुष्यको अन्यायकी कमाईसे बचना
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जैनधर्म .चाहिये। इससे वह स्वयं सुखी रहेगा और दूसरे लोग भी उसके दुःखके कारण नही बनेंगे।
इस व्रतके भी पांच दोष है, जिनसे बचना चाहिये। १-लोभमे आकर मनुष्य और पशुमसे शक्तिसे अधिक काम लेना। २-धान्य वगैरह आगे खूब मुनाफा देगा इस लोभसे धान्यादिकका अधिक संग्रह करना, जैसा युद्धकालमे किया गया था। ३-इस तरहके धान्य-सग्रहको थोड़े लाभसे बेंच देनेपर या धान्यका संग्रह ही न करनपर या दूसरोंको घान्य-सग्रहसे अधिक लोभ होता हुआ देखकर खेदखिन्न होना। ४पर्याप्त लाभ उठानेपर भी उससे अधिक लाभकी इच्छा करना। ५--और अधिक लाभहोताहुआ देखकरधनादिककी की हुई मर्यादाको वढा लेना।
श्रावकके भेद श्रावकके तीन भेद है-पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक । जो एक देशसे हिंसाका त्याग करके श्रावक धर्मको स्वीकार करता है उसे पाक्षिक श्रावक कहते है। जो निरतिचार श्रावक धर्मका पालन करता है उसे नैष्ठिक श्रावक कहते है । और जो देशचारित्रको पूर्ण करके अपनी मात्माकी साधनामें लीन हो जाता है, उसे साधक श्रावक कहते है। अर्थात् प्रारम्भिक दशाका नाम पाक्षिक है, मध्यदशाका नाम नैष्ठिक है और पूर्णदशाका नाम साधक है। इस तरह अवस्था भेदसे श्रावकके तीन भेद किये गये है। इनका विशेष परिचय नीचे दिया जाता है।
पाक्षिक श्रावक पाक्षिक श्रावक पहले कहे गये आठ मूल गुणोका पालन करता है। 'उत्तरकालमें आठ मूल गुणोमें पाँच अणुव्रतोंके स्यानमे पाँच क्षीरिफलोको लिया गया है। जिस वृक्षमसे दूध निकलता है उसे क्षीरिवृक्ष व उदुम्बर कहते है। उदुम्बर फलोंमें जन्तु पाये जाते है। इसीसे अमर
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कोषमें उदुम्बरका एक नाम जन्तुफल भी है और एक नाम 'हेमदुग्धक' है, क्योकि उसमें से निकलनेवाले दूधका रंग पीलेपनको लिये हुए होत! है। पीपल, वट, पिलखन, गूलर और काक उदुम्बरी इन पाँच प्रकारके वृक्षोके फलोंको नहीं खाना चाहिये, क्योकि इनमें साक्षात् जन्तु पार, जाते है। पेड़से गिरते ही गूलरके फूट जानेपर उसमेसे उडते हुए जन्तुओ को हमने स्वय देखा है। अत ऐसे फलोको नहीं खाना चाहिये तथ, मद्य, मांस और मधुसे बचना चाहिये । प्रत्येक पाक्षिकको इतना ते कमसे कम करना ही चाहिये। लिखा है--
"पिप्पलोदुम्बरप्लक्षवटफल्गुफलान्यदन् । हन्त्याणि सान् शुष्काण्यपि स्व रागयोगत ॥ १३ ॥-सागारधर्मा० _ 'पीपल, गूलर, पिलखन, वट और काक उदुम्बरीके हरे फलोक, जो खाता है वह बस अर्थात् चलते फिरते हुए जन्तुओका घात करता है। क्योकि उन फलोके अन्दर ऐसे जन्तु पाये जाते है। और जो उन्हें सुखा, कर खाता है, वह उनमें अति आसक्ति होनेके कारण अपनी आत्माक घात करता है।' __ अत प्राथमिक श्रावकको इस तरहके फल नहीं खाना चाहिये तथा रातको भोजन नहीं करना चाहिये और सदा पानीको छानक, काममे लाना चाहिये । हिंसा, झूठ, चोरी, अन्नह्म और परिग्रह। छोडनेका यथाशक्ति अभ्यास करना चाहिये । तथा जुआ, वेश्य, शिकार, परस्त्री वगैरह व्यसनोसे भी वचते रहनेका ध्यान रखन चाहिये । प्रतिदिन जिन मन्दिरमें जाकर अर्हन्तदेवकी पूजा कर चाहिये, गुरुओकी सेवा करनी चाहिये, सुपात्रोको दान देना चाहिये तथा अन्य भी जो धार्मिक कृत्य है, तथा लोकमे ख्याति करानेव कार्य है, उन्हे करते रहना चाहिये । जैसे, दीन और अनाथोके भोजनशाला और औषधालयोंकी व्यवस्था करना चाहिये, अप पुत्र और पुत्रीको योग्य बनाकर सुपात्रके साथ उनका सम्बन्ध कर चाहिये । आदि,
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जैनधर्म
नैष्ठिक श्रावक
नैष्ठिक श्रावकके ११ दर्जे है । ये दर्जे इस क्रमसे रखे गये है कि नपर धीरे-धीरे चढ करके कोई भी श्रावक अपनी आध्यात्मिक उन्नति रता हुआ अपने जीवनके अन्तिम लक्ष तक पहुँच सकता है । इन १ दर्जीका, जिन्हें जैनसिद्धान्तमे ११ प्रतिमाएँ कहते हैं, सक्षिप्त ववेचन इस प्रकार है
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१ दर्शनिक पाक्षिक श्रावकका जो आचार पहले वतलाया
उसके पालन करनेसे जिसका श्रद्धान दृढ और विशुद्ध हो गया है,
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सारके कारण भोगोते जो विरक्त हो चला है अर्थात् इष्ट विषयोका वन करते हुए भी उनमे जिसकी आसक्ति नही है, जिसका चित्त पाँच परमेष्ठियोके चरणोमे लीन रहता है, जो आठ मूल गुणोमे कोई दोष नही लगाता और आगेके गुणोको प्राप्त करनेके लिये उत्सुक हता है तथा भरण पोषणके लिये न्याय्य तरीको से आजीविका करता उस श्रावकको दर्शनिक कहते है । दर्शनिक श्रावक मद्य, मांस रहका न केवल सेवन नही करता, किन्तु न उनका व्यापार वगैरह य करता है न दूसरोसे कराता है और न ऐसे कामों में किसीको अपनी म्मति ही देता है । जो स्त्री पुरुष शराव वगैरह पीते हैं उनके साथ न पान आदि व्यवहार भी नही रखता, क्योकि ऐसा करनेसे मद्य रहके सेवनका प्रसग उपस्थित हो सकता है । चमड़े के पात्रमे रखा भा घी, तेल या पानी काममें नही लाता । जिस भोजनपर फूई आ ती है, या स्वाद विगड़ जाता है उसे नही खाता । जिस फल या साग से वह परिचित नही है उसे नही खाता । सूर्योदय होनेके एक तं वादसे सूर्यास्त होने के एक मुहूर्त पहले तक ही अपना खान पान रता है । पानीको शुद्ध साफ वस्त्रसे छानकर ही काममें लाता है । म नही खेलता और न सट्टेबाजी ही करता है । वेश्याका सेवन तो रहा, उससे किसी भी तरहका सम्बन्ध नही रखता, न वेश्यावाटोंसैर ही करता है। मुकदमा वगैरह लडाकर किसीका द्रव्य या जाय
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चारित्र
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दाद हड़प करनेकी कोशिश नही करता । शिकार खेलना तो दू रहा, चित्र वगैरह अंकित जीव जन्तुओका भी छेदन भेदन नहीं करता । परस्त्रीसे रमण करना तो दूर रहा, कन्याके माता पिताक आज्ञा के बिना किसी कन्यासे विवाह भी नही करता । जिस कामक बुरा समझ कर स्वयं छोड़ देता है, दूसरोंसे भी उसे नही कराता संकल्पी हिंसाका त्याग कर देता है। और उतना ही आरम्भ - कृषि वगैरह करता है जितना स्वयं कर सकता है। क्योकि दूसरोसे कराने व्यवहारमे वह अहिंसकपना नही रह सकता, जिसका उसने व्रत लि है । अपनी पत्नी से भी उतना ही भोग करता है, जितना करना शरी और मनके संतापकी शान्तिके लिये आवश्यक है, तथा उसका उद्दे कवल सन्तानोत्पादन ही होता है । सन्तान होनेपर उसे योग्य मो सदाचारी बनाने का पूरा प्रयत्न करता है, क्योंकि योग्य सन्तानव होने पर ही अपनी वृद्धावस्थामे उस पर घरबारका भार सोपक गृहस्थ आत्मोन्नति के मार्गमे लग सकता है । ये सब दर्शनिक श्रावक कर्तव्य है ।
२ व्रतिक— जिसका सम्यग्दर्शन और पहले कहे गये आट मूलगुण परिपूर्ण होते है तथा जो मायाचारसे या आगामी काल विषय सुखके और भी अधिक प्राप्त होनेकी अभिलाषासे व्रतों का पाल नही करता, वल्कि राग और द्वेषपर विजय पाकर साम्यभाव प्राप् करनेकी इच्छासे व्रतोका पालन करता है उसे व्रतिक श्रावक कहते है. व्रतिक श्रावक पहले बतलाये पाँच अणुव्रतोंका निर्दोष पालन करत है और उन्हें बढाने के लिये नीचे लिखे सात शीलोंका भी पालन करते है । वे सात शील इस प्रकार है -- १ - दिग्व्रत, २ - देशव्रत, ३-अन दण्डविरति, ४ - सामयिक, ५- प्रोषधोपवास, ६ - परिभोग परिमाण और ७ - अतिथिसविभाग |
१ - उसे जीवन भरके लिये अपने आने जाने और लेन दे करनेके क्षेत्रकी मर्यादा कर लेनी चाहिये कि इस स्थान तक ही
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जैनधर्मं
पना सम्बन्ध रखूंगा, उसके बाहरसे खूब लाभ होनेपर भी कभी कोई व्यापार नही करूँगा । ऐसा नियम कर लेनेसे मनुष्यकी तृष्णाका 'त्र सीमित हो जाता है और विदेशी व्यापारका नियमन होनेसे देशकी 'पत्तिका विदेश जाना भी रुक जाता है।
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२ - जीवन भरके लिये ली हुई मर्यादाके भीतर भी अपनी वश्यकता और यातायातको दृष्टिमें रखकर कुछ समय के लिये भी क्त क्षेत्रकी मर्यादा लेते रहना चाहिये, कि में इतने समय तक अमुक
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मुक स्थान तक ही अपना आना जाना रखूंगा व लेन-देन आदि करूँगा। वं ३ - विना प्रयोजनके दूसरे प्राणियोको पीड़ा देनेवला कोई भी
म नही करना चाहिये । ऐसे काम सक्षेपमे पाँच भागोंमे बाँटे गये हैसपोपदेश, हिंसादान, दुश्रुति, अपध्यान और प्रमादचर्या । जो लोग ऐसा वगैरह से आजीविका करते हो उन्हें हिंसा वगैरहका उपदेश नही
चाहिये । जैसे, व्याघको यह नही बतलाना चाहिये कि अमुक ज्ञानपर मृग वगैरह वसते हैं । ठग और चोरको यह नही बतलाना हृाहिये कि अमुक जगह ठगई और चोरीका अच्छा अवसर है । तथा हाँ चार जने बैठकर गपशप करते हों वहाँ भी इस तरहकी चर्चा नहीं गुलाना चाहिये १ । जिन चीजोसे दूसरोकी जान ली जा सकती है,
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से विष, अस्त्र शस्त्र आदि हिंसाके सावन दूसरोको नही देना चाहिये २ । रहन पुस्तकों या शास्त्रोके सुनने या पढने से मन कलुषित हो, जिनके
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नते ही चित्त कामवासना जाग्रत हो, दूसरोंको मार डालनेके संभव पैदा हो, घमंड और अहंकारका भाव हृदयमें उत्पन्न हो, ऐसे अस्त्रों और पुस्तकोंको न स्वयं सुनना चाहिये और न दूसरोको सुनाना
ये ३ । अमुकका मरण हो जाय, अमुकको जेलखाना हो जाय, रतमुकके घर चोरी हो जाये, अमुककी स्त्री हर ली जाये, अमुककी
मीन जायदाद विक जाये, इत्यादि विचार मनमें नहीं लाना चाहिये ४ | "ना जरूरत के पृथ्वीका खोदना, पानीका बहाना, आगका जलाना, शाका करना तथा वनस्पतिका काटना आदि काम नही करना चाहिये
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चारित्र
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५ । इन कामोंके करनेसे अपना कुछ लाभ नही होता, बल्कि उल्ट हानि ही होती है और दूसरोंको व्यर्थमे कष्ट उठाना पडता है । अश्ली चर्चाएँ करना, शरीरसे कुन्सित चेष्टाएं करना, व्यर्थकी बकवा करना, बिना सोचे समझे ऐसे काम कर डालना जिससे अपना कोई ला न हो और दूसरोंको व्यर्थमे कष्ट उठाना पडे, तथा भोग और उपभोग के साधनोंको आवश्यकतासे अधिक संचय कर लेना, ये सब काम ए सद्गृहस्थको कभी भी नही करने चाहिये ।
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४ -- प्रात. ओर सन्ध्याको एकान्त स्थानमे कुछ समयके हिंसा वगैरह समस्त पापोसे विरत होकर आत्मध्यान करनेका अभ्या करना चाहिये । उसमें मन वचन और कायको स्थिर करके आप और उसके अन्तिम लक्ष्य मोक्षके बारेमे चिन्तन करना चाहिये । यद्य मन वचन और कायको एकाग्र करना बडा कठिन है, किन्तु अभ्यास सव साध्य है। प्रारम्भमें कुछ कष्ट अनुभव होता है, शरीर निश्च रहना नही चाहता, मन- विद्रोह करता है और मंत्र पाठको जल्दी-जल्ल बोलकर समाप्त कर देना चाहता है, फिर भी इनको रोकना चाहिये जब ये सघ जाते है तो मनुष्यको बड़ी आध्यात्मिक शान्ति मिलती है"
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५ -- प्रत्येक अष्टमी और प्रत्येक चतुर्दशी के दिन मन, वचन अ कायकी स्थिरताको दृढ करनेके लिये चारों प्रकारके आहारको त्या कर उपवास करना चाहिये । उस दिन न कुछ खाना चाहिये और कुछ पीना चाहिये । किन्तु जो ऐसा करनेमें असमर्थ हों वे केवल ले सकते है । और जो केवल जलपर भी न रह सकते हों, उन्हे एकबार हल्का सात्विक भोजन करना चाहिये । जो व्यक्ति उपवा करना चाहें, उन्हें चाहिये कि वे अष्टमी और चतुर्दशीके पहले दिन द हरका भोजन करके उपवासकी प्रतिज्ञा ले ले। और घर-गृहस्थ काम धामसे अवकाश लेकर एकान्त स्थानमे चले जाये और अपना सम् आत्मचिन्तन और स्वाध्यायमें बितावें । सन्ध्याको दैनिक कृत्य निवटकर पुन अपने उसी काममें लग जाये। रात्रिको विश्राम
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जनवर्म
गौर दिनको इसी तरह वितावें। इस तरह अष्टमी और चतुर्दशीका दन तथा रात विताकर दूसरे दिन दोपहरको अभ्यागत अतिथियोंको भोजन कराकर एक बार अनासक्त होकर भोजन करे। उपवाससे तलव केवल पेटके ही उपवाससे नही है, किन्तु पाँचो इन्द्रियोके उपवाससे है। आहार वगैरहका त्याग करके भी यदि मनुष्यका चित्त
चों इन्द्रियोके विषयोमे रमता है, अच्छे अच्छे स्वादिष्ट भोजन, तुन्दर कामिनी, सुगन्धित द्रव्य और सुन्दर संगीतकी कल्पनामें मस्त रहता ह तो वह उपवास निष्फल है।
६-भोग और उपभोगके साधनोंका कुछ समय या यावजीवनके लिये परिमाण कर लेना चाहिये कि मैं अमुक वस्तु इतने प्रमयतक इतने परिमाणमें भोगूंगा। ऐसा परिमाण करके उससे अधिक स्तुिको चाह नही करना चाहिये। जो वस्तु एकवारही भोगी जा सकती
उसे भोग कहते है जैसे फूलोंकी माला या भोजन । और जो वस्तु गार-बार भोगी जा सकती है उसे उपभोग कहते है, जैसे वस्त्र। इन
नो ही प्रकारकी वस्तुओंका नियम कर लेना चाहिये । नियम कर इनसे एक तो गृहस्थकी चित्तवृत्तिका नियमन होता है, दूसरे इससे स्तुओका अनावश्यक संचय और अनावश्यक उपयोग रुक जाता है, और वस्तुओंकी यदि कमी हो तो दूसरोंको भी उनकी प्राप्ति सुलभ जाती है।
जो मनुष्य भोग और उपभोगके साधनोको कम करके अपनी वश्यकताओको घटा लेता है, आवश्यकताओके घट जानेसे उस अनुष्यका खर्च भी कम हो जाता है। और खर्च कम हो जानेसे उसकी नको आवश्यकता भी कम हो जाती है। तथा धनकी आवश्यकता कम हो जानेसे उमे न्याय और अन्यायका विचार किये विना धन मानेको तृष्णा नही सताती। इसीलिये लिखा है
भोगोपभोगकृशनात् कृशीकृतघनस्पृह । बनाय कोट्टपालादि नित्या. क्रूरा करोति क ।' सागारधाः ।
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जैनधर्म रोककर अपने निमित्त वनाये हुए भोजनमेंसे भक्तिपूर्वक भोजन कराना चाहिये। पीछे स्वय भोजन करना चाहिये। ___ इस तरह श्रावकके ये सात गील व्रत कहलाते है। इनमसे पहलेके तीन गुणवत कहे जाते है, क्योकि उनके पालन करनेसे पहले कहे गये पांच अणुव्रतोमे विशेषता आती है, और पीछेके चार शिक्षावत कहलाते है क्योकि उनके करनेसे मनिधर्म ग्रहण करनेकी शिक्षा मिलती है। शिक्षा अर्थात् अभ्यासके लिये जो व्रत किये जाते है वे शिक्षाव्रत कहे जाते है।
३ सामायिकी-व्रत प्रतिमाका अभ्यासी जो श्रावक तीनो सन्च्याओंमे सामायिक करता है और कठिन से कठिन कष्ट आ पड़नपर भी अपने ध्यानसे विचलित नहीं होता-मन, वचन और कायकी एकाग्रताको स्थिर रखता है उसे सामायिकी या सामायिक प्रतिमावाला श्रावक कहते है। यद्यपि श्रावकके लिये ऐसी एकाग्रता अति कष्टसाध्य है किन्तु अभ्याससे सव संभव होता है। इसका उद्देश्य आत्माकी शक्तिको केन्द्रीभूत करना है। यद्यपि पहले व्रतोंमें भी सामायिक करना वतलाया है किन्तु वह अभ्यासरूप है और यह व्रतरूप है।
४ प्रोषधोपवासी-पहले प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशीको उपवास करनेकी विधि वतलाई है, वही यहाँ भी जानना चाहिये । अन्तर केवल इतना ही है कि वहाँ अभ्यासल्पसे उपवासका विधान है और यहाँ व्रतरूपसे।
५ सचित्तविरत-पहलेकी चार प्रतिमाओंका पालन करनेवाला जो दयालु श्रावक हरे साग, सब्जी, फल-फूल वगैरहको नहीं खाता है उसे सचित्तविरत कहते है। असलमे त्यागका उद्देश्य सयमका पालन करना है । और संयमके दो रूप है-एक प्राणिसंयम और दूसरा इन्द्रिय-संयम । प्राणियोंकी रक्षा करनेको प्राणिसयम कहते है
और इन्द्रियोंको वशमें करनेको इन्द्रियसयम कहते है । उत्तम तो यही है कि प्रत्येक त्यागमें दोनों सयमोंका पालन हो, किन्तु यदि दोनोंका
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चारित्र
पालन न हो सकता हो तो एकका पालन होना भी अच्छा ही है। जैनसिद्धान्तमे हरी वनस्पतिकी दो दशाये बतलाई है एक सप्रतिष्ठित औखी। दूसरी अप्रतिष्ठित । सप्रतिष्ठित दशामे प्रत्येक वनस्पतिमे अगणित । जीवोका वास रहता है और इसलिये उसे अनन्तकाय कहते है औरछ। अप्रतिष्ठित दशामें उसमे एक ही जीवका वास रहता है। अत जव-स तक कोई वनस्पति सप्रतिष्ठित या अनन्तकाय है तबतक उसका भक्षणा । नहीं करना चाहिये, क्योकि उसके भक्षण करनेसे अनन्त जीवोका घातप होता है। किन्तु जब वही वनस्पति अप्रतिष्ठित हो जाती है-अर्थात् ॥ उसमे अनन्तकाय जीवोका वास नहीं रहता तब उसे अचित्त करके खाना चाहिये। सचित्तको अचित्त करनेके कई प्रकार है-उसे सुखा'ल लिया जाये, आगपर पका लिया जाये या चाकू वगैरहसे काट लियार जाये। ऐसा करनेसे सचित्त वनस्पति अचित्त हो जाती है। यहाँ यह है प्रश्न होता है कि सचित्तको अचित्त करके खानेसे क्या लाभ है ? जीव रक्षा तो उसमे भी नही होती? इसका समाधान यह है कि साचत्तको अचित्त करके खानेसे यद्यपि जीवरक्षा नही होती और इसलिये प्राणि-1 संयम नही पलता तथापि इन्द्रियसयम पलता है, क्योकि सचित्त वनस्पति पौष्टिक अतएव मादक होती है। उसे पका लेने, सुखा लेने, या चाकूसे काटनेसे उसका पोषकतत्त्व नष्ट हो जाता है और इसलिये। उसकी मादकता चली जाती है। अत. खानेके बाद वह इन्द्रियोमे विकार पैदा नहीं करती, किन्तु शरीरकी स्थितिको बनाये रखती है। धार्मिक दष्टिसे जो भोजन शरीरकी स्थितिको बनाये रखकर इन्द्रियोंमें विकार पैदा नहीं करता वही भोजन श्रेष्ठ समझा जाता है। इसी दृष्टिसे पांचवें दर्जेका जैन श्रावक इन्द्रिय मदकारक सचित्त वनस्पतिके भक्षणका , त्याग करता है।
जैनशास्त्रोमे सप्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित वनस्पतिकी अनेक पहचाने वतलाई है । जैसे, जो वनस्पति-चाहे वह जड़ हो, छाल हो, कोपल हो, शाखा हो, पत्ता हो, फूल हो या फल हो-तोड़नेपर
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तटसे समानरूपसे दो टुकडोमें टूट जाती है वह सप्रतिष्ठित है और जो गोडो कहीसे और टूटती है कहीसे, वह अप्रतिष्ठित है। जिस वनस्पतिको छीलनेपर मोटा छिलका उतरता है वह सप्रतिष्ठित है और जिसका छिलका पतला उतरता है वह अप्रतिष्ठित है। जिस वनस्पतिके ऊपरकी
गरियां, या शिराएं स्पष्टरूपसे नहीं निकली है, या अन्दर फांक अलग अलग नही हुई है वह सप्रतिष्ठित है और जिसमें फांके अलगअलग पड गई है या गिरायें और घारियां स्पष्ट उभर आई है उसे अप्रतिष्ठित कहते है।
६ दिवामथुनविरत--पहलेकी पांच प्रतिमाओका पालन करनेवाला श्रावक जब दिनमे मन, वचन और कायसे स्त्रीमात्रके सेवन करने- ' का त्याग कर देता है तब वह दिवामथुन विरत कहाता है। पहले पाँचवी प्रतिमामे इन्द्रिय मदकारक वस्तुओके खान-पानका त्याग करके इन्द्रियोको संयत करनेकी चेप्टा की गई है। और छठी प्रतिमाम दिनमें कामभोगका त्याग कराकर मनुष्यको कामभोगकी लालसाको रात्रिके ही लिये सीमित कर दिया गया है। कहा जा सकता है कि दिनमें मैथुन तो बहुत ही कम लोग करते है, अत इसका त्याग करानेमें क्या विशेषता है ? किन्तु मैथुनका मतलब केवल कायिक भोगसे ही नही है, परन्तु उस तरहको वातें करना और मनमें उस तरहके विचारोका होना भी मैथुनमें सम्मिलित है । तथा दिनमे मनुष्य बहुतसे स्त्री पुरुषोके दृष्टिसपर्क में आता है जिन्हें देखकर उसकी कामवासना जाग्रत होनेकी सभावना रहती है। अत दिनमें इस तरहकी प्रवृत्तियोसे बचाकर मनुष्यको पूर्ण ब्रह्मचर्यकी ओर ले जाना ही इसका लक्ष्य है।
७ ब्रह्मचारी-ऊपर कहे गये संयमके अभ्याससे अपने मनको वशमें करके जो मन, वचन और कायसे कभी भी किसी स्त्रीका सेवन नहीं करता उसे ब्रह्मचारी कहते हैं। पहले छठे दर्जेमें दिनमें मैथुनका त्याग कराया है, सातवें दर्जेमें रात्रिमें भी सदाके लिये मैथुनका त्याग
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करके ब्रह्मचारी बन जाता है । ब्रह्मचर्यके लाभ बतलाना सूर्यको दीप दिखाना है । आत्मिक शक्तिको केन्द्रित करनेके लिये ब्रह्मचर्य अपूर्व वस्तु है । किन्तु होना चाहिये वह ऐच्छिक | विना इच्छा जवरदस्ती ब्रह्मचर्य पालनेसे न शारीरिक लाभ होता है और न मानत क्योकि ब्रह्मचर्यका मतलब केवल शारीरिक कामभोगसे निवृत्ति नही है, बल्कि पांचों इन्द्रियोके विषयोसे निवृत्तिका नाम ही ब्रह्म है । यदि केवल कामेन्द्रियका ही नियत्रण किया गया और अन्य इन्द्रिय को काबू न रखा गया तो कामेन्द्रियका नियंत्रण भी टूट जायेगा ।
८ आरम्भविरत पहलेकी सात प्रतिमाओं का पालन करनेवाल श्रावक जब जीविकाके साधन कृषि, नोकरी या व्यापार वगैरहके कर और करानेका त्याग कर देता है तो वह आरम्भविरत कहा जाता है। ब्रह्मचर्य धारण करके अपने कौटुम्बिक जीवनको वह पहले ही मर्यादि कर देता है । और जव देखता है कि अब मेरे लडके कमाने लायक ह गये है तो उनको अपना काम धन्धा सौंपकर आप उससे विरत हो ज है, किन्तु उन्हे सम्मति वगैरह देता रहता है ।
e परिग्रहविरत — पहलेकी आठ प्रतिमानोका पालन करनेवाल श्रावक जब अपनी जमीन जायदाद वगैरहसे अपना स्वत्व छोड देन है तो वह परिग्रहविरत कहा जाता है । बाठवी प्रतिमामें वह अपना उद्योग धन्धा पुत्रोके सुपुर्द कर देता है मगर सम्पत्ति अपने ही आयकार रसता है । जब वह देख लेता है कि लडकेने उद्योग धन्धेको भली भांति समझ लिया है, अव यदि सम्पत्ति भी उसके सुपुर्द कर दी जाये तो पह उनका रक्षण कर सकता है, तब वह पञ्चोके नामने अपने पुन या दत्तक पुनको बुलाकर कहता है कि 'हे पुन । आजतक हमने इस हत्याश्रमका पालन किया। अब विरक्त होकर हम इसे छोडना चाहते हैं। उनलिये तुम हमारा स्थान स्वीकार करो। अपनी आत्माको शुद्ध करनेके लिये इच्छुक पिताका भार सम्हालकर जो उनकी सहायता करता है वही पुत्र हैं, और जो ऐसा नही करना, यह पुत्र नहीं है, यह है । सलिये
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रा यह धन, धार्मिक स्थान तथा कुटुम्वीजनका भार सम्हाल कर मुझे प्रभारसे मुक्त करो; क्योकि इससे मुक्त हुए बिना कोई भी कल्या
र्थी अपना कल्याण नहीं कर सकता । मुमुक्षुजनोके लिये सर्वस्व ग ही पथ्य है।'
इस प्रकार सब कुछ पुत्रको सौंपकर वह गार्हस्थिक उत्तरदायित्वसे क्त हो जाता है। किन्तु मुक्त होनेपर भी वह सहसा घर नहीं छोडता, और उदासीन होकर कुछ काल तक घरमें ही रहता है। लड़का यदि सी कार्यमे उससे सलाह मांगता है तो उचित सम्मति दे देता है।
१० अनुमतिविरत-पहलेकी नौ प्रतिमाओमे अभ्यस्त हुआ विक जब देख लेता है कि अब लडका विना मेरी सलाहके भी सब म सम्हाल सकता है तो लेन देन, खेती, वनिज और विवाह आदि किक कार्योमे अनुमति देना वन्द कर देता है, तब वह अनुमतिविरत हा जाता है। अब वह घरमे न रहकर मन्दिर वगैरहमे रहने लगता
और अपना समय स्वाध्यायमे विताता है। तथा मध्याह्नकालकी मायिक करने के बाद आमत्रण मिलनेपर अपने या दूसरोके घर भोजन र आता है। भोजनमे वह अपनी कोई रुचि नहीं रखता। अपने त नियमके अनुसार जो मिलता है खा लेता है और यही विचारता कि गरीरकी स्थितिके लिये भोजनकी आवश्यकता है, और शरीरको नाये रखना धर्मसेवनके लिये आवश्यक है।
कुछ दिन इसी तरह विताकर जब वह देख लेता है कि अब मै र छोड़ सकता हूँ तो अपने गुरुजनों, वन्धु-बांधवो और पुत्र वगैरहते छकर घर छोड़ देता है।
११ उद्दिष्टविरत-यह अन्तिम उत्कृष्ट श्रावक अपने उद्देश्यसे नाये गये आहारको ग्रहण नहीं करता, इसलिये इसे उद्दिष्टविरत कहते है । इसके दो भेद होते है । पहला भेदवाला उत्कृप्ट श्रावक फेद लगोटी लगाता है और एक सफेद चादर मात्र अपने पास रखता , तया कंची या छुरेने अपने केगोंको वनवाता है। और जब किसी
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पहनको प्रार्थना कर याद कोई श्रावसर श्राप
स्यानपर बैठता है या लेटता है तो अत्यन्त कोमल वस्त्र वगैरहसे स्थानको साफ कर लेता है, जिससे उसके बैठने या लेटनेसे + जन्तुको कोई पीड़ा न पहुंच सके। __इस पहले भेदवाले उत्कृष्ट श्रावकके भी दो विभाग है। एक जो अनेक घरोसे भिक्षा लेता है और दूसरा वह जो एक घरसे ही। लेता है। जो अनेक घरोंसे भिक्षा लेता है वह भोजनके समय श्राप घर जाकर उसके आँगनमे खडा होकर 'धर्मलाम हो' ऐसा कह भिक्षाकी प्रार्थना करता है, अथवा मौनपूर्वक केवल अपनेको दिखा चला आता है। यदि श्रावक कुछ देता है तो उसे अपने पात्रमे ले ले है। किन्तु वहां देर नही लगाता और वहाँसे निकलकर दूसरे श्राप घर जाकर ऐसा ही करता है। यदि कोई श्रावक अपने घरपर भोजन करनेकी प्रार्थना करता है तो अन्य घरोंसे जो भोजन मिल पहले उसे खाकर पीछे आवश्यकताके अनुसार भोजन उस १५ ले लेता है। यदि कोई ऐसी प्रार्थना नही करता तो कई घरोंमे जा अपने उदर भरने लायक भोजन मांगता है और जहाँ प्रासुक 4 मिलता है वहाँ उसे देख भालकर खा लेता है। खाते समय स्वाद' ध्यान नहीं देता और न गृहस्थके घरसे कुछ मिलने या न मिलने अथ मिलनेवाले द्रव्यकी सरसता और विरसतापर ही ध्यान देता है भोजन करनेके पश्चात् अपना जूठा बर्तन स्वय ही मॉजता और ये है। यदि वह मानमें आकर दूसरेसे ऐसा काम कराता है तो यह मह असयम समझा जाता है। भोजन करनेके पश्चात् अपने गुरुके ।। जाकर दूसरे दिन तकके लिये वह आहार न करनेका नियम ले. है और गुरुके पाससे जानेके बादसे लेकर लौटने तक जो कुछ भी करता है वह सब सरलतापूर्वक गुरुसे निवेदन कर देता है। जोजक श्रावक एक घरसे ही भिक्षा ग्रहण करता है वह किसी मुनिके पीछे पी श्रावकके घर जाकर भोजन कर आता है। और यदि भोजन नह मिलता तो उपवास कर लेता है।
काहे वह सव सरलतानके बादसे लेकार न करनका मन गुरुके ।।
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यह ११ वी प्रतिमावाला उत्कृष्ट श्रावक सदा मुनियोके साथ ता है, उनकी सेवा सुश्रुषा करता है और अन्तरंग और बहिरंग करता है। उन तपोमेसे भी वैयावत्य तप खास तौरसे करता है। नजनोको कोई कष्ट होनेपर उसका प्रतीकार करनेको वैयावृत्य ते है, जैसे रोगियोकी परिचर्या करना, असमर्थोकी सहायता करना, जनोके पैर वगैरह दवाना आदि। श्रावकके लिये वैयावृत्य करनेका महत्व बतलाया गया है। इससे घृणाका भाव दूरहोता है सेवाभावप्रोत्साहन मिलता है और वात्सल्यभावकी वृद्धि होती है । तथा नको परिचर्या की जाती है वे सनायता अनुभव करते है, उनके त्तमें यह भाव नहीं होता कि कोई हमारी देखरेख करनेवाला नहीं है।
दूसरे भेदवाले उत्कृष्ट श्रावककी भी सभी क्रियाएँ पहलेके ही न होती है। केवल इतना अन्तर है कि यह सिर और दाढीक ओंको अपने हाथसे पकड़कर उखाड डालता है। इस क्रियाको लोच कहते है। केवल लगोटी लगाता है और मुनियोके समान पमें मोरके पंखोकी एक पीछी रखता है। उसीसे वह अपने बैठने लेटनेके स्थानको साफ करके जन्तुरहित कर लेता है। तथा गृहस्थक जाकर उसके प्रार्थना करने पर, उसीके घरमे अपने हाथमे ही भोजन ता है, पासमे बरतन नहीं रखता। दोनो हाथोको जोड़कर वाएं पकी कनअगुलिये दाहने हाथकी कनअंगुलिको फंसा कर पात्र बना लेता है। गृहस्थ वाएं हाथकी हथेलीपर भोजन रखता जाता और यह दाहिने हाथकी शेष चार अगुलियोसे उठाकर कौरको मे रखता जाता है। यह उत्कृप्ट श्रावक उत्तम उत्तम ग्रन्थोंका स्वाय करता है और खाली समयमें ससार, शरीर और उसके साथ ने सम्वन्धक विषयमें चिन्तन करता है।
इस प्रकार नैष्टिक श्रावकके ये ११ दर्जे है। इनको क्रमवार ही आ जाता है। ऐसा नहीं है कि कोई प्रारम्भकी क्रियाएँ न करके के दर्जेमें पहुंच जाये। यदि कोई ऐसा करता है तो आगे बढ जाने
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पर भी उसे उस दर्जेवाला नही कहा जा सकता । जैनधर्म में शक्ति अनुमार किये गये कार्यका ही महत्व है । 'आगेको दौड और प छोड' वाली कहावत यहाँ चरितार्थ नही होती। जो लोग उत्तरदा से बचने के लिये त्यागी बनना चाहते हैं, उनके लिये भी यहाँ स्थान न है । किन्तु जो अपने गार्हस्थिक उत्तरदायित्वका यथोचित प्रबन्ध कर 1 केवल आत्मकल्याणकी भावनासे इस मार्गका अवलम्बन लेते है वे इस पथके योग्य समझे जाते है ।
A
साधक श्रावक
પૂર્વન
श्रावकका तीसरा भेद साधक है । मरणकाल उपस्थित पारीरते ममत्व हटाकर, भोजन वगैरहका त्याग करके, ध्यानके द्वारा जो आत्माका गोधन करता है उसे साधक कहते है सावककी इस क्रियाको समाधिमरण व्रत या सल्लेखना व्रत कहते जब कोई उपसर्ग, दुर्भिक्ष, वुढापा और रोग ऐसी हालतमे पहुँच जा जिसका प्रतीकार कर सकता शक्य न हो तो धर्मके लिये शरीर छो देना सल्लेखना या समाधिमरण कहाता है । समाधिमरण करने विधि बतलाते हुए लिखा है कि शरीर धर्मका साधन है इसलिये 41 वह धर्मसावनमें सहायक होता हो तो उसे नष्ट नही करना चाह और यदि वह विनष्ट होता हो तो उसका शोक नहीं करना चाहिये तथा धर्मका साधन समझ कर ही शरीरको स्वस्थ रखना चाहिये - यदि कोई रोग हो जाये तो उसका प्रतीकार भी करना चाहिये । कि जव शरीर धर्मका वाघक वन जाये तो शरीरको छोडकर धर्मकी रक्षा करनी चाहिये, क्योकि शरीर नष्ट होनेपर पुन मिल जाये किन्तु धर्मकी प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है ।
ह
कोई कोई भाई समाधिमरण व्रतके स्वरूप और महत्त्वको न सम कर इसे आत्मघात बतलाते है । किन्तु धर्मपर आपत्ति आनेपर में रक्षाके लिये शरीरकी उपेक्षा कर देनेका नाम आत्मघात नही परन्तु क्रोधमे आकर विप आदिके द्वारा प्राणोके घात करनेका नाम
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६-श्रावकधर्म और विश्वकी समस्याएँ आज सभी धर्मोंके सामने यह प्रश्न रखा जाता है कि वे वर्तमान वश्वकी समस्याओंको हल करनेमे कहाँतक आगे आते है ? यह पश्न न भी रखा जावे तो भी धोंके सामने यह प्रश्न तो है ही के केवल व्यक्तिके अभ्युदय और निश्रेयस प्राप्तिके लिये ही धोकी पुष्टि की गई है या उनसे समाज और राष्ट्रका भी अभ्युदय हो सकता है? यहां हम ऊपर बतलाये गये जैन श्रावकके धर्मके प्रकाशमें उक्त प्रश्न को सुलझानेका प्रयल करते है।
यह सत्य है कि धर्मकी सृष्टि व्यक्तिके अभ्युदयके लिये हुई किन्तु व्यक्ति समाज, राष्ट्र और विश्वसे कोई पृथक् वस्तु नहीं है। व्यक्तियोका समूह ही समाज, राष्ट्र और विश्वके नामसे पुकारा जाता है । आज जिन्हें विश्वकी समस्याएं कहा जाता है वस्तुत. वे उस विश्वमे वसनेवाले व्यक्तियोंकी ही समस्याएं है। माना, व्यक्ति एक इकाई है, किन्तु अनेक इकाईयां मिलकर ही दहाई, सैकडा आदि सख्याएँ वनती है, अत. व्यक्तिके अभ्युदयके लिये जन्मा हुआ धर्म जब किसी एक खास व्यक्तिके अभ्युदयका कारण न होकर व्यक्तिमात्रके अभ्युदयका कारण है तो कि व्यक्तिमात्रमे विश्वके सभी व्यक्ति मा जाते है अत वह विश्वके भी अभ्युदयका कारण हो सकता है। किन्तु विश्वको उसे अपनाना चाहिये। अस्तु, पहले हमें यह देखना चाहिये कि आजके युगको वे कौनसी समस्याएं है, जिन्हें हमे हल करना है, और उनका मूल कारण क्या है?
पिछले दो सौ वर्षोंमें विज्ञानने बड़ी उन्नति की है। उसने ऐसे ऐसे यंत्र प्रदान किये है, जिनसे विश्वका संरक्षण और संहार दोनों ही संभव है। क्योंकि किसी वस्तुका अच्छा उपयोग भी किया जा सकता है और बुरा उपयोग भी किया जा सकता है। उपयोग करना तो मनुष्यके । हायकी बात है, उसमे वेचारी वस्तुका क्या अपराध विद्या जैसीउत्तम वस्तु भी दुर्जनके हायमें पडकर ज्ञानके स्थानमें विवादको जन्म देती
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२०३ है। धनको पाकर दुर्जनको मद होता है किन्तु सज्जन उससे परोपकार करता है। शक्ति पाकर एक दूसरोको सताता है तो दूसरा उसे ही पाकर आतताइयोंके हाथोसे पीडितोंकी रक्षा करता है। विज्ञानने दूरीका अन्त कर दिया है और विश्वकी विभिन्न जातियो और राष्ट्रोको इतने निकट ला दिया है कि वे यदि परस्परमे सम्बद्ध होकर रहना चाहे तो एक सूत्रमें वद्ध होकर रह सकते है क्योकि विज्ञानने सगठनके अनेक नये साधन प्रस्तुत कर दिये है। तथा उत्पादनके भी ऐसे ऐसे साधन' दिये है जिनसे संसारके सभी स्त्री-पुरुष सुखपूर्वक अपना जीवन बिता सकते है। किन्तु उन साधनोपर आज अमुक वर्गो और राष्ट्रोंका अधिकार है और वे उनका उपयोग दूसरोंपर अपना प्रभुत्व स्थापित करने और स्थापित किये हुए प्रभुत्वको बनाये रखनेमे करते है। जंगलमे शिकारकी खोजमे भटकनेवाला व्याघ्र अपने नुकीले पजों और पैने दांतोंका जैसा उपयोग अपने शिकारके साथ करता है, वैज्ञानिक साधनोंसे सम्पन्न राष्ट्र भी दूसरे राष्ट्रोकी छातीपर आज अपने वैज्ञानिक साधनो-. का वैसा ही उपयोग करते दिखलाई देते है । फलत. युद्धोकी सृष्टि होती है और राष्ट्रोंका धन और जन उनकी भेट चढा दिया जाता है। मानो, उनका इससे अच्छा कोई दूसरा उपयोग हो ही नहीं सकता। एक ओर नये साधनोंके द्वारा खेतोंसे खूब अन्न उपजाया जाता है, मिले रात दिन कपडे तैयार करने में लगी रहती है, दूसरी ओर असंख्य मनुष्य विना अन्न और वस्त्रके जीवन विता देते है। एक ओर जिन्हे । अन्न और वस्त्रकी आवश्यकता है वे दाने दानेके लिये तरसते है और दूसरी ओर जिन्हे उनकी आवश्यकता नही है वे अनावश्यक सचयके भारसे दवे रहते है। शान्ति और सुरक्षाके लिये कानूनोंकी सृष्टि की जाती है और उन्हे जवरदस्ती पलवानेके लिये पुलिस, सेना और जेलखानोकी सृष्टि की जाती है। अन्यायके लिये न्यायका ढोग रचा जाता है और सत्यको छिपानेके लिये असत्य प्रोपगण्डा किया जाता है।
ये समस्याएं सारे ससारके सामने उपस्थित है। युद्धके महा
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जैनधर्म विनाशने युद्ध लड़नेवालोको भी भयभीत कर दिया है। सव चाहते है युद्ध न हो, किन्तु युद्धके जो कारण है उन्हें छोडना नहीं चाहते। सर्वत्र राजनीतिक और मार्थिक सघटनोंमें पारस्परिक अविश्वास और प्रतिहिंसाकी भावना छिपी हुई है। दूसरोको बेवकूफ बनाकर अपना कार्य साधना ही सवका मूलमत्र बना हुआ है, फिर शान्ति हो तो कैसे हो और युद्ध रुके तो कैसे रुके ?
आधुनिक समस्याके इस विहंगावलोकनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि विभिन्न राष्ट्रों और जातियोके वीचमें हिंसामूलक व्यवहारका प्राधान्य है। स्वार्थपरता, बेईमानी, घोखेबाजी ये सब हिंसाके ही प्रतिरूप है। इनके रहते हुए जैसे दो व्यक्तियोंमें प्रीति और मंत्री नहीं हो सकती वैसे ही राष्ट्रो और जातियोंमे भी मैत्री नही हो सकती। 'जियो और जीने दों का जो सिद्धान्त व्यक्तियोंके लिये है वही जातियों
और राष्ट्रोके लिये भी है। जब तक विभिन्न राष्ट्र और जातियाँ इन सिद्धान्तको नही अपनाते तब तक विश्वको समस्याएं नहीं सुलझ सकती, बल्कि और उलझती ही जायेंगी, जैसा कि प्रत्यक्षमे दिखलाई पड़ता है । अत विश्वकी समस्याओको सुलझानेके लिये राष्ट्रोंकी शासनप्रणालीमें आमूल परिवर्तन होना चाहिये और सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्थाओमे सशोधन होना चाहिये। तथा वह परिवर्तन
और संशोधन अहिंसाके सिद्धान्तको जीवनपथके रूपमें स्वीकार करके किया जाना चाहिये।
यह नही भूल जाना चाहिये कि वलप्रयोगके आधारपर मानवीय सम्बन्वोंकी भित्ति कभी खडी नहीं की जा सकती। कौटुम्विक और सामाजिक जीवनके निर्माणमें बहुत अंगोंमें सहानुभूति, दया, प्रेम, त्याग और सौहार्दका ही स्थान रहता है। एक बात यह भी स्मरण रखनी चाहिये कि व्यक्तिगत आचरणका और सामाजिक वातावरण' का निकट सम्बन्ध है । व्यक्तिगत आचरणसे सामाजिक वातावरण बनता है और सामाजिक वातावरणसे व्यक्तित्वका निर्माण होता है।
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२०५ किसी समाजके अन्तर्गत व्यक्तियोका आचरण यदि दूपित हो तो सामाजिक वातावरण कभी शुद्ध हो ही नही सकता, और सामाजिक वातावरणके शुद्ध हुए विना व्यक्तियोके आचरणमे सुधार होना शक्य नहीं। इसलिये व्यक्तिगत आचरणके सुधारके साथ साथ सामाजिक वातावरणको भी स्वच्छ बनानेकी चेष्टा होनी चाहिये । इसीसे जैनधर्म प्रत्येक व्यक्तिके आचरण निर्माणपर जोर देते हुए उसके जीवनसे हिसामूलक व्यवहारको निकालकर पारस्परिक व्यवहारमे मैत्री, प्रमोद और कारुण्यकी भावनासे बरतनेकी सलाह देता है। इतना ही नहीं, बल्कि वह तो यह भी चाहता है कि राजा भी ऐसा ही धार्मिक हा, क्योकि राजनीतिमे अधार्मिकताके घुस जानेसे राष्ट्रभरका नैतिक जीवन गिर जाता है और फिर व्यक्ति यदि अनैतिकतासे बचना भी चाहे तो बच नहीं पाता, अनेक वाहिरी प्रलोभनो और आवश्यकतामोसे देवकर वह भी अनर्थ करनेके लिए तत्पर हो जाता है, जिसका उदाहरण युद्धकालमें प्रचलित चोरबाजार है । अत राजनीति, समाजनीति और व्यक्तिगत जीवनका आधार यदि अहिसाको बनाया जाये तो राजा और प्रजा दोनो सुख शान्तिसे रह सकते है। ___ आज जिन देशोमे प्रजातन्त्र है, उन देशोमे यद्यपि अपनी अपनी जनताक सुख दुखका ध्यान पूरा पूरा रखा जाता है, किन्तु दूसरे दशीको जनताके साथ वैसा ही व्यवहार नही किया जाता । बातें अच्छी अच्छी कही जाती है किन्तु व्यवहार उनसे बिल्कुल विपरीत किया जाता है। दूसरे देशोपर अपना स्वत्व बनाये रखनेके लिए राजनैतिक गुटबन्दियाँ की जाती है। उनके विरुद्ध झूठा प्रचार करनेके लिए लाखो रुपया व्यय किया जाता है और यह कहा जाता है कि हम उनकी मलाइक लिए ही उनपर शासन कर रहे हैं। शासनतंत्रके द्वारा अपना भावकार जमाकर उन देशोके धन और जनका मनमाना उपयोग किया जाता है। यह सब हिंसा, असत्य और चोरी नहीं है तो क्या है ? यदि राष्ट्रोका निर्माण अहिंसाके आधारपर किया जाये और असत्य व्यवहार
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को स्थान न दिया जाये तो राष्ट्रोंमें पारस्परिक अविश्वास और प्रतिहिताको भावना देखने को भी न मिले। समस्त राष्ट्रोंका एक विश्वसंघ हो, जिसमें सब राष्ट्र समान भ्रातृभावके आधारपर एक कुटुम्बके रूपमे सम्मिलित हों, न कोई किसीका गातक हो न गास्य हो । सब सबके दु ख और सकटका ध्यान रखे । सबके साथ सवका मैत्री - भाव, हो । यदि सब राष्ट्र अपनी अपनी नियतों की सफाई करके इस तरहसे एक सूत्रमे बँधे तो न तो युद्ध हों और न युद्धके अभिगापोंसे जनताको ती कष्ट ही भोगना पड़े ।
आज उत्पादनके ऊपर एक राष्ट्र या जातिका एकाधिकार होनेसे उसे अपने लिए दूर दूरसे कच्चा माल मंगाना पड़ता है और तैयार हुए मालको खपानेके लिए बाजारोंकी भी खोज करनी पड़ती है और उनपर अपना काबू रखना पड़ता है। फिर भले ही वे बाजार दुनियाके किसी भी भाग क्यो न हो । आज इसी पद्धतिके कारण दुनिया कराह रही है। दुनियाको इससे मुक्त करनेके लिये भी हमे महिनाका ही मार्ग अपनाना होगा । राष्ट्रों और जातियोंकी भलाईका स्थान विश्वकी भलाईको दना होगा। हमारा जीवन भौतिक दुनियाको आवश्यकताओंके अनुसार नही चलाया जा सकता । हमें बनावटी तौरपर पहले अपनी जरूरतोको बढाने और फिर उनको पूरा करनेकी कोशिश नहीं करनी चाहिये । जीवनका आनन्द इसपर निर्भर नही करता कि हमारे पास कितनी ज्यादा चीजें है ? जो व्यक्ति, समाज या राष्ट्र जीवनको बनावटी आवश्यकताओंको बढाकर उसीको पूर्ति के लिए प्रयत्न करता रहता है और बिना जरूरतके चीजोका संग्रह करता है, वह दुखो और पापोका सग्रह करता है। इसीसे जैनधर्मने परिग्रहको पाप बतलाया है बीर प्रत्येक गृहत्यके लिए यह नियम रखा है कि वह अपनी इच्छाजो को सीमित करके अपनी आवश्यकता के अनुसार सभी आवश्यक वस्तुलोकी एक सीमा निर्धारित कर ले और उससे अधिकका त्याग कर दे । आज उत्पादन और वितरण के प्रश्नने दुनियामें विराट
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२०७। रूप धारण कर लिया है, जिसके कारण दुनियाकी आर्थिक विषमताका । संतुलन करना कठिन हो रहा है । जैनधर्मके प्रवर्तक श्रीऋषभदेवने युगके आदिमे मनुष्योकी इसी सचयवृत्तिको लक्ष्यकर प्रत्येक गृहस्थके लिए परिग्रह परिमाण व्रतका निर्देश किया था। उस व्यवस्थामे भोग विलास जीवनका ध्येय न था। भोगपर जोर देनेसे ही व्यवस्थाका आधार 'मौज, मजा और अधिकार हो गया है। जिसका आखिरी नतीजा सघर्ष
और यद्धोंका तांता है। इसके विरुद्ध यदि हम अनावश्यक इच्छाओके नियमनपर जोर दे तो जीवनपर नियंत्रण कायम होता है और हमारी जरूरतें सीमित हो जाती है । जरूरतोको सीमित किये बिना यदि कानूनोंके आधारपर उत्पादन और वितरणका प्रवन्ध किया भी गया तो उसमे सफलता नहीं मिल सकती। यह स्मरण रखना चाहिये कि कानूनकी भाषा और उसका पालन करानेके आधार इतने लचर होते है कि मनुष्य अपनी बुद्धिके उपयोगके द्वारा कानूनोंको भङ्ग करके भी वचा रहता है।
वास्तवमें नैतिक आचरणका पालन बलपूर्वक नहीं कराया जा सकता । वह भीतरीकी प्रेरणासे ही हो सकता है। अत कानूनसे । अधिक शक्तिशाली और लाभदायक मार्ग आत्मसयम है । जब मनुष्य | अपना और समाजका लाभ समझ कर उसका अनुसरण करने लगता है तो वह स्वयं संयमी बननेकी कोशिश करने लगता है। इस तरह जब सयमी पुरुष ऊंचे स्तरपर पहुंच जाता है तो वह स्वय उदाहरण बनकर दूसरोको भी संयमी बननेकी सतत प्रेरणा देता है और इस तरह समा- । जके नैतिक जीवनको उन्नत बनानेमे निरन्तर योगदान करता रहता है।
संयमकी इसी शिक्षाका परिणाम ब्रह्मचर्य और अपरिग्रहनत है। यदि मनुष्यसमाजकी वासनाओ और लालसामोका नियत्रण न किया जायेगा तो उसका शारीरिक और आध्यात्मिक स्वास्थ्य नष्ट हो जायेगा और उसका विकास रुक जायेगा।
इस विवेचनसे हम इस नतीजेपर पहुंचते हैं कि जैनधर्ममें प्रत्येक
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जनवर्म
गृहस्थके लिए जिन पांच अणुव्रतोंका पालन करना आवश्यक बतलाया ई, यदि उन्हे सामाजिक और राजनीतिक जीवनका भी आधार वनाकर चला जाये तो विश्वकी अनेक मौलिक समस्याएं सरलतासे सुलझ सकती है। ___ अब रह जाता है नद्य, मांस और मधुका त्याग तथा गृहस्थके अन्य जत नियम । सबसे यह आगा नही की जा सकती कि सब उनका पालन करेंगे। फिर भी जो उनका पालन करेगा उसे शारीरिक और आध्यात्मिक दृष्टिसे लाभ ही होगा। मद्य और मांस ऐसी चीजें है जिन्हे मनुष्यके आम भोजनमें स्थान देना आवश्यक नहीं है। दोनो ही तामसिक है और तामसिक आहार विहारके होते हुए सात्त्विक भावोंका विकास नही हो सकता। और सात्विक भावोका विकास हुए विना अहिंसक वातावरण नही बन सकता। और अहिंसक वातावरण बनाये विना दुनियाको सुख गान्ति नसीव नही हो सकती । अत उनको
ओरसे मनुष्योका मन यदि हट सके तो उससे उन मनुष्योका तथा संसारका लाभ ही होगा। मनुष्य स्वभाव नतो अच्छा होता औरनबुरा। वह तो कच्ची गीली मिट्टीके समान है। चाहे जिस रूपमे उसका निर्माण किया जा सकता है। जिन घरानोमें मद्य माससे परहेज किया जाता है उनमें जन्म लेनेवाले बच्चे उन चीजोसे परहेज करते है और जिन घरानोमे उनका चलन है उनमें जन्म लेनेवाले बच्चे उसके अभ्यस्त हो जाते है। इससे सिद्ध है कि इस प्रकारकी वस्तुओसे मनुष्योंको बचाया जा सकता है वह उनका प्राकृतिक आहार नहीं है।
किन्तु जिन देशोमे अन्नको कमी या जलवायुके प्रभावके कारण 'मद्य और माससे एकदम परहेज करना शक्य नहीं है, उन देशोमे भी उनपर अमुक प्रकारके प्रतिवन्ध लगाकर कममे कम यह भाव तो पैदा किया जा सकता है कि ये चीजे मनुप्यके लिये प्राध नहीं है किन्तु परिस्थिनिया उन्हें बाना पाता है। अपनी शक्ति, परिस्थिति और ग्यपगायो अनुमार हिमाका त्याग करके भी मनुष्य अहिंमकोर्क
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चारित्र
२०६ श्रेणीमें सम्मिलित हो सकता है। उदाहरणके लिए कोई कसाई अपनी अजीविकाका साधन होनेसे यदि पशुहत्याका त्याग नही कर सकता तो उसके लिए सप्ताहमे एक दिन उसका त्याग कर देना या अमुक प्रकारके पशुओंकी अमुक संख्या ही हत्या करनेका नियम ले लेना भी अहिंसाणुवतकी जघन्य श्रेणीमे गिना जाता है । जैन पुराणोंमें ऐसे अनेक उदाहरण पाये जाते हैं । यथा-एक मुनिने एक मासाहारी भीलसे कौवेका मांस खाना छुड़वा दिया था। इसी प्रकार एक मछुवेको यह नियम दिला दिया था कि उसके जालमे जो पहली मछली आयेगी उसे वह नही मारेगा। एक चाण्डालको, जो फाँसी लगानेका काम करता था, यह नियम दिला दिया था कि वह चतुर्दशीके दिन किसीको फांसी नही देगा। इन छोटी प्रतिज्ञाओने ही उन्हें कुछसे कुछ बना दिया।
मत. थोडा सा भी प्रतिबन्ध लगाकर यदि मांस और मद्य सेवनपर अंकुश रखा जाये तो उनका सेवन करनेके अभ्यस्त मनुष्य भी उनकी बुराइयोंसे बच सकते है। और उससे समाजमे फैलनेवाली बहुतसी वुराइयोंसे समाजका छुटकारा हो सकता है।
जैनधर्मके नियम यद्यपि कड़े दिखायी देते है किन्तु उनके पालनमें मनुष्यकी गक्ति और परिस्थितिका ध्यान रखा जाता है इसलिए उनकी कठोरता खलती नही। उसका तो एक ही ध्येय है कि मनुष्य स्वयं अपनी अनियत्रित स्वेच्छाचारिता पर 'ब्रेक' लगाना सीखे और बुराईको करते हुए भी कमसे कम इतना तो न भूले कि मै बुरा करता हूँ। यह ऐसी चीज है जिसे हर कोई कर सकता है।
इसी तरह वृद्धावस्थामें अपने सांसारिक उत्तरदायित्वोंसे अवकाश लेकर और उनका भार अपने उत्तराधिकारीकोसौपकर यदि मनुष्य आत्म साधनाका मार्ग स्वीकार कर लिया करें तो उससे एक ओरतो कार्यक्षेत्रमें आनेके लिए उत्सुक नये व्यक्तियोंको स्थान मिलनेमे सहलियत होगी, दूसरी ओर कौटुम्विक कटुता घटेगी। साथ ही साथ आध्यात्मिक विकासका मार्ग भी चालू रहेगा और उससे संसारको बहुत लाभ पहुंचेगा।
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जैनधर्म
७ - मुनिका चारित्र
मुनि या साधुके २८ मूलगुण होते हैं । १-५ पाँच महाव्रत- अहिंसा महाव्रत, सत्य महाव्रत, अचौर्य महाव्रत, ब्रह्मचर्य महाव्रत और अपरिग्रह महाव्रत । श्रावक जिन पाँच व्रतोंका एक देशसे पालन करता है साघु उन्हें ही पूरी तरहसे पालते है । अर्थात वे छहों कायके जीव का घात नही करते और राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि भावोंको उत्पन्न नही होने देते । अपने प्राणोंपर संकट आनेपर भी कभी झूठ नहीं वोलते । चिना दी हुई कोई भी वस्तु नही लेते । पूर्ण शीलका पालन करते हैं और अन्तरंग तथा बहिरंग, सभी प्रकारके परिग्रहके त्यागी होते है । केवल शौच आदिके लिए पानी आवश्यक होनेसे एक कमडलू और जीवरक्षाकै लिये मोरके स्वयं गिरे हुए पंखोंकी एक पीछी अपने पास रखते है ।
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६ - १० पाँच समिति - दिनमें सूर्यके प्रकाशसे प्रकाशित जमीनको अच्छी तरहसे देखकर चलते है। जब बोलते हैं तो हित और मित वचन बोलते है । दिनमें एक बार श्रावकके घर जाकर, यदि वह श्रद्धा और भक्ति के साथ भोजनके लिए निवेदन करे तो छियालीस दोप टालकर भोजन करते हैं। अपने कमंडल और पीछी वगैरहको देखभालकर हाथमें लेते है और देखभालकर रखते है । मलमूत्र वगैरह स्थानपर करते है जहाँ किसीको भी उससे कष्ट पहुँचने की संभावना न हो।
११-१५ पांचों इन्द्रियोंको वशमें रखते है - जो विषय इन्द्रियोंको अच्छे लगते हैं उनसे राग नही करते और जो विषय इन्द्रियोंको बुरे लगते है उनसे द्वेष नही करते ।
१६-२१ छ आवश्यक-प्रतिदिन सामायिक करते है, तीर्थङ्करोकी स्तुति करते हैं, उन्हें नमस्कार करते हैं, प्रमादसे लगे हुए दोषों का शोधन करते हैं, भविष्य में लग सकनेवाले दोपोसे बचनेके लिए अयोग्य वस्तुओंका मन, वचन और कायसे त्याग करते है और लगे हुए दोषोंका शोधन करनेक लिए अथवा तपकी वृद्धिके लिए, अथवा कर्मोकी निर्जरा
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चारित
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के लिए कायोत्सर्ग करते हैं। खड़े होकर, दोनों भुजाओंको नीचेकी बोर लटकाकर, परके दोनो पजोको एक सीधमें चार अगुलके अन्तरसे रखकर साधुके निश्चल आत्मच्यानमें लीन होनेको कायोत्सर्ग कहते है।
२२-लान नहीं करते । गृहस्यके घर जव आहारके लिए जाते है तो गृहस्प ही उनका गरीर पोंछ देते है।
२३-दन्तघावन नहीं करते । भोजन करनेके समय गृहस्थके घरपर ही मुखगद्धि कर लेते है।
२४-पृथ्वीपर सोते हैं। २५-खड़े होकर भोजन करते है। २६-दिनमें एक बार ही भोजन करते है। २७-नग्न रहते है। २८-केशलोंच करते है।
इन २८ मूलगुणोंका पालन प्रत्येक जैन साधु करता है। उसके ऊपर यदि कोई कष्ट आता है तो वह उससे विचलित नहीं होता । भूख प्यासकी वेदनासे पीडित होनेपर भी किसीके आगे हाथ नही पसारता और न मुखपर दीनताके भाव ही लाता है। जैसे विदेशी सर. कारसे असहयोग करनेवाले सत्याग्रही देशकी आजादीके लिए जेलमें डाल दिय जानेपर भी न किसीसे फर्याद करते थे और न कष्टोसे ऊबकर माफी मांगते थे किन्तु अपने लक्ष्यकी पूर्तिमें ही तत्पर रहते थे उसी प्रकार जैन साघु सांसारिक बन्धनोके कारणोसे असहयोग करके कष्टोंसे न घबरा कर आत्माकी मुक्तिके लिए सदा उद्योगशील रहता है। जो लोग उसे सताते है, दुख देते है, अपशब्द कहते है, उनपर वह क्रोध नही करता। उसे किसीसे लडाई झगडा करनेका कोई प्रयोजन नही है वह तो अपने कर्तव्यमें मस्त रहता है। उसके लिए शत्रु-मित्र, महलस्मशान, कंचन-कांच, निन्दा-स्तुति, सब समान है। यदि कोई उसकी पूजा करता ह तो उसे भी वह आशीर्वाद देता है और यदि कोई उसपर तलवारसे वार करता है तो उसकी भी हितकामना करता है। उसे
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जनधर्म
न किसीसे राग होता है और न किसीपर द्वेष । राग और द्वेषको दूर करनेके लिए ही तो वह साधुका आचरण पालता है। जैसा कि लिखा है
मोहतिमिरापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसज्ञान । रागद्वेषनिवृत्य चरण प्रतिपद्यते साधु ॥४७॥ रागद्वेषनिवृत्ते हिंसादिनिवर्तना कृता भवति ॥ अनपेक्षितार्थवृत्ति क पुरुष. सेवते नृपतीन् ॥४॥"-रत्नकर० श्रा०
अर्थात्-'मोहरूपी अन्धकारके दूर हो जाने पर सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होनेके साथ ही साथ जिसे सच्चा ज्ञान भी प्राप्त हो गया है, वह साधु राग और द्वेषको दूर करनेके लिए चारित्रका पालन करता है। (इस पर यह शंका होती है कि चारित्र तो हिंसा वगैरह पापोसे बचने के लिए पाला जाता है न कि रागद्वेषकी निवृत्ति के लिए; क्योकि जैनधर्ममे अहिंसा ही आराध्य है। तो उसका समाधान करते है) राग और द्वेषके दूर हो जानेपर हिंसा वगैरह पाप तो स्वय ही दूर हो जाते हैं। क्योकि जिस मनुष्यको आजीविकाकी चिन्ता नही है वह राजाओंको सेवा करने क्यो जायेगा? अत. जिसे किसीसे राग और द्वेष ही नही रहा वह हिंसा वगैरहके कार्य करेगा ही क्यों?' ____ अत साधु वाहिरी समस्त वातोसे इतना उदासीन हो जाता है कि वह किसीकी ओर अपेक्षावृत्तिसे ध्यान ही नही देता । जैनधर्ममे साधुको अत्यन्त निरीह वृत्तिवाला और अत्यन्त संयत बतलाया है, तथा इसीलिए उसकी आवश्यकताएं अत्यन्त परिमित रखी गयी है । साधु होनेके लिए उसे सब वस्त्र उतारकर नग्न होना पडता है इसस एक ओर तो उसकी निर्विकारता स्पष्ट हो जाती है दूसरी ओर उस अपनी नग्नताको ढांकनके लिए किसीसे याचना नहीं करना पड़ती जो निर्विकार नहीं है वह कभी बुद्धिपूर्वक नग्न हो नहीं सकता। विकार को छिपानेके लिए ही मनुष्य लंगोटी लगाता है। और यदि लंगोर्ट फट जाये या खोई जाये तो उसे चलना फिरना कठिन हो जाता है
आवश्यकताएँ अन्य अत्यन्त संयत बतलाया
साधु होनेके लिए
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चारित्र
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किन्तु बचपन में वही मनुष्य नंगा घूमता है, उसे देखकर किसीको लज्जा नही होती, क्योकि वह स्वय निर्विकार है । जब उसमें विकार आने लगता है तभी वह नग्नतासे सकुचाने लगता है और उसे छिपाने के लिए आवरण लगाता है । प्रकृति तो सबको दिगम्बर ही पैदा करती हे पीछेसे मनुष्य कृत्रिमताके आडम्बरमे फँस जाता है। अतः जो साधु होता है वह कृत्रिमताको हटाकर प्राकृतिक स्थितिमे आ जाता है । उसे फिर कृत्रिम उपकरणोंकी आवश्यकता नही रहती । इसीलिए सिर और दाढ़ी मूछो केशोंको दूसरे, चौथे अथवा छठे महीने में बह अपने हाथसे उपार डालता है । साघुत्वकी दीक्षा लेते समय भी उसे केशोंका लुञ्चन करना होता है। ऐसा करनेके कई कारण है -- प्रथम तो ऐसा करनेसे जो सुखशील व्यक्ति है और किसी घरेलू कठिनाई या अन्य किसी कारणसे साधु बनना चाहते है वे जल्दी इस ओर अग्रसर नही होते और इस तरह पाखण्डियोंसे साघुसघका बचाव हो जाता है । दूसरे, साधु होनेपर यदि केश रखते है तो उनमें जूं वगैरह पड़ने से वे हिंसाके कारण वन जाते है और यदि क्षौरकर्म कराते है तो उसके लिए दूसरोंसे पैसा वगैरह माँगना पड़ता है । अत वैराग्य वगैरहकी वृद्धिके लिए यतिजनोंको केशलोच करना आवश्यक बतलाया है ।
लिंग चिह्नको कहते है। जिन लिंग या चिह्नोसे मुनिकी पहचान होती है वे मुनिके लिंग कहलाते है। लिंग दो प्रकारके होते है द्रव्यलिंग अर्थात् बाह्यचिह्न और भावलिंग अर्थात् आभ्यन्तर चिह्न | जैनमुनिके ये दोनों चिह्न इस प्रकार बतलाये है
" जवजादरुवजाद उप्पादिकेसमंसुग सुद्ध | रहिद हिंसादीदो अप्पडिकम्म हवदि लिंग ॥ ५ ॥ मुच्छारम्भविमुक्क जुत्त उवजोगजोगसुद्धीहि ।
लिंग ण परावेक्ख अणभवकारण जेन्ह ॥ ६ ॥ -- प्रवचनसा० ३। 'मनुष्य जैसा उत्पन्न होता है वैसा ही उसका रूप हो अर्थात् नग्न हो, सिर और दाढी मूछोंके वाल उखाड़े हुए हों, समस्त बुरे कामोंसे बचा हुआ हो, हिसा आदि पापोसे रहित हो और अपने शरीरका संस्कार
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२४
जैनधर्म वगैरह न करता हो। यह सब तो जैन साधुके वाह्य चिह्न है। तथा ममत्व और भारम्भसे मुक्त हो, उपयोग और मन वचन कायकी शुद्धिसे युक्त हो, दूसरोकी रचमात्र भी अपेक्षा न रखता हो। ये सव आभ्यन्तर चिह्न है जो मोक्षके कारण है।' ___ इस युगमे यह प्रश्न किया जाता है कि बाहिरी चिह्नकी क्या। आवश्यकता है ? मगर वाहिरी चिह्नोसे ही आभ्यन्तरकी पहचान होती है। आंखोंसे तो बाहिरी चिह्न ही देखे जाते हैं उन्हीको देखकर लोग उनके अभ्यन्तरको पहचाननेका प्रयत्न करते है। तथा लोकम भी मुद्राकी ही मान्यता है। राजमुद्राके होनेसे ही जरा सा कागज हजारो रुपयोमे बिक जाता है। अत. द्रलिंग भी आवश्यक है। ___ इस तरह जैनधर्ममें साधुको विल्कुल निरपेक्ष रखनेका ही प्रयत्न किया गया है। फिर भी उसे शरीरको बनाये रखने के लिए भोजनको
आवश्यकता होती है और उसके लिए उसे गृहस्थोके घर जाना पड़ता है। वहां जाकर भी वह किसीके घरमे नही जाता और न किसीस कुछ मांगता ही ह । केवल भोजनके समय वह गृहस्थोके द्वारपरसे निकल जाता है। गृहस्थोके लिए यह आवश्यक होता है कि वे भोजन तैयार होनेपर अपने अपने द्वारपर खडे होकर साघुकी प्रतीक्षा करे । यदि कोई साधु उधरसे निकलता है तो उसे देखते ही वे कहते है'स्वामिन् ठहरिये, ठहरिये, ठहरिये ।' यदि साधु ठहर जाते है तो वह उन्ह अपने घरमें ले जाकर ऊंचे आसनपर बैठा देता है। फिर उनके पर घोता है। फिर उनकी पूजा करता है। फिर उन्हें नमस्कार करता है। फिर कहता है-मन शुद्ध, वचन शुद्ध, काय शुद्ध और अन्न शुद्ध ।' इन सब कार्योंको नवधा भक्ति कहते हैं। नवधा भक्तिके करनेपर ही साधु भोजनगालामें पधारते है। इस नवधा भक्तिसे एक तो साधुको सद्गृहन्यकी पहचान हो जाती है-वे जान जाते है कि यह गृहस्य प्रमादी है या अप्रमादी? इसके यहां भोजन सावधानीसे बनाया गया है या अनावधानीस ? दूसरे, इससे गृहस्य के मनमें अवज्ञाका भाव
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चारित्र
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नहीं रहता और इसलिए वह जो कुछ देता है वह भार समझकर नही देता किन्तु अपना कर्तव्य समझकर प्रसन्नतासे देता है । जहाँ साधु मांगते है और गृहस्थ उन्हें दुरदुराते है वहाँ साधु न आत्मकल्याण कर पाता है और न परकल्याण ही कर पाता है। इसलिए जैन साधु विधिपूर्वक दिये जानेपर ही भोजन ग्रहण करते है। अन्यथा लौट जाते हैं। __भोजनशालामे जाकर वे खड़े हो जाते है और दोनो हाथोको धोकर अंजुलि बना लेते हैं। गृहस्थ उनकी बाएं हाथकी हथेलीपर पास बना बनाकर रखता जाता है और वे उसे अच्छी तरहसे देख भालकर दायें हाथकी अंगुलियोसे उठा उठाकर मुंहमे रखते जाते है। यदि ग्रासमें कोइ जीव जन्तु या बाल दिखायी दे जाता है, तो भोजन छोड़ देते है। भोजनके बहुतसे अन्तराय जैन शास्त्रोंमे बतलाये गये है।
पहले लिख आये है कि भोजन केवल जीवन के लिए किया जाता हैं और जीवन रक्षणका उद्देश्य केवल धर्मसाधन है। अत. जहाँ थोड़ी सी भी धर्ममे बाधा आती है भोजनको तुरन्त छोड़ देते है। हाथमें भोजन करना भी इसीलिये बतलाया है कि यदि अन्तराय हो जाये तो' बहुतसा झूठा अन्न छोड़ना न पड़े, क्योंकि थालीमे भोजन करनेसे अन्तराय हो जानेपर भरी हुई थाली भी छोडनी पड़ सकती है। दूसरे, पात्र हाथमे लेकर मोजनके लिए निकलनेसे दीनता भी मालूम होती है।' गृहस्यके पात्रमे खानेसे पात्रको मांजने धोनेका झगड़ा रहता है, तथा पात्रमे खानसे बैठकर खाना होगा, जो साधुके लिए उचित नहीं है, क्योंकि बैठकर खानेसे साधु आरामसे अमर्यादित आहार कर सकता है तथा सुखशील बन सकता है। अत. खड़े होकर आहार करना ही उसके लिए विधेय रखा गया है।
साधुको अपना अधिकांश समय स्वाध्यायमें ही विताना होता है , स्वाध्यायके चार काल बतलाये है-प्रात दो घड़ी दिन तिनेपर स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिये और मध्याह्न होनसे दो घड़ी समाप्त कर देना चाहिय । फिर मध्याह्नके बाद दो घड़ी तने५
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जैनधर्म स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिये और जब दिन अस्त होनेमें दो घडी काल वाकी रहे तो समाप्त कर देना चाहिये। फिर दो घडी रात वीत जानेपर स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिये। और आधी रात होनेसे दो घडी पहले समाप्त कर देना चाहिये। फिर आधी रात होनेके दो घडी वादसे स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिये और रातका अन्त होने में दो घड़ी वाकी रहनेपर समाप्त कर देना चाहिये।
साथफो दिनचर्या साधुको चाहिये कि मध्य रात्रिमें ४ घड़ीतक निद्रा लेकर, थकान दूर करके, स्वाध्याय प्रारम्भ करे और जव रात बीतनेमें दो घडी काल शेष रह जाय तो स्वाध्याय समाप्त करके प्रतिक्रमण करे। खूव अभ्यस्त योगी भी क्षणभरके प्रमादसे समाधिच्युत हो जाता है। अत साधुको सदा अप्रमादी रहना चाहिये। तीनों संध्याओमे जिनदेवकी वन्दना करनी चाहिये और चित्तको स्थिर करनेके लिए उनके गुणोका चिन्तन करना चाहिये । कायोत्सर्ग करते समय हृदयकमलमे प्राणवायुके साथ मनका नियमन करके णमो अरहताण णमोसिद्धाण का ध्यान करना चाहिये। फिर धीरे धीरे वायुको निकाल देना चाहिये। फिर प्राणवायुको अन्दर ले जाकर णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाण' का ध्यान करना चाहिये और वायुको धीरे-धीरे बाहर निकाल देना चाहिये। फिर प्राणवायुको अन्दर ले जाकर णमो लोए सव्वसाहूण' का ध्यान करना चाहिये और वायुको धीरे-धीरे वाहर निकालना चाहिये। इस प्रकार नौ वार करनेसे चिरसचित पाप नष्ट होते है। जो साधु प्राण-वायुको नियमन कर सकनमें समर्थन हो वे वचनके द्वारा ही ऊपर लिखे गये पांच नमस्कार मत्रोका जप कर सकते है। यह पंच नमस्कार मंत्र समस्त विघ्नोको नष्ट करनेवाला और सव मङ्गलोंमें मुख्य मंगल माना गया है। कायोत्सर्गके पश्चात् स्तुति वन्दना आदि करके आत्माका ध्यान करना चाहिये, क्योकि आत्मध्यानके विना मुमुक्षु साधुकी कोई भी क्रिया मोक्षसाधक नहीं होती।
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चारित्र
२१ इस प्रकार प्रात कालीन देवबन्दनाको करके फिर सिद्धोकी, शास्त्र की और अपने गुरु आचार्य वगैरहकी भक्ति करनी चाहिये। इस का प्रभातमे दो घडीतक प्रात.कालीन कृत्य करके फिर साधुको स्वाच्या करना चाहिये। उसके बाद भोजन करनेकी इच्छा होनेपर २॥ त्रो विधिके अनुसार भोजन ग्रहण करना चाहिये । और भोजन . . होने पर अगले दिनतकके लिए भोजनका त्याग कर देना चाहिये फिर लगे हुए दोषोंका शोधन करके मध्याह्नके बाद दो घड़ी - ५ स्वाध्याय करना चाहिये । जब दिन दो घडी बाकी रहे तो स्वाच्या समाप्त.करके और दिन भरके दोषोंका परिमार्जन करके . पायक वन्दना करनी चाहिये। फिर देवबन्दना करके दो घड़ी रात जाने५ स्वाध्याय प्रारम्भ करना चाहिये और आधी रात होनमें दो घड़ी वाक रह जानेपर समाप्त कर देना चहिये । फिर चार घड़ीतक म एक करवटसे शयन करना चाहिये । यह साधुका नित्य कृत्य है नैमित्तिक कृत्य मूलाचार, अनगारधर्मामृत आदि ग्रन्थोंसे जाना जा सकता है।
साधुके सम्बन्धमें और जो बाते जैन शास्त्रोमे लिखी है उनम. कुछ इस प्रकार है
साधु जब धूपसे छायामे या छायासे धूपमे जाते है तो मोसंखी पीछीसे अपने शरीरको साफ करके जाते है। इसी तरह जव बै है तो उस स्थानको पीछीसे साफ करके बैठते है जिससे कोई जीवन उनके नीचे दबकर मर न जाये। जिस घरमे पशु बंधे हों या कर बुरा कार्य होता हो उस घरमें साधुको भोजनके लिए नहीं जाना चाहिये तथा घरके अन्दर जाकर बार बार दाताकी ओर नहीं देखना चाहिये यदि संघमे कोई साधु बीमार हो जाये तो उसकी कमी भी उपेक्षा नह करना चाहिये । अकेले साधुको कही नही जाना चाहिये, जव कहा जाये तो दूसरे साधुके साथ ही जाना चाहिये । गुरुको देखते ही 6 खड़े होना चाहिये और उन्हे नमस्कार करना चाहिये। गुरु जो वस्त
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Labe
जैनवर्म
दे उसे अत्यन्त आदरके साथ दोनों हाथोंसे लेना चाहिये और लेकर पुन. नमस्कार करना चाहिये । जिन्होने दीक्षा दी हो, जो पढ़ाते हों, प्रायश्चित देते हो और समाधि मरण कराते हों वे तव गुरु होते हैं।
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प्राण चले जानेपर भी साधुको दीनता नही दिखलाना चाहिये । भूख से शरीरका कृश बोर मलिन होना साघुके लिए भूषण है, पवित्र मनवाला साघु उससे लजाता नही है । जिसका मन शुद्ध है उसे ही गुद्ध कहा जाता है। मन गुद्धिके बिना स्नान करनेपर भी शुद्धि नही होती । साधुको चित्रमें अंकित भी स्त्रीका स्पर्ग नही करना चाहिये । जिनका स्मरण भी खतरनाक है उनको स्पर्श करना तो दूरकी बात है । साधुको रात्रिमे ऐसे स्थानपर नहीं सोना चाहिये जहाँ स्त्रियाँ रहती हों । न ताध्वियोंके साथ मार्गमें चलना ही चाहिये । तथा एकाकी साधुको किती एकाकी स्त्री के साथ न गपाप करनी चाहिये, न भोजन करना चाहिये और न बैठना ही चाहिये । जहाँ वास करने से साधुका मन चचल हो उस देशको छोड़ देना चाहिये । जो पाँचो प्रकारके वस्त्रसे रहित है वे ही निर्ग्रन्थ कहलाते हैं, अन्यथा सोना-चाँदी वगैरह कौन सा रखता है ?
परिग्रहको बुराइयाँ बतलाते हुए एक जैनाचार्यने ठीक ही लिखा है"परिग्रहवतां तां भयमवञ्यमापद्यते
प्रकोपपरिहितने च परुषानृतव्याहृती ।
ममत्वमय चोरतो स्वननतञ्च विभ्रान्तता
कुतोहि कलुषात्मनां परमद्युक्लवद्ध्यानता ॥४२॥” पात्रके ० स्तो० । 'परिग्रहवालोंको चोर आदिका भय अवश्य सताता है । चोरी हो जानेपर गुस्सा और मार डालनेके भाव होते हैं, कठोर और असत्य वचन बोलता है । ममत्व होनेसे मन भ्रान्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में कलुपित आत्मावाले साधुओंको उत्कृष्ट शुक्ल ध्यान कैसे हो सकता है।' अत. साधुको बिल्कुल अपरिग्रही होना चाहिये ।
ऊपर साबुको जो चर्या वतलायी है उससे स्पष्ट है कि जैनधर्ममें
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चारित्र
२१.
साघु जीवन बड़ा कठोर है। जो ससार, शरीर और भोगोकी असारता को हृदयगम कर चुक है, वे ही उसे अपना सकते हैं । सुखशील मनुष्योर्क, गुजर उसमें नही हो सकती। जैन साधुका जीवन बिताना सचमुच 'तल वारकी धार घावनो' है । आजकलके सुखशील लोगोंको साधु जीवन की यह कठोरता सम्भवत. सह्य न हो और वे इसे व्यर्थ समझें । किन्त उन्हें यह न भूल जाना चाहिये कि आजादी प्राप्त करना कितना कठिन,' है ? जिस देशपर विदेशी शक्ति प्रभुता जमा बैठती है, वहाँसे उर निकालना कितना कठिन होता है यह हम भुक्तभोगी भारतीयों छिपा नही । फिर अगणित भवोंसे जो कर्मवन्चन आत्मासे बँधे हु! है उनसे मुक्ति सरलतासे कैसे हो सकती है ? शरीर और इन्द्रिय आत्माके साथी नही है किन्तु उसको परतंत्र बनाये रखनेवाले कर्मोद' साथी है । जो उन्हें अपना समझकर उनके लालन-पालनकी चिन्त करता है वह कर्मोकी जंजीरोंको और दृढ़ करता है । इनक उपमा अंग्रेजी शासनके उन प्रबन्धकोंसे की जा सकती है जिने जनताकी जान-मालका रक्षक कहा जाता था किन्तु जो अवसा मिलते ही आँखे बदलकर भक्षक बन जाते थे । अतः अपना का निकालने भरके लिए ही इनकी अपेक्षा करनी चाहिये और काम निक जानेपर उन्हें मुँह नही लगाना चाहिये । यही दृष्टिकोण साघुकी चर्या रखा गया है। जैन सिद्धान्तका यह भी आशय नहीं है कि दुख उठान ही मुक्ति मिलती है । गुस्सेमे आकर स्वयं कष्ट उठाना या दूसरोक कष्ट देना बुरा है । किन्तु संसारकी वास्तविक स्थितिको जानकर उस अपनेको मुक्त करने के लिए मुक्तिके मार्गमे पैर रखनेपर दुखोकी २१ नही की जाती। जैसा कि लिखा है
{
'न दुःख न सुख यद्वद् हेतुर्दृ ष्टश्चिकित्सिते । चिकित्सायां तु युक्तस्य स्याद् दुःखमथवा सुखम् ॥ न दुःख न सुखं तद्वद् हेतुर्मोक्षस्य साधने । मोक्षोपाये तु युक्तस्य स्याद् दुःखमथवा सुखम् ॥' सवार्थ० ॥ अर्थात् -- जैसे रोगसे छुटकारा पानेमे न दुख ही कार
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जैनधर्म और न सुख ही कारण है, किन्तु चिकित्सामें लगनेपर दुख हो अथवा अत्यख हो। उसी तरह मोक्षका साधन करनेमें न दुख ही कारण है और स्का सुख ही कारण है। किन्तु मुक्तिका उपाय करनेपर चाहे दुख हो या त देख हो, उसकी परवाह नहीं की जाती।' ण च अत साधुकी चर्याकी कठोरता साधुको जान बूझकर दुखी करनेशरीर उद्देश्यसे निर्धारित नहीं की गयी है किन्तु उसे सावधान, कष्टसहिष्णु का सौर सदा जागरूक रखने के लिए की गयी है। हा ज कुछ लोग साधुके स्नान और दन्तधावन न करनेको बुरी निगाहसे । साखते है, किन्तु उनके न करनेपर भी जैन साधुकी शारीरिक स्वच्छता
स्मर्णनीय होती है। कुछ लोग कहते है कि जैन साधुओंके दांतोपर मल तो मा रहता है और उसपर यदि पैसा चिपक जाये तो उसे उत्कृष्ट साधु न साहा जाता है। किन्तु यह सब दन्तकथा मात्र है, दाँतोंपर मैल तभी तो किमताहै जव आंतोंमे मल भरा रहता है। जैन साधु एक वारमें परिमित [चार हल्का आहार लेते है अत न आंतोमें मल रहता है और न दांतोपर वचलह जमता है। एकबार किसीने लिखा था कि जैन साधु अपने पास से रक्ति झाडू रखते है उससे वे चलते समय आगे झाड़कर चलते है। यह साधु कोरी गप्प ही है। मोर पंखकी पीछी शरीर और बैठनेका स्थान
रह शोधनेमें काम आती है, वह झाड़ नहीं है। ये सब द्वेषी अथवा समझ लोगोंकी कल्पनाएं है। जैन साधुका शरीर अस्वच्छ हो सकता
. किन्तु उसकी आत्मा अतिस्वच्छ होती है। ममत्व
-गुणस्थान __ जैन सिद्धान्तमें संसारके सब जीवोको चौदह स्थानोंमे विभाजित पाया है। उन स्थानोको गुणस्थान कहते है । गुण या स्वभाव पांच जानकारके होते है-औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक निवार पारिणामिक ! जो गुण कर्मोके उदयसे उत्पन्न होता है उसे औदलुषित क कहते है। जो गुण कोंके उपशम अनुदयसे होता है उसे औपश
अवक कहते है । जो गुण कर्मोक क्षय-विनाशसे प्रकट होता है उसे
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चारित्र क्षायिक कहते है। जो गुण कर्मोके क्षय और उपशये होता है उस क्षायोपशमिक कहते है और जो गुण कर्मोके उदय, उपगम, क्षय औ क्षयोपशमके विना स्वभावसे ही होता है उसे पारिणामिक कहते है चूंकि जीव इन गुणवाला होता है इसलिए आत्माको भी गुणनामर कहा जाता है और उसके स्थान गुणस्थान कहे जाते है । वे चौदह है, मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यडमिथ्यादृष्टि, असयतसम्य ग्दृष्टि, सयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्ति वादरसाम्पराय, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तकपाय वीतराग छद्मस्था क्षीणकषाय वीतराग छमस्थ, सयोग केवली और अयोग केवली। चूंधि ये गुणस्थान आत्माके गुणोके विकासको लेकर माने गये है इसलिए, एकदृष्टिसे ये आध्यात्मिक उत्थान और पतनके चार्ट जैसे है। इन्हें हम आत्माकी भूमिकाएँ भी कह सकते है।
पहले कहे गये आठ कर्मोंमें से सबसे प्रवल मोहनीयकर्म है। यह कर्म ही आत्माकी समस्त शक्तियोको विकृत करके न तो उसे सन् मार्गका-आत्मस्वरूपका भान होने देता है और न उस मार्गपर चलन देता है। किन्तु ज्यो ही आत्माके ऊपरसे मोहका पर्दा हटने लगता है त्यो ही उसके गुण विकसित होने लगते है । अत इन गुणस्थानोकी रचनामे मोहके चढाव और उतारका ही ज्यादा हाथ है। इनक. स्वरूप संक्षेपमे क्रमश. इस प्रकार है
१ मिथ्याष्टि- मोहनीय कर्मके एक भेद मिथ्यात्वके उदयर जो जीव अपने हिताहितका विचार नहीं कर सकते, अथवा विचार करें सकनेपर भी ठीक विचार नहीं कर सकते वे जीव मिथ्यादृष्टि जाते है। जैसे ज्वरवालेको मधुर रस भी अच्छा मालूम नही होता ही उन्हें भी धर्म अच्छा नहीं मालूम होता । संनारके अधिकतर जीट इसी श्रेणीके होते हैं।
२ सासादनसम्यग्दृष्टि-जो जीव मिय्याल कर्मले उदयके हटाकर सम्यग्दृष्टि हो जाता है वह जव सम्यक्त्वते च्युत होपर मिव्यात्व
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जैनधर्म ने जाता है तो दोनोके बीचका यह दर्जा होता है। जैसे पहाड़की चोटति
दे कोई आदमी लुडके तो जबतक वह जमीनमें नहीं आ जाता तबतक से न पहाडकी चोटीपर ही कहा जा सकता ह और न जमीनपर हो, से ही इसे भी जानना चाहिये। सम्यक्त्व चोटीके समान है, मिथ्यात्व मीनके समान है और यह गणल्यान बीचके ढाल मार्गके समान है। त जब कोई जीव आगे कहे जानेवाले चौथे गणस्यानसे गिरता है भी यह गुणस्थान होता है। इस गुणस्थानमें आनेके वाद जीव नियम हले गुणस्थानमे पहुँच जाता है।
३ सम्य मिय्यादृष्टि-जैसे दही और गुडको मिला देनेपर नोंका मिला हुआ स्वाद होता है उसी प्रकार एक ही कालमें सम्यव और मिथ्यात्वरूप मिले हुए परिणामोंको मम्यमिय्यादृष्टि हते है।
४ असंयतसम्यग्दृष्टि-जिस जीवकी दृष्टि अर्यात् श्रद्धा समीचीन ती है उसे सम्यग्दृष्टि कहते है । और जो जीव सम्यग्दृष्टि तो होता किन्तु संयम नही पालता वह असंयत सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। हा भी है
'णो इंदियेसु विरदो णो जीवे थावरे तसे वा वि ।
जो सइहदि गिणुत सम्माइट्ठी अविरदो तो ॥२९॥' -गो० जीव० 'जो न तो इन्द्रियोके विषयोंते विरक्त है और न त्रस और स्थावर वोकी हिंसाका ही त्यागी है, किन्तु जिनेन्द्रदेव द्वारा कहे गये मार्गका द्विान करता है तथा जिसे उसपर दृढ़ आस्था है, वह जीव असंयत म्यन्दृष्टि है।'
आगेके सब गुणस्थान सम्यग्दृष्टिके ही होते है। ५ संयतासयत-जो संयत भी हो और असंयत भी हो उसे यतासंयत कहते है। अर्थात् जो त्रस जीवोकी हिंसाका त्यागी है और थाशक्ति अपनी इन्द्रियोपर भी नियंत्रण रखता है उसे संयतासंयत कहते है। पहले जो गृहस्थका चारित्र बतलाया है वह संयतासयतका
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चारित्र
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ही चारित्र है । व्रती गृहस्थोंको ही सयतासयत कहते है । इस गुण - स्पानसे आगे के जितने गुणस्थान है वे सब सयमकी ही मुख्यतासे होते है ।
६ प्रमत्त संयत--जो पूर्ण सयमको पालते हुए भी प्रमादके कारण उसमे कभी कभी कुछ असावधान हो जाते है उन मुनियोंको प्रमत्तसयत कहते है |
७ अप्रमत्तसंयत - जो प्रमादके न होनेसे अस्खलित सयमका पालन करते हैं, ध्यानमे मग्न उन मुनियोको अप्रमत्त सयत कहते है ।
सातवें गुणस्थानसे आगे दो श्रेणियाँ प्रारम्भ होती है एक उपशम श्रेणि और दूसरी क्षपकश्रेणि। श्रेणि का मतलब है पक्ति या कतार । जिस श्रेणिपर यह जीव कर्मोंका उपशम करता हुआ उन्हें दबाता | हुआ चढता है उसे उपशम श्रेणि कहते है और जिस श्रेणिपर कर्मोको नष्ट करता हुआ चढता है उसे क्षपक श्रेणि कहते है । प्रत्येक श्रेणीम चार चार गुणस्थान होते हैं। आठवीं, नौवां और दसवाँ गुणस्थान उपशम श्रेणिमे भी शामिल है और क्षपक श्रेणिमें भी शामिल है । ग्यारहवाँ गुणस्थान केवल उपशम श्रेणिका ही है और बारहवाँ गुणस्थान केवल क्षपक श्रेणिका ही है । ये सभी गुणस्थान क्रमश होते है मार ध्यानमें मग्न मुनियोंके ही होते है ।
८ अपूर्व करण -- करण शब्दका अर्थ परिणाम है । और जो पहल नही हुए उन्हें अपूर्व कहते है । ध्यानमे मग्न जिन मुनियोके प्रत्येक समयमे अपूर्व अपूर्वं परिणाम यानी भाव होते है उन्हे अपूर्वकरण गुणस्थानवाला कहा जाता है। इस गुणस्थानमे न तो किसी कर्मका उपशम होता है और न क्षय होता है । किन्तु उसके लिए तैयारी होती है, जीवके भाव प्रति समय उन्नत, उन्नत होते चले जाते है ।
& अनिवृत्ति बादर साम्पराय -- समान समयवर्ती जीवोंके परिणामोमे कोई भेद न होनेको अनिवृत्ति कहते है । अपूर्वकारण की तरह यद्यपि यहाँ भी प्रति समय अपूर्व अपूर्व परिणाम ही होते है किन्तु अपूर्वकरणमें तो एक समयमे अनेक परिणाम होनेसे समान समयवर्ती जीवों के
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जैनधर्म
रिणाम समान भी होते है और असमान भी होते है । परन्तु इस गुणस्थानमें एक समयमे एक ही परिणाम होनेके कारण समान समयमे हनेवाले सभी जीवोके परिणाम समान ही होते है । उन परिणामोंको निवृत्तिकरण कहते है । और बादर साम्परायका अर्थ 'स्थूलकषाय' होता है । इस अनिवृत्तिकरणके होनेपर घ्यानस्थ मुनि या तो कर्मों को वा देता है या उन्हें नष्ट कर डालता है । यहाँ तकके सब गुणस्थानोमे थूलकषाय पायी जाती है, यह बतलाने के लिए इस गुणस्थानके नामके साथ 'बादर साम्पराय' पद जोडा गया है। कहा भी है
'होति अणियटिणो ते परिसमयं जेसिमेक्कपरिणामा । विमलयरझाणहुयवहसिहाहि णिद्दद्द्वकम्मवणा ॥५७॥' 'वे जीव अनिवृत्तिकरण परिणामवाले कहलाते हैं, जिनके प्रति - समय एक ही परिणाम होता है, और जो अत्यन्त निर्मल ध्यानरूपी afrat शिखाओंसे कर्मरूपी वनको जला डालते है ।'
१० सूक्ष्म साम्पराय उक्त प्रकारके परिणामोके द्वारा जो ध्यानस्थ मुनि कषायको सूक्ष्म कर डालते है उन्हे सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानवाला कहा जाता है।
११ उपगान्तकषाय वीतराग छद्यस्थ-उपशम श्रेणिपर चढनेवाले ध्यानस्थ मुनि जव उस सूक्ष्मकषायको भी दवा देते है तो उन्हे उपशान्तकषाय कहते है । पहले लिख आये है कि आगे बढनेवाले ध्यानी मुनि आठवे गुणस्थानसे दो श्रेणियोमें बँट जाते है । उनमें से उपगम श्रेणिवाले मोहको धीरे धीरे सर्वथा दवा देते है पर उसे निर्मूल नही कर पाते । अत. जैसें किसी वर्तनमे भरी हुई भाप अपने वेगसे ढक्कनको नीचे गिरा देती है, वैसे ही इस गुणस्थानमें आनेपर दवा हुआ मोह उपगम श्रेणिवाले आत्माओको अपने वेगसे नीचेकी ओर गिरा देता है । इसमें कपायको बिल्कुल दवा दिया जाता है । अतएव कषायका उदय न होनेसे इसका नाम उपशान्तकपाय वीतराग है । किन्तु इसमें पूर्ण ज्ञान और दर्शनको रोकनेवाले कर्म मौजूद रहते है लिये इने छन् भी कह
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चारित १२ क्षीणकापाय वीतराग छमस्य-क्षपक श्रेणिपर चढनेवाले मुनि मोहको धीरे धीरे नष्ट करते करते जब सर्वथा निमल कर टालते हैं तो उन्हें क्षीणकपाय वीतराग छमस्थ कहते है ।
उन प्रकार नातवे गुणस्थानसे आगे बढनेवाले ध्यानी साधु चाहे पहली श्रेणिपर बड़े, चाहे दूसरी श्रेणिपर चढे वे सव आठवां नौवां और दसवां गुणल्यान प्राप्त करते ही है। दोनो श्रेणि चढनेवालोमें इतना ही जन्नर होता है कि प्रथम श्रेणिवालोसे दूसरी श्रेणिवालोमे आत्मविगुद्धि और आत्मवल विशिष्ट प्रकारका होता है। जिसके कारण पहली श्रेणिवाले मुनि तो दसवेसे ग्यारहवे गुणस्थानमे पहुंचकर दवे हुए मोहके उद्भूत हो जानेसे नीचे गिर जाते हैं। और दूसरी श्रेणिवाले मोहको सर्वया नष्ट करके दसवेसे वारहवे गुणस्थानमे पहुंच जाते है। यह सब जीवके भावोका खेल है। उसीके कारण ग्यारहवे गुणस्थानमे , पहुँचनेवाले साधुका अवश्य पतन होता है और बारहवें गुणस्थानमे पहुंच जानेवाला कभी नहीं गिरता, वल्कि ऊपरको ही चढता है।
१३ सयोगकेवली-समस्त मोहनीय कर्मके नष्ट हो जानेपर वारहवाँ गुणस्थान होता है। मोहनीय कर्मके चले जानेसे शेप कर्मोकी शक्ति क्षीण हो जाती है अत वारहवेंके अन्तमे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनो घातिया कर्मोका नाश करके क्षीणकपाय मुनि सयोगकेवली हो जाता है । जानावरण कर्मके नष्ट हो जानेसे उसके केवल ज्ञान प्रकट हो जाता है। वह ज्ञान पदार्थोंके जानने में इन्द्रिय, प्रकार और मन वगैरहकी सहायता नहीं लेता इसीलिए उसे केवलज्ञान कहते है और उसके होनेके कारण इस गुणस्थानवाले केवली कहलाते है। ये केवली आत्माके शत्रु घाति कर्मोको जीत लेनेके कारण जिन, परमात्मा, जीवन्मुक्त, अरहत आदि नामोसे पुकारे जाते है । जैन तीर्थङ्कर इसी अवस्थाको प्राप्त करके जैन धर्मका प्रवर्तन करते हैजगह जगह घूमकर प्राणिमात्रको उसके हितका मार्ग बतलाते है और इसी कार्यमें अपने जीवनके शेप दिन बिताते है। जब आयु अन्तर्मुहूर्त-----
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जनवर्म क मुहर्तसे कम रह जाती है तो सव व्यापार वन्द करके ध्यानस्य जाते है। जबतक केवलोके मन, वचन और कायका व्यापार रहना तबतक वे सयोगकेवली कहलाते है।
१४ अयोगकेवली-~-जव केवली ध्यानस्थ होकर मन, वचन और कावका सब व्यापार वन्द कर देते है तव उन्हे अयोग केवली कहते । ये अयोगकेवली वाकी बचे हुए चार अघातिया कर्मोको भी ध्यनजी अग्निके द्वारा भस्म करके समस्त कर्म और शरीरके बन्धनते टकर मोक्ष लाम करते है।
इस तरह संसारके सव जीव अपने अपने आध्यात्मिक विकासके रितम्यके कारण गुणस्थानोमे बंटे हुए है । इनमेसे शुरूके चार गस्यान तो नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव सभीके होते है। पांचवां णस्थान केवल समझदार पशु पमियों और मनुष्योंके होते हैं । चसे आगेके सब गुणस्थान साधुजनोके ही होते है। उनमें भी सातववारहवें तकके गुणस्थान आत्मध्यानमे लीन साधुके ही होते हैं । और उनमें प्रत्येक गुणस्थानका काल अन्तर्मुहर्त एक मुहुर्तसे कम ता है।
- ९-मोक्ष या सिद्धि मुक्ति या मोश शब्दका अर्थ छुटकारा होता है। अत आत्माके मस्त कर्मवन्धनोसे छूट जानेको मोक्ष कहते हैं। मोक्षका दूसरा म सिद्धि भी है। सिद्धि शब्दका अर्थ 'प्राप्ति होता है। जैसे धातुको लाने तपाने वगैरहसे उसमेंते मल आदि दूर होकर शुद्ध सोना प्राप्त । जाता है वैसे ही आत्माके गुणोको कलुषित करनेवाले दोषोको दूर रके शुद्ध आत्माकी प्राप्तिको सिद्धि या मोक्ष कहते है। कर्ममलसे टकारा पाये बिना मात्मा बुद्ध नहीं होता अत मुक्ति और सिद्धि दोनो एक ही अवस्था के दो नाम है जो दो बातोंको सूचित करते है। क्ति नाम कर्मवन्वनसे छुटकारेको वतलाता है और सिद्धि नाम उस टकारके होनेसे मुद्ध आत्माकी प्राप्तिको वतलाता है। अतः जैनधर्ममें
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गरेके होनेसे शचनले छुटकारका है जो दो बातों मुक्ति और सिद्धि
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चारित्र न तो आत्माके अभावको ही मोक्ष कहा जाता है जैसा बौद्ध लोर मानते है और न आत्माके गुणोके विनाशको ही मोक्ष कहा जाता जैसा वैशेषिक दर्शन मानता है । जैनधर्ममे आत्मा एक स्वतत्र द्रा है जो ज्ञाता और दृष्टा है, किन्तु अनादिकालसे कर्मबन्धनसे बंधा हुआ होनेके कारण अपने किये हुए कर्मोका फल भोगता रहता है। जब वई उस कर्मबन्धनका क्षय कर देता है तो मुक्त कहलाने लगता है।
मुक्त अवस्थामे उसके अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख अनन्त वीर्य आदि स्वाभाविक गुण विकसित हो जाते है। जैसे स्वर्णमेरे मलके निकल जानेपर उसके स्वाभाविक गुण पीतता वगैरह ज्याद विकसित हो जाते है इसीसे शुद्ध सोना ज्यादा चमकदार और पील होता है, वैसे ही आत्मामेसे कर्म मलके निकल जानेसे आत्माके स्वाभा विक गुण निखर उठते है। मुक्त होने के बाद यह जीव ऊपरको जाता है चूंकिंजीवका स्वभाव ऊपरको जानेका है जैसा कि आगकी लपटें स्वभाव से ऊपरको ही जाती है। अत अपने उस स्वभावके कारण ही मु, जीव ऊपरको जाता है। लोकके ऊपर अग्रभागमे मोक्ष स्थान है जिर जैन सिद्धातमे सिद्धशिला भी कहते है । सब मुक्त जीव मुक्त होनेव वाद ऊर्ध्वगमन करके इस मोक्षस्थानमे विराजमान हो जाते है जैन सिद्धान्तमें मोक्षस्थानकी मान्यता भी अन्य सब दर्शनोसे निराल है। इसका कारण यह है कि वैदिक दर्शनोमें आत्माको व्यापक मान गया है अत उन्हे मोक्षस्थानके सम्बन्धमे विचार करनेकी आवश्यकत नही थी। बौद्धदर्शनमे आत्मा कोई स्वतत्र तत्त्व नहीं है, अत उनक लिए मोक्षस्थानको चिन्ता ही व्यर्थ थी। किन्तु जैनदर्शन आत्माक एक स्वतंत्र तत्त्व माननेके साथ ही साथ व्यापक न मानकर । शरीरके बराबर मानता है । इसलिए उसे मोक्षस्थानके सम्वन्धर विचार करना पड़ा। वह कहता है कि मुक्त जीव बन्धनसे छूटकर ऊर्ध्व गमन करता है और लोकके अग्रभागमे पहुंचकर स्थिर हो जाता है फिर वहाँसे लौटकर नहीं आता।
जैन शास्त्रोमे एक मण्डली मतका उल्लेख पाया जाता है, ज
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जनधर्म
त जीवोका उर्ध्वगमन मानता है। किन्तु उसने मोक्षस्थानके वन्धमे कोई विचार प्रकट नही किया। वह कहता है कि मुक्त जीव नन्त काल तक ऊपरको चला जाता है, उसका कभी भी अवस्थान ही होता । ऊर्ध्वगमन माननेपर भी क्या मण्डलीको मोक्षस्थानकी न्तान हुई होगी? किन्तु जब उसके तार्किक मस्तिष्कमें यह तर्क पन्न हुगा होगा कि मुक्त जीव ऊपरको जाकरके भी एक निश्चित सानपर ही क्यो रुक जाता है, आगे क्यो नही जाता? तो सम्भवत से इसका कोई समुचित उत्तर न सूना होगा और फलत उसने सदा र्वगमन मान लिया होगा। किन्तु जैनधर्ममें गति और स्थितिमें सहा
धर्म और अधर्म नामके द्रव्योको स्वीकार करके इस काका ही सोच्छेद कर दिया गया। यह दोनो द्रव्य समस्त लोकमे व्याप्त है र लोकके ऊपर उसके अन भागमे ही मोक्षस्थान है। गतिमे हायक धर्मद्रव्य वही तक व्याप्त है, आगे नहीं। अत मुक्त जीव हीपर रुक जाता है, आगे नहीं जाता।
मुक्त अवस्थाम बिना शरीरके केवल शुद्ध आत्मा मात्र रहता है, पका आकार उसी शरीरके समान होता है जिससे आत्माने मुक्तिलाभ या है। जैसे धूपमे खड़े होनेपर शरीरकी छाया पड़ जाती है
ही शरीराकार आत्मा मुक्तावस्थामें होता है जो अमूर्त होनेके रण दिखायी नहीं देता। मुक्त हो जानेके बाद यह आत्मा जीना, रना, वुढ़ापा, रोग, शोक, दुःख, भय वगैरहसे रहित हो जाता है,
कि ये चीजे शरीरके साथ सम्वन्ध रखती है और शरीर वहाँ होता ही है । तथा मुक्तपना आत्माकी शुद्ध अवस्थाका ही नामान्तर है, न जवतक आत्मा शुद्ध है तबतक वहाँसे च्युत नही हो सकता। और । अशुद्ध होनेका कोई कारण वहां मौजूद नही रहता अत वहाँसे भी नहीं लौटता, सदा निराकुलतारूप आत्मसुखमे मग्न रहता है।
. १०-क्या जैनधर्म नास्तिक है ? जो धर्म ईश्वरको सृष्टिका कर्ता और वेदोको ही प्रमाण मानते वे जैनधर्मकी गणना नास्तिक धर्मोंमे करते है, क्योकि जैनधर्म न
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चारित्र तो ईश्वरको सृष्टिका कर्ता मानता है और न वेदोके प्रामाण्यको है स्वीकार करता है। किन्तु 'जो ईश्वरको सृष्टिका कर्ता नही मानत और न वेदोको प्रमाण मानता है वह नास्तिक है' नास्तिक सन्द५ यह अर्थ किसी भी विचारशील शास्त्रनने नही किया । बल्कि जा परलोक नही मानता, पुण्य पाप नहीं मानता, नरक स्वर्ग नही जानत परमात्माको नहीं मानता वह नास्तिक है यही अर्थ नास्तिक शब्दक, पाया जाता है। इस अर्थकी दृष्टिसे जैनधर्म घोर आस्तिक ही ठहरत है, क्योकि वह परलोक मानता है, आत्माको स्वतत्र द्रव्य मानते है, पुण्य पाप और नरक स्वर्ग मानता है, तथा प्रत्येक आत्मामें पर मात्मा होनेकी शक्ति मानता है । इन सब बातोका विवेचन पहई किया गया है। इन सब मान्यताओके होते हुए जैनधर्मको नास्ति नही कहा जा सकता। जो वैदिक धर्मवाले जैनधर्मको नास्तिक कहः है वे वैदिक धर्मको न माननेके कारण ही ऐसा कहते है। किन्तु ऐसे स्थितिमें तो सभी धर्म परस्परमे एक दूसरेकी दृष्टिसे नास्तिक ठहरेंगे, अत शास्त्रीय दृष्टिसे जैनधर्म परम आस्तिक ठहरता है।
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४. जैन साहित्य जैन साहित्य बड़ा विशाल है, भारतीय साहित्यमें उसका एक शिष्ट स्थान है। लोकोपकारी, अनेक जैनाचार्योंने अपने जीवनका इभाग उसकी रचनामे व्यतीत किया है। जैनधर्ममे बड़े-बड़े प्रकाण्ड नाचार्य हो गये है जो प्रवल तार्किक, वैयाकरण, कवि और शिनिक थे। उन्होने जैनधर्मके साथ-साथ भारतीय साहित्यके इतर त्रोमें भी अपनी लेखनीके जौहर दिखलाये है। दर्गन, न्याय, व्याकरण,
व्य, नाटक, कथा, शिल्प, मन्त्र-तन्त्र, वास्तु, वैद्यक आदि अनेक उपयोपर प्रचुर जैनसाहित्य आज उपलब्ध है और बहुत-सा धामिक प, लापरवाही तथा अज्ञानताके कारण नष्ट हो चुका।।
भारतकी अनेक भाषाओंमें जैन साहित्य लिखा हुआ है, जिनमें कृित संस्कृत और द्रवेडियन भाषाओंका नाम उल्लेखनीय है। जैनधर्मप्रारम्भसे ही अपने प्रचारके लिए लोक भाषामोको अपनाया अत पने अपने समयकी लोकभापामे भी जैन साहित्य की रचनाएँ पार्यो जाती है। इसीसे जर्मन विद्वान् डाक्टर विंटरनीट्ज ने अपने भारतीय हित्यके इतिहासमे लिखा है-'भारतीय भाषामोके इतिहासकी प्टिसे भी जैन साहित्य बहुत महत्त्वपूर्ण है , क्योकि जैन सदा इत
तकी विशेष परवाह रखते थे कि उनका साहित्य अधिकसे अधिक जनताके परिचयमें आये। इसीसे आगमिक साहित्य तथा प्राचीनतम काएं प्राकृतमे लिखी गयी। श्वेताम्बरोने वी गती से और दिगम्बरों
उससे कुछ पहले सस्कृतमें रचनाएँ करना आरम्भ किया। वादको १०वी से १२वी मती तक अपनग भापामे, जो उस समयकी जन भाषा पी, रचनाएं की गयी। और आजकलके जन वहन सी आधुनिक भारतीय ____ 1. A Fistory of Indian Literature' Vol II, P. 437-428.
लोकभाषाए लोक भाषामोनीय है। जैनधर्म
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जैन साहित्य भाषाओंका उपयोग करते है तथा उन्होने हिन्दी और गुजराती साहा को तथा दक्षिणमें तमिल और कन्नड साहित्यको विशेषरूपसे सम किया है।' ___ आज जो जैन साहित्य उपलब्ध है वह सव भगवान् महावी ५ उपदेश परम्परासे सम्बद्ध है । भगवान महावीरके प्रधान गणप, गौतम इन्द्रभूति थे। उन्होने भगवान महावीरके उपदेशोको अवधार करके वारह अग और चौदह पूर्वके रूपमे निबद्ध किया। जो इन 40
और पूर्वोका पारगामी होता था उसे श्रुतकेवली कहा जाता था। ज. परम्पराम ज्ञानियोंमे दो ही पद सवसे महान गिने जाते है-प्रत्य ज्ञानियोमें केवलज्ञानीका और परोक्ष ज्ञानियोमे श्रुतकवलीका जसे केवलज्ञानी समस्त चराचर जगतको प्रत्यक्ष जानते और देख है वैसे ही श्रुतकेवली शास्त्रमे वर्णित प्रत्येक विषयको स्पष्ट जानते हैं।
भगवान महावीरक निर्वाणके पश्चात् तीन केवलज्ञानी और उनके पश्चात् पाँच श्रुतकेवली हुए जिनमेसे अन्तिम श्रुतका, भद्रवाहु थे। इनके समयमें मगधमे बारह वर्षका भयकर दुर्भिक्ष पडा तब ये अपने सबके साथ दक्षिणको ओर चले गये और फिर लाटक नही आये । अत दुर्भिक्षके पश्चात् पाटलीपुत्रमे भद्रबाहु स्वामीक अनुपस्थितिमे जो अग साहित्य सकलित किया गया वह कभी कहलाया, दूसरे पक्षने उसे स्वीकार नहीं किया, क्योकि दुभिक्षके समर जो साघु मगधमे ही रह गये थे, सामयिक कठिनाइयोके कारण अपन आचारमे शिथिल हो गये थे। यहीसे जैनसघ दिगम्बर और श्वेता म्बर सम्प्रदायमे बँट गया और उसका साहित्य भी जुदा जुदा हो गया।
दिगम्बर साहित्य श्रुतकेवली भद्रबाहुके पश्चात् कोई श्रुतकेवली नहीं हुआ। पाद पूर्वोमसे ४ पूर्व उनके साथ ही लुप्त हो गये। उनके पश्चात् यार आचार्य ग्यारह अंग और दस पूर्वोके ज्ञाता हुए। फिर पाँच पार ग्यारह अगके ज्ञाता हुए। पूर्वोका ज्ञान एक तरहसे नष्ट ही हो गया ।
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जनधर्म टपुट ज्ञान बाकी रह गया। फिर चार आचार्य केवल प्रथम आचागिक
ज्ञाता हुए और अंग ज्ञान भी नष्ट भ्रष्ट हो गया। इस तरह कालकमसे विच्छिन्न होते होते वीर निर्वाणसे ६८३ वर्ष बीतने पर जब गो और पूर्वोके बचे खुचे ज्ञानके भी लुप्त होनेका प्रसंग उपस्थित आ तब गिरिनार पर्वतपर स्थित आचार्य धरसेनने भूतबलि और ष्पदन्त नामके दो सर्वोत्तम साधुओको अपना शिष्य बनाकर उन्हें बुताभ्यास कराया। इन दोनोने श्रुतका अभ्यास करके पट्खण्डागम हमके सूत्र ग्रन्थकी रचना प्राकृत भापामे की। इसी समयके लगभग णधर नामके आचार्य हुए। उन्होने २३३ गाथाओमे कसायपाहुड
कषायप्राभृत ग्रन्थ की रचना की । यह कषायप्राभूत आचार्य रम्परासे आर्यमा और नागहस्ति नामके आचार्योको प्राप्त हुआ। उनसे सीखकर यतिवृषभ नामक आचार्यने उनपर वृत्तिसूत्र रचे, जा
कृतमे है और ६००० श्लोक प्रमाण है। इन दोनो महान् ग्रन्थोपर जनेक आचार्योने अनेक टीकाएं रची जो आज उपलब्ध नहीं है। इनक अन्तिम टीकाकार वीरसेनाचार्य हुए। ये बड़े समर्थ विद्वान् थे। इन्होने
खण्डागमपर अपनी सुप्रसिद्ध टीका धवला शक स० ७३८ में पूरी की। यह टीका ७२ हजार श्लोक प्रमाण है। दूसरे महान् ग्रन्थ कसायसाहुडपर भी इन्होने टीका लिखी। किन्तु वे उसे बीस हजार श्लोक प्रमाण लिखकर ही स्वर्गवासी हो गये। तब उनके सुयोग्य शिष्य जनसेनाचार्यने ४० हजार प्रमाण और लिखकर शक स० ७५६ में इसे पूरा किया। इस टीकाका नाम ज्यघवला है और वह ६० हजार लोक प्रमाण है। इन दोनों टीकाकी रचना सस्कृत और प्राकृतिक जाम्मिश्रणसे की गयी है। वहभाग प्राकृतमे है। बीच वीचम संस्कृत भी आ जाती है, जैसा कि टीकाकारने उसकी प्रशस्तिम
"प्राय प्राकृतभारत्या क्वचित् सस्कृतभित्रया। मणिप्रवालन्यायेन प्रोफ्नोऽय अन्यविस्तर।"
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जैन साहित्य पट्सण्डागमका ही अन्तिम खण्ड महाबध है जिसकी ( भूतबलि आचार्यने की थी। यह भी प्राकृतमे है और इसका प्रमा ४१ हजार है। इन सभी ग्रन्योमे जैन कर्मसिद्धान्तका बहुत सूक्ष्म औ गहन वर्णन है।
चिरकालसे ये तीनों महान् ग्रन्थ मूडविद्री (दक्षिण कनारा): जन भण्डारमें ताडपत्रपर सुरक्षित थे। वहाँके भट्टारक महोदन तथा पचोकी उदात्त भावनाके फलस्वरूप अब इन तीनोका प्रकाराः हिन्दी टीकाके साथ हो रहा है। __ईताकी दसवी शताब्दीमे दक्षिणमें नेमिचन्द सिद्धान्त चक्रवत नामके एक जैनाचार्य हुए। वे उक्त तीनो आगम ग्रन्योके महान् 1451, थे। उन्होंने उनसे सकलन करके गोमट्टसार तथा लब्धिसार क्षणासा! नामक दो सग्रह ग्रन्थ रचे, जो प्राकृत गाथावद्ध महान् ग्रन्थ है। उ. भी जीव, कर्म और कर्मोके क्षपण यानी विनाशका सुन्दर किन्तु गह वर्णन है। दोनो ग्रन्योपर सस्कृत टीकाएँ भी उपलव्य है और जयार स्व०प० टोडरमलजीकी जयपुरी भापामे रची हुई भाषाटीका उपलब्ध है । इन टीकाओके साथ यह महान ग्रन्थ कई खण्डोमेक प्रकाशित हो चुका है।
ईसाकी प्रथम शताब्दीमे कुन्दकुन्द नामके एक महान् आचा हो गये है। इनके तीन ग्रन्थ समयसार, प्रवचनसार और पचास्तिकार अति प्रसिद्ध है जो कुन्दकुन्दत्रयीके नामसे भी ख्यात है। तीनो प्राकृतमे है । समयसारमें विविध दृष्टियोसे आत्मतत्त्वका सुन्दर दिने चन है, जैन अध्यात्मका यह अपूर्व ग्रन्थ है। नवी शतीके अध्यात्म आचार्य अमृतचन्द्र सूरीने इस ग्रन्यपर सस्कृत पद्योमे कलगकी (च की है जो बडी हृदयहारिणी है । सतरहवी शताब्दीके कविवर बनारस दासने इन कलगोका हिन्दीमे अत्यन्त रोचक पद्यानुवाद किया है। __प्रवचनसार और पञ्चास्तिकायमें जैनाभिमत तत्त्वोका यु: ५ विवेचन है। कहा जाता है कि आचार्य कुन्दकुन्दने बहुतसे प्राभृतो+
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जनधर्म
चना की थी, किन्तु उनमेसे आज केवल आठ प्राभूत उपलब्ध है। मिल भाषाके तिकुरुल काव्यके रचयिता भी इन्हीको कहा जाता है। नके शिष्य उमास्वामि या उमास्वाति नामके जैनाचार्य थे, जिन्होने सर्वप्रथम जैनवाड्मयको संस्कृतसूत्रोमें निबद्ध करके तत्त्वार्थसूत्र नामके सूत्रग्रन्थकी रचना की। इस ग्रन्थके दस अध्यायोमे जीव आदि सात त्त्वोंका सुन्दर विवेचन किया गया है। अपने अपने धर्मोमे गीता, कुरान और वाइबिलको जो स्थान प्राप्त है वही स्थान जैनधर्ममे इस न्यको प्राप्त है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो ही सम्प्रदाय इसे मानते है। दोनो ही परम्परामोके आचार्योने उसके ऊपर अनेक टीकाएँ रची है, जिनमे अकलकदेवका तत्त्वार्थराजवातिक और विद्यानन्दिका तत्त्वार्थश्लोकवातिक उल्लेखनीय है। दोनो ही वातिकात्य संस्कृतमे बडी ही प्रौढ शैलीमे रचे गये है और जनदर्शनके अपूर्व अन्य है।
दर्शन और न्यायशास्त्रमे स्वामी समन्तभद्र और सिद्धसेन की रचनाएँ उल्लेखनीय है । स्वामी समन्तभद्रने आप्तमीमासा नामका एक प्रकरण ग्रन्थ रचा है, जिसमें स्याद्वादका सुन्दर विवेचन करते हुए उत्तर दशनोकी विचारपूर्ण आलोचना की गयी है। इस आप्तमीमासापर प्वामी अकलकदेवने 'अष्टगती' नामका प्रकरण रचा है और अष्टशतीपर स्वामी विद्यानन्दिने अप्टसहस्री नामकी टीका रची है। यह अष्टमहनी इतनी गहन है कि इसको समझनेमे कष्टसहस्रीका अनुभव होता है। इन्ही विद्यानन्दिकी आप्तपरीक्षा और प्रमाणपरीक्षा भी भाषा, विपय और विवेचनको दृष्टिसे द्रष्टव्य है। ___ अकलकदेवको जैनन्यायका सर्जक कहा जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं है। इन्होने टीका ग्रन्थोके सिवा सिद्धिविनिश्चय, न्यायविनिश्चय, स्वीयस्त्रय, प्रमाणसरह आदि अनेक प्रकरणगन्थ रचे है जो बहुत ही मोढ और गहन है । इन प्रकरणोपर आचार्य अनन्तवीर्य, वादिराज और प्रभाचन्द्र नामके प्रकाण्ड जैन नैयायिकोने विस्तृत व्याख्या ग्रन्य चे है जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। माणिक्यनन्दि आचार्यका परीक्षामुख
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जन साहित्य
२३५ नामक सूत्रग्रन्थ जैनन्यायके अभ्यासियोंके लिए बडे ही कामका है। इसपर आचार्य प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलसार्तण्ड नामका महान् व्याख्या ग्रन्थ रचा है। उसे अति सक्षिप्त करके अनन्तवीर्य-नामके आचान प्रमेयरत्नमाला नामकी टीका बनायी हो। पांअकसरीका विलक्षणकदर्थन, श्रीदत्तका जल्पनिर्णय आदि कुछ ऐसे भी महत्त्वपूर्ण' ग्रन्थह जो आज अनुपलब्ध है, केवल अन्य ग्रन्थोमे उनका उल्लेख मिलता है।
पुराण साहित्यमें हरिवंशपुराण, महापुराण, पद्मचरित आद! ग्रन्थोका नाम उल्लेखनीय है । जैन पुराणोंका मूल प्रतिपाद्य विषय ६३ शलाका पुरुषोके चरित्र है। इनमे २४ तीर्थ कर, १२ चक्रवर्ती ९ बलदेव, वासुदेव और प्रतिवासुदेव है। जिनमे पुराण पुरुषोका' पुण्यचरित वर्णन किया गया हो उसे पुराण कहते है। हरिवरपुरा में
कौरव और पाण्डवोंका वर्णन है और पद्मचरितमें श्रीरामचन्द्रका वन । है। इस तरहसे ये दोनो ग्रन्थ क्रमश जैन महाभारत और जैन रामायण
कहे जा सकते है। इनके सिवा चरितग्रन्थोंका तो जैन साहित्यमे मण्डार भरा है । सकलकीति आदि आचार्योने अनेक चरित ग्रन्थ रचे है । आचार्य जटासिह नन्दिका वरागचरित एक सुन्दर पौराणिक काव्य है। काव्यसाहित्य भी कम नही है । वीरनन्दिका, चन्द्रप्रभचरित, हरिचन्द्रका धर्मशर्माभ्युदय, धनंजयका द्विसन्धान और वाग्भट्टका नेमिनिर्वाण काव्य उच्चकोटिके सस्कृत महाकाव्य है।
अपभ्रश भाषामे तो इन पुराण और चरितग्रन्योंका संस्कृतको अपेक्षा बाहुल्य है। अपभ्रश भाषामें जैनकन्यिोने खूव रचनाएँ की • है। इस भाषाका साहित्य जैन भण्डारोमे भरा पड़ा है। अपनर
वहुत समयतक यहाँकी लोक भाषा रही है और इसका साहित्य में बहुत ही लोकप्रिय रहा है। पिछले कुछ दशकोसे इस भाषाकी और विद्वानोका ध्यान आकर्षित हुआ है, अब तो वर्तमान प्रान्तीय भाषाको की जननी होनेके कारण भाषाशास्त्रियो और विभिन्न पाया। इतिहास लिखनेवालोके लिए इसके साहित्यका अध्ययन बावश्यक
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जैनधर्म हो गया है। पुष्पदन्त इस भापाके महान् कवि थे। इनका 'त्रिषष्टि महापुरुष गुणालकार' एक महान ग्रन्थ है । पुष्पदन्तने महाकवि स्वयभुका स्मरण किया है । स्वयम, पुष्पदन्त, कनकामर, रइच आदि अनेक कवियोने अपभ्रश भापाके साहित्यको समृद्ध बनानेमें कुछ उठा नही रखा। ___ कथा साहित्य भी विशाल है। आचार्य हरिपेणका कथाकोश बहुत प्राचीन (ई० स० ६३२) है। आराधना कथाकोश, पुण्याश्रव कथाकोश आदि अन्य भी बहुतते कयाकोग है जिनमे कयामओके द्वारा धर्माचरणका शुभ फल और अधर्माचरणका अशुभ फल दिखलाया गया है। चम्प काव्य भी जैन-साहित्यमे बहुत है । सोमदेवका यशस्तिलक चम्पू, हरिचन्द्रका जीवन्वर चम्पू और अहंहासका पुरुदेवचम्पू उत्कृष्ट चम्पू काव्य है । गद्यग्रन्थोमे वादीसिंहकी गद्यचिन्तामणि उल्लेखनीय है । नाटकोमे हस्तिमल्लके विक्रान्तकौरव, मैथिलीकल्याण, अजना पवनजय आदि दर्शनीय है । स्तोत्र साहित्य भी कम नही है, महाकवि धनजयका विषापहार, कुमुदचन्द्रका कल्याणमन्दिर आदि स्तोत्र साहित्यकी दृष्टिसे भी उत्कृप्ट है। स्वामी समन्तभद्रक स्वयभू स्तोत्रमे तो जनदर्शनके उच्चकोटिके सिद्धान्तोको कूट-कूट कर भर दिया गया है। वह एक दार्शनिक स्तवन है । नीति ग्रन्थोकी भी कमी नहीं है। वादीसिंहका क्षत्रचूडामणि काव्य एक नीतिपूर्ण काव्य ग्रन्थ है। आचार्य अमितगतिका सभाषितरत्नसदोह, पद्मनन्दि आचायका पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका और महाराज अमोघवर्षको प्रश्नोत्तररत्नमाला भी सुन्दर नीतिग्रन्थ है। । इसके सिवा ज्योतिष, आयुर्वेद, व्याकरण, कोष, छन्द, अलंकार, गणित और राजनीति आदि विषयोपर भी जैनाचार्योकी अनेक रचनाएँ आज उपलब्ध है। ज्योतिष और आयुर्वेद विषयक साहित्य अभी प्रकाशमें कम आया है। व्याकरणमे पूज्यपाद देवनन्दिका जनन्द्र व्याकरण और शाकटायनका शाकटायन व्याकरण उल्लेखनीय है।
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जैन साहित्य कोषमें धनंजय नाममाला और विश्वलोचन कोश, अलकारमें अलकार चिन्तामणि, गणितमे महावीर गणितसार सग्रह और राजनीतिमे सोमदेवका नीतिवाक्यामृत आदि स्मरणीय है।
यह तो हुआ सस्कृत और प्राकृत साहित्यका विहगावलोकन' ।
द्रवेडियन भाषाओमे भी जैनाचार्योने खूब रचनाएं की है। उन्हीके कारण एक तरहसे उन भाषाओको महत्त्व मिला है। कनडी भाषामे रचना करनेवाले अति प्राचीन कवि जैन थे। कन्नड साहित्यको उन्नत, प्रौढ और परिपूर्ण बनानेका श्रेय जैनाचार्यो और जैन कवियोको ही प्राप्त है। तेरहवी शताब्दी तक कन्नड़ भाषाके जितने प्रौढ ग्रन्यकार हुए वे सब जैन ही थे। 'पप भारत' सदृश महाप्रबन्ध और 'शब्दमणिदर्पण' सदृश शास्त्रीय ग्रन्थोको देखकर जैन कवियोके प्रति किसे आदर बुद्धि उत्पन्न नहीं होती। कर्नाटक गद्य ग्रन्थोमे प्राचीन 'चामुण्डरायपुराण' के लेखक वीरमार्तण्ड चामुण्डराय जैन ही थे। आदि पप, कविचक्रवर्ती रन्न, अभिनव पप, कत्तिदेवी आदि कवि जैन ही थे। ____ 'कर्नाटक कवि चरिते' के मूल लेखक आर० नरसिहाचार्यने जनकवियोके सम्वन्धमे अपने उद्गार प्रकट करते हुए कहा है-"जैनी कन्नड़ भाषा के आदि कवि है। आज तक उपलब्ध सभी प्राचीन और उत्तम कृतियाँ जैन कवियोकी ही है। विशेषतया प्राचीन जैन कवियों के कारण ही कन्नड भाषाका सौन्दर्य एव कान्ति है । पप, रन्न और पोनको कवियोमे रत्न मानना उचित है । अन्य कवियोने भी १४वो शताब्दीके अन्त तक सर्वश्लाघ्य चम्पूकाव्योकी रचना की है । कन्नड भाषाके सहायक छन्द, अलकार, व्याकरण, कोष आदि ग्रन्थ अधिकतया जैनियोके द्वारा ही रचित है।" ___ यहाँ यह वतला देना अनुचित न होगा कि दक्षिण और कर्नाटकका जितना जैन साहित्य है वह सब ही दिगम्बर जैन सम्प्रदायके विद्वानोंकी रचना है । तथा दिगम्बर सम्प्रदायक जितने प्रधान-प्रधान आचार्य है वे प्राय सव ही कर्नाटक देशके निवासी थे और वे न केवल
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जैनवर्म
संस्कृत और प्राकृतके ही ग्रन्थकर्ता थे, किन्तु कनडीके भी प्रसिद्ध ग्रन्थकार थे ।
तमिल भाषाका साहित्य भी प्रारम्भ कालसे ही जैनधर्म और जनसस्कृति से प्रभावित है । 'कुरल' और 'नालदियार' नामके दो महान् ग्रन्थ उन जैनाचार्यो की कृति है जो तमिलदेश मे बस गये थे । इन ग्रन्थोके अवतरण उत्तरवर्ती साहित्य मे बहुतायतसे पाये जाते है। तमिलका नीतिविषयक साहित्य काव्यसाहित्यकी अपेक्षा प्राचीन है और उसपर जैनाचार्यो का विशेष प्रभाव है। 'पलमोलि' के रचयिता भी जैन थे । इसमे बहुमूल्य पुरातन सूक्तियाँ है । कुरल और नालदियारके बाद इसका तीसरा नम्बर है । 'तिने माले तू रेम्वतु' के लेखक भी जैन थे। यह ग्रन्थ शृंगार तथा युद्धक सिद्धान्तोका वर्णन करता है । पश्चात्वर्ती टीकाकारो के द्वारा इस ग्रन्थ के अवतरण खूब लिये गये है। इसी समुदायका एक ग्रन्थ 'नान् मणिक्कडिगे' है जो वेणवा छन्दमें है ।
तमिल भाषा के पाँच महाकाव्य में से चितामणि, सिलप्पडिकारम् और वलेतापति जैनलेखकोकी कृति है। सिलप्पडिकारम् अत्यन्त महत्वपूर्ण तमिल ग्रन्थ है | यह ग्रन्थ साहित्यिक रीतियोके विषयमे प्रमाणभूत गिना जाता है। इसके तीन महाखड है और कुल अध्याय तीस है। 1 पाँच लघु काव्य है---यशोधरकाव्य, चूडामणि, उदयन करें, नागकुमार काव्य और नीलकेशी । इन पाँच काव्योके कर्ता जैन आचार्य थे । जैन लेखकोने afer भाषाका व्याकरण भी रचा है। : 'ननोल' तमिल भाषाका वह प्रचलित व्याकरण है। यह स्कूलो और कालिजोमे पढाया जाता है । निघण्टु ग्रन्थोमे दिवाकर निघण्टु, पिंगल निघण्टु और गुणर्माण निघण्टुका नाम उल्लेखनीय है । जैनोने गणित और ज्योतिष सम्बन्धी रचनाएँ भी की है। इस तरह तमिल भाषा 3 जैन - साहित्यसे भरपूर है |
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गुजराती भाषामें भी दि० जैनकवियोने अनेक रचनाएँ की है, * जिनका विवरण 'जैनगुर्जर कवियों' से प्राप्त होता है ।
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जैन साहित्य
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दिगम्बर साहित्यमे हिन्दी ग्रन्थ की संख्या भी बहुत है । इधर ३०० वर्षों में अधिकांश ग्रन्थ हिन्दीमे ही रचे गये है । जैन श्रावकके लिए प्रतिदिन स्वाध्याय करना आवश्यक है। अत. जन-साधारणकी। भाषामे जिनवाणीको निवद्ध करनेकी चेष्टा प्रारम्भसे ही होती आयी है। इसीसे हिन्दी जैन साहित्यमे गद्यग्रन्थ बहुतायतसे पाये जाते है। लगभग सोलहवी शताब्दीसे लेकर हिन्दी गद्य ग्रन्य जैन साहित्यमे उपलब्ध है और इसलिए हिन्दी भाषाके क्रमिक विकासका अध्ययन करनेवालोके लिए वे बड़े कामके है। सैद्धान्तिक ग्रन्थोंमे ऊपर गिनाये गये तित्त्वार्थसूत्र, सर्वार्थ सिद्धि, राजवातिक, गोमट्टसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय, समयसार, षट्खण्डागम, कषाय प्राभूत) आदि महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोकी हिन्दी टीकाएं मौजूद है। न्याय ग्रन्थोमे भी परीक्षामुख, आप्तमीमासा, प्रमेयरत्नमाला, न्यायदीपिका और तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक जैसे महान ग्रन्थोकी हिन्दी टीकाएँ उपलब्ध है। इन टीका ग्रन्योका अध्ययन केवल हिन्दी भाषाभाषी प्रान्तोमे ही प्रचलित नहीं है किन्तु गुजरात, महाराष्ट्र और सुदूर दक्षिण प्रान्तके जैनी भी उनसे लाभ उठाते है। इस तरह जैनधर्मका साहित्य हिन्दी भाषाके प्रचारमें भी सहायक रहा है। प्राय सभी पुराण ग्रन्थो और अनेक कथाग्रन्थोंका अनुवाद हिन्दी भाषामें हो चुका है। अनुवादका यह कार्य सर्वप्रथम जयपुरके विद्वानोके द्वारा दुढारी भाषामे प्रारम्भ किया गया था। आज भी उनके अनुवाद उसी रूपमे पाये जाते है।
यह तो हुई अनुवादित साहित्यकी चर्चा । स्वतंत्ररूपसे भी हिन्दी गद्य और हिन्दी पद्य दोनोमे जैनसिद्धान्तको निबद्ध किया गया है । गद्य-साहित्यमे प० टोडरमलजीका मोक्षमार्ग-प्रकाशक ग्रन्थ और पद्यसाहित्यमे प० दौलतरामजीका छहढाला जैनसिद्धान्तके अमूल्य रत्न है। प० टोडरमलजी, प० दौलतराम, प. सदासुख, पं० बुधजन, प० द्यानतराय, भैया भगवतीदास, पं. जयचन्द आदि अनेक विद्वानोने अपने समयकी हिन्दी भाषामे गद्य अथवा पद्य अथवा दोनोंमें अपनी
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जैनधर्म
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रचनाएं की है। वीनती, पूजापाठ, धार्मिक भजन, आदि भी पर्या संस्है । पद्य साहित्यमे भी अनेक पुराण और चरित रचे गये है । ग्रन्थ हिन्दी जैन साहित्यकी एक सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उस शान्तरसकी सरिता ही सर्वत्र प्रवाहित दृष्टिगोचर होती है। संस्कृ जन और प्राकृतके जैन ग्रन्थकारोके समान हिन्दी जैन ग्रन्यकारों का भी ए ग्रन्थही लक्ष्य रहा है कि मनुष्य किसी तरह सांसारिक विषयोके फन्दे अवनिकलकर अपने को पहचाने और अपने उत्थानका प्रयत्न करे। इ नीलिक्ष्यको सामने रखकर सबने अपनी अपनी रचनाएँ की है । हिन् जैजैन साहित्यमे ही नहीं, अपि तु हिन्दी साहित्यमे कविवर वनारसीदा इसजीकी आत्मकथा तो एक अपूर्व ही वस्तु है । उनका नाटक सम इस्सार भी अव्यात्मका एक अपूर्व ग्रन्थ है ।
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श्वेताम्बर - साहित्य
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पाटलीपुत्रमे जो अग संकलित किय गये थे, कालक्रमसे वे : सम्बव्यवस्थित हो गये तव महावीर निर्वाणकी छठी शताब्दी में व स्कन्दिलको अध्यक्षतामे मथुरामे फिर एक सभा हुई और उसमे फि शेपवचे अंग साहित्यको सुव्यवस्थित किया गया। इसे माथुरी वाच कहते हैं। इसके बाद महावीर निर्वाणकी दसवी गतीमे बल्लभी नग (काठियावाड) मे देवाणि क्षमाश्रमणके सभापतित्वमे फिर 'सभा हुई। इसमें फिरसे ग्यारह अगोका संकलन हुआ । वारहवाँ को पहले ही लुप्त हो चुका था । अवतक स्मृतिके आगरपर ही अ 'साहित्यका पठन-पाठन चलता था, किन्तु अव वीर नि० स० ।
1
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( ई० स० ४५३ ) के लगभग उन्हें पुस्तकारूड किया गया । विद्यम जैन आगमोकी व्यवस्था अपने सम्पादक देवगिणिकी मुख्य आभारी है। उन्होने इन्हें अध्याय में विभक्त किया। जो भाग
गये थे उन्हें अपनी बुद्धि के अनुसार सम्बद्ध किया । डा० जेकोब १ अन्न नामाचारी धनवमे लिखा है"श्रीमान श्रीवीगद् वर्गीयधिक नवा - (९८ द्वानिमान् बहुतरा व्यापती बहुश्रुतविच्छित
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श्वेताम्वर सम्प्रदायका सम्पूर्ण जैनागम छह भागो में विभक्त है, १ ग्यारह अंग - आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, भगवती, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अंतकृद्दशा, अनुत्तरोपपातिक, प्रश्नव्या- 1 करण और विपाकसूत्र । २ वारह उपाग - औपपातिक, राजप्रश्न, जोवाभिगम, प्रज्ञापना, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, निरयावली, कल्पावतस, पुष्पिक, पुष्पचूलिक और वह्निदशा ।। ३ दस प्रकीर्णक - चतु शरणं, आतुर प्रत्याख्यान, भक्त, सस्तार, तन्दुलवचारिक, चन्द्रवेधक, देवेन्द्रस्तव, गणिविद्या, महाप्रत्याख्यान और वीरस्तव । ४ छह छेदसूत्र - निशीथ, महानिशीथ, व्यवहार, दशाश्रुतस्कन्ध, वृहत्कल्प, पञ्चकल्प । ५ दो सूत्र - नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार । ६ चार मूलसूत्र —– उत्तराध्ययन, आवश्यक, दशवेकालिक ! और पिण्डनियुक्ति | ये पैतालीस ग्रन्थ आगम कहे जाते है । इनकी भाषा प्राकृत कहलाती है । इनमे आचार, व्रत, जैनतत्त्व, ज्योतिष, भूगोल आदि विविध विषयोंका वर्णन है । दिगम्बर सम्प्रदाय के ।
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कथनानुसार देवर्द्धिगणिके पश्चात् भी जैन आगमों में बहुत फेरफार
हुआ है।
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जातायाँ भव्यलोकोपकाराय श्रुतभक्तये च श्रीसघाग्रहात् मृतावशिष्टतदा- ' कालीनसर्वंसावून् बलभ्यामाकार्यं तन्मुखाद् विच्छिन्नावशिष्टान् न्यूनाविकान् त्रुटिताऽत्रुटितान् आगमालापकान् अनुक्रमेण स्वमत्या सकलय्य पुस्तकारूढाः । कृता । ततो मूलतो गणवरभाषितानामपि तत्सकलनानन्तर सर्वेषामपि माग - मानां कर्ता श्रीदेवद्धगणक्षमाश्रमण एवं जात. "
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'अर्थात् ----श्रीदेवद्धगणि क्षमाश्रमणने वीर नि० स० ९८० में वारह वर्षके दुर्भिक्षके कारण बहुतसे साधुओंके मर जानेसे वहुतसे श्रुतके नष्ट हो जानेपर, भव्यजीवोंके उपकार के लिए शास्त्रकी भक्तिसे प्रेरित होकर, सघके आग्रहसे बाकी वचे सब साधुओको वलभी नगरीमें बुलाकर, उनके मुखसे बाकी बचे, कमती, वढती, त्रुटित, अत्रुटित आगमके वाक्योका अपनी बुद्धिके अनुसार सकलन करके उन्हें पुस्तक लिखवाया। इसलिए मूलमें गणधर प्रतिपादित होनेपर भी सकलन करनेके कारण सभी आगमोके कर्ता श्रीदेवद्विगणिक्षमाश्रमण कहलाये ।'
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साहित्यमें अंग और अंगवाह्य ग्रन्थोके नामों तथा उनमे वर्णित विषयोका उल्लेख मिलता है, किन्तु उसमे उपांग आदि भेद नहीं है। श्वेताम्बर सम्प्रदायमे चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिको उपाग माना है कन्तु दिगम्बर साहित्यमें इनकी गणना दृष्टिवादके एक भेद परिकर्मम मी है। इसी तरह दशवकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार और शीथ नामके ग्रन्थोंको अंगवाह्य वतलाया है। दिगम्बर सम्प्रदायम गोंके अतिरिक्त जो भी साहित्य है वह सब अंगवाह्य माना गया है।
श्वेताम्वर परम्परामें देवद्धिगणिक पश्चात् जिनभद्रगणि क्षमामण नामके एक विशिष्ट आचार्य हुए । इनका विशेषावश्यक भाष्य क उच्च कोटिका ग्रन्य है। इसमें तर्कपूर्ण शैलीसे जानकी सुन्दर चर्चा । गयी है । जिस तत्त्वार्थसूत्रका उल्लेख हम दिगम्बर साहित्यम र आये है, उसपर एक भाष्य भी है, जिसे कुछ विद्वान् स्वोपज्ञ मानते । इसपर आचार्य सिद्धसेनगणिका तत्त्वार्थ भाष्य एक विस्तृत टीका । आगमिक साहित्यके ऊपर भी अनेक टीकाएँ उपलब्ध है। नवाग त्तिकार श्रीअभयदवसूरिने नौ भागमोपर संस्कृत भाषामे सुन्दर काएं रची है। इस दृष्टिसे मल्लधारी हेमचन्द्रका नाम भी लेखनीय है, इन्होंने भी आगमिक साहित्यपर विद्वत्तापूर्ण टीकाएं खी है। विशेषावाश्यक भाष्यपर रची इनकीटीका बहुत ही सुन्दर है।
श्वेताम्बर सम्प्रदायमें कर्मविषयक साहित्य भी पर्याप्त है जिसमें मप्रकृति, पंचसंग्रह, प्राचीन और नवीन कर्मग्रन्य उल्लेखनीय है । ३वी गतीमें श्रीदेवेन्द्रसूरिने नवीन कर्मग्रन्थोकी रचना स्वोपज्ञ टीकाके य की थी। इनकी टीकाओंमें कर्मसाहित्यकी विपुल सामग्री संकलित । न्यायविषयक साहित्यमें सिद्धसेन दिवाकरका न्यायावतार जैनयिका आद्य ग्रन्थ माना जाता है। इनका 'सन्मति तर्क प्रकरण भी त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, इसमे आगमिक मान्यताओंको भी तर्कको सोटीपर कसनेका प्रयल किया गया है। इस प्रकरण ग्रन्थपर अभयमूरिकी महत्त्वपूर्ण टीका है । इस सम्प्रदायमें हरिभद्रसूरि नामक
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जैन साहित्य
एक प्रख्यात विद्वान् हो गये है। किंवदन्ती है कि इन्होंने १४०० प्रकरण ग्रन्थ रचे थे । इनके उपलब्ध दार्शनिक ग्रन्थोंमें अनेकान्तवादप्रवेश, अनेकान्त जयपताका तथा शास्त्रवार्ता समुच्चयका नाम उल्लेखनीय है । तत्त्वार्थ सूत्रपर भी इन्होने एक टीका लिखी है । वादिदेव सूरिका प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार तथा उसकी स्वोपज्ञ वृत्ति स्याद्वादरत्नाकर व आचार्य हेमचन्द्रकी प्रमाणमीमासा और मल्लिषेणसूरिकी स्याद्वादमंजरी भी न्यायशास्त्र के सुन्दर ग्रन्थरत्न है । सतरहवी शती मे आचार्य यशोविजय भी एक कुशल नैयायिक हुए है, इन्होने विद्यानन्दिकी अष्टसहस्रीपर एक टिप्पण रचा है तथा नयोपदेश, नयामृततर गिणी, तर्कपरिभाषा आदि अनेक ग्रन्थ रचे है। जैनधर्मके दार्शनिक सिद्धान्तोपर इन्होने नये दृष्टिकोणसे विचार किया है तथा नव्यन्यायकी शैली भी ग्रन्थ रचे है ।
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पुराण साहित्यमे विमलसूरिका पउमचरिय (पद्मचरित ) एक प्राकृत काव्य है । यह प्राचीन समझा जाता है । इसमे रामचन्द्रकी कथा है । 'वसुदेव हिण्डी' भी प्राकृत भाषाका पुराण है इसमे महाभारत की कथा है। यह भी प्राचीन है। आचार्य हेमचन्द्रका त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित भी उल्लेखनीय है । अन्य भी अनेक ग्रन्थ है ।
araria हेमचन्द्रका द्वयाश्रयं महाकाव्य, अभयदेवका जयन्तविजय, मुनिचन्द्रका शान्तिनाथचरित अच्छे काव्य समझे जाते है । गद्य काव्यमे धनपाल कविकी तिलकमंजरी एक सुन्दर आख्यायिका ग्रन्थ है । नाटकोमे रामचन्द्र सूरिका नल - विलास, सत्यहरिश्चन्द्र, राघवाभ्युदय, निर्भयव्यायोग आदिका नाम उल्लेखनीय है । जयसिंह' का हम्मीरमदमर्दन एक ऐतिहासिक नाटक है । इसमे वोलुक्यराज वीरधवलके द्वारा हम्मीर नामके यवन राजाको भगानेका वर्णन है ।
लाक्षणिक ग्रन्थोंमे आचार्य हेमचन्द्रका काव्यानुशासन द्रष्टव्य है । कथा साहित्यका तो यहाँ भण्डार भरा है । उसमें उद्योतनसूरिकी
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जनधर्म कुवलयमाला, हरिभद्रकी समराइचकहा और पादलिप्तको तरंगवतीकहा अति प्रसिद्ध है। कुवलयमाला तो प्राकृत साहित्यका एक अमूल्य रल है । यह प्राकृत भाषाके अभ्यासियोंके लिए बहुत उपयोगी है। इसी तरह आचार्य सिद्धर्षिकी उपमितिभवप्रपञ्चकथा भारतीय साहित्यका प्रथम रूपक ग्रन्थ माना जाता है। - व्याकरणमे आचार्य हेमचन्द्रका 'सिद्ध हेम व्याकरण अतिप्रसिद्ध है। इसीका आठवां अध्याय प्राकृत व्याकरण है, जिससे अच्छा दूसरा प्राकृत व्याकरण आज उपलब्ध नहीं है। कोषोंमे भी हेमचन्द्रका अभिधानचिन्तामणि, अनेकार्थसंग्रह, देशीनाममाला, निघंट शेष, अभिघानराजेन्द्र तथा 'पाइलसहमहण्णव' अपूर्व कोष ग्रन्थ है।
प्रवन्धोंमे चन्द्रप्रभसूरिका प्रभावकचरित, मेस्तुंगका प्रवन्धचिन्तामणि, राजशेखरका प्रवन्धकोश तथा जिनप्रभसूरिका विविधतीर्थकल्प महत्त्वपूर्ण हैं। अन्य भी अनेक विषयोंपर साहित्य पाया जाता है। अपभ्रंश भाषाका साहित्य भी पर्याप्त है, जिसमें धनपालकी 'भविसयत्त कहा' अतिप्रसिद्ध है। स्त्रोत्र साहित्य भी विपुल है। ___ श्वेताम्बर सम्प्रदायका अधिकतर आवास गुजरात प्रान्तमे है । अत. गुजराती भाषामें भी काफी साहित्य मिलता है, जिसका परिचय 'जैन गुर्जर कविनो' नामक ग्रन्थमें विस्तार के साथ दिया है।
विदेशी भाषाओमे भी जैन साहित्य पाया जाने लगा है। जर्मन विद्वान् स्व० हर्मन याकोबीने कई ग्रन्योंका सम्पादन किया था। उनमें उनकी कल्पसूत्रकी प्रस्तावना तथा 'Sacred Books of East नामकी ग्रन्यमालामें प्रकाशित जनसूत्रोंकी प्रस्तावना पढने योग्य है।" जर्मन विद्वान् प्रो० ग्लेजनपका जैनिज्म' भी अच्छा ग्रन्थ है। स्व० वीरचन्द्र राघवचन्द्र गांधीने अमेरिकाके चिकागो नगरमें हुए सर्वधर्म सम्मलनमें जो भाषण जनधर्मके सम्बन्धमें दिये थे, वे 'कर्म फिलोसोफी' के नामसे छप चुके है। न्यायावतार, सम्मतितर्क वगैरह ' का अंग्रेजी अनुवाद भी हो चुका है। और भी अनेक ग्रन्य है। दिगम्बर
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जैन साहित्य
२४५ साहित्य भी अंग्रेजीमे पर्याप्त है। स्व० जे० एल० जैनी और वैरिस्टर चम्पतरायने इस दिशा में उल्लेखनीय सेवा की है।
उपसंहार बहुतसा जैन साहित्य अब प्रकाशमें आ रहा है और नयी शैलीसे उसका सम्पादन भी होने लगा है। प्राचीन जैन साहित्यका तुलनात्मक' तथा ऐतिहासिक विवेचन करनेकी भी परम्परा चल पडी है जिसका श्रेय सर्वश्री नाथूराम प्रेमी, जुगल किशोर,मुख्तार, पं० सुखलाल और मुनि जिनविजय आदि जैन विद्वानोंको है। इस दृष्टिसे प्रेमीजी क! 'जैन साहित्य और इतिहास', मुख्तार सा० की 'पुरातन वाक्य सूची' की प्रस्तावना तथा समन्तभद्र' नामक पुस्तक दृष्टव्य है। षट्खण्डा: गम, कसायपाहुड और न्यायकुमुद चन्दकी हिन्दी प्रस्तावनाएँ मैं तुलनात्मक और ऐतिहासिक दृष्टिकोणसे अध्ययन करनेवालोके लिए बहुत कामकी है। जिज्ञासुओको उनका अध्ययन करना चाहिये। अन्वेषकोंके लिए जैन साहित्यमे प्रचुर सामग्री मौजूद है।
कुछ प्रसिद्ध जैनाचार्य भगवान् महावीरके पश्चात् कितने ही प्रसिद्ध प्रसिद्ध आचा' और ग्रन्थकार हुए है जिन्होने अपने सदाचार और सद्विचारोसे न केवर जैनधर्मको अनुप्राणित किया किन्तु अपनी अमर लेखनीके द्वारा भारती वाडमयको भी समृद्ध बनाया। नीचे कुछ ऐसे प्रसिद्ध आचार्यो और अन्यकारोंका परिचय संक्षेपमे कराया जाता है।
- गौतम गणधर (५५७ ई० पूर्व) यह भगवान महावीरके प्रधान गणधर (गिष्य) थे। मूर नाम इन्द्रभूति था, जातिसे ब्राह्मण थे। वेद वेदाङ्गमें पा थे। जव केवलज्ञान हो जानेपर भी भगवान् महावीरको ५॥ नही खिरी तो इन्द्रको इस वातको चिन्ता हुई । इसका का जानकर वह इन्द्रभूतिके पास गया और युक्तिसे उसे भगवान् महावीर
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जैनयम
१४६ समवसरणमे ले आया। संशय दूर होते ही इन्द्रभूतिने प्रव्रज्या ले ली और भगवान के प्रधान गणधर हुए। भगवान्का उपदेश सुनकर अवधारण करके इन्होंने द्वादगाङ्ग श्रुतकी रचना की। जव कातिक कृष्णा अमावस्याके प्रात भगवान महावीरका निर्वाण हुआ उसी समय गौतम स्वामीको केवल जानकी प्राप्ति हुई। उसके १२ वर्ष पश्चात इन्हें भी निर्वाणपद प्राप्त हुआ।
/ भद्रबाहु (३२५ ई० पूर्व) यह भद्रबाहु अन्तिम श्रुतकेवली थे। इनके समय, मगवर्म १२ वर्षका भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। तब यह साधुओंके बहुत बड़े संघक साथ दक्षिण देशको चले गये। प्रसिद्ध मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त भी राज्यभार पुत्रको सौंपकर इनके साथ ही दक्षिणको चला गया। वहाँ मसूर प्रान्तके श्रवणवेलगोला स्थानपर भद्रवाह स्वामी अपना अन्तिम समय जानकर ठहर गये और और गेप संघको आगे रवाना कर दिया । सेवाके लिए चन्द्रगुप्त अपने गुरुके पास ही ठहर गये। वहाँके चन्द्रगिरि पर्वतकी एक गुफामे भद्रबाहु स्वामीने देहोत्सर्ग किया। यह गुफा 'भद्रबाहुकी गुफा कहलाती है और इसमें उनके चरण अंकित है जो पूजे जाते है। भगवाहुके समयमे ही संवभेदका वीजारोपण हुमा अतः उनके वादसे श्वेताम्बर और दिगम्बरोकी आचार्य परम्परा भी जुदीजुदी हो गयी। दिगम्बर परम्पराके कुछ प्रमुख आचार्योका नीत्र परिचय दिया जाता है।
घरसेन (वि० सं० की दूसरी शती) र आचार्य धरसेन अंगो और पूर्वोके एक देशके ज्ञाता थे और सौराष्ट्र देशके गिरनार पवतकी गुफामें ध्यान करते थे। उन्हें इस बातको चिन्ता हुई कि उनके पश्चात् श्रुतनानका लोप हो जायगा । अत उन्होने महिमानगरीके मुनिसम्मेलनको पत्र लिखा । वहाँसे दो मुनि उनके पास पहुंचे। आचार्यने उनकी बुद्धिकी परीक्षा करके उन्हें सिद्धान्तको शिक्षा दी।
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जैन साहित्य
२४७ । , पुष्पदन्त और भूतबलि ये दोनों मुनि पुष्पदन्त और भूतवली थे । आषाढ शुक्ला एकादशीको अध्ययन पूरा होते ही धरसेनाचार्यने उन्हे बिदा कर दिया । दोनो शिष्य वहाँसे चलकर अकुलेश्वरमे आये और वही चतुर्मास किया। पुष्पदन्त मुनि अकुलेश्वरसे चलकर बनवास देशमे आये। वहाँ पहुंचकर उन्होने जिनपालितको दीक्षा दी और 'बीसदि सूत्रो' की रचना करके उन्हे पढाया । फिर उन्हे भूतबलिके पास भेज दिया । भूतबलिने पुष्पदन्तको अल्पायु जानकर आगेकी ग्रन्थरचना की। इस तरह पुष्पदन्त
और भूतबलिने षट्खण्डागम नामके सिद्धान्त ग्रन्थकी रचना की। फिर भूतबलिने षट्खण्डागमको लिपिबद्ध करके ज्येष्ठ शुक्ला पंचमीके दिन उसकी पूजा की। इसीसे यह तिथि जैनोमे श्रुत पचमीके नामसे प्रसिद्ध हुई।
गुणधर (वि० सं० की २री शती) आचार्य गुणधर भी लगभग इसी समयमे हुए। वे ज्ञान-प्रवाद नामक पाँचवे पूर्वके दसवें वस्तु अधिकारके अन्तर्गत कसायपाहुड़रूपी श्रुत समुद्रक पारगामी थे। उन्होने भी श्रुतका विनाश हो जानेके भयसे कसायपाहुड नामका महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त ग्रन्थ प्राकृत गाथायोमे निबद्ध किया।
- कुन्दकुन्द (वि० सं० की २री शती) आचार्य कुन्दकुन्द जैनधर्मके महान् प्रभावक आचार्य थे। इनके विषयमे प्रसिद्ध है कि विदेह क्षेत्रमे जाकर सीमंधर स्वामीकी दिव्यध्वनि सुननेका सौभाग्य इन्हे प्राप्त हुआ था । इनका प्रथम नाम पद्मनन्दि था। कोण्डकुन्दपुरके रहनेवाले होनेसे बादमें वे कोण्डकुन्दाचार्यके नामसे प्रसिद्ध हुए। उसीका श्रुतिमधुर रूप 'कुन्दकुन्दाचार्य बन गया । इनके प्रवचनसार, पंचास्तिकाय और समयसार नामके ग्रन्थ अति प्रसिद्ध है जो नाटकत्रयी कहलाते है। इनके सिवा इन्होंने
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जैनधर्म ननेक प्राभृतो की रचना की है जिनमेसे आठ प्रामृत उपलब्ध है। शोधप्राभृतके अन्तकी एक गाथामे इन्होने अपनेको श्रुतकेवली भद्रवाहुका गष्य बतलाया है। श्रवणवेलगोलाके शिलालेखोमें इनकी बडी कीर्ति उतलायी गयी है।
1, उमास्वामी (वि० सं० की ३री शती) यह आचार्य कुन्दकुन्दके शिष्य थे। इन्होने जैन सिद्धान्तको संस्कृत सूत्रोमें निवद्ध करके तत्त्वार्थसूत्र नामक सूत्ररन्थकी रचना की। इनको गृद्धपिच्छाचार्य भी कहते थे। श्रवणबेलगोलाके शिलालेख न० नं० १०८ में लिखा है कि श्री कुन्दकुन्दाचार्यके पवित्र वंश उमास्वामी मुनि हुए जो सम्पूर्ण पदार्थोके जाननेवाले थे, मुनियोमे श्रेष्ठ थे। उन्होने जिनदेव प्रणीत समस्त गास्त्रोके अर्यको सूत्र रूपमे निवद्ध किया। वेप्राणियो की रक्षामें बड़े सावधान थे। एकबार उन्होंने पिछी न होने पर गृद्धके परोको पीछीके रूपमें धारण किया था, तभी से विद्वान् । उनको गद्धपिच्छाचार्य कहने लगे । साधारणतया दि. जैन मुनि जीवरक्षाके लिए मयूरके पखोकी पीछी रखते है।
' समन्त भद्र (वि० सं० की ३-४थी शती)
जैन समाजके प्रभावक आचार्योंमें स्वामी समन्तभद्रका स्थान 'वहुत ऊंचा है। इन्हें जैन गासनका प्रणेता और भावि तीर्थकर तक बतलाया है । अकलंकदेवने अप्टशतीमें, विद्यानन्दने अप्टसहलीम, आचार्य जिनसेनने आदिपुराणमें, जिनमेन सूग्नेि हरिवंगपुराणम, वादिराजसूरिने न्यायविनिश्चय-विवरण और पार्श्वनाथचरितमें, वार नन्दिने चन्द्रप्रभचरितमें, हत्तिमल्लने विक्रान्तकौरव नाटफर्म तथा अन्य अनेक ग्रन्थकारोने भी अपने अपने नन्यके प्रारम्भमें इनको बहुन ही आदरपूर्वक स्मरण किया है। मुनि जीवनमें इन्हें भस्मक व्याधि हो गयी, जो गाते थे वह तत्काल जीर्ण हो जाता था। उसे दूर करना लिए उन्हें कानी या फागीने राजकीय विवाग्यमें पुजारी बनना हा और वर्ग देवपिन नवेद्यका भक्षण करके अपना रोग दूर किया।
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जैन साहित्य
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जब कलई खुली तो स्वयंभूस्तोत्र रचकर जैन शासनका प्रत्यक्ष प्रभाव प्रकट किया ।
इनके रचे हुए आप्तमीमासा, बृहत्स्वयंभूस्त्रोत्र, युक्त्यनुशासन, जिनस्तुतिशतक तथा रत्नकरण्ड नामक ग्रन्थ उपलब्ध है, तथा जीव ! सिद्धि आदि कुछ ग्रन्थ अनुपलब्ध है । ये प्रखर तार्किक और कुशल वादी थे । अनेक देशोमे घूम-घूमकर इन्होने विपक्षियोको शास्त्रार्थम् परास्त किया ।
सिद्धसेन (वि० सं० की ५वी शती)
आचार्य उमास्वामी (ति) की तरह सिद्धसेनकी मान्यता भी दोन सम्प्रदायोंमें पायी जाती है । दोनों ही सम्प्रदाय उन्हे अपना गुरु मान है । दिगम्बर सम्प्रदायके आचार्य जिनसेन प्रथम व द्वितीय ने बहुत हूं, आदरके साथ उनका स्मरण किया है। उनकी सूक्तियोंको भगवा ऋषभदेवकी सूक्तियोंके समकक्ष वतलाया है और न तवादीखा हाथियों के समूह के लिये उन्हें विकल्परूप नखोयुक्त सिंह बतलाय है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय मे 'दिवाकर' विशेषण के साथ इनप्रसिद्धि है । इनका सन्मति तर्कग्रन्थ अति प्रसिद्ध और बहुमान्य है, यह प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है । दूसरे ग्रन्थ न्यायावतार तथा । - तिकाएँ संस्कृतमे है । सभी ग्रन्थ गहन दार्शनिक चर्चाओसे परिप है । प्रसिद्ध इतिहासज्ञ पं० जुगलकिशोर 'मुख्तारने गहरे अध्ययन में खोजके बाद यह सिद्ध किया है कि उक्त सब कृतियाँ एक ही सद्ध की नही है, सिद्धसेन नामके कोई दूसरे विद्वान भी हुए है ।
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देवनन्दि ( ईसाकी पांचवी शती)
श्रवणवेलगोलाके शिलालेख न० ४० (६४ ) मे लिखा है इनका पहला नाम देवनन्दि था । बुद्धिकी महत्ताके कारण वे ज
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१. अनेकान्त, वर्प ९, कि० ११ (सन्मति सिद्धसेनाँक ) ।
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जैनधर्म
बुद्धि कहलाये और देवोने उनके चरणोंकी पूजा की, इसलिए उनका राम पूज्यपाद हुआ । इनका सक्षिप्त नाम 'देव' भी था। आचार्य जनसेनने आदिपुराणमे और वादिराजसूरिने पार्श्वनाथचरित्रमें न्हें इसी सक्षिप्त नामसे स्मरण किया है। महाकवि धनञ्जयने अपनी |ममालामे पूज्यपादके व्याकरणको 'अपश्चिम रत्नत्रय' में गिनाया है। नका जैनेन्द्र व्याकरण जैनोका पहला संस्कृत व्याकरण है । इसक
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बहुत ही सक्षिप्त है । सज्ञाएँ भी सक्षिप्त है । मुग्धबोधके कत • बोपदेवने आठ वैयाकरणोमे जैनेन्द्रका भी उल्लेख किया है। जैनेन्द्र के सिवाय इनके चार ग्रन्थ और उपलब्ध है - सर्वार्थसिद्धि, समाधितत्र, ष्टोपदेश और देशभक्ति (संस्कृत) । इन्होने अपने जैनेन्द्रपर रास भी बनाया था जो अप्राप्य है। इसी तरह वैद्यक ग्रन्थ भी इन्होने नाये थे । गगवंशीय राजा दुर्विनीत इनका शिष्य था, जिसका राज्यल ई० सन् ४८२ से ५१२ तक माना जाता है।
पात्रकेसरी (ईसाकी छठीं शती)
इन्हें पात्रस्वामी भी कहते है। इन्होने बौद्धोके त्रैरूप्य हेतु वादका search for 'froक्षण कदर्थन' नामका शास्त्र रचा था जो पलब्ध है । शान्तरक्षितने अपने तत्त्वसंग्रहमें पात्रस्वामी के मत की लोचना करते हुए कुछ कारिकाएँ पूर्वपक्षके रूपमे दी है । इनका न श्लोक बहुत प्रसिद्ध है—
अन्ययानुपपन्नत्व यत्र तत्र श्रयेण किम् । नान्ययानुपपन्नत्व as a श्रयेण किम् ।
वादिराजसूरि और अनन्तवीर्यने लिखा है कि बौद्धों के त्रिलक्षणखण्डन करने के लिए पद्मावतीदेवीने भगवान सीमन्चर स्वामीके मरणमें जाकर उनके गणधरके प्रसाद से इस श्लोकको प्राप्त के पात्र केसरीको दिया था । श्रवणवेलगोलाके शिलालेख नं० में भी ऐमा उल्लेग है ।
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अकलंक' (ई० ६२० से ६८० )
यह जैनन्यायके प्रतिष्ठाता थे । प्रकाण्ड पण्डित, घुरन्धर शास्त्रार्थी और उत्कृष्ट विचारक थे । जैनन्यायको इन्होने जो रूप दिया उस ही उत्तरकालीन जैन ग्रन्थकारोने अपनाया । वौद्धोंके साथ इनका खूब संघर्ष रहा। स्वामी समन्तभद्रके यह सुयोग्य उत्तराधिकारी थे । इन्होंने उनके आप्तमीमासा ग्रन्थपर 'अष्टशती' नामक भाष्यकी रचना की। इनकी रचनाएँ दुरूह और गम्भीर है । अवतक इनके अष्टशती, प्रमाणसंग्रह, न्यायविनिश्चय, लघीयस्त्रय और तत्त्वार्थराजवार्तिक नामके ग्रन्थ प्रकाशमें आ चुके है | सिद्धिविनिश्चय प्रकाशमें नही आया । विद्यानन्दि ( ई० ९वी शती)
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विद्यानन्द अपने समयके वहुत ही समर्थ विद्वान् थे । इन्होने अकलंकदेवकी अष्टशतीपर 'अष्टसहस्री' नामका महान् ग्रन्थ लिखा है , जिसे समझने में अच्छे अच्छे विद्वानोको कष्ट सहस्रीका अनुभव होता है । य सभी दर्शनोके पारगामी विद्वान् थे । इन्होने अष्टसहस्री, आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, तत्त्वार्थश्लोक वार्तिक और युक्त्यनुशासन- टीका नामके ग्रन्थ रचे है। सभी बहुत प्रौढ दार्शनिक ग्रन्थ है । माणिक्यनन्दि ( ई० ९वी शती)
नामके
इन्होंने अकलकदेवके वचनोका अवगाहन करके परीक्षामुख सूत्र ग्रन्थकी रचना की है जिसमे प्रमाण और प्रमाणाभासका । सूत्रबद्ध विवेचन किया है। सूत्र सक्षिप्त स्पष्ट और सरस है ।
अनन्तवीर्य ( ई० की ९वी शती)
यह अकलंक न्यायके प्रकाण्ड पण्डित थे । इन्होने उनके सिद्धिविनिश्चय ग्रन्थपर बहुत ही विद्वत्तापूर्ण टीका लिखी है । वादिराजने अपने न्यायविनिश्चयविवरणमे इनकी बहुत प्रशंसा की है, और लिखा
१. इनकी जीवनी व परिचय जाननेके लिए न्यायकुमुदचन्द्रके प्रथम भागकी प्रस्तावना पढिये |
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जैनधर्म
है कि इनके वचनामृतकी वृष्टिसे जगत्को खा जानेवाली शून्यवादरूपी अग्नि शान्त हो गयी ।
वीरसेन ( ई० ७९० - ८२५)
आचार्य वीरसेन प्रसिद्ध सिद्धान्त ग्रन्थ पटखण्डागम और कसायपाहुडके मर्मज्ञ थे । उन्होने प्रथम ग्रन्थपर ६२ हजार श्लोक प्रमाण प्राकृत संस्कृत - मिश्रित घवला नामकी टीका लिखी है । और कसायपाहुड पर २० हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखकर ही स्वर्गवासी हो गये। ये टीकाएँ जैन सिद्धान्त की गहन चर्चाओ से परिपूर्ण है । घवलाकी प्रशस्तिमे उन्हे वैयाकरणोका अधिपति, तार्किकचक्रवर्ती और 'प्रवादी रूपी गजो के लिए सिह समान वतलाया है ।
जिनसेन ( ई० ८०० - ८८० )
यह वीरसेनके शिष्य थे । इन्होंने गुरुके स्वर्गवासी हो जाने पर जयघवला टीकाको पूरा किया। इन्होने अपनेको 'अद्धिकर्ण' बतलाया है, जिससे प्रतीत होता है कि यह बालवयमें ही दीक्षित हो गये थे । यह बड़े कवि थे । इन्होने अपने नवनकालमें ही कालिदासके मेघदूतको लेकर पार्श्वभ्युदय नामका सुन्दर काव्य रचा था। मेघदूतमें जितने भी पथ है, उनके अन्तिम चरण तथा अन्य चरणोमेंसे भी एक एक, दो दो करके इसके प्रत्येक पद्यमें समाविष्ट कर लिये गये है। इनका एक दूसरा ग्रन्थ महा पुराण है । इन्होने सारे तिरेसठ शलाका पुरुषोंका चरित्र लिखनेकी इच्छासे महापुराण लिखना प्रारम्भ किया। किन्तु इनका भी बीचमें ही स्वर्गवास हो गया । अत उसे इनके शिष्य गुणभद्राचार्यने पूर्ण किया। राजा अमोघवर्ष इनका शिष्य था और इन्हें बहुत मानता था । प्रभाचन्द्र ( ई० सन् की ११वी शती)
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आचार्य प्रभाचन्द्र एक बहुत दार्शनिक विद्वान थे। सभी दर्शनो के प्राय सभी मौलिक ग्रन्थोका उन्होने अभ्यास किया था। यह बात
उनके रचे हुए न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेय-कमल-मार्तण्ड नामक दार्श
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जैन साहित्य
२५३ निक ग्रन्योके अवलोकनसे स्पष्ट हो जाती है। इनमें से पहला ग्रन्थ अकलंकदेवके लघीयस्त्रयका व्याख्यान है और दूसरा आचार्य माणिक्यनन्दिके परीक्षामुख नामक सूत्र ग्रन्थका। श्रवणवेलगोलाके शिलालेख नं० ४० (६४) मे इन्हें शब्दाम्भोरुहभास्कर और प्रथित तर्क ग्रन्थकार बतलाया है। इन्होने शाकटायन व्याकरणपर एक विस्तृत न्यास ग्रन्थ भी रचा था जिसका कुछ भाग उपलब्ध है । इनके गुरुका नाम पद्मनन्दि सैद्धान्तिक था।
वादिराज (ई० स० ११वी शती) वादिराज तार्किक होकर भी उच्चकोटिके कवि थे। षट्तर्क षण्मुख, स्याद्वादविद्यापति और जगदेकमल्लवादी उनकी उपाधिया थी। नगर ताल्लुकाके शिलालेख नं० ३६ में बताया है कि वे सभाम अकलंक थे, प्रतिपादन करनेमें धर्मकीर्ति थे, बोलनेमे बृहस्पति । और न्यायशास्त्रमें अक्षपाद थे। उन्होंने अकलंकदेवके न्याय विनिश्चयपर विद्वत्तापूर्ण विवरण लिखा है जो लगभग बीस हजार श्लोक प्रमाण है। तथा शक सं० ६४७ (ई० सं० १०२५) म पार्श्वनाथचरित रचा जो बहुत ही सरस प्रौढ रचना है। अन्य भी कई अन्य और स्तोत्र इन्होने बनाये है। इनके गुरुका नाम मतिसागर था ___यह तो हुआ कुछ प्रसिद्ध दिगम्बर जैनाचार्योका परिचय अव कुछ श्वेताम्बर जैनाचार्योका परिचय दिया जाता है। आचार्योमें उमास्वामीकी उमास्वाति नामसे तथा । सिद्धसेनदिवाकर नामसे श्वेताम्वर सम्प्रदायमे भी बहुत तिष्ठ है। और वह इनको श्वेताम्बराचार्य रूपसेही मानता है।
__नियुक्तिकार भद्रबाहु भद्रवाहु नामके दो आचार्य हो गये है। यह दूसरे भद्रव विक्रमकी छठी शतीमें हुए है। वे जातिसे ब्राह्मण थे । प्रसि ज्योतिषी वराहमिहिर इनका भाई था। इन्होंने आगमो । नियुक्तियोंकी रचना की तथा अन्य भी अनेक ग्रन्थ बनाये।
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जनधर्म
मल्लवादी यह प्रवल तार्किक थे। आचार्य हेमचन्द्रने अपने व्याकरणमें लिखा है कि सब तार्किक मल्लवादीसे पीछे है। इनका बनाया हुआ नयचक्र ग्रन्थ बहुत महत्त्वपूर्ण है जिसका पूरा नाम द्वादशार नयचत्र है। मूल ग्रन्थ तो उपलब्ध नहीं है किन्तु उसकी सिंह क्षमाश्रमण कृत टीका मिलती है । आचार्य हरिभद्रने अपने 'अनेकान्त जयपताका प्रन्थमे इनका वादिमुख्य करके उल्लेख किया है, अतः इतना निश्चित है कि ये विक्रमकी आठवी शतीसे पहिले हुए है।
जिनभद्रगणि (ई० ६-७वीं शती) जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण एक बहुत ही समर्थ और आगम-कुशल विद्वान थे। इनका विशेषावश्यक भाष्य नामका एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। उसीके कारण भाष्यकार नामसे इनकी ख्याति है। इस ग्रन्यम उन्होने सिद्धसेनके विचारोंका खण्डन भी किया है। विशेषणवती, आदि अन्य भी अनेक ग्रन्थ इनके रचे हुए है। आचार्य हेमचन्द्रने इन्हें उत्कृष्ट व्याख्याता बतलाया है।
हरिभद्र (ई० ७००-७५०) हरिभद्रसूरि श्वेताम्बर सम्प्रदायके वहुमान्य विद्वान् हुए है। इन्होंने संस्कृत और प्राकृतमें अनेक ग्रन्थोकी रचना की है। इनके रचे हुए अन्योमें अनेकान्तवाद प्रवेश, अनेकान्त-जयपताका, ललितविस्तरा, पड्दर्शन समुच्चय, और समराइच्च कहा अति प्रसिद्ध है । अपने प्रकरण ग्रन्थोंमे इन्होने तत्कालीन साधुओंकी खरी आलोचना भी की है।
अभयदेव (ई० ११वी शती) । यह प्रद्युम्नसूरिके शिष्य थे। इन्होने सिद्धसेनके सन्मति-तर्कपर बहुत ही विद्वत्तापूर्ण टीका लिखी है। इस टीकामें सैकड़ो दार्शनिक न्योका निचोड़ भरा हुआ है। संक्षेपमें दिगम्बर परम्परामें अकलंकव, विद्यानन्दि और प्रभाचन्दका जो स्थान है वही स्थान श्वेताम्बर
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जैन साहित्य
२५५ परम्परामें मल्लवादी, हरिभद्र और अभयदेव सूरिका है। छहो विद्वान् दार्शनिक क्षेत्रके जाज्वल्यमान नक्षत्र थे।
। हेमचन्द्र (ई० १३वी शती) विद्वानोमे आचार्य हेमचन्द्रको बहुत ऊंचा स्थान प्राप्त है। गुर्जर . नरेश सिद्धराज जयसिंह उनका पूर्ण भक्त था । उसके नामपर ही
उन्होने अपना सिद्ध हैम व्याकरण वनाया। उसीका एक अध्याय प्राकृत व्याकरण है जो अति प्रसिद्ध है। आचार्यका जन्म स० ११४५ में हुआ। नौ वर्षकी अवस्था मे दीक्षा ली और सं० ११६२ मे आचार्य पद प्राप्त किया। सं० १२२६ मे उनका स्वर्गवास हो गया। न्याय, व्याकरण, कान्य, कोप आदि सभी विषयोपर उन्होने अद्भुत ग्रन्थ लिखे। जयसिंहका उत्तराधिकारी राजा कुमारपाल तो उनका शिष्या ही था।
। यशोविजय (ई. १८वीं शती) श्वेताम्वर परम्परामें हेमचन्द्राचार्यक पश्चात् यशोविजय जैसा सर्वशास्त्रपारंगत दूसरा विद्वान् नहीं हुआ। इन्होने काशीमे विद्याध्ययन किया था और नव्यन्यायके न केवल विद्वान् ही थे किन्तु उसी शैलीमे कई ग्रन्थ भी रचे। उनकी जैन तर्कभाषा, ज्ञान विन्दु, नयरहस्य, नयप्रदीप आदि ग्रन्थ अध्ययन करने योग्य है। इनकी विचारसरणि बहुत ही परिष्कृत और सतुलित थी।
.. जैन कला और पुरातत्त्व जैन परम्पराके अनुसार इस अवसर्पिणी कालमे ह्रास होते होते व भोगभूमिका स्थान कर्मभूमिने ले लिया तो भगवान् ऋषभदेवने निताके योगक्षेमके लिए पुरुषोके बहत्तर कलाओं और स्त्रियोके
सठ गुणोको बतलाया। जैन अंग साहित्यके तेरहवे पर्वमे उनका
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जैनधर्म विस्तृत वर्णन था, वह अव नष्ट हो चुका है। इससे पता लगता है कि पहले कलाका अर्थ वहत व्यापक था। उसमे जीवन-यापनसे लेकर जीव-उद्धार तकके सव सत्प्रयल सम्मिलित थे। कहा भी है
कला वहत्तर पुरुपकी, तामें दो सरदार।
एक जीवकी जीविका, एक जीव-उद्धार ॥ जैन धर्मका तो प्रधान लक्ष्य ही जीव उद्धार है। बल्कि यदि कहा जाय कि जीव उद्धारक लिए किये जाने वाले सत्प्रयत्नोका नाम ही जनधर्म है तो अनुचित न होगा। इसी से आज कलाकी परिभाषा जो सत्य शिवं सुन्दर' की जाती है, अर्थात् जो सत्य है, कल्याणकर है और सुन्दर है वही कला है, वह जैनकलामें सुघटित है, क्योकि जैनधर्मसे सम्बद्ध चित्रकला, मूर्तिकला और स्थापत्यकला, सुन्दर होनेके साथ ही साथ कल्याणकर भी है और सत्यका दर्शन कराती है। नीचे उनका परिचय सक्षेपमें दिया जाता है।
चित्रकला सरगुजा राज्यके अन्तर्गत लक्ष्मणपुरसे १२ मील रामगिरि नामक पहाड है वहाँ पर जोगीमारा गुफा है। गुफाकी चौखट पर बड़े ही सुन्दर चित्र अकित है। ये चित्र ऐतिहासिक दृष्टिसे प्राचीन है तथा जनधर्मस सम्बन्धित है। परन्तु सरक्षणके अभावसे चित्रोंकी हालत खराब हो गयी ह।
पुद्दुकोटे राज्यमें राजधानीसे मील उत्तर एक जैन गुफा मन्दिर है। उसे सितनवासल कहते है। सितनवासल का प्राकृत रूप है सिद्धण्णवास-सिद्धोंका निवास। इसकी भीतोंपर पूर्व-पल्लव राजाओकी शैलीके चित्र है, जो तमिल सस्कृति और साहित्यके महान् सरक्षक प्रसिद्ध कलाकार राजा महेन्द्रवर्माप्रथम (६००-६२५ ई०) के वनवाये हुए है और अत्यन्त सुन्दर होनेके साथ ही साथ सबसे प्राचीन जैन चित्र है। इसमें तो कोई सन्देह नही कि अजताके सर्वोत्कृष्ट चित्रोक साथ 'सितनवासलके चित्रोकी तुलना करना अन्याय होगा। किन्तु ये चित्र
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जैन कला और पुरातत्त्व भी भारतीय चित्रकलाके इतिहासमे गौरवपूर्ण स्थान रखते हैं। इनकी रचना शैली अजंताके भित्तिचित्रोंसे बहुत मिलती जुलती है।। __यहाँ अव दीवारों और छत पर सिर्फ दो चार चित्र ही कुछ अच्छी हालतमे वचे है। इनकी विशेषता यह है कि बहुत थोडी किन्तु स्थिर और दृढ रेखाओमे अत्यन्त सुन्दर आकृतिया बडी होशियारीके साथ लिख दी गयी है जोसजीव सी जान पडती है। गुफामे समवसरणकी सुन्दर रचना: चित्रित है। सारी गुफा कमलोसे अलंकृत है। खम्भोपर नर्तकियोके चित्र हैं। वरामदेकी छतके मध्यभागमे पुष्करिणीका चित्र है। जलमे पशु-पक्षी, जलविहार कर रहे है। चित्रके दाहिनी ओरतीन मनुष्याकृतियाँ आकर्षक
और सुन्दर है। गुफामे पर्यक मुद्रामें स्थित पुरुष प्रमाण अत्यन्त सुन्दर पाँच तीर्थकर मूर्तियाँ है जोमूर्ति-विधान कलाकी अपेक्षासे भी उल्लेखनीय है। वास्तवमें पल्लवकालीन चित्र भारतीय विद्वानोंके लिए अध्ययनकी वस्तु
सितनवासलके वाद जैनधर्मसे सम्बद्ध चित्रकलाके उदाहरण दसवी ग्यारहवी शतीसे लगाकर पंद्रहवी शताब्दी तक मिलते है विद्वानोंका कहना है कि इस मध्यकालीन चित्रकलाके अवशेषोंके लिए: भारत जैन भण्डारोका आभारी है; क्योकि प्रथम तो इस कालमे प्राय एक हजार वर्ष तक जैनधर्म का प्रभाव भारतवर्षके एक बहुत बड़े मागम फैला हुआ था। दूसरे जैनोंने बहुत बड़ी संख्यामें धार्मिक ग्रन्थ ताड़ पत्रोंपर लिखवाये और चित्रित करवाये थे। वि० सं० ११५७ की चित्रित निशीथचूणिकी प्रति आज उपलब्ध है जो जैनाश्रित कलाम अति प्राचीन है। १५वी शतीके पूर्वकी जितनी भी कलात्मक चित्रकृतियाँ मिलती है वे केवल जैन अन्योंमें ही प्राप्य है।
आज तक जो प्राचीन जैन साहित्य उपलब्ध हुआ है उसका बहु भाग ताडपत्रोपर लिखा हुआ मिला है। अत भारतीय पत्रकलाक विकास ताड़पत्रोंपर भी खूब हुआ है । मुनि जिनविजयजीका लिखना है कि चित्रकलाके इतिहास और अध्ययनकी दृष्टिसे ताड़पत्रकी ये सचित्र पुस्तकें बड़ी मूल्यवान् और आकर्षणीय वस्तु है।
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जनधर्म
मद्रास गवर्मेण्ट म्यूजियमसे "Tirupatti Kunram' नामक क मूल्यवान् ग्रन्थ श्री टी० एन० रामचन्द्रन द्वारा लिखित प्रकाशित आ है। इसमें प्रकाशित चित्रोसे दक्षिण भारतकी जैन चित्रकला द्धतिका अच्छा आभास मिलता है। इनमें से अधिकांश चित्र भगवान् हिषभदेव और महावीरकी जीवन घटनाओंपर प्रकाश डालते हैं। निसे उस समयके पहनाव नृत्यकला आदिका परिचय मिलता है।
ताड़पत्रोंको सुरक्षित रखने के लिए काष्ठ-फलकोंका प्रयोग किया नाता था । अत. उनपर भी जनचित्र कलाके सुन्दर नमूने मिलते हैं।
जैन चित्रकलाके सम्बन्धमे चित्रकलाके मान्य विद्वान् श्री एन० सी० महताने जो उद्गार प्रकट किये है वे उसपर प्रकाश डालनके लिए पर्याप्त होंगे। वे लिखते है-जन चित्रोंमें एक प्रकार की निर्मलता, फूर्ति और गतिवेग है, जिससे डा. आनन्दकुमार स्वामी जैसे रसिक वेद्वान् मुग्ध हो जाते है। इन चित्रोंकी परम्परा अजंता, एलोरा, . वाघ, और सितनवासलके भित्तिचित्रोंकी है। समकालीन सभ्यताक अध्ययनके लिए इन चित्रोंसे बहुत कुछ ज्ञानवृद्धि होती है। खासकर पोशाक, सामान्य उपयोगमें आने वाली चीजे आदिके सम्बन्धम अनेक वातें ज्ञात होती है।'
मूर्तिकला जनधर्म निवृत्तिप्रधान धर्म है, अत. प्रारम्भसे लेकर आजतक उतके मूतिविधानमें प्राय. एकही रीतिके दर्शन होते है । ई० स० के आरम्भमें कुशान राज्यकालकी जो जन प्रतिमाएं मिलती है उनमें और सैकड़ों वर्प पीछेकी बनी जन मूर्तियोंमें वाह्य दृष्टिसे थोडा बहुत ही अन्तर है। प्रतिमाके लाक्षणिक अंग लगभग दो हजार वर्पतक एक ही रूपमें कायम रहे है। पद्मासन या खड़गासन मूतियोम लम्बा काल वीत जानेपर भी विशेष भेद नही पाया जाता। जैन तीर्थङ्करकी मूर्ति विरक्त,
१ भारतीय पिमाला पृ० ३३॥
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॥ गया हो
जैन कला और पुरातत्त्व शान्त, और प्रसन्न होती है। उसमे मनुष्यहृदयकी विकृतियोंको स्थान, नहीं होता। इससे जन प्रतिमा उसकी मुखमुद्राके ऊपरसे तुरन्त ही पहचानी जा सकती है। खड़ी मूर्तियोंके सुखपर प्रसन्नता और दोनों हाथ निर्जीव जैसे सीधे लटकते हुए होते है। बैठी हुई प्रतिमा ध्यानमुद्रामे पद्मासनसे विराजमान होती है। दोनों हाथ गोंदीमें सरलतासे स्थापित्र। रहते है। २४ तीर्थड्रोके प्रतिमाविधानमे व्यक्तिभेद न होनेसे ठनक आसनके ऊपर अंकित चिह्नोंसे जुदे जुदे तीर्थङ्करोंकी प्रतिमा पहचानी जाती है। दिगम्बर और श्वेताम्बर मूर्तियोंमे भेद और उसके कारणकी, चर्चा इसी पुस्तकके 'संघभेद' शीर्षकमे की गयी है। __ मध्यकालीन जैन मूर्तियोमे बौद्ध प्रथाके समान कपालपर ऊर्णा और मस्तकपर उष्णीष तथा वक्षस्थलपर श्रीवत्सका चिह्न भी अंकित होने लगा। किन्तु जैन मूर्तियोंकी लाक्षणिक रचनामें कोई परिवर्तन नहीं हुआ। __ वर्तमानमें सबसे प्राचीन जैन मूर्ति पटनाके लोहनीपुर स्थानसे प्राप्त हुई है। यह मूर्ति नियमसे मौर्य कालकी ह और पटना म्युजियममे रखी हुई है। इसका चमकदार पालिस अभी तक भी ज्योंका त्यो; बना है। लाहोर, मथुरा, लखनऊ, प्रयाग आदिके म्यूजियमोंमे भी अनेक जैन मूर्तियाँ मौजूद है। इनमें से कुछ गुप्तकालीन है। श्री वासुदेव उपाध्यायने लिखा है-मथुरामे २४वे तीर्थङ्कर वर्धमान महावीरकी एक मूर्ति मिली है जो कुमारगुप्तके समयमें तैयार की गयी थी। वास्तवमें मथुरामें जैन मूर्तिकलाको दृष्टिसे भी बहुत काम हुआ है। श्री राय कृष्णदासने लिखा है कि मथुराकी शुंगकालीन कला मुख्यत. जैन सम्प्रदायकी है। ___खण्डगिरि और उदयगिरिमें ई० पू० १८८-३० तककी शंगकालीन मूर्तिशिल्पके अद्भुत चातुर्यके दर्शन होते है । वहाँपर इस कालकी कटी हुई सौके लगभग जैन गुफाएं है जिनमें मतिशिल्प भी है। दक्षिण भारतके अलगामल नामक स्थानमें खुदाईसे जो जैन मूर्तियां
१-भारतीय मुर्तिकला पृ० ५९।
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जैनधर्म 'देसकर कलाके पारखी मुग्ध हो जाते है। दक्षिणमें जहां बोद्ध धर्मक स्थापत्यके इन गिने अवशेष है वहां जैन धर्मके प्राचीन स्थापत्यक बहुतसे उदाहरण आज भी उपलब्ध है। इनमें प्रमुख है एलोराकी इन्द्रसभा और जगन्नाथ सभा। सभवत. इनकी सुदाई चालुक्योंकी वादामी शाखा या राष्टकटोक तत्त्वावधानमें हुई होगी, क्योकि वादामीमें भी इसी । तरहकी एक जैन गुफा है जो सातवी गतीकी मानी जाती है।
दक्षिणमें जैन मन्दिरों और मूर्तियोकी बहुतायत है। श्रवण'बेलगोला (मैसूर) में गोमट्टस्वामीकी प्रसिद्ध जैन मूर्ति है जो स्थापत्य कलाकी दृष्टिले अपूर्व है। वहाँ अनेक जैन मन्दिर है जो वेडियन शैलीके है। कनाडा जिलेमें अथवा तुल प्रदेशमें जैन मन्दिरोकी बहुतायत है किन्तु उनकी शैलीन दक्षिण भारतकी द्रडियन शैलीसे ही मिलती ह और न उत्तर भारतकी शैलीसे। मुडविद्रीके मन्दिरोंमें लकड़ीका उपयोग अधिक पाया जाता है और उसकी नक्काशी दर्शनीय है। साराग 'यह कि भारतवर्षका शायद ही कोई कोना ऐसा हो जहाँ जन पुरातत्त्वक "अवशेष न पाये जाते हों। जहाँ आज जनोका निवास नहीं है वहां भी जैन कलाके सुन्दर नमूने पाये जाते है।
इसीसे प्रसिद्ध चित्रकार श्रीयुत रविशकर रावलका कहना ई-भारतीय कलाका अभ्यासी जैनधर्मकी जरा भी उपेक्षा नहीं कर सकता। मुझे जैनधर्म कलाका महान् आश्रयदाता, उद्धारक और वसंरक्षक प्रतीत होता है। र स्व० के०पी० जायसवालने जैनधर्मसे सम्बद्ध वास्तुकलाके विषयमे
एक नामक बात कही है। जैन और बौद्ध मन्दिरोपर अप्सराको आदि, की मूर्तिको लेकर उन्होने लिखा है-'अब प्रश्न यह है कि बौद्धो और
नोको ये अप्सराएँ कहां से मिली x x x मेरा उत्तर यह है कि "उन्होने ये सब चीजें सनातनी हिन्दू (वैदिक) इमारतोसे से ली है।
१-अन्धकार युगीन भारत, पृ० ९५-९६ ।
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जैन कला और पुरातत्त्व
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भारतीय कलाको इस तरह फिर्को बांटनेके सम्बन्धमें व्युहलरका मत उल्लेखनीय है जो उन्होने मथुरासे प्राप्त पुरातत्त्वसे शिक्षा ग्रहण करके निर्धारित किया था। उनका कहना है - ' मथुरासे प्राप्त खोजोने मुझे यह पाठ पढाया है कि भारतीय कला साम्प्रदायिक नही है । बौद्ध, जैन और ब्राह्मण धर्मोने अपने-अपने समयकी और देशकी ' कलाओं का उपयोग किया है। उन्होंने कलाके क्षेत्रमे प्रतीकों और रूढिगत रीतियों को एक ही स्रोतसे लिया है । चाहे स्तूप हों, या वि वृक्ष या चक्र या और कुछ हो, ये सभी धार्मिक या कलात्मक तत्व रूपमें जैन, बौद्ध और सनातनी हिन्दू सभीके लिए समान सुलभ है ।'
उनके इस मतकी पुष्टि विसेण्ट स्मिथने अपनी पुस्तक 'दी जैन स्तूप एण्ड अदर एन्टीक्वीटीस आफ मथुरा मे की है ।
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इस तरह प्राचीन मन्दिरों, मूर्तियों, शिलालेखों, गुफाओ और ताम्रपत्रोंक रूपमे आज भी जैन पुरातत्त्व यत्र तत्र पाया जाता है श्री बहुत सा समय के प्रवाहमे नष्ट हो गया तथा नष्ट कर दिया गया मि० फर्ग्युसनका कहना है कि बारह खम्भोंके गुम्बजोंका जैनोमे बहुत चलन रहा है। इस तरहका गुम्बज एक तो भेलसामे निर्मित समान पाया जाता है जो सम्भवत. ४ थी शती का है। दूसरा बाघकी महा. गुफा है जो छठी या सातवी शतीका है । इस तरहके गुम्बज खोज पर और भी मिल सकते थे । किन्तु इन गुम्बजों के पतले और शानदा स्तम्भोंको मुसलमानोने अपने कामका पाया; क्योंकि वे बड़ी सरलता से फिरसे बैठाये जा सकते थे । इसलिए उन्हें बिना नष्ट किये ही........ मानोंने अपने काम में ले लिया । मि० 'फर्ग्युसनका कहना है । अजमेर, देहली, कन्नोज, घार और अहमदाबादकी विशाल मस्जि जनोके मन्दिरोसे ही पुन निर्मित की गयी है ।
गुजरातके प्रसिद्ध सोमनाथके मन्दिरको कौन नही जानता 1 History of Indian and Eastern Architecture. P. 20
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जैनधर्म
→ १०२५ मे महमूद गजनीने इसे तोडा था । इस मन्दिर की निर्माण की गिरनार पर्वत पर स्थित श्री नेमिनाथके जैन मन्दिरसे मिलतीती हुई है। मि० फर्ग्युसनका कहना है कि जब मुसलमानोने इस न्दिरपर आक्रमण किया उस समय वह सोमेश्वरका मन्दिर कहा ता था। सोमेश्वर नामसे ही शिव मान लिया गया। यदि वह न्दिर शिवका था तो उसमें अवश्य ही गिर्वालंग प्रतिष्ठित होना हिये । किन्तु मुसलिम इतिहास लेखकोंका कहना है कि मूर्तिके र हाथ पैर और पेट था । ऐसी स्थितिमे वह मूर्ति शिवलिंग न होकर ष्णुकी या किसी जैन तीर्थङ्करकी होनी चाहिये । उस समय गुजरातमें ष्णवधर्मका नामोनिशान भी देखने को नही मिलता । तथा मुसल
के बाद उस मन्दिरका जीर्णोद्वार राजा भीमदेव, सिद्धराज और मारपालने कराया, जो सव जैन थे । इन सव वातोंपरसे फर्ग्यूसन To ने यह निष्कर्ष निकाला है कि सोमनाथका मन्दिर जैन मन्दिर था ।
कलाकी तरह पुरातत्त्व शब्दका अर्थ भी बहुत व्यापक है । इतिउस आदिके निर्माण में जिन साघनोकी आवश्यकता होती है वे सभी तत्त्वमें गति है । अत प्राचीन मन्दिरों, मूतियों, गुफाओं और तम्भोंकी तरह प्राचीन शिलालेखो और शास्त्रोको भी पुरातत्वमें अम्मिलित किया जा सकता है।
श्रवणबेलगोला (मैसूर) में बहुतसे शिलालेख अंकित है । मैसूर तत्त्व विभाग तत्कालीन अधिकारी लूइस राइस साहवने श्रवण"लगोलाके १४४ शिलालेखोका मग्रह प्रकाशित किया था। इसकी [मिकामें उन्होने इन लेखो के ऐतिहासिक महत्त्वकी ओर विद्वानोका यान आकर्षित किया और चन्द्रगुप्त मौर्य तथा भद्रवाहुके पारस्परिक Forest विवेचन कर उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि सम्राट इन्द्रगुप्त मौर्य ने भद्रवाहमे जिनदीक्षा ली थी तथा शि० लेस न० १ या स्मारक है।
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उपग्रहका दूसरा सत्वरण रावबहादूर आर० नरसिहाचार्यने
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जैन कला और पुरातत्त्व रचकर प्रकाशित किया। इसमे उन्होंने ५०० शिलालेखोंका संग्रह किया है व भूमिकामें उनके ऐतिहासिक महत्त्वका विवेचन किया है। किन्तु ये संग्रह कनडी व रोमन लिपिमें है अत उक्त लेखोंका एक देवनागरी संस्करण प्रो० हीरालाल तथा श्रीविजयमूर्तिसे सम्पादित कराके श्री नाथूरामजी प्रेमीने प्रकाशित किया है। इसी तरह आबू देवगढ़ ! आदिमे भी अनेक शिलालेख मूर्तिलेख वगैरह पाये जाते है। भारतीय ! इतिहासके लिए अत्यन्त महत्त्वपूर्ण खण्डगिरि उदयगिरिसे प्राप्त जैन शिलालेखकी चर्चा पहले की जा चुकी है।
इस तरह जैनोंने बहुसंख्यक शिलालेखो, प्रतिमालेखो, ताम्रपत्रों, ग्रन्थ प्रशस्तियों, पुष्पिकाओं, पट्टावलियों, गुर्वावलियों, राजवशाव-' लियों और ग्रन्योंके रूपमे विपुल ऐतिहासिक सामग्री प्रदान की है।
स्व० वैरिस्टर श्री का० प्र० जायसवालने अपने एक लेखमे। लिखा था-जनोंके यहाँ कोई २५०० वर्षकी सवत् गणनाका हिसाब हिन्दुओं भरमे सबसे अच्छा है। उससे विदित होता है कि पुराने समयमें ऐतिहासिक परिपाटीकी वर्षगणना हमारे देशमें थी। जब वह और जगह लुप्त और नष्ट हो गयी, तब केवल जैनोंमे बच रही। जैनोकी गणनाके आधारपर हमने पौराणिक और ऐतिहासिक बहुत-सी घटनामोको जो वुद्ध और महावीरके समयसे इधर की है, समयबद्ध किया और देखा कि उनका ठीक मिलान सुज्ञात गणनासे मिल जाता है। कई एक ऐतिहासिक वातोका पताजनोकी ऐतिहासिक लेख पट्टावलियोमे ही मिलता है
१ जैन साहित्य संशोधक, ख १, पृ० २११ ।
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६-सामाजिक रूप
१ जनसंघ मुनि आयिका और श्रावक श्राविका, इनके समुदायको जनसघ कहते है । मुनि और आर्यिका गृहत्यागी वर्ग है और श्रावक श्राविका गृही वर्ग है। जनसंघमे ये दोनो वर्ग बरावर रहते है। जब ये वर्ग नही रहेंगे तो जनसंघ भी नहीं रहेगा, और जव जनसंघ नहीं रहेगा तव जैनधर्म भी न रहेगा।
यद्यपि ये दोनों वर्ग जुदे-जुद है, फिर भी परस्परमे इन दोनोंका ऐसा गठवन्धन बनाये रखनेका प्रयत्ल किया गया है कि दोनों एक
सरेसे जुदे नही हो सकते और दोनोका परस्परमें एक दूसरेपर नयंत्रण या प्रभाव जैसा कुछ बना रहता है। हिन्दूधर्मके साधुसन्तोपर से उनके गृहस्थोंका कुछ भी अंकुश नही रहता, वैसी बात जनसंघम ही है। यहाँ शीलभ्रष्ट और कदाचारी साधुओंपर वरावर निगाह खी जाती है और किसीकी स्वच्छन्दता अधिक दिनों तक नहीं चल ती। आज तो सघव्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गयी है और साधुओम नियमनका अभाव हो गया है, किन्तु पहले यह बात न थी। पहले चार्यकी स्वीकृति और अनुज्ञाके बिना कोई साधु अकेला विहार नहीं र सकता था। और अकेले विहार करनेकी आज्ञा उसे ही दी जाती । जिसे चिरकालके सहवाससे परख लिया जाता था। मुनि दीक्षा । हरेकको नहीं दी जाती थी। पहले उसे संघमे रखकर परखा जाता
और यह जाननेका प्रवल किया जाता था कि वह किसी गार्हस्थिक, जकीय या अन्य किसी कारणसे घर छोड़कर तो नही भागा है। द उतके चित्तम वस्तुत वैराग्यभावना प्रवल होती थी तो उसे सर्व के नमक्ष जिनदीक्षा दी जाती थी। सासंघमें एक प्रधान आचाय
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सामाजिक रूप
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होते थे और कुछ अवान्तर आचार्य होते थे । वे सब मिलकर संघका नियमन करते थे । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय और ध्यानकी ओर साधुवर्गका खास तौर से ध्यान दिलाया जाता था । प्रत्येक साधुके लिए यह आवश्यक था कि वह अपने अपराधोंकी आलोचना आचार्यके सन्मुख करे और आचार्य जो प्रायश्चित्त दे उसे सादर स्वीकार । करे । प्रतिदिन प्रत्येक साधु प्रात काल उठकर अपने से बडों को नमस्कार ! करता था और जो रोगी या असमर्थ साधु होते थे उनकी सेवा-शुश्रूषा करता था । इस सेवा-शुश्रूषा या वैयावृत्यका जैनशास्त्रोमे बडा महत्त्व बतलाया है और इसे आभ्यन्तर तप कहा है । इसी प्रकार आयिकाओकी भी व्यवस्था थी। दोनोंका रहना वगैरह विल्कुल जुदा होता था । किसी साघुको आर्यिकासे या आर्यिकाको साघुसे एकान्त में ' बातचीत करनेकी सख्त मनाई थी, और निश्चित दूरीपर बैठनेका, आदेश था ।
साधुवर्ग राजकाजसे कोई सरोकार नही रख सकता था । साघुके जो दस कल्प- अवश्य करने योग्य आचार बतलाये है उनमे साधुके लिए राजपिण्ड - राजाका भोजन ग्रहण न करना भी एक आचार है । राजपिण्ड ग्रहण करनेमें अनेक दोष बतलाये है ।
हिन्दू धर्म में धार्मिक क्रियाकाण्ड और धार्मिक शास्त्रोके अध्ययन अध्यापनके लिये एक वर्ग ही जुदा होनेसे हिन्दू धर्मके अनुयायी हत्य अपने धर्मके ज्ञानसे तो एक तरहसे शून्यसे ही हो गये और आचारमे भी केवल ऊपरी बातोंतक ही रह गये । किन्तु जैनधर्ममे ऐसा कोई वग न होनेसे और शास्त्र स्वाध्याय 'तथा व्यक्तिगत सदाचरणपर जोर होनेसे सव श्रावक और श्राविकाएं जैनधर्मके ज्ञान और आचरणसे वंचित नही हो सके । फलतः साघु और आर्यिकाओं के आचारमें कुछ भी त्रुटि होनेपर वे उसको झट आँक लेते थे । ऐसा लगता है कि दिगम्बर सम्प्रदाय में भट्टारकयुगमे मुनियोमे गिथिलाचार कुछ वढ चला था और लोगों मुनियोकी ओरसे यहांतक अरुचि सी हो चली थी कि
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पनवर्म, श्रावक उन्हे भोजन भी नहीं देते थे। अत उस समयके सोमदेव सरि पौरपं० आशाघरजीको अपने अपने श्रावकाचारमे गृहस्थोंकी इस कड़ाई का विरोध करना पड़ा था। सोमदेवसूरि लिखते है
"भुक्तिमात्रप्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम्।
ते सन्त. सन्त्वसन्तो वा गृही दानेन शुद्धयति ।" यशस्तिलक । अर्थात्-~-"आहारमात्र देनेमे मनियोकी क्या परीक्षा करते हो? वे सज्जन हों या असज्जन हों, गृहस्थ तो दान देनेसे शुद्ध होता ही है। पं० आशापरजी लिखते है
"विन्यस्यदयुगीनेषु . प्रतिमासु जिनानिव ।
भक्त्या पूर्वमुनीनत् कुतः श्रेयोऽविचचिनाम् ॥६४॥" सागारधर्मा० । अर्थात्-"जैसे प्रतिमाओंमें तीर्थड्रोकी स्थापना करके उन्हें पूजते है वैसे ही इस युगके साघुओंमे प्राचीन मुनियोंकी स्थापना करक भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करना चाहिये । जो लोग ज्यादा क्षोदक्षेम करते है उनका कल्याण कैसे हो सकता है?"
गृहस्थोकी इस जागरूकताके फलस्वरूप ही जैनधर्ममें अनाचारकी वृद्धि नहीं हो सकी और न उसे प्रोत्साहन ही मिल सका । जेन गृहस्थोंमें सदासे शास्त्रमर्मज विद्वान् होते आये है। जिन विद्वानोन वड़े बड़े ग्रन्थोंकी हिन्दी टीकाएं की है वे सभी जैन गृहस्थ थे। उन्होंने अपने सम्प्रदायमे फलनेवाले शिथिलाचारका भी डटकर विरोध किया था, जिसके फलस्वरूप एक नया सम्प्रदाय बन गया और शिथिलाचारके सर्जकोका लोप ही हो गया।
जैनसंघमें स्त्रियोंको भी बादरणीय स्थान प्राप्त था। दिगम्वर 'सम्प्रदाय यद्यपि स्त्री-मुक्ति नही मानता फिर भी आर्यिका और श्राविकाओंका वरावर सन्मान करता है और उन्हें बहुत ही आदर और श्रद्धाकी दृष्टिसे देखता है। जनसंघमें विधवाको जो अधिकार प्राप्त है वे हिन्दूधर्ममें नही है। जैन सिद्धान्तके अनुसार पुत्ररहित विधवा
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सामाजिक रूप स्त्री अपने पतिकी तरफसे सम्पत्तिकी मालकिन हो सकती है, अपने मृत पति तथा उसके उत्तराधिकारियोकी सम्मतिके विना दत्तक ले सकती है।
जैनसंघमे चारो वर्णके लोग सम्मिलित हो सकते थे। शूद्रको भी धर्मसेवनका अधिकार था। जैसा कि लिखा है'शुद्रोऽप्युपस्कराचारवपुशुद्धयास्तु तादृशः । जात्या हीनोऽपि कालादिलब्धौ ह्यात्माऽस्ति धर्मभाक् ॥२२॥' सागारधर्माः ।
अर्थात्-'उपकरण, आचार और शरीरकी शुद्धि होनेसे शूद्र भी, जैनधर्मका अधिकारी हो सकता है। क्योकि काललब्धि आदिके मिलनेपर जातिसे हीन आत्मा भी धर्मका अधिकारी होता है।'
किन्तु मुनिदीक्षाके योग्य तीन ही वर्ण माने गये है। किसी 'किसी आचार्यने तीनों वर्णोको परस्परमें विवाह और खानपान करने की भी अनुज्ञा दी है। यह वात जैनसंघकी विशेषताको वतलाती है। कि अहिंसा अणुनतका पालन करनेवालोंमें जैनशास्त्रोंमे यमपाल चण्डालका नाम बड़े आदरसे लिया गया है। स्वामी समन्तभद्रने तो, यहाँतक लिखा है
"सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् ।
देवा देव विदुर्भस्मगूढाजारान्तरोजसम् ॥२८॥" रत्नकरड श्रा०।' अर्थात्---"सम्यग्दर्शनसे युक्त चाण्डालको भी जिनेन्द्रदेव राखसे ढक हुए अङ्गारके समान (अन्तरंगमे दीप्तिसे युक्त) देव मानते है।
जैनसघकी एक दूसरी उल्लेखनीय विशेषता यह है कि प्रत्येक जैनको अपने साधर्मी भाईके प्रति वैसा ही स्नेह रखनेकी हिदायत है जैसा स्नेह गो अपने बच्चेसे रखती है। तथा यदि कोई साधर्मी किस कारणवश धर्मसे च्युत होता था तो जिस उपायसे भी बने उस उपायसे उसे च्युत न होने देनेका प्रयत्न किया जाता था और यह सम्यक्त्वक
१. 'परस्पर विवर्णानां विवाह. पक्तिभोजनम्'। यशस्तिलक
कि अहिंसा अगा। यह बात जनसंघाबाह और खानपान कर
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जैनधर्म आठ अंगोमें से था। साथ ही साथ किसी भी साधर्मीका अपमान न करनेकी सख्त आज्ञा थी, जैसा कि लिखा है
"स्मयेन योज्यानत्येति धर्मस्थान् गविताशयः ।। सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धामिर्कविना ॥२६॥" रत्नकरड था
'जो व्यक्ति घमंडमे आकर अन्य धर्मात्माओंका अपमान करता है वह अपने धर्मका अपमान करता है, क्योकि धार्मिकोके विना धर्म नहीं रहता।' __इस तरह जनसंघकी विशालता, उदारता और उसकी संगठन शक्तिन किसी समय उसे बडा वल दिया था और उसीका यह फल है कि बौद्धधर्मके अपने देशसे लुप्त हो जानेपर भी जैनधर्म बना रहा और अवतक कायम है। किन्तु अब वे वाते नहीं रही। लोगो साधीवात्सल्य लुप्त होता जाता है। अहंकार बढता जाता है। और किसीपर किसीका नियंत्रण नहीं रहा है। इसीलिए वह संगठन भी बव शिथिल होता जाता है।
२ संघभेद जैन तीर्थङ्करोंने धर्मका उपदेश किसी सम्प्रदायविशेषकी दृष्टिते नही किया था। उन्होने तो जिस मार्गपर चलकर स्वयं स्थायी सुख प्राप्त किया, जनताके कल्याणके लिये ही उसका प्रतिपादन किया। उनके उपदेशके सम्बन्धमें लिखा है
"अनात्मापं विना राग शास्त्रा शास्ति सतो हितम् । ध्वनन् पिल्पिकरस्पन्मुिरज. किमपेक्षते ॥८॥" रत्नकरट प्रा०।
अर्यात-'तीर्थदुर विना किसी रागके दूसरों के हितका उपदेश देते है। गिल्पीके हाथके स्पर्शसे शन्द करनेवाला मृदङ्ग क्या कुछ अपेक्षा करता है।' • अर्थात् जने मिल्पीया हाप पटते ही मदनसे ध्वनि निकलती है
मे ही श्रोताओको हितकामनासे प्रेरित होकर वीतरागके द्वारा हितो. राग दिया जाता है। सीलिए उनका उपदेश किसी वर्गविशेष या
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सामाजिक रूप
२७१ जातिविशेषके लिए न होकर प्राणिमात्रके लिए होता है। उसे सुननेके लिए मनुष्य देव, स्त्री पुरुष, पशु-पक्षी सभी आते है। और अपनी अपनी रुचि , श्रद्धा और शक्तिके अनुसार हितकी वात लेकर चले जाते. है। किन्तु जो लोग उनकी बातोको स्वीकार करते है और जो स्वीकार, नही करते, वे दोनों परस्परमें बँट जाते है और इस तरहसे सम्प्रदाय कायम हो जाता है। ___भगवान् महावीरसे ढाई सौ वर्ष पहले भगवान् पार्श्वनाथ हो चुके थे। भगवान् महावीरके समयमे भी उनके अनुयायी मौजूद थे। उन्हीमे से भगवान् महावीरके माता-पिता थे। भगवान् महावीरने भी उसी मार्गपर चलकर तीर्थङ्कर पद प्राप्त किया और उसी मार्गका उपदेश किया। इस तरहसे उनके समयमें समस्त जैनसंघ अभिन्न था। और आगे भी अभिन्न रहा । किन्तु श्रुतकेवली भद्रबाहुर्के समयमे मगधर्म जो भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा, उसने संघभेदको जन्म दिया। ____दिगम्बरोंकी मान्यताके अनुसार सम्राट् चन्द्रगुप्तके समयमें बारह वर्षका भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। उस समय जैन साधुओंकी संख्या, बहुत ज्यादा थी। सवको भिक्षा नही मिल सकती थी। इस कारण बहुतसे निष्ठावान् दृढ़वती साधु श्रुतकेवली भद्रवाहुके साथ दक्षिण भारतको चले गये और शेष स्थूलभद्रके साथ वही रह गये। स्थूलभद्रके आधिपत्यमे रहनेवाले साधुओंने सामयिक परिस्थितियोंसे पीडित होकर वस्त्र, पात्र, दण्ड वगैरह उपधियोंको स्वीकार कर लिया। जब दक्षिणको गया साधुसंघ लौटकर आया और उसने वहाँके साधुओंको वस्त्र, पात्र वगैरहके साथ पाया तो उन्होने उनको समझाया। मगर' वे माने नही, फलत. संघभेद हो गया। नग्नताके पोषक साधु दिगम्बर कहलाये और वस्त्र-पात्रके पोषक साघु श्वेताम्बर कहलाये।
श्वेताम्बरोंकी मान्यताके अनुसार मगधमे दुर्मिक्ष पड़नेपर भद्रबाहु स्वामी नेपालकी ओर चले गये थे। जव दुर्भिक्ष हटा और पाटलीपुत्रम बारह अगोंका संकलन करनेका आयोजन किया गया तो भद्रबाहु
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जैनधर्म
उसमे सम्मिलित नहीं हो सके । फलत भद्रवाह और संघके साथ कुछ खीचातानी भी हो गयी जिसका वर्णन आचार्य हेमचन्द्र ने अपने परिशिष्ट पर्वमे किया है । इसी घटनाको लक्ष्यमें रखकर डा० हर्मन जेकोबीने जैनसूत्रोंकी, अपनी प्रस्तावनायें लिखा है
'पाटलीपुत्र में भद्रवाहकी अनुपस्थितिमें ग्यारह अंग एकत्र किये थे । दिगम्वर और श्वेताम्बर दोनों ही भद्रवाहको अपना आचार्य मानते हैं । ऐसा होनेपर भी श्वेताम्बर अपने स्थविरोंकी पट्टावली भद्रबाहुके नामसे प्रारम्भ नही करते किन्तु उनके समकालीन स्थविर सम्भूतिविजयके नामसे शुरू करते है । इससे यह फलित होता है कि पाटलीपुत्रमें एकत्र किये गये अंग केबल श्वेताम्बरोंके ही माने गये, समस्त जैनसंघ के नही ।
इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि संघभेदका बीजारोपण उक्त समयमें ही हो गया था ।
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वेताम्बर साहित्य के अनुसार प्रथम जिन श्री ऋषभदेवने और अन्तिम जिन श्रीमहावीरने तो अचेलक धर्मका ही उपदेश दिया । किन्तु वीचके बाईस तीर्थरोंने सचेल और अचेल दोनों धर्मोका उपदेश दिया। जैसा कि पञ्चाशकमें लिखा है
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'आचेलक्को धम्मो पुरिमस्स व पच्छिमल्स य जिणल्त । मज्झिमाण जिणाण होइ सचेलो अचेलो व ॥१२शा' और इसका कारण यह वतलाया है कि प्रथम और अन्तिम जिनके समयके साबु वक्रजड़ होते थे-- जिस तिस वहानेसे त्याज्य वस्तुओंका भी सेवन कर लेते थे । अत उन्होंने स्पष्टरूपसे अचेलक अर्थात् वस्त्ररहित धर्मका उपदेश दिया । इसके अनुसार पार्श्वनाथके समय के साबु सवन्न रहते थे और उनके महावोरके संघमें मिल जानेपर बागे चलकर शिथिलाचारको प्रोत्साहन मिला और वेताम्बर सम्प्रदायको सृष्टि हुई। ऐसा कुछ विद्वानोंका मत है। श्वेताम्बर विद्वान् पं० वेचरदामजीने लिखा है
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'श्रीपार्श्वनाथ और श्रीवर्धमानके शिष्योंके २५० वर्षके दरम्यान किसी भी समय पार्श्वनाथके सन्तानीयोपर उस समयके आचारहीन ब्राह्मण गुरुओका असर पड़ा हो और इसी कारण उन्होंने अपने आचारोमे से कठिनता निकालकर विशेष नरम और सुकर आचार बना दिये हों यह विशेष सभावित है । x x x पार्श्वनाथके बाद दीर्घ तपस्वी वर्धमान हुए । उन्होने अपना आचरण इतना कठिन और दुस्सह रक्खा कि जहाँतक मेरा ख्याल है इस तरहका कठिन आचरण अन्य किसी धर्माचार्यने आचरित किया हो ऐसा उल्लेख आजतकके इतिहासमें नहीं मिलता । x x x वर्धमानका निर्वाण होनेसे परमत्याग मार्गके चक्रवर्तीका तिरोधान हो गया और ऐसा होनेसे उनके त्यागी निर्ग्रन्थ निर्नायकसे हो गये । तथापि में मानता हूँ कि वर्धमानके प्रतापसे उनके वादकी दो पीढियोंतक श्रीवर्धमानका वह कठिन त्यागमार्ग ठीकरूपसे चलता रहा था । यद्यपि जिन सुखशीलियोंने उस त्यागमार्गको स्वीकारा था उनके लिए कुछ छूटें रखी गयी थी और उन्हें ऋजुप्राज्ञके सम्बोधनसे प्रसन्न रखा गया था । तथापि मेरी धारणा में जब वे उस कठिनताको सहन करनेमें असमर्थ निकले, और श्रीवर्धमान, सुघर्मा और जम्बू जैसे समर्थ त्यागीकी छायामें वे ऐसे दब गये थे कि किसी भी प्रकारकी ची पटाक किये बिना यथा तथा थोड़ी सी छूट लकर भी वर्धमानके मार्गका अनुसरण करते थे । परन्तु इस समय वर्धमान, सुधर्मा या जम्बू कोई भी प्रतापी पुरुष विद्यमान न होनेसे उन्होने शीघ्र ही यह कह डाला कि जिनेश्वरका आचार जिनेश्वरके निर्वाणके साथ ही निर्वाणको प्राप्त हो गया। x x मेरी मान्यतानुसार संक्रान्तिकालमे ही श्वेताम्बरता और दिगम्बरताका बीजारोपण हुआ है और जम्वू स्वामी के निर्वाणके बाद इसका खूब पोषण होता रहा है। यह विशेष संभवित है । यह हकीकत मेरी निरी कल्पनामात्र नही है किन्तु वर्तमान ग्रन्थ भी इसे प्रमाणित करनेके सवल प्रमाण दे रहे है । विद्यमान सूत्रग्रन्थों एवं कितनेक ग्रन्थोमे प्रसङ्गोपात्त यही
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जैनधर्म वतलाया गया है कि 'जम्बू स्वामी के निर्वाणके बाद निम्नलिखित दस बाते विच्छिन्न हो गयी है-मन पर्ययज्ञान, परमावधिज्ञान, पुलाकलन्धि,
हारक शरीर, क्षपकणि, उपशमश्रेणी, जिनकल्प, तीन सयम, केवल नि और दसवां सिद्धिगमन ।' इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है क जम्बू स्वामीके बाद जिनकल्पका लोप हुआ बतलाकर अवसे जिन-. ल्पके आचरणको बन्द करना और उस प्रकारका आचरण करनेवालोंका' त्सिाह या वैराग्य भंग करना, इसके सिवा इस उल्लेखमे अन्य कोई द्देश मुझे मालूम नहीं देता।xx जम्ब स्वामी निर्वाणके वाद जो जनकल्प विच्छेद होनेका वज्रलेप किया गया है और उसकी आचरणा करनेवालोको जिनाज्ञा वाहर समझनेकी जो स्वार्थी एवं एकतरफी दम्मी
मकीका दिढोरा पीटा गया है बस इसीमें श्वेताम्बरता और दिगम्वरताके विषवृक्षको जड समायी हुई है।" ___ यद्यपि दिगम्बर सम्प्रदाय यह नहीं मानता कि बीचके २२ तीर्थदरोंने सचेल और अचेल धर्मका निरूपण किया था। वह तो सव तीर्थङ्करोंके द्वारा अचेल मार्गका ही प्रतिपादन होना मानता है । फिर भी पं० वचरदासजीके उक्त विवेचनसे संघभेदके मूलकारणपर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।
श्वेताम्वर साहित्यमें दिगम्वरोकी उत्पत्तिके विषयमें एक कया मिलती है जिसका आशय इस प्रकार है-"रथवीरपुरमें शिवभूति नामका एक क्षत्रिय रहता था। उसने अपने राजाके लिए अनेक युद्ध जीते थे इसलिए राजा उसका खूब सन्मान करता था। इससे वह बडा घमण्डी हो गया था। एक वार शिवभति वहुत रात गये घर लोटा। माँ ने फटकारा मोर द्वार नहीं खोला । तव वह एक मठमें पहुंचा और साधु हो गया। जव राजाको इस वातकी खबर मिली तो उसने उसे एक बहुमुल्य वस्त्र भेट किया। आचार्यने उस वस्त्रको लोटा देनको । आज्ञा दी। किन्तु शिवभूतिने नहीं लौटाया। तव आचार्यने उस वस्त्र र १. जनसाहित्यमें विकार पृ० ८७-१०५॥
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के टुकडे करके उनके आसन बना डाले। इसपर शिवभूति खूब क्रोधित हुआ और उसने प्रकट किया कि महावीरकी तरह में भी वस्त्र नही पहरूंगा । ऐसा कह उसने सव वस्त्रोंका त्याग कर दिया। उसकी वहिनने भी उसका अनुकरण किया। स्त्रियोंको नग्न न रहना चाहिये ऐसा मत शिवभूतिने तव जाहिर किया । और यह भी जाहिर किया कि स्त्री मोक्ष नहीं जा सकती । इस तरह महावीर निर्वाणके ६०१ वर्ष वाद बोटिकोंकी उत्पत्ति हुई और उनमेंसे दिगम्बर सम्प्रदाय उत्पन्न हुआ।" -
दिगम्बर सम्प्रदायकी मान्यताके अनुसार भी श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति विक्रम राजाको मृत्युके १३६ वे वर्षमें हुई है। दोनोमें सिर्फ ३ वर्षका अन्तर होनेसे दोनोंकी उत्पत्तिका काल तो लगभग एक ही ठहरता है। रह जाती है कथाकी बात । सो महावीरके द्वारा प्रतिपादित और आचरित दिगम्बरधर्म उनके वाद एक दम लुप्त हो जाय
और फिर एक क्रुद्ध साधुके नंगे हो जाने मात्रसे चल पडे और इतने विस्तृत और स्थायी रूपमें फैल जाय। यह सव कल्पनाकी वस्तु हो सकती है कन्तु वास्तविकता इससे दूर है । जो श्वेताम्बर विद्वान इस कथाको ठीक समझते है वे भी इस बातको मानते है कि पहले साधु नग्न रहते थे फिर धीरे-धीरे परिग्रह वढा। ____उदाहरणके लिए श्वेताम्बर मुनि कल्याण विजयजीके शब्द ही हम यहाँ उद्धृत करते है
"आर्यरक्षितके स्वर्गवासके वाद धीरे-धीरे साधुओंका निवास वस्तियोमे होने लगा और इसके साथ ही नग्नताका भी अन्त होता गया। पहले वस्तीमें जाते समय बहुधा कटिबन्धका उपयोग होता था। वह वस्तीमे वसनेके वाद निरन्तर होने लगा। धीरे धीरे कटि वस्त्रका भी आकार प्रकार वदलता गया। पहले मात्र शरीरका गुह्य अंग ही ढकनेका विशष ख्याल रहता था पर वादमें सम्पूर्ण नग्नता ढाँक लेनेकी जरूरत समझी गयी और इसके लिए वस्त्रका आकार प्रकार भी बदलना पड़ा।"
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उपधियोंकी संख्या में जिस क्रमसे वृद्धि हुई उसे भी मुनि कल्याण विजयजीके ही शब्दों में पढे
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"पहले प्रतिव्यक्ति एक ही पात्र रखा जाता था । पर आर्यरक्षित सूरिने वर्षाकालमे एक मात्रक नामक अन्य पात्र रखनेकी जो आज्ञा दे दी थी उसके फलस्वरूप आगे जाकर मात्रक भी एक अवश्य धारणीय. उपकरण हो गया। इसी तरह झोलीमें भिक्षा लानेका रिवाज भी लगभग इसी समय चालू हुआ जिसके कारण पात्रनिमित्तक उपकरणोकी वृद्धि हुई । परिणाम स्वरूप स्थविरोके कुल १४ उपकरणोकी वृद्धि हुई जो इस प्रकार है-- १ पात्र, २ पात्रबन्ध, ३ पात्र स्थापन, ४ पात्र प्रमार्जनिका, ५ पटल, ६ रजस्त्राण, ७ गुच्छक, ८, ९ दो चादरें, १० ऊबी वस्त्र (कम्बल), ११ रजोहरण, १२ मुखपट्टी, १३ मात्रक और १४ चोलपट्टक । यह उपधि अधिक अर्थात् सामान्य मानी गयी और आगे जाकर इसमें जो कुछ उपकरण वढाये गये वे औपग्रहक कहलाये । भौग्रहिक उपधिमे सस्तारक, उत्तरपट्टक, दंडासन और दंड ये खास उल्लेखनीय है । ये सब उपकरण आजकल के श्वेताम्बर जैनमुनि रखते है ।"
एक ओर श्वेताम्बर सम्प्रदायमें इस तरह साधुओोकी उपधिमें वृद्धि होती गयी, दूसरी ओर आचारांग में जो अचेलकताके प्रतिपादक उल्लेख थे उन्हें जिनकल्पीका आचार करार दे दिया गया और जिन कल्पका विच्छेद होने की घोषणा करके महावीरके अचेलक मार्गको उठा देनेका ही प्रयास किया गया। तथा उत्तरकालमें साधुके वस्त्रपात्रक समथन बड़े जोरसे किया गया, यहाँ तक कि नग्न विचरण करनेवाल महावीरके शरीरपर इन्द्रद्वारा देवदूष्य डलवाया गया । जैसा कि पं वंचरदासजीने भी लिखा है
१. श्रमण भगवान महावीर ।
२. इसके लिए पाठकोको लेखकका लिखा हुआ 'भगवान महावीरका अचेल धर्म' नामक ट्रैक्ट देखना चाहिये ।
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" इस समाज के कुल गुरुओने अपने पसन्द पड़े वस्त्रपात्र बादके समर्थन के लिए पूर्वके महापुरुषोको भी चीवरघारी बना दिया है और श्रीवर्द्धमान महाश्रमणकी नग्नता न देख पड़े इस प्रकारका प्रयत्न भी किया है । इस विषय के अनेक ग्रन्थ लिखकर 'वस्त्र - पात्र' वादको ही मजबूत बनानेकी वे आजतक कोशिश कर रहे हे। उनके लिए आपवादिक माना हुआ वस्त्र - पात्र' वादका मार्ग औत्सर्गिक मार्गके समान हो गया है । वे इस विषय मे यहाँतक दौडे है कि चाहे जैसे अगम्य जगलमें, भीषण गुफार्मे या चाहे जैसे पर्वतके दुर्गम शिखरपर भावना भाते हुए केवलज्ञान प्राप्त हुए पुरुष वा स्त्रीको जैनी दीक्षाके लिए शासनदेव कपडे पहनाता है और वस्त्रके बिना केवलज्ञानीको अमहाव्रती तथा अचारित्री कहते तक भी नही हिचकिचाये । कोई मुनी वस्त्ररहित रहे ये बात उन्हें नहीं रुचती । इनके मतसे वस्त्र पात्रके बिना किसीकी गति ही नही होती ।"
दूसरी ओर दिगम्बर सम्प्रदायके आचार्य कुन्दकुन्दने स्पष्ट घोषणा कर दी थी।
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'ण" वि सिज्झइ वत्यधरो जिणसासणे जइ वि होइ तित्ययरो । णग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ॥२३॥
अर्थात् 'जिनशासनमे तीर्थङ्कर ही क्यों न हो यदि वह वस्त्रधारी है तो सिद्धिको प्राप्त नही हो सकता । नग्नता ही मोक्षका मार्ग है, शेष सब उन्मार्ग है।' साथ ही साथ उन्होंने यह भी कहा
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"नग्ग्गो पावइ दुक्खं नग्गो संसारसायरे भमइ । नग्गो न लहइ वोहि जिणभावणवज्जिओ सुइर ॥६८॥ अर्थात्- 'जिन भावनासे रहित नग्न दुख पाता है, संसाररूपी सागरमे भटकता है और उसे ज्ञानलाभ नही होता ।'
इस तरह एक ओरके शिथिलाचार और दूसरी ओरकी दृढता कारण संघभदके बीजमे अंकुर फूटते गये मोर धीरे-धीरे उन्होंने बृ
१. षट् प्राभृ० ६७ ।
२. षट् प्राभृता० पृ० २११ ।
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जैनधर्म और महावृक्षका रूप धारण कर लिया। प्रारम्भमे श्वेताम्वरता और दिगम्वरताका यह झगड़ा सिर्फ मुनियों तक ही था, क्योकि उन्हीको नग्नता और सवस्त्रताको लेकर यह उत्पन्न हुआ था। किन्तु आग श्रावकोंकी भी क्रियापद्धतिमें उसे सम्मिलित करके धावको भी झगड़के वीज बो दिये गये जो आज तीर्थक्षेत्रोंके झगडेके रूपमे अपने विपफल दे रहे है। इस वातके प्रमाण मिलते है कि प्राचीन कालमे दिगम्बरी और श्वेताम्बरी प्रतिमाओंका भेद नही था। दोनों ही नग्न प्रतिमाओको पूजते थे। मुनि जिन विजयजीने (जैन हितैषी भाग १३, अंक ६ मे) लिखा है___ "मथुराके कंकाली टीलामें जो लगभग दो हजार वर्षको प्राचीन पतिमाएं मिली है, वे नग्न है और उनपर जो लेख है वे श्वेताम्बर कल्पसूत्रकी स्थविरावलीके अनुसार है।"
इसके सिवा १७वी शताब्दीके श्वेताम्बर विद्वान पं० धर्मसागर पाध्यायने अपने प्रवचनपरीक्षा नामक ग्रन्यमें लिखा है
"गिरनार और गजयपर एक समय दोनो सम्प्रदायोमें झगडा आ और उसमें शासन देवताको कृपाले दिगम्बरोंकी पराजय हुई। व इन दोनों तीर्थोपर श्वेताम्बर सम्प्रदायका अधिकार सिद्ध हो गया, वि आगे किसी प्रकारका झगडा न हो सके इसके लिए श्वेताम्बरसघने ह निश्चय किया कि अवसे जो नयी प्रतिमाएं वनवायी जाय, उनके दिमूलमें वस्त्रका चिह्न बना दिया जाय। यह सुनकर दिगम्बरियोको नोव ना गया और उन्होने अपनी प्रतिमाओको स्पष्ट नग्न बनाना शुरु र दिया। यही कारण है कि सम्प्रति राजा आदिको वनवायी हुई तिमाजोपर वस्त्रलाउन नही है और सरप्ट नग्नत्व भी नहीं है ।"
इनने यह बात अच्छी तरह निद्ध होती है कि पहले दोनोको सिमाओमें भेद नहीं था। परन्तु अब तो दोनोकी प्रतिमाओम इतना
१.मार के अन्य प्रमाणा यि जन साहित्य और दतिरान' ०२४१
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अन्तर पड गया है कि उसे देखनेसे आश्चर्य होता है | पं० बेचरदासजीने लिखा है—
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"यह सम्प्रदाय (श्वे० सम्प्रदाय) कटोरा कटिसूत्रवाली मूर्तिको ही पसन्द करता है उसे ही मुक्तिका साधन समझता है । वीतराग संन्यासी - फकीर की प्रतिमाको जैसे किसी बालकको गहनों से लाद दिया जाता है उसी प्रकार आभूषणोंसे श्रृंगारित कर उसकी शोभामे वृद्धि की समझता है । और परमयोगी वर्द्धमान या इतर किसी वीतरागकी मूर्तिको विदेशी पोशाक जाकिट, कालर, घडी वगैरहसे सुसज्जित कर उसका खिलोने जितना भी सोन्दर्य नष्ट करके अपने मानवजन्मकी सफलता समझता' है ।”
इस तरह परस्परकी खीचातानीके कारण जैनसंघमे जो भेद पड़ा वह भेद उत्तरोत्तर बढता ही गया और उसीके कारण आगे जाकर दोनों सम्प्रदाय में भी अनेक अवान्तर पन्थ उत्पन्न होते गये ।
३ - सम्प्रदाय और पन्य J
दिगम्बर और श्वेताम्वर दोनों ही सम्प्रदायों के उपलब्ध साहित्य के आधारसे यह पता चलता है कि विक्रमकी दूसरी शताब्दी में विश् जैनस स्पष्टरूपसे दो भागों में विभाजित हो गया और इस विभागक मूल कारण साधुओंका वस्त्र परिधान था । जो पक्ष साधुओंकी नग्नता' का पक्षपाती था और उसे ही महावीरका मूल आचार मानता था दिगम्बर कहलाया । इसको मूलसघ नामसे भी कहा है । और जो पक्ष वस्त्रपात्रका समर्थन करता था वह श्वेताम्बर कहलाया । दिगम्ब शब्दका अर्थ है - दिशा ही जिसका वस्त्र है, अर्थात् नग्न । और श्वेता म्बर शब्दका अर्थ है - सफेद वस्त्रवाला । इस तरह प्रारम्भ में यद्य साधुओं के वस्त्रपरिधानको लेकर ही संघभेद हुआ किन्तु बादको उस भेदक अन्य भी सामग्री जुटती गयी और धीरे-धीरे दोनों सम्प्रदाय भी अनेक अवान्तर पन्य पैदा हो गये । किन्तु भेदके कारणोपर दृ २. 'जैन साहित्य में विकार'
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'सेन' और कुछको 'भद्र' नाम दिया, जो मुनि, गाल्मलि महावृक्षक नलसे आये थे, उनमेसे चुछको 'गुणधर' और कुछको 'गुप्त' नाम दिया, जो खण्डकेसर वृक्षोंके मूलते आये थे, उनमेंसे कुछको सिंह और कुछको 'चन्द्र' नाम दिया। . इन नामोंके विषयमें कुछ मतभेद भी है, जिसका उल्लेख भी आचार्य
इन्द्रनन्दिने किया है। कुंछके मतसे जो गुहाओंसे आये थे उन्हें नन्दि, • जो अशोकवनसे आये थे उन्हें 'देव', जो पञ्चस्तूपोंसे आये थे उन्हें "सन', जोगाल्मलि वृक्षके मूलसे आये थे उन्हें 'वीर',और जो खण्डकसर 'वृक्षोंके मूलसे आये थे उन्हें 'भद्र' नाम दिया गया। कुछके मतसे गुहावासी नन्दि', अशोकवनते आनेवाले 'देव', पञ्चस्तूपवासी सन, "गाल्मलि वृक्षवाले 'वीर' और खण्डकेसरवाले 'भद्र और सिंह कहलाये। र इन मतभेदोंसे मालूम होता है कि आचार्य इन्द्रनन्दिको भी इस संघभेदका स्पष्ट ज्ञान नहीं था, इसीलिए इस वातका भी पता नहीं
चलता कि अमुकको अमुक संज्ञा ही क्यो दी गयी। इन सब संजाओम 'नन्दि, सेन, देव और सिंह नाम ही विशेष परिचित है। भट्टारक' इन्द्रनन्दि आदिने अहवलि आचार्यके द्वारा इन्ही चार संघोंकी स्थापना किये जानेका उल्लेख किया है।
१ आचार्य इन्द्रनन्दिने इस विषयमें उक्त च करके एक श्लोक उद्धृत कया है जो इस प्रकार है
"अयातो नन्दिवीरी प्रकटगिरिगुहावासतोशोकवाटाद् देवश्चान्योऽपराजित इति यतिपो सेनभद्राहयौ च । पञ्चस्तुप्यासगुप्तौ गुंगवरवृषभ शल्मलीवृक्षमूलानियोती सिंहचन्द्रो प्रथितगुणपणी केतराखण्डपूर्वात् ॥९॥" २ तदेव यतिराजोऽपि सर्वनैमितिकाप्रणी।
अहंबलिगुरूचके संघसघट्टन परम् ॥॥ तिहाघो नन्दिरधः सेनसंघो महाप्रभः । देवतघ इति सष्ट स्थानस्थितिविशेषतः ॥७॥ गणगच्छादयस्लेन्यो जाता स्वपरलोत्पदा । न वा भेद कोऽप्यस्ति प्रज्वयादिषु कर्मसु ॥८॥" नीवितार।
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इन चार संघों के भी आगे अनेक भेद-प्रभेद हो गये । साधारणत संघों के भेदोंको गण और प्रभेदों या उपभेदोको गच्छ कहने की परम्परा मिलती है। कही कही संघोंको गण भी कहा है, जैसे नन्दिगण, सेनगण आदि । कही कही संघों को 'अन्वय' भी कहा है, जैसे 'सेनान्वय' । गणोंमें बलात्कारगण, देशीयगण और काणूरगण इन तीन गणोंके और गच्छों में पुस्तकगच्छ, सरस्वतीगच्छ, वक्रगच्छ और तगरिलगच्छके उल्लेख पाये जाते है । इन संघ, गण और गच्छोंकी प्रव्रज्या आदि। ' क्रियायोंमें कोई भेद नही है ।
किन्तु दर्शनसारमें कुछ ऐसे भी सघोंकी उत्पत्तिका उल्लेख किया। + जिन्हें उसमें जैनाभास वतलाया गया है । वे सघ है - श्वेताम्बर,
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नीय, द्राविड़, माथुर और काष्ठा। इनमेसे पहले दो सघोका वर्णन कागे किया गया है, क्योकि उनसे आचारके अतिरिक्त दिगम्बरोका सिद्धान्तभेद भी है । शेष तीन जैनसंघ दिगम्बर सम्प्रदायके ही अवान्तर संघ है तथा उनके साथ कोई महत्त्वका सिद्धान्तभेद भी नही है । दर्शन ! सार' के अनुसार वि० सं० ५२६ मे दक्षिण मथुरामें द्राविड़ संघकी उत्पत्ति हुई। इसका संस्थापक माचार्य पूज्यपादका शिष्य वज्रनन्दि या । इसकी मान्यता है कि वीजमे जीव नही रहता, कोई वस्तु प्रासुक नही है । इसने ठंडे पानीसे स्नान करके और खेती वाणिज्यसे जीवन निर्वाह करके प्रचुर पापका संचय किया ।
वि० सं० ७५३ मे काष्ठासंघकी उत्पत्ति हुई। इसका संस्थापक कुमारसेन मुनि था । इसने मयूरपिच्छको छोड़कर गायके बालोंकी पिच्छी धारण की थी, और समस्त वागडदेशमे उन्मार्गका प्रसार किया १ 'सिरिपुज्जपादसीसो दाविडसघस्य कारगो दुट्ठो । णामेण वज्जणदी पाहुडवेदी महासत्यो ॥ २४ ॥ वीएस गत्यि जीवो उन्भसण णत्थि फासुग गत्थि । सावज्जण हुमण्णइ ण गणइ गिहकप्पिय अट्ठ ॥२६॥ कच्छ खेत्तं वसहि वाणिज्ज कारिऊण जीवतो । गहतो सीयलणीरे पाव पउरं समज्जेदि ||२७||
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जनधर्म
था । वह स्त्रियोंको जिनदीक्षा देता था, क्षुल्लकोकी वीरचर्याका विधान करता था, जटा धारण करता था और एक छठा गुणन्नत (अणु
त) वतलाता था। इसने पुराने शास्त्रोको अन्यथा रचकर भूढ लोकोमें मिथ्यात्वका प्रचार किया था। इससे उसे श्रमणसघसे निकाल दिया गया था। तब उसने काष्ठा सघकी स्थापना की थी।
काष्ठासंघको स्थापनाके दो सौ वर्ष बाद मथुरामे माथुर संघको स्थापना रामसेनने की थी। इस संघके साधु पीछी नहीं रखते थे इसलिये यह संघ निम्पिच्छ' कहा जाता था। ____यद्यपि इन तीनो सघोंको देवसेन आचार्यने जनाभास कहा है किन्तु इनका बहुत-सा साहित्य उपलब्ध है और उसका पठन-पाठन भी दिगम्बर सम्प्रदायमें होता है । हरिवंश पुराणके रचयिताने आचार्य देवनन्दिके पश्चात् वज्रसूरिका स्मरण किया है और उनकी उक्तियोंका धर्मशास्त्र के प्रवक्ता गणधरदेवकी तरह प्रमाण कहा है। यह वज्रसूरि वही जान पड़ते है जिन्हें द्राविड सघका संस्थापक कहा जाता है। ऐसी स्थितिमें यह प्रश्न होता है कि दर्शनसारके रचयिताने इन्हें जनाभास क्यो कहा ? क्योकि दर्शनसारकी रचना हरिवश पुराणके पश्चात् वि० स० ६६० मे हुई है। इसका समाधान यह हो सकता है कि देवसेन सूरिने दर्शनमारमें जो गाथाएँ दी है, पूर्वाचार्योकी दृष्टिम
१ "आसी कुमारमेणो णदियडे विणयमेणदिवरायनो । मणामभंजणेग य अगहिर पुदिनो जादो ॥३॥ परिवग्जिकण पिच्छ चमर चित्तण मोहकलिदेण। उम्मन्ग मारिन वागविगएनु सब्बैमु ॥३४॥ सत्यीण पुरा दिमा गुल्लयटीयस्य पौरपरिपत्त । मसामोगगण हट प गुणगद पाम ॥३५॥ मो ममणगपनगो मारगेपो गमयमियतो। नमोरगी पटट गय पम्पेदि॥३७॥" न २. 'गो माता माग माग गुग्णा।
पामा dि माना ग 1011"-
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द्राविड़ आदि संघोंके साधु जैनाभास ही रहे होंगे। इसीलिए दर्शनसारके रचयिताने भी उन्हे जैनाभास बतलाया है, अन्यथा जिस शिथिलाचारके कारण उन्होंने उक्त सघोको जैनाभास कहा है, वह शिथिलाचार मूलसंधी मुनियोमे भी किसी न किसी रूपमे प्रविष्ट हो गया था। वे भी मन्दिरोंकी मरम्मत आदिके लिये गाँव जमीन आदिका दान लेने। लगे थे। उपलब्ध शिलालेखोंसे यह स्पष्ट है कि मुनियों के अधिकारमें भी गाँव बगीचे रहते थे। वे मन्दिरोंका जीर्णोद्धार कराते थे, दान। शालाएं बनवाते थे। एक तरहसे उनका रूप मठाधीशोके जैसा हो चला था। किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि उस समयमे शुद्धा चारी तपस्वी दिगम्बर मुनियोका सर्वथा अभाव हो गया था, अथवा सब उन्हीके अनुयायी वन गये थे। शास्त्रोक्त शुद्ध मार्गके पालनेवाले और उनको माननेवाले भी थे, तथा उसके विपरीत आचरण करनेवाले मठपतियोंकी आलोचना करनेवाले भी थे। पं० आशाघरजीने अपने अनगार धर्मामृतके दूसरे अध्यायमे इन मठपति साधुओंकी आलोचना करते हुए लिखा है-'द्रव्य जिन लिंगके धारी मठपति म्लेच्छोंके समान लोक और शास्त्रसे विरुद्ध आचरण करते है। इनके साथ मन, वचन और कायसे कोई सम्बन्ध नही रखना चाहिये।'
ये मठाधीश साघु भी नग्न ही रहते थे, इनका बाह्यरूप दिगम्बर मुनियोंके जैसा ही होता था। इन्हीका विकसितरूप भट्टारक पद है.
तेरहपन्थ और बीसपन्थ । भट्टारकी युगके शिथिलाचारके विरुद्ध दिगम्बर सम्प्रदायमें ए. पन्थका उदय हुआ, जो तेरहपन्थ कहलाया। कहा जाता है कि . पन्थका उदय विक्रमकी सत्रहवी सदीमें पं० बनारसीदासजीके र आगरेमे हुआ था। जब यह पन्थ तेरह पन्यके नामसे प्रचलित होगया त भट्टारकोंका पुराना पन्य वीस पन्य कहलाने लगा। किन्तु ये नाम के पड़े यह अभी तक भी एक समस्या ही है। इसके सम्बन्धमे अनेक उप पत्तियाँ सुनी जाती है किन्तु उनका कोई प्रामाणिक आधार नहीं मिलता
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जैनधर्म ___ श्वेताम्बराचार्य मेघविजयने वि० स० १७५७ के लगभग बागरम युक्ति प्रवोध नामका एक अन्य रचा है। यह ग्रन्थ पं० वनारसीदासजीके मतका खण्डन करनेके लिये रचा गया है। इसमे वाणारसी मतका वरूप वत्तलाते हुए लिखा है
"तम्हा दिगंवराण एए भटारमा विणो पुज्जा। तिलतुसमेत्तो जैसि परिग्गही व ते गुरुणो॥१॥ जिणपडिमाण भूतणमल्लारहणाइ अगपरिचरण । वाणारसियो वारइ दिगवरस्सागमाणाए ॥२०॥"
अर्यात्-'दिगम्बरोंके भट्टारक भी पूज्य नही है। जिनके तिलपुष मात्र भी परिग्रह है वे गुरु नही है। वाणारसी मतवाले जिन प्रतिनाओंको भूषणमाला पहनानेका तथा अंग रचना करनेका भी निषेध दगम्बर आगमोंकी आज्ञाते करते है। ___ आजकल जो तेरह पन्य प्रचलित है वह भट्टारकों या परिसहधारी सुनियोंको अपना गुरु नही मानता और प्रतिमाओंको पुष्पमालाएं चढाने पौर केसर लगानेका भी निषेध करता है, तथा भगवानकी पूजन पामग्रीमें हरे पुष्प और फल नही चढाता। उत्तर भारतमें इस पत्यका उदय हुआ और धीरे-धीरे यह समस्त देशव्यापी हो गया । इसके पभावसे भट्टारकी युगका एक तरहसे लोप ही हो गया।
किन्तु इस पन्थभेदसे दिगम्बर सम्प्रदायमे फूट या वैमनस्यका बीजापण नहीं हो सका। आज भी दोनों पन्थोंके अनुयायी वर्तमान है, केन्तु उनमें परस्परमे कोई वैमनस्य नहीं पाया जाता । चूंकि आज दोनों पन्योंका अस्तित्व कुछ मंदिरों में ही देखनेमे आता है, अत जव
भी किन्ही दुराग्रहियोंमें भले ही खटपट हो जाती हो, किन्तु साधारणतः दोनों ही पन्थवाले अपनी अपनी विधिसे प्रेमपूर्वक पूजा करते हुए पार्य जाते है। एक दो स्थानोंमें तो २० और १३ को मिलाकर उसका आधा करके साढ़े सोलह पन्थ भी चल पडा है। आजकलके अनेक निष्पक्ष समझदार व्यक्ति पन्य पूछा जानेपर अपनेको साढ़े सोलह पन्थी कह हते हैं। यह सव दोनोके ऐक्य और प्रेमकाही सूचक है।
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सामाजिक रूप
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तारणपन्थ परवार जातिके एक व्यक्तिने जो वादको तारणतरण स्वामीके नामसे प्रसिद्ध हुए, ईसाकी पन्द्रहवी शताब्दीके अन्तमे इस पन्थको जन्म दिया था। सन् १५१५ में ग्वालियर स्टेटके मल्हारगढ नामक स्थानमे । इनका स्वर्गवास हुआ। उस स्थानपर उनकी समाधि वनी है और उसे नशियांजी कहते है। यह तारणपथियोंका तीर्थस्थान माना जाता है। यह पन्थ मूर्ति पूजाका विरोधी है। इनके भी चैत्यालय होते है, किन्तु . उनमे शास्त्र विराजमान रहते है और उन्हीकी पूजा की जाती है किन्तु द्रव्य नही चढ़ाया जाता । तारण स्वामीने कुछ ग्रन्थ भी बनाये थे। इनके सिवा दिगम्बर आचार्योके बनाये हुए ग्रन्थोंको भी तारणपन्थी मानते है। इस पन्यमें अच्छे धनिक और प्रतिष्ठित व्यक्ति मौजूद है। इस पन्थके अनुयायियोंकी सख्या दस हजारके लगभग बतलाई जाती है, और वे मध्यप्रान्तमे बसते है।
२ श्वेताम्बर सम्प्रदाय - यह पहले लिख आये है कि साधुओंके वस्त्र परिधानको लेकर ही। दिगम्बर और श्वेताम्बर भेदकी सृष्टि हुई थी। अत. आजके श्वेताम्बर साधु श्वेत वस्त्र धारण करते है। उनके पास चौदह उपकरण होते है१ पात्र, २ पात्रबन्ध, ३ पात्र स्थापन, ४ पात्र प्रमाणनिका, ५ पटल, ६ रजस्त्राण, ७ गुच्छक, ८-९ दो चादरे, १० ऊनी वस्त्र (कम्वल), ११ रजोहरण, १२ मुखवस्त्र, १३ मात्रक, १४ चोल पट्टक। इनके सिवा वे अपने हाथमे एक लम्वा दण्ड भी लिये रहते है। पहले वे भी नग्न ही. रहते थे। बादको वस्त्र स्वीकार कर लेनेपर भी विक्रमकी सातवी आठवी शताब्दीतक कारण पड़नेपर ही वे वस्त्र धारण करते थे और वह भी केवल कटिवस्त्र । विक्रमकी आठवी शतीके श्वेताम्बराचार्य हरिभद्रसूरिने अपने संबोधप्रकरणमें अपने समयके साधुओंका वर्णन करते हुए लिखा है कि वे विना कारण भी कटिवस्त्र वाँघते है। और उन्हे क्लीब-कायर कहा है। इस प्रकार पहले वे कारण पड़नेपर लंगोटी
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लगा लेते थे पीछे सफेद वस्त्र पहनने लगे । फिर जिन मूर्तियों में भी मँगोटेका चिह्न बनाया जाने लगा। उसके बाद उन्हें वस्त्र - आभूषणोंते जानेकी प्रथा चलाई गई। महावीरके निर्वाणते लगभग एक हजार के पश्चात् साबुओको स्मृतिके आवारपर ग्यारह मंकोका संकलन करके उन्हें सुव्यवस्थित किया गया और फिर उन्हें लिपिवद्ध किया गया। इन आगमोंको दिगम्बर सम्प्रदाय नही मानता ।
श्वेताम्बर सम्प्रदाय मानता है कि स्त्रीको भी मोक्ष हो सकता है तथा जीवन्मुक्त केवली भोजन ग्रहण करते हैं । दिगम्बर सम्प्रदाय इन दोनों सिद्धान्तों को भी स्वीकार नही करता । दिगम्वर और खेताम्वर सम्प्रदायमें इन्ही तीनों सिद्धान्तोंको लेकर मुख्य भेद है । संक्षेपमें कुछ उल्लेखनीय भेद निम्न प्रकार है
१. केवलीका कवलाहार
२. केवलीका नीहार ।
३. स्त्री मुक्ति ।
४ शूद्र मुक्ति ।
५. वस्त्र सहित मुक्ति |
६. गृहस्थवेषमे मुक्ति ।
७. अलंकार और कछोटेवाली प्रतिमाका पूजन । ८. मुनियोंके १४ उपकरण ।
६. तीर्थंकर मल्लिनाथका स्त्री होना ।
१०. ग्यारह अंगों की मौजूदगी ।
११. भरत चक्रवर्तीको अपने भवनमें केवल ज्ञानकी प्राप्ति ।
१२. शूद्रके घरसे मुनि आहार ले सके ।
१३. महावीरका गर्भहरण ।
१४. महावीर स्वामीको तेजोलेश्यासे उपसर्ग 1
१५. महावीर विवाह, कन्या जन्म | १६. तीर्थंकरके कन्धेपर देवदूष्य वस्त्र ।
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१६
सामाजिक रूप
१७. मरुदेवी का हाथी पर चढे हुए मुक्तिगमन । १८. साधुका अनेक घरों से भिक्षा ग्रहण करना ।
इन बातोंको श्वेताम्बर सम्प्रदाय मानता है किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय नही मानता ।
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श्वेताम्बर चैत्यवासी
श्वेताम्बर चैत्यवासी सम्प्रदायका इतिहास इस प्रकार मिलता हैसघभेद होनेके पश्चात् वीर नि० स० ८५० के लगभग कुछ शिथिलाचारी मुनियोंने उन विहार छोडकर मन्दिरोंमें रहना प्रारम्भ कर दिया । धीरे-धीरे इनकी संख्या बढती गयी और आगे जाकर वे बहुत प्रवल हो गये । इन्होने निगम नामके शास्त्र रचे, जिनमें यह बतलाया गया कि वर्तमान कालमें मुनियोंको चैत्योंमें रहना उचित है। और उन्हे पुस्तकादिके लिये आवश्यक द्रव्य भी सग्रह करके रखना चाहिये । ये वनवासियोंकी निन्दा भी करते थे ।
इन चैत्यवासियो के नियमों का दिग्दर्शन चैत्यवासके प्रबल विरोधी श्वेताम्बराचार्य हरिभद्र सूरिने अपने 'सबोध प्रकरण' के गुर्वधिकारमे विस्तारसे कराया है । वे लिखते है
"ये चैत्य और मठोमे रहते हैं, पूजा और आरती करते हैं, जिनमन्दिर और शालाएं बनवाते है, देवद्रव्यका उपयोग अपने लिए करते है, श्रावकों को शास्त्रकी सूक्ष्म बाते बतानेका निषेध करते है, मुहूर्त निकालते है, निमित्त बतलाते है, रगीले सुगन्धित और धूपसे सुवासित वस्त्र पहनते है, स्त्रियोके आगे गाते हैं, साध्वियो के द्वारा लाये गये पदार्थो का उपयोग करते है, घनका सचय करते हैं, केशलोच नही करते, मिष्ट आहार, पान, घी, दूध और फलफूल आदि सचित्त द्रव्योका उपभोग करते है । तेल लगवाते है, अपने मृत गुरुओके दाह सस्कारके स्थानपर स्तूप बनाते है, जिन प्रतिमा वेचते है, आदि।"
वि० सं० ८०२ में अणहिलपुर पट्टणके राजा चावडासे उनके गुरु शीलगुण सूरिने, जो चैत्यवासी थे, यह आज्ञा जारी करा दी कि
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जैनधर्म 'इस नगरमें चत्यवासी साधुओंको छोडकर दूसरे वनवासी साघु न मा सकेंगे। इस आज्ञाको रद्द करानेके लिए वि० सं० १०७० के लगभग जनेश्वर सूरि और बुद्धिसागर सूरि नामके दो विधिमार्गी आचार्योन राजा दुर्लभदेवकी सभामें चैत्यवासियोंके साथ शास्त्रार्थ करके उन्हे पराजित किया तब कही विधिमागियोका प्रवेश हो सका। राजानं उन्हे 'खरतर' नाम दिया। इसी परसे खरतर गच्छकी स्थापना हुई। इसके बादसे चैत्यवासियोंका जोर कम होता गया।
श्वेताम्बरोंमे आज जो जती या श्रीपूज्य कहलाते हैं वे मठवास पा चैत्यवासी शाखाके अवशेष है और जो 'संवेगी मुनी कहलाते हैं व वनवासी शाखाके है। संवेगी अपनेको सुविहित मार्गका या विधिमार्गका अनुयायी कहते है। ' श्वेताम्वरोमे बहुतसे गच्छ थे। कहा जाता है कि उनकी संख्या २४ थी। किन्तु आज जो गच्छ है उनकी संख्या अधिक नहीं है। मूर्तिपूजक श्वेताम्बरोंके गच्छ इस प्रकार है--
१ उपकेशगच्छ-इस गच्छकी उत्पत्तिका सम्बन्ध भगवान् पार्श्वनायसे बताया जाता है। उन्हीका एक अनुयायी केशी इस गच्छका नेता था। आजके ओसवाल इसी गच्छके श्रावक कहे जाते है।
२ खरतरगच्छ इस गच्छका प्रथम नेता वर्धमान सूरिको बतलाया जाता है। वर्धमान सूरिके शिष्य जिनेश्वर सूरिने गुजरातके अणहिलपुर पट्टणके राजा दुर्लभदेवकी सभामें जब चैत्यवासियोको
रास्त किया और राजाने उन्हें 'खरतर' नाम दिया तो उनके नामपरसे यह गच्छ खरतर गच्छ कहलाया। इस गच्छके अनुयायी अधिकतर राजपूताने और बंगालमें पाये जाते है। मुंबई प्रान्तमे इसके अनुयायियोकी संख्या थोटी है।
३ तपागच्छ---इस गच्छके संस्थापक श्रीजगच्चन्द्र सूरि थे । सं० १२८५ में उन्होंने उन तप किया। इन परसे मेवाड़के गजाने उन्हें 'तपा' उपनाम दिया। तवसे इनका वृहद्गच्छ तपागच्छके नामसे
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प्रसिद्ध हुआ । श्रीजगन्चन्द्र सूरि और उनके शिष्योका दैलवारा प्रसिद्ध मन्दिरोंका निर्माता वस्तुपाल बड़ा सन्मान करता था इससे गुजरातमे आजतक भी तपागच्छका बड़ा प्रभाव चला आता है श्वेताम्बर सम्प्रदायमे यह गच्छ सबसे महत्त्वका समझा जाता है। इस अनुयायी बम्बई, पंजाब, राजपूताना, मद्रास' आदि प्रान्तोमे पर
जाते है |
श्रीजगन्चन्द्र सूरिके दो शिष्य थे, देवेन्द्रसूरि और विजयचन्द्र सूरि । इन दोनोंमें मतभेद हो गया । विजयचन्द्र सूरिने कठोर मचा के स्थानमे शिथिलाचारको स्थान दिया । उन्होंने घोषणा की कि गीता ' मुनि वस्त्रोको गठडियों रख सकते है, हमेशा घी दूध खा सकते है, कप घो सकते हैं, फल तथा शाक ले सकते है, साध्वी द्वारा लाया हु आहार खा सकते हैं, और श्रावकों को प्रसन्न करनेके लिए उनके बैठकर प्रतिक्रमण भी कर सकते है ।
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४ पार्श्वचन्द्र गच्छ - यह तपागच्छकी शाखा है । आचार्य पार्श्वचन्द्र वि० सं० १५१५ में इस गच्छसे अलग हो गये कारण यह था कि इन्होने कर्मके विषयमे नया सिद्धान्त खडा कि था और नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और छेद ग्रन्थोंको प्रमाण नही मा थे। इस गच्छके अनुयायी अहमदाबाद जिलेमें पाये जाते है ।
५ सार्धं पौर्णमीयक गच्छ-पौर्णमीयक गच्छकी स्थापना चन्द्रप्र सूरिने की थी । कारण यह था कि प्रचलित क्रिया-काण्डसे उनक मतभेद था तथा वे महानिशीथ सूत्रकी गणना शास्त्रग्रन्थोंमें करते थे। आचार्य हेमचन्द्रकी आज्ञासे राजा कुमारपालने इस अनुयायियों को अपने राज्यमेसे निकलवा दिया था। इन दोनो मृत्युके बाद एक सुमतिसिंह नामके पौर्णमीयक कुमारपालकी रा धानी अणहिलपुरमे आये और उन्होने इस गच्छको नवजीवन दिया तबसे यह गच्छ सार्धं पौणमीयक कहलाया । इस गच्छके अनुया आज नही पाये जाते ।
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६ अंचल गच्छ - इस गच्छके संस्थापक उपाध्याय विजयसिंह | पीछे वे आरक्षित सूरिके नामसे विख्यात हुए। इस गच्छमे खपट्टी के वदले अंचलका (वस्त्रके छोरका) उपयोग किया ता है इससे इसका नाम अचल गच्छ पड़ा है।
७ आगमिक गच्छ - इस गच्छके संस्थापक शीलगुण और देवभद्र । पहले ये पौर्णमीयक थे पीछेसे आंचलिक हो गये थे । ये क्षेत्रकी पूजा करनेके विरुद्ध थे । विक्रमको १६ वी गतीमें इस गच्छकी क शाखा कटुक नामसे पैदा हुई । इस शाखा के अनुयायी केवल आवक ही थे।
इन गच्छोंमेंसे भी आज खरतर, तपा और आंचलिक गच्छ ही र्तमान है। प्रत्येक गच्छकी साघु सामाचारी जुदी जुदी है। श्रावकी सामायिक प्रतिक्रमण आदि आवश्यक क्रियाविधि भी जुदी दी है। फिर भी सबमें जो भेद है वह एक तरहसे निर्जीव-सा है।
कल्याणक दिन छे मानता है तो कोई पांच मानता है। कोई युषणका अन्तिम दिन भाद्रपद शुक्ला चौथ और कोई पंचमी मानता । इसी तरह मोटी वातोको लेकर गच्छ चल पड़े है ।
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स्थानकवासी
सिरोही राज्यके अरहट वाडा नामक गांव में, हेमाभाई नामक श्रीसवाल के घरमें विक्रम सम्वत् १४७२ में लोंकाशाहका बेन्म हुआ । २५ वर्षको अवस्थामे लोकाशाह स्त्री-पुत्र के साथ हमदाबाद चले आये। उस समय अहमदाबादकी गद्दीपर हम्मदशाह बैठा था। कुछ जवाहरात खरीदने के प्रसंगते लोकाशाहपरिचय मुहम्मदशाहते होगया और मुहम्मदशाहने लोकाशाहचातुरीस प्रसन्न होकर उन्हें पाटनका तिजोरीदार बना दिया । क दिपद्वारा मुहम्मदशाहकी मृत्यु होनेपर लोकाशाहको बहुत द हुआ। उन्होंने नौकरी छोड़ दी और लेखन कार्यमें लग गये । तिनको सुन्दर अक्षरोसे आकृष्ट होकर ज्ञानत्री नामक मुनिराजने
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दश वकालिक सूत्रकी एक प्रति लिखनेके लिये दी । फिर तो मुनिश्री पाससे अन्य शास्त्र भी लिखनेके लिये आने लगे। और वे उनकी प्रतियाँ करके एक अपने पास रखने लगे। इस तरह अन्य ग्रन्थोंक भी संग्रह करके लोंकाशाहने उनका अभ्यास किया। उन्हे लगा आज मन्दिरोमे जो मूर्ति पूजा प्रचलित है वह तो इन ग्रन्थो में नही हैं। इसके सिवा जो आचार आज जनधर्ममे पाले जाते है उनमेसे अने इन ग्रन्थोकी दृष्टिसे धर्मसम्मत नही है । अत उन्होने जैनधर्म सुधार करनेका वीडा उठाया ।
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अहमदाबाद गुजरातकी राजधानी होनेके साथ व्यापारका केन्द्र था । अत. व्यक्तियोंका आवागमन लगा ही रहता था । वहाँ आते थे लोंकाशाहका उपदेश सुनकर प्रभावित होते थे । कुछ लोगोने उनसे अपने धर्म में दीक्षित करनेकी प्रार्थना की तो शाहने कहा में स्वयं गृहस्थ होकर आपको अपना शिष्य कैसे सकता हूं। तब ज्ञानजी महाराजने उन्हे धर्मकी दीक्षा दी और उन्होने लोंकाशाहके नामपर अपने गच्छका नाम लोंका रखा । इस तरह लोकागच्छकी उत्पत्ति हुई ।
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पीछेसे लोकामतमे भी भेद-प्रभेद हो गये । सुरतके एक साधुने लोकमतमे सुधार कर एक नये सम्प्रदायकी स्थापना - जो ढूंढिया सम्प्रदायके नामसे प्रसिद्ध हुआ । पीछेसे लोका के स स अनुयायी ढूंढिया कहे जाने लगे। इन्हे स्थानकवासी भी कहते क्योकि ये अपना सब धार्मिक व्यवहार मन्दिरमे न करके स्थान यानी उपाश्रयमें करते है । इस सम्प्रदायके माननेवाले गुजर काठियावाड, मारवाड, मालवा, पंजाब तथा भारतके अन्य भाग रहते है। इनकी सख्या मूर्तिपूजक श्वेताम्वरोके जितनी ही अत इस सम्प्रदायको जैनधर्मका तीसरा सम्प्रदाय कहा जा सकता. किन्तु ये अपनेको श्वेताम्वर ही मानते है, क्योंकि कुछ मतभेद यदि छोड़ दिया जाये तो वेताम्बरोसे ही इनका मेल अधिक खाता
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जैनधर्म यह सम्प्रदाय श्वेताम्बरोंक ही ४५ आगमोंमेंसे ३३ आगमोको नता है। लोकाने तो ३१ आगम ही माने थे-व्यवहारसूत्रको वह
ण नही मानता था। किन्तु पीछेकेस्थानक वासियोंने उसे प्रमाण न लिया। धर्माचरणमे स्थानकवासी श्वेताम्बरोसे भिन्न पड़ते । वे मूर्तिपूजा नहीं मानते, मन्दिर नहीं रखते और न तीर्थयात्राम विशेष श्रद्धा रखते हैं। इस सम्प्रदायके साधु सफेद वस्त्र धारण रते है तथा मुखपर पट्टी बांधते है। इन अमूर्तिपूजक श्वेतार साधुओंसे भेद दिखानेके लिए सत्यविजय पंन्यासने अठारहवीं दीमे मूर्तिपूजक श्वेताम्बर साधुओंको पीला वस्त्र धारण करनेका वाज चाल किया, जो अव भी देखनेमे आता है। इसी सदकि तमें भट्टारकोंकी गहियाँ हुई और यति तथा यतिनियाँ हुई। खूब रोध होनेपर भी इनके अवशेष आज भी मौजूद है।
मूर्तिपूजाविरोधी तेरापन्थ च । मूर्तिपूजा विरोधी सम्प्रदायमे भी अनेक पन्थ प्रचलित हुए, निमसे उल्लेखनीय एक तेरापन्य है। इस पन्यकी स्थापना मारवाड़ । आचार्य भिक्षु (भीखम ऋषि) ने की थी। , आचार्य भिक्षुका जन्म जोधपुर राज्यके अन्तर्गत कन्टालिया हममें सं० १७८३ में हुआ था। सं० १८०८ मे इन्होने जैनी दीक्षा हण की। उन्हें लगा कि जिस अहिंसाकी साधनाके लिये हम सब वृछि त्याग कर निकले है, यथार्थमें उस अहिंसाके समीप भी नही हुंचे है। जीवन व्यवहारमें अहिंसाके नामपर हिंसाको प्रश्रय की है और धर्मके नामपर अधर्मको। अतः उन्होने एक नवीन साधु संघकी स्थापना की, जो 'तेरापन्थ' कहलाया। # इस पथमें साधुसंघके अधिपति पूज्यजी महाराज होते है।
घुओंको उनकी आज्ञा माननी पड़ती है और प्रतिदिन विधिपूर्वक परमका सन्मान करना होता है। इस पन्थका प्रचार पश्चिम भारतम धिक है, कलकत्ता जैसे नगरों में भी इस पन्थके श्रावक रहते हैं।
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सामाजिक रूप
३ यापनीय संघ जैनधर्मके दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायोंसे तो साधारणत सभी परिचित है। किन्तु इस बातका पता जनोमेसे भी कम है को है कि इन दोके अतिरिक्त एक तीसरा सम्प्रदाय भी था जिर यापनीय या गोप्यसंघ कहते थे। ___यह सम्प्रदाय भी बहुत प्राचीन है। दर्शनसारके' कर्ता श्रा देवसेनसूरिके कथनानुसार वि० सं २०५ मे श्रीकलश नामके श्वेता म्बर साधुने इस सम्प्रदायकी स्थापना की थी। यह समय दिगम्बर: श्वेताम्बर भेदकी उत्पत्तिसे लगभग ७० वर्ष बाद पडता है।।
किसी समय यह सम्प्रदाय कर्नाटक और उसके आस पास बहुर प्रभावशाली रहा है। कदम्ब, राष्ट्रकूट और दूसरे वंशोंके राजाओन इसे और इसके आचार्योको अनेक दान दिये थे।
यापनीय संघके मुनि नग्न रहते थे, मोरके पंखोंकी पिच्छी रखते थे और हाथम ही भोजन करते थे। ये नग्न मूर्तियोको पूजते थे और वन्दना करनेवाले श्रावकोंको 'धर्म-लाम' देते थे। ये सब बातें तं, इनमें दिगम्बरों जैसी ही थी, किन्तु साथ ही साथ वे मानते थे । स्त्रियोंको उसी भवमे मोक्ष हो सकता है और केवली भोजन कर है। वैयाकरण शाकटायन (पाल्यकीर्ति) यापनीय थे। इनकी र अमोघवृत्तिके कुछ उदाहरणोसे मालूम होता है कि यापनीय ५ आवश्यक, छेदसूत्र, नियुक्ति, और दशवकालिक आदि ग्रन्थोंका पठन पाठन होताथा,अर्थात् इन बातोमे वे श्वेताम्बरोके समानथे। वताम्बर मान्य जो आगमग्रन्थ है यापनीय सघ सभवत उन सभीको मानता किन्तु उनके आगमोंकी वाचना श्वेताम्बर सम्प्रदायमे मानी जानेवार वलभी वाचनासे शायद कुछ भिन्न थी। उनपर उसकी टीकाएँ भी, सकती है जैसा कि अपराजितसूरिकी दशवकालिक सूत्रपर टीका थी १ "कल्लाणे वरणयरे दुणिसए पच उत्तरे जादे।।
जावणियसघभावो सिरिकलसादो हु सेवडदो ॥२९॥"
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जनधर्म आज इस सम्प्रदायका एक भी अनुयायी नहीं है। इसका लोप तव और किन किन कारणोसे हुआ, यह बतला सकना कठिन है, फिर पी विक्रमकी पन्द्रहवी शताब्दी तक इस सम्प्रदायके जीवित रहतेक प्रमाण मिलते है; क्योकि कागवाडेके ग० स० १३१६ (वि० स० १४५१) के गिलालेखमें यापनीयसपके वर्मकीति और नागचन्द्रके, समाधिलेखोका उल्लेख है।
४ अर्द्धस्फालक सम्प्रदाय श्री रत्ननन्दि आचार्यने अपने भद्रबाहु चरिवमें अर्द्धस्फालक सम्प्रदायका उल्लेख किया है। उन्होने लिखा है कि यह अद्भुत अर्द्धस्फालक मत कलिकालका वल पाकर जलमे तेलकी बूंदकी तरह सब लोगोमे फैल गया । उन्होने इस मतको श्रुतकेवली भद्रबाहुके समयमें द्वादशवर्षीय दुर्भिक्षके अन्तमें उत्पन्न हुमा बतलाया है और अन्तमें लिखा है कि वल्लभीपुरमे पूरी तरहसे श्वेतवस्त्र ग्रहण करनेके कारण विक्रम राजाके भत्यकालसे १३६ वर्षक वाद न्वता'म्बरमत प्रसिद्ध हुआ। श्रीरत्ननन्दिके मतसे कुछ दिगम्बर मुनियोन जव अपनी नग्नताको छिपानेके लिए खण्ड दस्त्र स्वीकार कर लिया तो उनसे अर्द्धस्फालक सम्प्रदाय उत्पन्न हुआ। और अर्द्धस्फालक सम्प्रदायसे ही श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्ति हुई। - मथुराके कंकाली टोलेसे प्राप्त जैन पुरातत्त्वमें कुछ ऐसे आयागपट प्राप्त हुए है, जिनमे जैन साधु यद्यपि नग्न अकित है परन्तु वे अपनी नग्नताको एक वस्त्रखण्डसे छिपाये हुए है प्लेट न० २२ मे कण्ह श्रमणका चित्र अकित है, उनके वायें हाथकी कलाईपर एक वस्त्रखण्ड लटक रहा है जिसे आगे करके वे अपनी नग्नताको छिपाये हुए है। यही अर्द्धस्फालक सम्प्रदायका रूप जान पड़ता है।
(१) "अतोऽदंफालन लोके व्यानसे मतमद्भुतम् ।
कलिकालवल प्राप्य सलिले तैलविन्दुवत् ॥३०॥"
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सामाजिक रूप
२६७.
उधर श्वेताम्बर' भी कहते है कि छठे स्थविर भद्रबाहुके समयमे अर्द्धस्फालक सम्प्रदायकी उत्पत्ति हुई। इनमेसे ई० स० ८० मे दिगम्बरोका उद्भव हुआ जो मूलसघ कहलाया।
इससे भी इस सम्प्रदायका अस्तित्व सिद्ध होता है। अब रह जाता है यह प्रश्न कि अर्द्धस्फालक श्वेताम्बरोके पूर्वज है या दिगम्बरोके इसका समाधान भी मथुरासे प्राप्त पुरातत्त्वसे ही हो जाता है। वहाँके एक शिलापट्टमे भगवान् महावीरके गर्भपरिवर्तनका दृश्य अंकित है और उत्तीके पास एक छोटी-सी मूर्ति ऐसे दिगम्बर साधुकी है जिसकी कलाईपर खण्ड वस्त्र लटकता है। गर्भापहार श्वेताम्बर सम्प्रदायकी मान्यता है अत स्पष्ट है कि उसके पास अकित साधुका रूप भी उसी सम्प्रदायमान्य है।
उपसंहार सारांश यह है कि मुख्यरूपसे जैनधर्म दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दो शाखाओमें विभाजित हुआ। पीछेसे प्रत्येकमे अनेक गच्छ, उपशाखा और उपसम्प्रदाय आदि उत्पन्न हुए। फिर भी सब महावीर भगवान्की सन्तान है और एक वीतराग देवके ही माननेवाले है।
१ 'जैन सस्कृतिका प्राणस्थल, 'विश्ववाणी' सितम्बर १९४२ ।
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७-विविध
१ कुछ जैनवीर कुछ लोगोंकी धारणा है कि जैन हो जानेसे मनुष्य राष्ट्रके कामका नही रहता, बल्कि राष्ट्रका भार बन जाता है। किन्तु यह धारणा एकदम गलत है। देशकी रक्षाके लिये एक सच्चा जैन सब कुछ उत्सर्ग कर सकता है। प्राचीन समयमे देशकी रक्षाका भार क्षत्रियोपर था। वे प्रजाकी रक्षाके लिये युद्ध करते थे और अपराधियोंको प्राणदण्डतक देते थे। सभी जैन तीर्थङ्करोने क्षत्रियकुलमें जन्म लिया था और उनमें से पांच तीर्थङ्करोंके सिवाय, जो कुमार अवस्थामें ही प्रवजित होगये थे, शेष सभीने प्रवज्या ग्रहणसे पूर्व अपने पैतृक राज्यका संचालन और संवर्धन किया था। उनमेसे तीन तीयङ्करोने तो दिग्विजय करके चक्रवर्ती पद प्राप्त किया था । बाईसवे तीर्थधर नेमीनाथ श्रीकृष्णके चचेरे भाई थे और गृह परित्यागसे पूर्व युवावस्थामें वे महाभारतके युद्ध में पाण्डवोकी ओरसे लडे भी थे। जैन पुराण युद्धोके वर्णनसे भरे पड़े है। प्राचीन युगके वेश्य भी न केवल युद्धोमें भाग लेते थे, किन्तु सेनाके नायकतक बनते थे। शिशुनाथ वंशी राजा श्रेणिक (बिम्बसार) के नगरसेठ अर्हद्दासके पुत्र जम्वुकुमारके, जिन्होंने युवावस्थामें जिनदीक्षा धारण की और अन्तिम केवली हुए, युद्ध करनेके वर्णन जैन शास्त्रोंमे वर्णित है। . आज यद्यपि जनधर्मके अनुयायी केवल वैश्य देखे जाते है किन्तु जिन वैश्य जातियोमें जैनधर्म पाया जाता है, उनमेसे अनेक जातियों पहले क्षत्रिय थी, राज्यसत्ता चली जाने और व्यवसायके बदल जाने से वे अब वैश्य जातियाँ वन गई है। अत क्षत्रियोका धर्म आज वनियोका धर्म बन गया है। इस पुस्तकके 'इतिहास' विभागमें जैनधर्मके अनु
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विविध
PEE यायी राजाओंकी चर्चा धार्मिक दृष्टिसे की गई है। यहाँ उन तथा कुछ अन्य जैन वीरोंका वर्णन वीरताकी दृष्टिसे किया जाता है।
- राजा चेटक . भगवान महावीरकी माता राजा चेटक की पुत्री थी। राजा - चेटक अपने शौर्यके लिए प्रख्यात था। एक बार चेटकके दौहित्र मंगघसम्राट् कुणिक (अजातशत्रु) ने चेटककी वृद्धावस्थामे चेटकके विरुद्ध आक्रमण कर दिया था। चेटकने घमासान युद्ध करके अजातशत्रुके दांत खट्टे कर दिये थे।
राजा उदयन र सिन्धु-सौवीरका राजा उदयन महावीर भगवान्का अनुयायी था। यह राजा जैसा धर्मात्मा था वैसा ही वीर भी था। एकवार उज्जनीके राजा चण्डप्रद्योतने उसपर आक्रमण कर दिया। घमासान युद्ध हुआ और उदयनने प्रघोतको पकड़कर अपना वन्दी बना लिया।
मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त । मौर्यसम्राट चन्द्रगुप्तका नाम तो भारतीय इतिहासमे स्वर्णाक्षरों में लिखा हुआ है। सिकन्दरकी मृत्युके वाद इस वीरने भारतवर्षको यूनानियोंकी दासतासे मुक्त किया और युद्धभूमिमें यूनानी सेनापति सेल्युकसको पराजित करके हिन्दूकुश पहाड़तक अपने साम्राज्यका विस्तार किया ।
कलिंग चक्रवर्ती खारवेल । राजा खारवेलक शिलालेखसे मालूम होता है कि खारवेलने सातकर्णिकी कुछ भी परवाह न करके पश्चिमकी ओर अपनी सेना भेजी। फिर मूर्षिकोंपर आक्रमण किया। सातकर्णि और मूर्षिकों, पर विजय प्राप्त करके राष्टिको और भोजकोंसे अपने पैर पुजवाये। फिर मगधपर आक्रमण किया। दक्षिणके पाण्ड्यराजाने हाथी घोडे मणि, मुक्ता आदि भेटम देकर खारवेलका आधिपत्य स्वीकार किया। ऐसा प्रवल पराक्रमी जैनराजा खारवेलके पश्चात् दूसरा नहीं हुआ।
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जैनधर्म
महाराज कुमारपाल चित्तोडके फिलेसे प्राप्त शिलालेखमें लिखा है कि महाराज कुमारपालने अपने प्रबल पराक्रमसे सब शत्रुओको निर्मद कर दिया। उनको आज्ञाको पृथ्वीके सव राजाओने मस्तक पर चढाया। उसने गाकमकि राजाको अपने चरणोमें नमाया। वह स्वयं अस्त्र लेकर सवालक्ष दश (मारवाड ) पर्यन्त चढा और सब गढपतियोंको नमाया। सालपुरको भी वगर्म किया। महाराज कुमारपाल गुजरातके राजा थे।
गंगनरेश मारसिंह ___ गंगनरेश मारसिंह भी जैसा धर्मात्मा था वैसा ही शूरवीर मा था। इसने कृष्णराज तृतीयके भयानक शत्रु अल्लाहका मान-मन किया। और कृष्णराजको सेनाकी रक्षा की। किरातोको भगाया। बज्जालको हराया। वनवासीके अधिकारीको पकड़कर उसपर आधकार किया। मथुराके राजामोसे विनय प्राप्त की। नौलम्ब राजामौका नप्ट किया । चालुक्य राजकुमार राजादित्यको हराया। तापी, मान्यखेड, गोनूर, वनवासी आदिकी लड़ाइयोंको जीता । इसकी गगचूडामणि, नोलम्बातक, माण्डलीक त्रिनेत्र, गगविद्याधर, गगवन आदि अनेक उपाधियाँ थी।
समरकेसरी चामुण्डराय यह राजा राचमल्लके सेनापति थे। राजा इनकी वीरतासे वा प्रसन्न था। जव इन्होने वज्जलदेवको हराया तो समरघुरल्वरकी पदवी, पाई । नोलम्व युद्धम सफल होनेपर वीरमार्तण्ड कहलाय। उच्छंगक किलेको जीत लेनेपर रणरायसिंह हए। वागपुरके किलेमें त्रिभुवनवीरको मार डालनेपर वैरी-कुल-काल-दण्डकी उपाधि पाई। गंगभट्टका युद्धमे मारनेपर समरपरशुराम हुए। सत्यवादी होनेसे सत्य युधिष्ठिर कहे जाते थे।
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जैनधर्म
धनराज
जव १७८७ ई० में अजमेरके महाराजा विजयसिंहने अजनेरको मरहट्ठों से पुन. जीत लिया तो धनराज सिंघोको, जो ओसवाल जैन थे, अजमेरका गवर्नर बनाया। चार सालके बाद मरहठोने पुन मारवाड़पर आक्रमण किया । इसी बीच मरहठा सरदारने बज मेरको भी चारों मोरसे घेर लिया। धनराजने अपनी छोटी-सी सेनासे शत्रुका सामना बड़ी वीरतासे किया किन्तु मरहठोंकी शक्ति देखकर विजयसिंहने धनराजको आज्ञा दी कि अजमेर मरहठो सौपकर जोधपुर चले आओ। घनराज न तो अपमानित होकर शत्रुको देश सोपना चाहता था और न स्वामीकी आज्ञाका उल्लंघन करना चाहता था। उसने होरेकी कनी खाकर प्राण त्याग दिये और मरते समय चिल्लाया - महाराजसे कह देना मेने उनकी आज्ञाका पाल्न किया। मेरे जीतेजी मरहठे अजमेर में प्रवेश नही कर सकते थे ।
जनरल इन्द्रराज
जैन ओसवालोंमें इन्द्रराज सबसे बड़े जनरल हुए है । इन्होंने बीकानेरके राजाको हराया और जयपुर के राजाका मान भंग किया। सन् १८१५ में इनका स्वर्गवास जोधपुरमें हुआ ।
वस्तुपाल तेजपाल
जैन मंत्रियों और सेनापतियोंमें वस्तुपाल तेजपालका उल्लेखनीय है । ये दोनों भाई राजनीतिक पण्डित, तलवारके घनी शिल्पकला के प्रेमी और जैन के अनन्य भक्त थे। ये पोरवाड थे और गुजरातके वघेलवंशी राजा वीरधवलके मंत्री थे ।
देवगिरिके यादववंशी राजा सिंहमने जब गुजरातपर आर किया तो इन वीरोने उनसे युद्ध करके विजय प्राप्त की । इसी प्रका संग्राममहने सम्नातपर हमला किया तो वस्तुपाल वहाँका गवर्न था। घमासान युद्ध हुवा और संगामसिंहको युद्ध क्षेत्रसे भागना पडा
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विविध
सेनापति आभू आभू श्रीमाली जैन राजपूत था। वह पक्का धर्माचरणी था। गुजरातके अन्तिम सोलंकी राजा भीमदेवका सेनाध्यक्ष था। अभी वह इस पदपर नया ही नियुक्त हुआ था और भीमदव अनुपस्थित थे। ऐसे समयमै मुसलमानोने राजधानीपर आक्रमण कर दिया । 'रानीको चिंता हुई किन्तु आभूके उत्साहप्रद वचनोंसे विश्वस्त होकर रानीने युद्धकी घोषणा कर दी और युद्धका भार आभूको सौंप दिया।
आभू अपने दैनिक धर्म-कर्मका बडा पक्का था। युद्धके मैदानमे सन्ध्या होते ही वह तलवार म्यानमें रखकर हाथी के हौदेपर ही आत्म। ध्यानमे लीन हो गया । यह देखकर लोग कहने लगे कि यह जनी क्या
लडेगा। किन्तु नित्यकृत्य करनेके बाद ही सेनापतिकी तलवार चमकने लगी और मुसलमानोंके सेनापतिको हथियार डालकर सन्धिकी प्रार्थना करनी पड़ी।
जयपुर के जैन दीवान । जयपुर राज्यके दीवान पदको बहुत वर्षोंतक जैनोने सुशोभित किया है, और राज्यको अनुशासित, सुखी तथा समृद्ध करनेमे स्तुत्य हाथ बटाया है तथा उसकी रक्षाके लिए बहुत कुछ किया है। यहाँ एक दो उदाहरण दिये जाते है। ___ जब औरगजेवका पुत्र बहादुरशाह भारतका सम्राट् बना तो उसने आमेरपर कब्जा कर लिया और सवाई जयसिंहको राज्य छोडना पड़ा, तब दीवान रामचन्द्रने सेना सगठित करके आमेरपर चढाई कर दी और आमेरपर पुन. जयसिहका अधिकार हो गया । । इसी तरह दीवान रायचन्दजी छावड़ा भी जयपुर नरेशके प्रिय
और विश्वासपात्र थे। स० १८६२ मे जव जयपुर और जोधपुरमे उदयपुरकी राजकुमारीको लेकर झगडा हुआ तव जोधपुरमें वशी सिंघी इन्द्रराज और दीवान रायचन्दने मिलकर झगडेको खत्म किया । किन्तु बादको लड़ाईकी नौबत आगई और दीवान रायचन्द
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ने बुद्धि-कौशल और शस्त्र-कौशलसे उसे निवटाया । ये दीवार वडे धर्मात्मा थे। इन्होने १८६१ मे एक बहुत बडी विम्ब प्रतिष्ठ कराई थी।
इस तरह संक्षेपमें कुछ जैनवीरोंकी यह कीर्तिगाथा है, ६ बतलाती है कि जैन धर्मानुयायी आवश्यकता पड़नेपर मरले बो मारनेके लिये भी तत्पर रहते हैं। क्योकि 'जे कम्मे सूरा ते धम् सूरा जो 'कर्मवीर होते हैं वही धर्मवीर होते है ऐसा शाल वाक्य है।
२ जनपर्व
दशलक्षण या पर्युषणपर्व जैनोंका सबसे पवित्र पर्व दशलक्षण पर्व है। दिगम्बर सम्प्रदायमे यह पर्व प्रतिवर्ष भाद्रपद शुल्का पंचमीसे चतुर्दशीतक तथा खे० में भाद्रकृ० १२ से भाद्रशु० ४ तक मनाया जाता है । इन दिनोंमे जैन मन्दिरों में खूब आनन्द छाया रहता है। प्रतिदिन प्रात कालसे ही सव स्त्री-पुरुष लान करके मंदिरोंमे पहुंच जाते है और बड़े आनन्दके साथ भगवानका पूजन करते है। पूजन समाप्त होनेपर प्रतिदिन श्री तत्वार्थसत्रके दस अध्यायोंमसे एक एक अध्यायका व्याख्यान और उत्तम क्षमा, मार्दद, मार्जव, शौच, सत्य, संयम, तप. त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य इन धर्मोमेंसे एक एक धर्मका विवेचन होता है। इन दस धर्मोंके कारण इस पर्वको दशलक्षणपर्व कहते है, क्योकि धर्मके उक्त दस लक्षणोंका इस पर्वमें खासतौरसे बाराधन किया जाता है। व्याख्यानके लिये वाहरसे बड़े बड़े विद्वान् बुलाये जाते हैं, और प्राय नभी स्त्री-पुरुष उनके उपदेगसे लाभ उठाते हैं। त्याग धर्मके दिन परोपकारी संस्थाओको दान दिया जाता है और नाश्विन कृष्णा प्रतिपदाके दिन पर्वकी समाप्ति होनेपर सब पुरुष एकन होकर परस्परम गले मिलते हैं और गतवर्षकी अपनी गलतियोंक
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लिए परस्परमे क्षमायाचना करते है । जो लोग दूर देशान्तर में बसते है उन्हे पत्र लिखकर क्षमायाचना की जाती है ।
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इन दिनों प्राय सभी स्त्री-पुरुष अपनी अपनी शक्तिके अनुसार व्रत उपवास वगैरह करते है । कोई कोई दसों दिन उपवास करते है, बहुत से दसों दिन एक बार भोजन करते है। इन्ही दिनोंमें भाद्रपद शुक्ला दशमीको सुगन्धदशमी पर्व होता है, इस दिन सब जैन स्त्री पुरुष एकत्र होकर मन्दिरोंमें धूप देनेके लिये जाते है; इन्दौर वगैरह मे यह उत्सव दर्शनीय होता है ।
भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशी अनन्त चतुर्दसी कहलाती है । इसका जैनों मे बड़ा महत्त्व है। जैनशास्त्रोके अनुसार इस दिन व्रत करनेसे बड़ा लाभ होता है । दूसरे, यह दशलक्षण पर्वका अन्तिम दिन भी है, इसलिये इस दिन प्राय सभी जैन स्त्री-पुरुष व्रत रखते है और तमाम दिन मन्दिरमे ही बिताते है । अनेक स्थानोंपर इस दिन जलूस भी निकलता है । कुछ लोग इन्द्र वनकर जलूसके साथ जल लाते है मोर उस जलसे भगवान्का अभिषेक करते है । फिर पूजन होता है और, 1 पूजन के बाद अनन्त चतुर्दशीव्रत कथा होती है । जो व्रती निर्जल उपवास नही करते वे कथा सुनकर ही जल ग्रहण करते है ।
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श्वेताम्बर सम्प्रदायमें इसे 'पर्युषण' कहते है । साधुओंके लिये दस प्रकारका कल्प यानी आचार कहा है उसमे एक 'पर्युषणा' है । 'परि' अर्थात् पूर्ण रूपसे, उषणा अर्थात् वसना । अर्थात् एक स्थान, पर स्थिर रूपसे वास करनेको पर्युषणा कहते है । उसका दिनमान तीन प्रकारका है । कमसे कम ७० दिन, अधिक से अधिक ६ मास ? और मध्यम ४ मास । कमसे कम ७० दिनके स्थिरवासका प्रारम्भ भाद्रपद सुदी पञ्चमी से होता है। पहले यही परस्परा प्रचलित थी किन्तु कहा जाता है कि कालिकाचार्यने चौथकी परस्परा चालू की। उस दिनको 'सवछरी' यानी सांवत्सरिक पर्व कहते है । सावत्सरिक पर्व अर्थात् त्यागी साधुओके वर्षावास निश्चित करनेका दिन । सांव
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नवर्म सरिक पर्वको केन्द्र मानकर उसके साथ उससे पहलेक सातादन मिलकर भाद्रपद कृष्ण १२ ते शुक्ला चौथतक आठ दिन श्वेताम्बर सम्प्रदायमें 'पर्युषण' कहे जाते है । दिगम्बर सम्प्रदायमें आक वदले दस दिन माने जाते है। और श्वेताम्बरोंके पर्युषण पूरा होना दूसरे दिनसे दिगम्बरोंका दशलाक्षणी पर्व प्रारम्भ होता है। साथ सरिक पर्वमें गतवर्ष में जो कोई वैर विरोध एक दूसरेके प्रति हो गया हो, उसके लिये 'मिच्छामि दुक्कड' 'मेरा दुष्कृत मिथ्या हो ऐस कहकर क्षमायाचना की जाती है। इस पर्वका सन्मान मुगलबादशा तरी करते थे। सम्राट् बकवरले जनाचार्य हीरविज्य सूरिक उपदेश भावित होकर पर्युषण पर्वमें हिंसा वन्द रखनेका फर्मान अपने सान्न यमें जारी किया था।
अष्टान्हिका पर्व दिगम्बर सम्प्रदायका दूसरा महत्त्वपूर्ण पर्व अष्टालिका पर्व है। यह पर्व कातिक, फाल्गुन और आसाढ मासके अन्तके आठ दिनोम मनाया जाता है। जैन मान्यताके अनुसार इस पृथ्वीपर आवा नन्दीश्वर द्वीप है। उस द्वीपमे ५२ जिनालय बने हुए है। उनकी पूजा करनेके लिये स्वर्गसे देवगण उक्त दिनोंमें जाते है। चूंकि मनुष्य वहाँ तक जा नहीं सकते इसलिये वे उक्त दिनो पर्व मनाकर यहीपर पूजा कर लेते हैं। इन्ही दिनोमें सिद्धचक्र पूजा विधानका आयोजन किया जाता है। यह पूजा महोत्सव दर्शनीय होता है। श्वेताम्वरोम
भी पर्युपणके बाद सबसे महत्वका जैन पर्व सिद्धचक्र पूजा विधान ही है। किन्तु उनमें यह पूजा वर्षमें दो वार-वैत्र और आसोजमें होती है, और नप्तमीले पूनम तक ६ दिन चलती है।
महावीर जयन्ती चैत्र शुक्ला प्रयोदशी भगवान महावीन्की जन्मतिथि है। दिन भारतवर्षयो नमी जैन बपना पारोबार बन्द गलकर ने अपने न्यानोपर बही धन-धामने महावीरकी जयन्ती मनाते हैं। प्रातार
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३०७. जलस निकालते है और रात्रिमें सार्वजनिक सभाका आयोजन होता है। भारत भरमें बहुत-सी प्रान्तीय सरकारोंने अपने प्रान्तमें महावीर जयन्तीकी छुट्टी घोषित कर दी है। केन्द्रीय सरकारसे भी जैनोंकी यही मांग है।
वीरशासन जयन्ती जैनोंके अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीरको पूण-ज्ञानकी प्राप्ति हो जानेपर उनकी सबसे पहली धर्मदेशना मगधकी राजगृही नगरीके विपुलाचल पर्वतपर प्रात कालके समय हुई थी। उसीके उपलक्षमें प्रतिवर्ष श्रावण कृष्णा प्रतिपदाको वीर गासन जयन्ती मनाई जाती है। गत वि० सं० २००१ में पहले राजगृहीमें और वादको कलकत्तामे अढाई हजारवाँ वीर शासन महोत्सव बडी धूम-धामसे मनाया गया था।
श्रुत पञ्चमी दिगम्बर सम्प्रदायमें धीरे-धीरे .जब अंग ज्ञान लुप्त हो गया तो अंगों और पूर्वोके एक देशके ज्ञाता आचार्य घरसेन हुए। वे सोरठ देशके गिरनार पर्वतकी चन्द्रगुफामें ध्यान करते थे। उन्हें इस बातकी चिन्ता हुई कि उनके बाद श्रुत ज्ञानका लोप हो जायेगा, अत उन्होने महिमा नगरीमें होनेवाले मुनि सम्मेलनको पत्र लिखा, जिसके फलस्वरूप वहाँसे दो मुनि उनके पास पहुंचे। आचार्यने उनकी बुद्धिकी, परीक्षा करके उन्हें सिद्धान्त पढाया और विदा कर दिया। उन दोनों मुनियोंका नाम पुष्पदन्त और भूतबलि था। उन्होने वहाँसे आकर षट्खण्डागम नामक सिद्धान्त ग्रन्यकी रचना की। रचना हो जानपर भूतवलि आचार्यने उसे पुस्तकारूढ करके ज्येष्ठ शुक्ला पंचमी१. "ज्येप्ठसितपक्षपञ्चम्यां चातुर्वप्यमघसमवेत । तत्पुस्तकोपकरणयंघात् क्रियापूर्वक पूनाम् ।।१४३॥ ध्रुतपञ्चमीति तेन प्रत्याति तिपिरय परामाप । अद्यापि येन तस्या भुतपूजी कुर्वने ना ॥१४॥" इन्द्रनन्दि-शुतावतार।
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जैनधर्म
के दिन चतुविध संघके साथ उसकी पूजा की, जिससे श्रुत पञ्चमी तिथि दि० जैनियोंमें प्रख्यात हो गई । उस तिथिको वे शास्त्रोकी पूजा करते है । उनकी देख-भाल करते हैं, धूल तथा जीवजन्तुसे उनको सफाई करत है। श्वेताम्वरोमें कार्तिक सुदी पचमीको ज्ञानपंचमी माना जाता है। उस दिन वे धर्मग्रन्थोकी पूजा तथा सफाई वगैरह करते है ।
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उक्त पर्वोके सिवा प्रत्येक तीर्थङ्करके गर्भ, जन्म, दीक्षा, केवल ज्ञान और निर्वाणके दिन कल्याणक दिन कहे जाते है । उन दिनोमें भी जगह जगह उत्सव मनाये जाते है । जैसे अनेक जगह प्रथम तीर्यङ्कर ऋषभदेवकी ज्ञान जयन्ती या निर्वाणतिथि मनाई जाती है ।
दीपावली
ऊपर जो जन पर्व बतलाये गये है वे ऐसे है जिन्हें केवल जैन धर्मानुयायी ही मनाते है । इनके सिवा कुछ पर्व ऐसे भी है जिन्हें जैनो के सिवा हिन्दू जनता भी मनाती है। ऐसे पर्वोंमें सबसे अधिक उल्लेखनीय दीपावली या दिवालीका पर्व है। यह पर्व कार्तिक मासकी अमावस्याको मनाया जाता है। साफ सुथरे मकान कार्तिको अमावस्याकी सन्ध्याको दीपोंके प्रकाशसे जगमगा उठते है । घर घर लक्ष्मीका पूजन होता है। सदियों से यह त्योहार मनाया जाता है, किन्तु किसीको इसका पता नही है कि यह त्यौहार कब चला, क्यो चला और किसने चलाया ? कोई इसका सम्बन्ध रामचन्द्रजी के अयोध्या लोटनेसे लगाते है । कोई इसे सम्राट् अशोककी दिग्विजयका सूचक बतलाते हैं । किन्तु रामायणमें इस तरहका कोई उल्लेख नही मिलता है, इतना ही नही, किन्तु 'किसी हिन्दू पुराण वगैरह में भी इस सम्बन्धमें कोई उल्लेख नही मिलता।
१---श्री वासुदेव शरण अग्रवालने हमें सुझाया है कि वात्स्यायन कामसूत्रमें दीपावलीको यक्षरात्रि महोत्सव कहा गया है । तथा चौद्धोक 'पुप्फरत' जातकमें कार्तिकी रात्रिको होने वाले उत्सवका वर्णन है इसी प्रकार कार्तिककी पौर्णभासोको होने वाले उत्सवका वर्णन 'धम्मपद अटकथा में पाया जाता है। इन
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३०९. बौद्धधर्ममे तो यह त्यौहार मनाया ही नहीं जाता। रह जाता है जन सम्प्रदाय । इस सम्प्रदायमे शक सं०७०५ (वि० सं०८४०) का रचा हुमा हरिवंश पुराण है। उसमें भगवान महावीरके निर्वाणका वर्णन करते हुए लिखा है-"महावीर भगवान् भव्यजीवोको उपदेश देते हुए पावा नगरीमे पधारे, और वहाँके एक मनोहर उद्यानमें, चतुर्थकालमें तीन वर्ष साढे आठ मास वाकी रह जानेपर कार्तिकी अमावस्याके प्रभातकालीन सन्ध्याके समय, योगका निरोध करके कर्मोका नाश करके मुक्तिको प्राप्त हुए। चारों प्रकारके देवताओंने आकर उनकी, पूजा की और दीपक जलाये। उस समय उन दीपकोंके प्रकाशसे पावानगरीका आकाश प्रदीपित हो रहा था। उसी समयसे भक्त लोग जिनेश्वरकी पूजा करनेके लिये भारतवर्षमे प्रति वर्ष उनके निर्वाण. दिवसके उपलक्षमे दीपावली मनाते है।"
जैनधर्मकी आजकी स्थितिको देखते हुए कोई इस बातपर विश्वास नहीं कर सकता कि महावीर निर्वाणके उपलक्ष्यमे दीपावली मनाई जा सकती है। किन्तु उस समयके प्रसिद्ध प्रसिद्ध राजघरानोके साथ ।
उल्लेखोसे इतना ही पता चलता है कि कार्तिकम रात्रिके समय कोई उत्त मनाया जाता रहा है। किन्तु वह क्यो मनाया जाता है तया उसका रूप क्या था, इसका पता नही चलता। ले० । १. "जिनेन्द्रवीरोऽपि विवोध्य सतत समततो भव्यसमूहसतति । प्रपद्य पावानगरों गरीयसी मनोहरोद्यानवने तदीयके ॥१५॥ चतुर्थकालेऽर्घचतुर्यमासकै विहीनताविश्चतुरन्दशेपके। सकातिके स्वातिषु कृष्णभूतसुप्रभातसन्व्यासमये स्वभावतः ॥१॥ । अघातिकर्माणि निरुद्धयोगको विधूय धाती धनवद्धिवधन । विवन्धनस्थानमवाप शकरो निरन्तरायोख्सुखानुवन्यम् ॥१७॥ ज्वलत्प्रदीपालिकया प्रवृद्धया सुरासुर दीपितया प्रदीप्तया। तदा म पावानगरी समतत प्रदीपिताकाशतला प्रकाशते ॥१९॥ ततस्तु लोक प्रतिवर्षमादरात् प्रसिद्धदीपालिकयात्र भारते। समुद्यत पूजयितुं जिनेश्वर जिनेन्द्रनिर्वाण विभूतिभत्तिमाक् ॥२०॥
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महावीरका जो कुलझमागत सम्बन्ध था तथा उनपर जो प्रभाव था उसे देखते हुए ऐसा हो सकना असभव तो नहीं कहा जा सकता। मझिमनिकायके सामगामसुत्तके अनुसार जब चुन्द महात्मा बुद्ध प्रेय शिष्य आनन्दको महावीरके मरनेका समाचार देता है तो आयुष्यमान् मानन्द कहते है-'आवुस चुन्द | भगवान बुद्धके दर्शनके लिए 'यह बात भेट स्वरूप है।' इस घटनासे ही स्पष्ट हो जाता है कि अपने समयमें महावीर भगवान्का कितना प्रभाव था। __ इसके सिवा दीपावली के पूजनकी जो पद्धति प्रचलित है, उससे भी इस समस्यापर प्रकाश पड़ता है। दीपावलीके दिन क्यों लक्ष्मीजन होता है इसका सन्तोपजनक समाधान नहीं मिलता। दूसरी र, जिस समय भगवान् महावीरका निर्वाण हुमा उसी समय उनके धान शिप्य गौतम गणघरको पूर्ण ज्ञानकी प्राप्ति हुई। यह गौतम
ह्मण थे। मुक्ति और ज्ञानको जनधर्ममें सबसे बडी लक्ष्मी माना है और प्राय मुक्तिलक्ष्मी और ज्ञानलक्ष्मीके नामसे ही शास्त्रोम उनका 'ल्लेख किया गया है। अत सम्भव है कि आध्यात्मिक लक्ष्मीक 'जनकी प्रथाने धीरे-धीरे जनसमुदायमें वाह्य लक्ष्मीके पूजनका रूप
लिया हो। वाह्यष्टिप्रधान मनुष्यसमाजमे ऐसा प्राय. देखा आता है। लक्ष्मीपूजनके समय मिट्टीका घरौंदा और खेल खिलौने से रखे जाते है। हमारे बड़े कहा करते थे कि यह घरोदा भगवान् हावीर अथवा उनके शिष्य गौतम गणधरकी उपदेश सभा (समवरण) की यादगारमें है और चूंकि उनका उपदेश सुननेके लिये नुष्य पशु सभी जाते थे अत उनको यादगारमे उनकी मूर्तियाँ (खिलौने) खे जाते है। इस तरह दीपावली के प्रकाशमे हम प्रतिवर्ष भगवान्की गर्वाण लक्ष्मीका पूजन करते है। और जिस रूपमें उनकी उपदेश भा लगती थी उसका साज सजाते है ।
दीपावलीके प्रात.कालमें सभी जैन मन्दिरों में महावीर निर्वाणस्मतिम बड़ा उत्सव मनाया जाता है और नैवेद्य (लाडू) से भगवान
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की पूजा की जाती है । इस ढगकी पूजाका आयोजन केवल इसी दिन होता है । इससे घर घरमे उस दिन जो मिष्टान्न बनता है उसका उद्देश्य भी समझमें आ जाता है । सलूनो या रक्षाबन्धन
दूसरा उल्लेखनीय सार्वजनिक त्यौहार, जिसे जैनी मनाते है सलूनो या रक्षाबन्धन पर्व है । साधारणत इस त्यौहारके दिन घरोंमे मियाँ बनती है और ब्राह्मण लोग लोगों के हाथोमे राखियाँ, जिन्ह रक्षाबन्धन कहते है, वाँघकर दक्षिणा लेते है । राखी बांधते समय वे एक श्लोक पढते है जिसका भाव यह है - 'जिस राखीसे दानवोंका इन्द्र महावलि वलिराजा बांधा गया उससे मै तुम्हे भी बाँधता हूँ मेरी रक्षा करो और उससे डिगना नही ।
साथ ही साथ उत्तर भारतमे एक प्रथा और है । उस दिन हिन्दू मात्रके द्वारपर दोनों ओर मनुष्यके चित्र बनाये जाते है उन्हें 'सोन' कहते है । पहले उन्हें जिमाकर उनके राखी बांधी जाती है तब घरके लोग भोजन करते है । हमने अनेकों विद्वानों और पौराणिकोंसे इस त्यौहार के बारेमे जानना चाहा कि यह कब कैसे चला किन्तु किसी से भी कोई बात ज्ञात नही हो सकी । वलि राजाकी कथा वामनावतार के सिलसिले में आती है, किन्तु, उस से इस पर्व के बारेमें कुछभी ज्ञात नही होता । जैनपुराणोमे अवश्य एक कथा मिलती है जो सक्षेपमें इस प्रकार है
किसी समय उज्जैनी नगरीमे श्रीधर्म नामका राजा राज्य करता था। उसके चार मत्री थे - बलि, बहस्पति, नमुचि और प्रहलाद । एक बार जैनमुनि अकम्पनाचार्य सात सौ मुनियोंके सघके साथ उज्जैन में पधारे। मंत्रियो के मना करनेपर भी राजा मुनियोंके दर्शनके लि गया । उस समय सब मुनि ध्यानस्थ थे । लौटते हुए मार्ग मे एक मुनिसे
१. 'येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महावली |
तेन त्वामपि बध्नामि रक्ष मा चल मा चल ।'
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त्रियोका शास्त्रार्थ हो गया। मत्री पराजित हो गय । क्रुद्ध मंत्री पत्रिमे तलवार लेकर मुनियोको मारनेके लिये निकले । मार्गमें गुरुकी प्राज्ञासे उसी शास्त्रार्थके स्थानपर ध्यानमें मग्न अपने प्रतिद्वन्द्वी मुनिको देखकर मत्रियोने उनपर वार करनेके लिये जैसे ही तलवार ऊपर उठाई, उनके हाथ ज्योंके त्यों रह गये। दिन निकलनेपर राजाने त्रियोको देशसे निकाल दिया। चारोमत्री अपमानित होकर हस्तिनापुरके राजा पनकी शरणमें आये। वहाँ बलिने कौशलसे पद्म राजाके एक शत्रुको पकड कर उसके सुपुर्द कर दिया। पद्मने प्रसन्न होकर मुंहमांगा वरदान दिया । बलिने समयपर वरदान मांगनेके लिये कह
दिया।
कुछ समय बाद मुनि अकम्पनाचार्यका संघ विहार करता हुआ हस्तिनापुर आया और उसने वही वर्षावास करना तय किया । जव बलि वगैरहको इस बातका पता चला तो पहले तो वे बहुत घबराय, पीछे उन्हें अपने अपमानका बदला चुकानेकी युक्ति सूझ गई । उन्होने वरदानका स्मरण दिलाकर राजा पद्मसे सात दिनका राज्य मांग लिया। राज्य पाकर बलिने मुनिसपके चारों ओर एक बाडा खडा करा दिया और उसके अन्दर पुरुषमेध यज्ञ करनेका प्रबन्ध किया। __इधर मुनियोपर यह उपसर्ग प्रारम्भ हा उघर मिथिला नगरीमे वतमान एक निमित्तज्ञानी मुनिको इस उपसर्गका पता लग गया। उनके मुंहसे हा हा' निकला । पासमें वर्तमान एक क्षुल्लकने इसका कारण पूछा तो उन्होंने सब हाल बतलाया और कहा कि विष्णुकुमार मुनिको विक्रिया ऋद्धि उत्पन्न हो गई है वे इस सकटको दूर कर सकते है। क्षुल्लक तत्काल मुनि विष्णुकुमारके पास गये और उनको सब समाचार सुनाया। विष्णुकुमार मुनि हस्तिनापुरके राजा पद्मके भाई थे । वे तुरन्त अपने भाई पद्यके पास पहुंचे और बोले-पधराज ' तुमने यह क्या कर रखा है ' कुरुवशमें ऐसा अनर्थ कभी नहीं हुआ। यदि राजा ही तपस्वियोपर अनर्थ करने लगे तो उसे कौन दूर कर सकेगा?
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यदि जल ही आगको भडकाने लगे तो फिर उसे कौन वुझा सकेगा।' उत्तरमें पद्मने बलिको राज्य दे देनेका सब समाचार सुनाया और कुछ कर सकनमें अपनी असमर्थता प्रकट की । तब विष्णुकुमार मुनि वामनरूप धारण करके बलिके यज्ञमें पहुंचे और बलिके प्रार्थना करनेपर तीन पर धरती उससे माँगी। जब बलिने दानका संकल्प कर दिया तो विष्णुकुमारने विक्रिया ऋद्धिके द्वारा अपने शरीरको बढाया। उन्होने । अपना पहला पैर सुमेरु पर्वतपर रखा, दूसरा पैर मानुषोत्तर पर्वतपर, रखा, और तीसरा पैर स्थान न होनेसे माकाशमे डोलने लगा। तब सर्वत्र हाहाकार मच गया, देवता दौड़ पड़े और उन्होंने विष्णुकुमार मुनिसे प्रार्थना की 'भगवन् ? अपनी इस विक्रियाको समेटिये ।' आपके तपके प्रभावसे तीनों लोक चंचल हो उठे है । तब उन्होंने अपनी विक्रियाको समेटा । मुनियोंका उपसर्ग दूर हुआ और वलिको देशसे निकाल दिया गया।
वलिके अत्याचारसे सर्वत्र हाहाकार मच गया था और ने यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि जब मुनियोका संकट दूर होगा तो उन्ह. आहार कराकर ही भोजन ग्रहण करेंगे। संकट दूर होनेपर सब लोग ने दूधकी सीमियोंका हल्का भोजन तैयार किया, क्योकि मुनि कर. दिनके उपवासे थे । मुनि केवल सात सौ थे अतः वे केवल सात सौ पर पर ही पहुंच सकते थे। इसलिये शेष घरों में उनकी प्रतिकृति बनाकर और उसे आहार देकर प्रतिज्ञा पूरी की गई । सवने परस्परमे रक्ष' करनेका वन्धन बांधा, जिसकी स्मृति त्यौहारके रूपमें अवतक चली आती है। दीवारोंपर जो चित्र रचनाकी जाती है उसे "सौन' कह
१ श्री वासुदेव शरण अग्रवालने हमें बताया है कि 'सोन' शब्द शनिक अपभ्रश है जिसका अर्थ होता है गरुड पक्षी। श्रावण मासमें नाग पचमीके ८ जो चित्रकारी की जाती है वह नागोकी सूचक है और रक्षावन्वनके दिन ज चित्रकारी की जाती है वह गडकी सूचक है। नागो और गरुडोके वमनस्यप उल्लेख वैदिक साहित्यमे पाया जाता है। तथा वह प्रकाश और अन्वकार.
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जैनधर्म जाता है, यह 'सौन' शब्द 'श्रमण' शब्दका अपभ्रा जान पड़ता है। प्राचीनकालमें जैन साधु श्रमण कहलाते थे। इस प्रकारसे सलनो या रक्षावन्धनका त्यौहार जैन त्यौहारके रूपमे जैनोमे आज भी मनाया जाता है। उस दिन विष्णुकुमार और सात सौ मनियोकी पूजन की जाती है। उसके बाद परस्परमे राखी बांधकर दीवारोपर चित्रित , 'सौनों को आहार दान दिया जाता है। तव सव भोजन करते है और गरीबों तथा बाह्मणोंको दान भी देते है।
३ तीर्थक्षेत्र ___ साधारणत जिस स्थानकी यात्रा करनेके लिये यात्री जाते हैं, उसे तीर्थ कहते है। तीर्थ शब्दका अर्थ घाट अर्थात स्नान करनेका स्थान भी होता है किन्तु जनोंमें कोइ स्नानस्थान तीर्थ नहीं है । नदियोक जलमें पापनाशक शक्ति है यह वात हिन्दू मानते है किन्तु जन नही मानते । इसी प्रकार सती होनेकी प्रथा हिन्दुओकी दृष्टिसे मान्य है और इसलिये वे सतियोके स्थानोको भी तीर्थकी तरह पूजते है, किन्तु जैन उन्हें नही मानते । जैन दृष्टिसे तो तीर्थशब्दका एक ही अर्थ लिया नाता है-'भवसागरसे पार उतरनेका मार्ग वतलानेवाला स्थान । इसलिये जिन स्थानोपर तीर्थङ्करोने जन्म लिया हो, दीक्षा धारण की हो, तप किया हो, पूर्णज्ञान प्राप्त किया हो, या मोक्ष प्राप्त किया हो, उन स्थानोको जनी तीर्थस्थान मानते है । अथवा जहाँ कोई पूज्य वस्तु वर्तमान हो, तीर्थङ्करोंके सिवा अन्य महापुरुष जहाँ रहे हों या उन्होने निर्वाण प्राप्त किया हो, वे स्थान भी तीर्थ माने जाते है ।
जैनोके तीर्थोकी सख्या बहुत है । उन सवको वतला सकना शक्य नही है, क्योंकि जैन धर्मकी अवनतिके कारण अनेक प्राचीन तीर्थ भाज विस्मृत हो चुके है, अनेक स्थान दूसरोंके द्वारा अपनाये जा चुक है। कई प्रसिद्ध स्थानोपर जैनमूर्तियाँ दूसरे देवताओके रूपमें पूजी हाईका भी सूचक है। रक्षाबन्धन के दिन गरुड या प्रकाशको विजय नागो अथवा विकार पर हुई थी।
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जाती है । उदाहरण के लिये प्रख्यात बद्रीनाथ तीर्थके मन्दिरमे भगवान् पार्श्वनाथको मूर्ति बद्रीविशालके रूपमे तमाम हिन्दू यात्रियोक द्वारा पूजी जाती है । उसपर चन्दनका मोटा लेप थोपकर तथा हाथ वगैरह लगाकर उसका रूप बदल दिया जाता है, इसी लिये जब प्रात काल श्रृङ्गार किया जाता है, तो किसीको देखने नही दिया जाता । क्या आश्चर्य है जो कभी वह जैन मन्दिर रहा हो और शकराचार्य के द्वारा इस रूपमे कर दिया गया हो, जैसा कि वहाँ के पुराने बूढ़ों के मुँह से सुना जाता है । अस्तु,
春
जैनधर्मके दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो ही सम्प्रदायों के तीर्थस्थान है । उनमे बहुत से ऐसे है जिन्हें दोनो ही मानते पूजते है । और बहुतसे ऐसे है जिन्हें या तो दिगम्बर ही मानते पूजते है या केवल श्वेताम्बर; अथवा एक सम्प्रदाय एक स्थानमे मानता है तो दूसरा दूसरे स्थानमे । कैलाश, चम्पापुर, पावापुर, गिरनार, शत्रुञ्जय और सम्मेद शिखर आदि ऐसे तीर्थ है जिनको दोनो ही सम्प्रदाय मानते है । गजपन्था, तुङ्गी, पावागिरि, द्रोणगिरि, मेढगिरि, कुथुगिरि, सिद्धवरकूट, बड़वानी आदि तीर्थ ऐसे है, जिन्हे केवल दिगम्बर सम्प्रदाय ही मानता है । और इसी तरह आबूगिरि, शखेश्वर आदि कुछ ऐसे तीर्थ है जिन्हें श्वेताम्बर सम्प्रदाय ही मानता है । यहाँ प्रसिद्ध प्रसिद्ध तीर्थक्षेत्रोका सामान्य परिचय प्रान्तवार कराया जाता है
बिहार प्रदेश
सम्मेद शिखर - हजारीबाग जिलेमें जैनोका यह एक अतिप्रसिद्ध और अत्यन्त पूज्य सिंद्धक्षेत्र है । इसे दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनो ही } समानरूपसे मानते और पूजते है । श्री ऋषभदेव, वासुपूज्य, नेमिनाथ
और महावीरके सिवा शेष बीस तीर्थ रोने इसी पर्वतसे निर्वाण प्राप्त किया था । २३ वे तीर्थंकर श्रीपार्श्वनाथके नामके ऊपरसे आज यह पर्वत 'पारसनाथ हिल' के नामसे प्रसिद्ध हैं । पूर्वीय रेलवेपर इसके रेलवे स्टेशनका नाम भी कुछ वर्षोंसे पारसनाथ हो गया है। इस पर्वत
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जैनधर्म की चोटियोपर वने अनेक मन्दिरोंका दर्शन करनेके लिये प्रतिवर्ष हजारों दिगम्बर और श्वेताम्बर स्त्री पुरुष आते हैं । इसकी यात्राम १८ मीलका चक्कर पड़ता है और ८ घंटे लगते हैं। ___ कुलुआ पहाड़-यह पहाड जंगलमे है। गयासे जाया जाता है। इसकी चढाई २ मील है। इसपर सैकडों जैन प्रतिमाएं खण्डित पड़ी है। अनेक जैन मन्दिरोके भग्नावशेष भी पडे है। कुछ जैन मन्दिर
और प्रतिमाएं अखण्डित भी है। कहा जाता है कि इस पहाडपर १० वें तीर्थङ्करशीतलनाथने तप करके केवल ज्ञान प्राप्त किया था। इण्डियन एन्टीक्वेरी (मार्च १९०१) में एक अंग्रेज लेखकने इसके सम्बन्धम लिखा था-'पूर्वकालमें यह पहाड़ अवश्य जैनियोका एक प्रसिद्ध तीर्थ रहा होगा, क्योकि सिवाय दुर्गादेवीकी नवीन मतिके और बौद्धमूर्तिक एक खण्डके अन्य सव चिह्न जो पहाइपर है, वे सव जैन तीर्थङ्करोंको ही प्रकट करते है।
गुणावा-यह भगवान महावीरके प्रथम गणघर गौतम स्वामीका निर्वाणक्षेत्र है। गया-पटना (ई० आर०) लाईनमें स्थित नवादा स्टेशनसे डेढ मील है।
पावापुर-गुणावासे १३ मीलपर अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान महावीरका यह निर्वाणक्षेत्र है। उसके स्मारकस्वरूप तालावके मध्यम एक विशाल मन्दिर है, जिसको जलमन्दिर कहते है। जलमन्दिरम महावीर स्वामी, गौतम स्वामी और सघर्मा स्वामीके चरण स्यापित है। कार्तिक कृष्णा अमावस्याको भगवान महावीरके निर्वाण दिवसक उपलक्षमें यहाँ बहुत बड़ा मेला भरता है।
राजगृही या पच पहाडी-~~-पावापुरीसे ११ मील राजगृही है। एक समय यह मगध देशकी राजधानी थी। यहाँ २०वें तीर्थकर मुनिसुन्नतनाथका जन्म हुआ था। राजगहीके चारो ओर पांच पर्वत है उनके वीचमे राजगही बसी थी। इसीसे इसे पचपहाड़ी भी कहते हैं । महावीर भगवानका प्रथम उपदेश इसी नगरीके विपुलाचल पर्वतपर
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हुआ था। पांचों पहाडोंके ऊपर जैन मन्दिर बने है। इन सभीकी वन्दना करनेमे १५-१६ मीलका चक्कर पड़ जाता है।
कुण्डलपुर—यह राजगृहीसे १० मीलपर है। भगवान महावीरका जन्म स्थान मानकर पूजा जाता है ।। ___ मन्दारगिरि-भागलपुरसे ३० मीलपर यह एक छोटासा पहाड है। इसीको बारहवें तीर्थकर श्रीवासुपूज्य स्वामीका मोक्ष स्थान माना जाता है। किन्तु वर्तमानमे चम्पापुरको ही पाँचों कल्याणकोका स्थान माना जाता है। भागलपुरसे ४ मील नाथ नगर है और वहाँसे २ मीलपर चंपापुर है। ___ पटना--यह विहार प्रान्तकी राजधानी है। पटना सिटीमे गुलजारबाग स्टेशनके पासमे ही एक छोटी-सी टीकरीपर चरणपादुकाएं स्थापित है । यहाँसे सेठ सुदर्शनने मुक्तिलाभ किया था। इनकी जीवन कथा अत्यन्त रोचक और शिक्षाप्रद है।
उत्तर प्रदेश बनारस-इस नगरके भदैनीघाट मुहालमे गंगाके किनारेपर' दो विशाल दि. जैन मन्दिर तथा एक श्वे. मन्दिर बने है जो सातवे तीर्थङ्कर भगवान सुपार्श्वनाथके जन्म स्थान रूपसे माने जाते है। यहाँपर जैनोंका अतिप्रसिद्ध स्याद्वाद महाविद्यालय स्थापित है जिसमे, संस्कृत और जैनधर्मकी ऊंचीसे ऊंची शिक्षा दी जाती है। भेलपुर, मुहल्लामें भी दोनों सम्प्रदायोके मन्दिर है। यह स्थान तेईसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथकी जन्मभूमि होनेसे पूजनीय है । इस प्रकार बनारस दो तीर्थङ्करोंका जन्म स्थान है । शहरमे अन्य भी कई जैन मन्दिर है।
सिंहपुरी-बनारससे ६ मीलकी दूरीपर सारनाथ नामका प्राम है जो बौद्ध पुरातत्त्वकी दृष्टिसे अतिप्रसिद्ध है। यहीपर कसी समय सिंहपुरी नामकी नगरी बसी हुई थी, जिसमे ११वे तीर्थकर श्रीश्रेयांसनाथने जन्म लिया था। यहाँपर जैन मन्दिर और जैन धर्म
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जैनधर्म
३१८ शाला है । दिगम्बर जैनोका मन्दिर तो बौद्ध मन्दिरके ही पासम है किन्तु श्वेताम्बर मन्दिर कुछ दूरीपर रेलवे स्टेगनके पास बना है। ___चन्द्रपुरी-~~-सारनाथ से मोलपर चन्द्रवटी नामका गाँव है जो चन्द्रपुरीका भग्नावगेप कहा जा सकता है। यहाँपर आठवे तीर्थङ्कर चन्द्रप्रभु भगवानने गन्म लिया था। यहां गंगाके तटपर दोनों सम्प्रदायोक मन्दिर अलग अलग बने हुए है।
प्रयाग--यहाँ निवेणी संगमके पास ही एक पुराना किला है। किलेके भीतर जमीनके अन्दर एक अक्षयवट (वडका पेड) है।
कहते है कि श्रीपभदेवने यहाँ तप किया था। किले में प्राचीन जैन 'मूर्तियां भी है।
फफोसा-इलाहाबाद कानपुरके वीचमें उत्तरीय रेलवेपर भरवारी नामका स्टेशन है, वहाँस २०-२५ मीलपर यह एक छोटा सा गांव है। उसके पासमें ही प्रभास नामसे एक पहाड़ है। चढनके लिये ११६ सीढियों बनी हुई है। कहा जाता है कि इस पहाडपर छ तीर्थङ्कर पद्मप्रभु भगवानने तप किया था और यहीपर उन्हें केवल ज्ञानकी प्राप्ति हुई थी। यहाँ एक मन्दिर है और मन्दिरके आगे चट्टानमें उकेरी हुई प्रतिमाएं है। ___ कौशाम्बी-फफौसासे ४ मीलपर गढवाय नामका गाँव है। 'उसके पास हीमें कुशवा नामका गांव है, जिसे प्राचीन कौशाम्बी नगरी माना जाता है। इस नगरीमे भगवान पद्मप्रभुका जन्म हुआ था। । अयोध्या-जैन शास्त्रोके अनुसार यह प्रसिद्ध नगरी अति-प्राचीन
कालसे जैनोंका मुख्य स्थान रही है। जनोके ५ तीर्थड्रोका जन्म ' इसी नगरीमें हुआ था। आज यहाँ अनेक जैन मन्दिर और धर्म
शालाएं वर्तमान है। १२ खखूद-गोरखपुरसे एन० ई० रेलवेका नोनखार स्टेशन ३६ मील है। वहाँसे ३ मील खखूद गाँव है। इसका प्राचीन नाम किष्किन्धा वतलाया जाता है। यह श्रीपुष्पदन्त तीर्थङ्करका जन्म
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स्थान है । यहाँके मन्दिरमे श्रीपुष्पदन्त भगवानकी मूर्ति विराजमान है।
सेटमेंट —- फैजाबादसे गोडा रोडपर २१ मील वलरामपुर है । बलरामपुर १० मीलपर सेटमेट है । इसका प्राचीन नाम श्रावस्ती वतलाया जाता है जो कि तीसरे तीर्थङ्कर संभवनाथ की जन्मभूमि है ।
रत्नपुरी - यह स्थान फैजाबाद जिलेमें सोहावल स्टेशनसे १॥ मील है । यह श्रीधर्मनाथ स्वामीकी जन्मभूमि है । एक मन्दिर श्वे - ताम्बरोंका व दो दिगम्बरोके है ।
कम्पिला -- यह तीर्थक्षेत्र जिला फरुक्खाबादमे एन० इ० रेलवेके कायमगंज स्टेशनसे ८ मील है । यहाँ तेरहवें तीर्थङ्कर श्रीविमलनाथ के ४ कल्याणक हुए है । प्रतिवर्ष चैत्र मासमें यहाँ मेला भी भरता है और रथोत्सव होता है ।
अहिक्षेत्र — एन० आर० की वरेली-अलीगढ लाइनपर आंवला स्टेशन है | वहाँसे ८ मील रामनगर गाँव है उसीसे लगा हुआ यह क्षेत्र है । इस क्षेत्रपर तपस्या करते हुए भगवान पार्श्वनाथके ऊपर कमठके जीवने घोर उपसर्ग किया था और उन्हें केवल ज्ञानकी प्राप्ति हुई थी । प्रतिवर्ष चैत्र वदी ८ से द्वादशी तक यहाँ मेला होता है ।
4
→
:
हस्तिनागपुर - यह क्षेत्र मेरठसे २२ मील है । यहाँ श्रीशान्तिनाथ । कुन्युनाथ और अरनाथ तीर्थङ्करो के गर्भ, जन्म, तप और ज्ञान इस तरह चार कल्याणक हुए है । तथा ११वे मल्लिनाथ तीर्थङ्करका समवसरण भी आया था । यहाँ पर दिल्लीके लाला हरसुखदासजी का बनवाया हुआ एक विशाल दिगम्बर जैन मन्दिर और धर्मशाला है । पासमें ही श्वेताम्वरोका भी मन्दिर है । धर्मंगाला से लगभग २ - ३ मीलपर चारो तीर्थङ्करोकी चार दि० जैन नशियाँ बनी हुई है जो प्राचीन है । प्रति वर्ष कार्तिक सुदी से पूर्णमासी तक दिगम्बर जैनोंका बहुत बड़ा मेला भरता है ।
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जनधर्म
है। यह भगवान महावीरकी मति मानी जाती है। इस प्रान्तमें इस मूर्तिकी बडी मान्यता है । दूर दूरसे लोग इसकी पूजा करनेके लिये आते है। इसके माहात्म्यक सम्बन्धमें अनेक किंवदन्तियां प्रचलित है। महाराजा छत्रसालके समयमें उन्हीकी प्रेरणासे इसका जीर्णोद्धार हुआ था, जिसका शिलालेख अकित है।
सागरसे ४८ मीलपर वीनाजी क्षेत्र है यहां तीन जैन मन्दिर हैं जिनमें एक प्रतिमा शान्तिनाथ भगवानकी १४ फुट ऊंची तथा एक प्रतिमा महावीर भगवानकी १२ फुट ऊंची विराजमान है। और भी अनेक मनोहर मूर्तियां है। सागरसे ३८ मील मालयौन गांव है। गाँवसे १ मीलपर एक जैन मन्दिर है। इसमें १० गजसे लेकर २४ गजतककी ऊंची खडे आसनकी अनेक प्रतिमाएं है । ललितपुरसे १० मीलपर सरोन गांव है। वहांसे भाषा मीलपर ५-६ प्राचीन जैन मन्दिर है। चारो ओर कोट है। यहाँ एक मति २० गज ऊची शान्तिनाथ भगवानकी है, तथा चार पांच फुट ऊंची सेकहोखण्डित मूर्तियां है। । देवगढ---सेन्ट्रल रेल्वेके ललितपुर स्टेशनसे १६ मील एक पहाड़ीपर यह क्षेत्र स्थित है। यह सचमुच देवगढ है। यहाँ अनेक प्राचीन जिनालय है और अगणित खण्डित मूर्तियां है। कलाकी दृष्टिसे भी यहांकी मूर्तियां दर्शनीय है। कुशल कारीगरोने पत्थरको मोम कर दिया है। करीव २०० शिलालेख यहाँ उत्कीर्ण है। ५ मनोहर मानस्तभ है। प्राकृतिक सौन्दर्य भी अनुपम है । यहाँसे ६ मीलपर चाँदपुर स्थान है। वहाँ भी अनेक जैनमूर्तियां है जिनमें १४ गज ऊंची एक मूर्ति शान्तिनाथ तीर्थधरकी है।
पपौरा-विध्यप्रान्तमें टीकगमढसे कुछ दूरीपर जंगलमें यह क्षेत्र स्थित है। इसके चारो ओर कोट वना है। जिसके अन्दर लगभग १० मन्दिर है । एक वीर विद्यालय भी है। कार्तिक सुदी १४ को प्रतिवर्ष मेला भरता है।
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विविध
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अहार — टीकमगढसे 8 मीलपर अहार गाँव है । वहाँ से करीब ६ मीलपर एक ऊजड स्थानमें तीन दिगम्बर जैन मन्दिर है । एक मन्दिरमे २९ फुदकी ऊंची शान्तिनाथ भगवानकी अति मनोज्ञमूर्ति विराजमान है जो खण्डित है किन्तु बादमे जोडकर ठीक की गई है। यह प्रतिमा वि० सं० १२३७ में प्रतिष्ठित की गई थी। इन मन्दिरों के सिवा यहाँ अन्य भी अनेक मन्दिर बने हुए थे, किन्तु वादशाही जमाने मे
सब नष्ट कर दिये गये और अब अगणित खण्डित मूर्तियाँ वहाँ वर्तमान है। क्षेत्र कलाप्रेमियोंके लिये भी दर्शनीय है । अब यहाँ एक पाठशाला भी चालू है ।
चन्देरी -- यह ललितपुरसे बीस मील है । यहाँ एक जैन मन्दिरमे चौबीस वेदियाँ बनी हुई है और उनमें जिस तीर्थङ्करके शरीरका जैसा रग था उसी रगकी चोबीसों तीर्थङ्करोंकी चोबीस मूर्तियाँ विराजमान है। ऐसी चौबीसी अन्यत्र कही भी नही है । यहाँसे उत्तरमे 8 मीलपर बुढी चन्देरी है । यहाँपर सैकड़ों जैन मन्दिर जीर्णशीर्ण दशामे है, जिनमे बड़ी ही सौम्य और चित्ताकर्षक मूर्तियाँ है ।
पचराई - चन्देरीसे ३४ मील खनियाधाना स्थान है और वहाँसे मोलपर पचराई गाँव है । यहाँपर २८ जिनमन्दिर है जिनमे लगभग एक हजार मूर्तियाँ है, इनमें आधके लगभग साबित है, शेष खण्डित है । थूवनजी --- चन्देरी से ८ मील थूवनजी है । यहाँ २५ मन्दिर है । प्राय सभी प्रतिमाएँ पत्थरोंमें उकेरी हुई है, खड़े योग है और २०-३० फुट तककी ऊँची है ।
यहाँ यह बतला देना आवश्यक है कि बुन्देलखण्डके उक्त सभी ' 1 क्षेत्र दिगम्बर जैन ही है । वहीं श्वेताम्बरोंका निवास न होनेसे उनक एक भी तीर्थक्षेत्र नही है |
अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ - सेन्ट्रल रेलवेके अकोला ( बरार ) स्टशनसे लगभग ४० मीलपर शिवपुर नामका गाँव है । गाँवके 4 धर्मशालाओं के बीच एक बहुत बड़ा प्राचीन विशाल दुमंजला जैन
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जैनधर्म
• मन्दिर है। नीचेकी मजिलमे एक ग्यामवर्ण २॥ फुट ऊंची पार्श्वनाथ। जीकी प्राचीन प्रतिमा है जो वेदीमें अपर विराजमान है। सिर्फ
दक्षिण घुटना जमीनमें सटा हुआ है। इसीसे यह प्रतिमा अन्तरिक पार्श्वनायक नामसे प्रसिद्ध है। यहाँ दोनो सम्प्रदायोके लिये पूजाका समय नियत है। सुबह ६ से १ और १२ से ३ तक श्वेताम्बर पूजन करते है और इसे १२ तथा ३ से ६ तक दिगम्बर लोग पूजन करते है। ____ कारजा-अकोला जिलेमे मतिजापूर स्टेगनसे यवतमालको जानेवाली रेलवे लाइनपर यह एक कसवा है । यहाँपर तीन विशाल प्राचीन जैनमन्दिर है । एक मन्दिरमें चाँदी, सोने, होरे, मूंगे और पन्नेकी प्रतिमाएं है। यहां दो भट्टारकोकी गदिया है एक बलात्कार गणकी, दूसरी सेनगणकी। सेनगणके भट्टारकके मन्दिरमें संस्कृत
राकृतके प्राचीन जैनग्नन्योका बहुत बड़ा भडार है। यहाँ महावीर ब्रह्मचर्याश्रम नामकी एक आदर्श शिक्षा सस्या भी है।। ___ मुक्तागिरि-यह सिद्धक्षेत्र वराडके एलचपुरसे १२ मीलपर पहाडी जंगलमें है। नीचे धर्मशाला है। पासमें ही एक छोटी पहाडी है, जिसपर चढने के लिये सीढियां बनी हुई है। ऊपर कई गुफाएं है जिनमे बहुतसी प्राचीन प्रतिमाएं है। गुफामोंके आसपास ५२ मन्दिर है। यहाँसे बहुतसे मुनियोने मोक्ष प्राप्त किया था। ___भातकुली-यह अतिशय क्षेत्र अमरावतीसे १० मीलपर है। यहाँ ३ दि० जनमन्दिर है जिनमेंसे एकमें श्रीऋषभदेव स्वामीकी पनासनयुक्त तीन फुट ऊंची मूर्ति विराजमान है। इसकी यहाँ बहुत मान्यता है। प्रति वर्ष कार्तिक वदी पचमीको मेला भरता है। ___ रामटेक-यह स्थान नागपुरसे २४ मीलपर है। यहाँ दि० जैनोके आठ मन्दिर है, जिनमेंसे एक प्राचीन मन्दिरमें सोलहवे तीर्थदूर श्री शान्तिनाथ स्वामीकी १५ फीट ऊंची मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान है।
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३२५. राजपूताना व मालवा प्रान्त श्रीमहावीरजी-पश्चमी रेलवेकी नागदा-मथुरा लाईनपर 'श्रीमहावीरजी' नामका स्टेशन है। यहाँसे ४ मीलपर यह क्षेत्र है। यहाँ एक विशाल दिगम्बर जैन मन्दिर है, उसमें महावीर स्वामीकी एक अति मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान है। यह प्रतिमा पासके हीएक टीलेके अन्दरसे निकली थी। इसे जैन और जैनेतर-खास करके जयपुर रियासतके मीना और गूजर बडी श्रद्धा और भक्तिसे पूजते है। यात्रियोंका सदा ताता लगा रहता है । प्रतिवर्ष बैसाख वदी एकमको महाबीर, भगवानकी सवारी रियासती लवाज के साथ निकलती है। लाखों मीना एकत्र होते हैं। वे ही सवारीको नदी तक ले जाते है। उधर गूजर तयार खडे रहते है। मीना चले जाते है और गूजर सवारीकों लौटाकर लाते है। फिर गूजरोंका मेला भरता है।। ___चाँद खेड़ी-कोटा रियासतमे खानपुर नामका एक प्राचीन नगर है। खानपुरसे २ फागकी दूरी पर चांद खेडी नामकी पुरानी बस्ती है। यहाँ भूगर्भमे एक अतिविशाल जैन मन्दिर है। इसमे अनेक विशाल जैन प्रतिमाएं है। सब प्रतिमाएं ५७७ है। द्वारके उत्तर, भागमें एक ही पाषाणका १० फुट ऊचा कीर्तिस्तम्भ है, इसमे चारों मोर दिगम्वर-प्रतिमाएं खुदी हुई है, तीन तरफ लेख भी है।
मक्सीपार्श्वनाथ-ग्वालियर रियासतमे सेन्ट्रल रेलवेकी भूपाल-उज्जैन शाखामें इस नामका स्टेशन है। यहाँसे एक मीलपर एक प्राचीन जैन मन्दिर है । उसमे श्रीपार्श्वनाथ स्वामीकी ढाई : . ऊँची पद्मासन मूर्ति विराजमान है जो बड़ी ही मनोज्ञ है। इसको दोन' सम्प्रदायवाले पूजते है । परन्तु समय नियत है । सुवह ६ से ६ त५ दिगम्वर सम्प्रदायवाले पूजते है फिर शेष समय श्वेताम्बरोके लि. नियत है।
विजौलिया पार्श्वनाथ नीमचसे ६८ मीलपर विजौलिया र. सतह । विजौलिया गांवके समीपमे ही श्री पार्श्वनाथ स्वामीका अति
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जैनधर्म
प्राचीन और रमणीय अतिशय क्षेत्र है। एक मन्दिरमे एक ताकके महारावके ऊपर २३ प्रतिमाएं सुदी हुई है। चारों तरफ दीवारोपर भी मुनियोकी बहुत सी मनियाँ खुदी हुई है। एक विशाल सभामण्डप, चार गुमटियाँ और दो मानस्तभ भी है। मानस्तम्भोपर प्रतिमाएं और शिलालेख है।
श्रीऋपभदेव (केशरियाजी)--उदयपुरस करीव ४० मोलपर यह क्षेत्र है। यहाँ श्रीपभदेवजीका एक बहुत विशाल मन्दिर वना हुआ है। उसके चारो मोर कोट है। भीतर मध्यमें सगमरमरका एक बडा मन्दिर है जिसके ४८ ऊँचे ऊंचे शिखर है। इसके भीतर जाने से श्रीऋषभदेवजीका वडा मन्दिर मिलता है, जिसमें श्रीऋषभदेवको ६-७ फुट ऊँची पद्मासनयुक्त श्यामवर्णकी दिगम्बर जैनमूर्ति है। यहाँ केशर चढानेका इतना रिवाज है कि सारी मति केशरसे ढक जाती है । इसीलिये इसे केशरियाजी भी कहते हैं। श्वेताम्बरोकी ओरसे मूर्तिपर भागी, मुकुट और सिंदूर भी चढता है। इसकी वडी मान्यता है। होनो सम्प्रदायवाले इसकी पूजा करते है। । आवू पहाड-पश्चिमीय रेलवेके भाव रोड स्टेशनसे आव बहाड़के लिये मोटरें जाती है । पहाड़पर सडकके दाई ओर एक दिगम्बर जैन मन्दिर है, तथा बाई ओर दैलवाडाके प्रसिद्ध श्वेताम्बर मन्दिर बने हुए है, जिनमेंसे एक मन्दिर विमलशाहने वि० सं० १०८८ में १८ करोड ५३ लाख रुपये खर्च करके वनवाया था। दूसरा मन्दिर वस्तुपाल तेजपालने बारह करोड ५३ लाख रुपये खर्च करके वनवाया पा। संगमरमरपर छीनीके द्वारा जो नक्काशी की गई है वह देखनेको ही चीज ह । दोनों विशाल मन्दिरोंके बीचमे एक छोटासा दि० जैन इन्दिर भी है। __अचलगढ-दलवाडासे पांच मील अचलगढ है। यहां तीन वेताम्बर मन्दिर है। उनमेंसे एक मन्दिरमें सप्तधानकी १४ प्रतिमाएं
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विविध
सिद्धवरकूट- इन्दौर से खण्डवा लाईनपर मोरटक्का नामका स्टेशन है । वहाँ से ओंकारजी जाते है जो नर्मदाके तटपर है । यहाँसे नावमें सवार होकर सिद्धवरकूटको जाते है । यह क्षेत्र रेवानदी के तटपर है । यहाँसे दो चक्रवर्ती व दस कामदेव तथा साढ़े तीन करोड़ मुनि मुक्त हुए है ।
ऊन - खण्डवासे ऊन मोटरके द्वारा जाया जाता है । ३-४ घंटेका रास्ता है । यहाँ एक प्राचीन मन्दिर है जो सं० १२१८ का बना हुआ है । दो और भी प्राचीन मन्दिर है जो जीर्ण हो गये है । यह क्षेत्र कुछ ही वर्ष पहले प्रकाशमें आया है। इसे पावागिरि सिद्ध क्षेत्र कहा जाता है ।
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बड़वानी - बड़वानी से ५ मील पहाड़पर जानसे बड़वानी क्षेत्र मिलता है । वडवानीसे निकट होनेके कारण इस क्षेत्रको वडवानी कहते है वैसे इसका नाम चूलगिरि है । इस चूलगिरिसे इन्द्रजीत और कुम्भकर्णने मुक्ति प्राप्त की थी । क्षेत्रकी वन्दनाको जाते हुए सबसे पहले एक विशालकाय मूर्तिके दर्शन होते है । यह खड़ी हुई मूर्ति भगवान ऋषभदेवकी है, इसकी ऊँचाई ८४ फीट है। इसे बावन गजाजी भी कहते है । सं० १२२३ में इसके जीर्णोद्धार होनेका उल्लेख मिलता है। पहाड़पर २२ मन्दिर है । प्रतिवर्ष पौष सुदी ८ से १५ तक मेला होता है ।
बम्बई प्रान्त
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तारंगा - यह प्राचीन सिद्ध क्षेत्र गुजरात प्रान्तके महीकाँटा जिले | में पश्चिमीय रेलवेके तारंगा हिल नामके स्टेशनसे तीन मील पहाड़के ऊपर है । यहाँसे वरदत्त आदि साढे तीन करोड मुनि मुक्त हुए हैं । यहाँपर दोनों सम्प्रदायोके अनेक मन्दिर और गुमटियाँ है ।
गिरनार - सौराष्ट प्रान्तमें जूनागढके निकट यह सिद्धक्षेत्र वर्तमान है । जूनागढ़ स्टेशनसे ४-५ मीलकी दूरीपर गिरिनार पर्वतकी तलहटी है, वहाँ दोनों सम्प्रदायोंकी धर्मशालाएँ है पहाड़पर
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जैनधर्म
चढने के लिये धर्मशाला के पाससे ही पक्की सीढियाँ प्रारम्भ हो जाती है
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और अन्ततक चली जाती है । २२ वें तीर्थङ्कर श्रीनेमिनाथने इसी पहाडके सहस्रान वनमें दीक्षा धारण करके तप किया था । यही उन्हें 'केवलज्ञान हुआ था और यहीसे उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया था। 'उनकी वाग्दत्ता पत्नी राजुलने भी यही दीक्षा ली थी। पहले पहाडपर पहुँचने पर एक गुफा में राजुलकी मूर्ति बनी हुई है। तथा दिगम्बर और 'श्वेताम्बरोंके अनेक मन्दिर बने हुए है । दूसरे पहाड़पर चरण चिह्न है यहाँसे अनिरुद्ध कुमारने निर्वाण प्राप्त किया था। तीसरेसे शम्भु कुमारने निर्वाण लाभ किया था। चौथे पहाडपर चढनेके लिये सीढियाँ नही है इसलिये उसपर चढना बहुत कठिन है । यहाँसे श्री कृष्णजीके पुत्र प्रद्युम्न कुमारने मोक्ष प्राप्त किया है और पाँचवें पहाडसे ' | भगवान् नेमिनाथ मुक्त हुए है । सब जगह चरण चिह्न है तथा कही - कही पहाडमें उकेरी हुई जिन मूर्तियाँ भी है। जैन सम्प्रदायमें शिखरजीकी तरह इस क्षेत्रकी भी बडी प्रतिष्ठा है ।
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शत्रुंजय - पश्चिमीय रेलवेके पालीताना स्टेशनसे |१|| -२ मील तलहटी है | वहाँसे पहाडकी चढाई आरम्भ हो जाती है । रास्ता साफ है। पहाड़के ऊपर श्वेताम्बरोंके करीब साढ़े तीन .! हजार मन्दिर है जिनकी लागत करोडो रुपया है । श्वेताम्बर भाई सब तीर्थो से इस तीर्थको बडा मानते है । दिगम्बरोका तो केवल एक मन्दिर है । पालीताना शहरमें भी श्वेताम्बरोकी २०-२५ धर्मशालाएँ और अनेक मन्दिर है । यहाँ एक आगममन्दिर अभी ही बनकर तैयार हुआ है उसमें पत्थरोपर श्वेताम्बरों के सब आगम खोदे गये है । यहाँसे तीन पाण्डुपुत्रो और बहुतसे मुनियोने मोक्ष लाभ किया था ।
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पावागढ - - - वडोदासे २८ मोलको दूरीपर चांपानेरके पास पावागढ़ सिद्ध क्षेत्र है । यह पावागढ एक बहुत विशाल पहाडी किला है। पहाड़ पर चढनेका मार्ग एक दम कंकरीला है। पहाड़के ऊपर आठ दिस मन्दिरोके खण्डहर है, जिनका जीर्णोद्धार कराया गया है ।
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विविध
यहाँस श्रीरामचन्द्रके पुत्र लव और कुशको तथा अन्य बहुतसे मुनियोंको निर्वाण लाभ हुआ था।
मागीतुगी यह क्षेत्र गजपन्या (नासिक) से लगभग अस्सी मील पर है। वहां पास ही पास दो पर्वतशिखर है जिनमेसे एकका नाम मागी और दूसरेका नाम तुगी है। मागी शिखरकी गुफाओंमे लगभग साढ तीन सौ प्रतिमाएँ और चरण है और तुगीमे लगभग तीस । यहाँ अनेक प्रतिमाएं साघुमोकी है जिनके साथ पीछी और कमंडलु भी है और पासमें ही उन साधुओंके नाम भी लिखे है। दोनों पर्वतोके बीचमें एक स्थान है जहाँ बलभद्रने श्रीकृष्णका दाह संस्कार किया था। यहाँसे श्रीरामचन्द्र, हनुमान, सुग्रीव वगैरहने निर्वाण लाभ किया था।
गजपन्या-नासिकके निकट मसरूल गाँवकी एक छोटीसी' पहाडीपर यह सिद्धक्षेत्र है। यहाँसे बलभद्र और यदुवशी राजाओंने मोक्ष प्राप्त किया था।
एलोरा-मनमाड जंकशनसे ६० मील एलोरा ग्राम है। यह ; ग्राम गुफा मन्दिरोंके लिये सर्वत्र प्रसिद्ध है। इससे सटा हुआ एक पहाड़ है। ऊपर दो गुफाएं है, नीचे उतरनेपर सात गुफाएँ और है जिनमें हजारो जन प्रतिमाएं है।
कुथलगिरि-यह क्षेत्र दक्षिण हैदरावाद प्रान्तमें है और वार्सी टाऊन रेलवे स्टेशनसे लगभग २१ मील दूर एक छोटीसी पहाडीपर स्थित है। यहाँसे श्रीदेशभूषण कुलभूषण मुनि मुक्त हुए है। पर्वतपर मुनियोंके चरणमन्दिर सहित १० मन्दिर है। माघमासमे। पूर्णिमाको प्रतिवर्ष मेला भरता है। यहाँ गुरुकुल भी है। ____ करकण्डुकी गुफाएँ---शोलापुरसे मोटरके द्वारा कुन्थलगिरि जाते हुए मार्गमे उस्मानाबाद नामका नगर आता है, जिसका पुराना नाम धाराशिव है। धाराशिवसे कुछ मीलकी दूरीपर 'तर' नामका स्थान है। तेरके पास पहाडी है। उसकी वाजूमे गुफाएँ है। प्रधान गुफा बड़ी विशाल है। इसमें पांच फुटकी पार्श्वनाथ भगवानकी काले
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वेणूर - नदी के किनारे यह एक छोटा-सा गाँव है । गाँवके पश्चिममें एक कोट है। उसके अन्दर श्रीगोमट स्वामीकी ३१ फुट ऊंची प्रतिमा विराजमान है । गाँवमें अनेक जैन मन्दिर है ।
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वेलूर - हलेविड – वेलूर मोर हलेवीड, मैसूर राज्यके हासन नहर के उत्तरमे एक दूसरेसे दस बारह मीलके अन्तरपर स्थित है । यहाँका मूर्तिनिर्माण दुनियामें अपूर्व माना जाता है । एक समय यह दोनों " स्थान राजधानीके रूपमें मशहूर थे आज कलाघानी के रूपमें ख्यात है । दोनों स्थानोंके आस-पास जैन मन्दिर है। सभी मन्दिर दिगम्बर सम्प्रदायके है और उच्चकोटिकी कारीगरीको व्यक्त करते है ।
श्रवण वेलगोला -हासन जिलेके अन्तर्गत जिन तीन स्थानोने मैसूर राज्यको विश्वविख्यात बना दिया है वे है वेलूर, हलेवीड और श्रवण वेलगोला । हासनसे पश्चिममें श्रवण वेलगोला है जो हासनसे नोटरके द्वारा ४ घंटेका मार्ग है। श्रवण वेलगोलामे चन्द्रगिरि और विन्ध्यगिरि नामकी दो पहाड़ियाँ पास पास है। इन दोनों पहाडियो के बीचमें एक चौकोर तालाब है। इसका नाम बेलगोल अथवा सफेद नालाव था । यहाँ श्रमणों के आकर रहनेके कारण इस गाँवका नाम श्रमण वेलगोल पडा । यह दिगम्बर जैनों का एक महान् तीर्थ स्थान है । मौर्यसम्राट चन्द्रगुप्त अपने गुरु भद्रबाहुके साथ अपने जीवनके अन्तिम दिन बितानेके लिये यहाँ आया था । गुरुने वृद्धावस्थाके कारण चन्द्रगिरिपर सल्लेखना धारण करके शरीर त्याग दिया । चन्द्रगुप्त गुरुकी पादुकाकी बारह वर्ष तक पूजा की और अन्तमें समाधि धारण करके इह जीवन लीला समाप्त की ।
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विन्ध्यगिरि नामकी पहाडीपर गोमटेश्वरकी विशालकाय मूर्ति विराजमान है । विन्ध्यगिरिकी ऊँचाई चार सौ सत्तर फीट है और ऊपर जानेके लिये सीढियाँ बनी हुई है । काका कालेलकरके शब्दों में मूर्तिका सारा शरीर भरावदार, यौवनपूर्ण, नाजुक और कान्तिमान है । एक ही पत्थर से निर्मित इतनी सुन्दर मूर्ति संसारमें और कहीं नही ।
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विविध
इतनी बड़ी मूर्ति इतनी अधिक स्निग्ध है कि भक्तिके साथ कुछ प्रेमकी भी यह अधिकारिणी बनती है। धूप, हवा और पानीक प्रभावसे पीछेकी ओर ऊपरकी पपडी खिर पडनेपर भी इस मूर्तिका लावण्य खण्डित नहीं हुआ है। इसकी स्थापना आजसे एक हजार वर्ष पहले गंगवशके सेनापति और मत्री चामुण्डरायने कराई थी। इस पर्वतपर 'छोटे बड़े सब १० मन्दिर है।
चन्द्रगिरिपर चढने के लिये भी सीडियाँ बनी है। पर्वतके ऊपर मध्यमें एक कोट बना है उसके अन्दर बडे-बडे प्राचीन १४ मन्दिर है। मन्दिरोमे बड़ी-बडी विशाल प्राचीन प्रतिमाएं है। एक गुफा, श्रीभद्रबाहु स्वामीके चरण चिह्न बने हुए जो लगभग एक फुट लम्बे है।
ऐतिहासिक दृष्टिसे यह पहाडी बहुत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि इसपर वहुतसे प्राचीन शिलालेख अकित है, जो मुद्रित हो चुके है। । नीचे ग्राममे भी सात मन्दिर और १३ चैत्यालय है । एक मन्दिरमें चित्रकलासे शोभित कसौटी पाषाणके स्तम है। यहां भी श्रीमट्टारक चारुकीर्ति जी महाराजकी गद्दी है। उनके मन्दिरमें भी कुछ रनोंकी प्रतिमाएं है। बड़ा अच्छा शास्त्र भंडार है। एक दिगम्बर जैन पाठशाला है। ___ इस प्रान्तमे अन्य भी अनेक स्थान है जहाँ जैन मन्दिर और मूर्तियाँ दर्शनीय है।
उड़ीसा प्रान्त खण्डगिरि-उडीसा प्रान्तकी राजधानी कटक है। कटकके आसपास हजारो जैन प्रतिमाएं है। किन्तु उडीसामे जैनियों की संख्या कम होनेसे उनकी रक्षाका कोई प्रबन्ध नहीं है । कटकसे ही सुप्रसिद्ध खण्डगिरि उदयगिरिको जाते है। भुवनेश्वरसे पांच मील पश्चिम पुरी जिलेमें खण्डगिरि उदयगिरि नामकी दो पहाडियाँ है । दोनोपर पत्थर काटकर अनेक गुफाएँ और मन्दिर बनाये गये है, जो ईसासे लगभग ५० वर्ष पहलेसे लेकर ५०० वर्ष बाद तकके बने हुए है। उदयगिरिकी
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बनधर्म हाथी गुफामे कलिंग चक्रवर्ती जैन सम्राट खारवेलका प्रसिद्ध शिलालेख अंकित है।
४ जैनधर्म और इतर धर्म जैनधर्मको आवश्यक बातोंका परिचय करा चुकनेके बाद उसका इतर धर्मोके साथ क्या कुछ सम्बन्ध है' आदि वातोंपर भी एक सरसरी, निगाह डालनेका प्रयत्न करना अनुचित न होगा; क्योंकि उससे उक्त वातोंपर अधिक प्रकाश पड़ने के साथ ही साथ जैनधर्मकी स्थितिको समझनेमे तथा अनेक भ्रामक धारणाओंके दूर होनेमे अधिक सहायता मिल सकेगी।
भारतके धर्मोंमें हिन्दू धर्म और वौद्धधर्म ये दो ही धर्म ऐसे है, जिनके साथ जैनधर्मका गहरा जोड़-तोड़ रहा है। भारतीय होने के नाते तीनों ही साथ साथ रहे है, प्रत्येकने शेष दोनोंके उतारया चढावक दिन देखे है, और परस्परमें प्रहार किये और झेले है, फिर भी एकी दूसरेके ऊपर छाप पड़े बिना नही रही है।
१जैनधर्म और हिन्दू धर्म यहाँ हिन्दूधर्मसे मतलब वैदिक धर्मसे है, जिसे सनातनधर्म भी कहा जाता है, क्योकि अब यह शब्द इसी अर्थमें रूढ़ कर दिया गया है। कहनके लिये 'हिन्दू' शब्दकी ऐसी व्याल्याएं भी की जाती है जिनत जैनधर्म भी हिन्दूधर्म कहा जा सकता है, किन्तु एक तो रूढके सामन यौगिक शब्दार्थको कौन मानता और जानता है ? दूसरे, उन व्याख्या ओंके पीछे प्रायः यह भाव पाया जाता है कि जनधर्म हिन्दुधर्मके नाम कहे जानेवाले वैदिकधर्मकी विद्रोही कन्या है। किन्तु जिन नियम विद्वानोन जनधर्मका गहरा आलोडन किया है वे उसे भारतका एक स्वतंत्र धर्म मानते हैं। दोनो धर्मोके तत्त्वोंपर दष्टि डालनसे भी यह निष्कर्ष निकलता है। तथा इस बातका निर्णय दोनों धर्मोक शास्त्रोक
आन्तरिक साक्षीके आधारपरही किया जा सकता है। क्योकि अन्य कार बाह्य प्रमाण ऐसा नहीं मिलता जो इस समस्यापर प्रकाश डालस
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विविध
सबसे प्रथम हम वैदिक साहित्यके क्रमिक विकासका परिचये . भारतीय दार्शनिकोंके साहित्यके आधारपर कराते है जो उपनिषदोंको ही सव दर्शनोंका मूल आधार बतलाते है।
इतिहासज्ञोंने भारतीय दर्शनका काल विभाग इस प्रकार किया है-(१) वैदिक काल-१५०० ई० पू० से ६०० ई० पू० तक (२) पौराणिक गाथा काल-६०० ई० पू० से २०० ई. तक और (३) सूत्रकाल-२०० ई० से आगे।
हिन्दू धर्मकी सबसे प्राचीन पोथी वेद है। वेद चार है ऋक, यजु, साम और अथर्व। पौराणिकोंका कहना है कि इन चारों वेदोंका संकलन वेदव्यासने यज्ञकी आवश्यकताओंको दृष्टिमें रखकर किया था। यज्ञानुष्ठानके लिये चार ऋत्विजोंकी आवश्यकता होती हैहोता, उग्दाता, अध्वर्यु तथा ब्रह्मा । होता मंत्रोंका उच्चारण करके देवताओंका आह्वान करता है । इस मत्र समुदायका सकलन ऋक्वेदमें है। उद्गाता ऋचाओंको मधुर स्वरसे गाता है इसके लिये सामवेदका संकलन किया गया है। यज्ञके विविध अनुष्ठानोंका सम्पादन करना अध्वर्युका कर्तव्य है। इसके लिये यजुर्वेद है। ब्रह्मा सम्पूर्ण योगका निरीक्षक होता है, जिससे अनुष्ठानमें कोई त्रुटि न रहे, उसमें विघ्न न आये। इसके लिये अथर्ववेद है। इस प्रकार यज्ञानुष्ठानको अच्छी तरहसे करनेके लिये भिन्न भिन्न वेदोंका सकलन भिन्न भिन्न ऋत्विजोंके लिये किया गया है। ___ वेदके तीन विभाग है-—मत्र, ब्राह्मण और उपनिषद् । मंत्रोंके समुदायको संहिता कहते है । ब्राह्मण ग्रन्थोंमें यज्ञ यागादिके अनुष्ठानका विस्तृत वर्णन है, इन्हें वेदमंत्रोंका व्याख्या ग्रन्थ कहा जाता है। ब्राह्मण ग्रन्योका अन्तिम भाग आरण्यक और उपनिषद् है, इनमें दार्गनिक तत्त्वोंका विवेचन है। उपनिषदोको ही वेदान्त कहते है।
विषय विभागकी दृष्टिसे वेदके दो विभाग है- कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड । सहिता, ब्राह्मण और आरण्यकोंका अन्तर्भाव कर्मकाण्डमें
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जैनधर्म
होता है और उपनिषद्का ज्ञानकाण्डमे, क्योंकि पहलेमें मुख्यतया त्रिपाकाण्डको चर्चा है और दूसरे में मुख्यतया ज्ञानको ।
वेदोका प्रधान विपय देवतास्तुति है, और वे देवता है अग्नि, इन्द्र, सूर्य वगैरह । आगे चलकर देवताओकी संख्या वृद्धिहार भी होता रहा है। विचारकों के अनुसार वैदिक आर्योंका यह विश्वास था कि इन्ही देवताओं के अनुग्रहसे जगत्का सव काम चलता है। इसीसे वे उनकी स्तुति किया करते थे । जब ये आर्य लोग भारतवर्ष में आये तो अपने साथ उन देवी स्तुतियों को भी लाये । और जब वे इस नये देशमें अन्य देवताओं के पूजकोके परिचयमें आये तो उन्हें अपने गीतोको संग्रह करनेका उत्साह हुआ। वह संग्रह ही ऋग्वेद' है।
कहा जाता है कि जब वैदिक आर्य भारतवर्षमें आये तो उनकी मुठभेड असभ्य और जंगली जातियोसे हुई। जव ऋग्वेदमें गौरवर्ण आर्य और श्यामवर्ण दस्युओं के विरोधका वर्णन मिलता है तो अथर्ववेद में आदान-प्रदानके द्वारा दोनो के मिलकर रहनेका उल्लेख मिलता है । इस समझौतेका यह फल होता है कि अथववेद जादू टोनेका अन्य वन जाता है । जब हम ऋग्वेद और अथर्ववेदसे यजुर्वेद, सामवेद और ब्राह्मणों की ओर आते है तो हम एक विलक्षण परिवर्तन पाते है । यज्ञ यागादिकका जोर है, ब्राह्मण ग्रन्थ वेदो के आवश्यक भाग बन गये है क्योकि उनमें यागादिककी विविका वर्णन है, पुरोहितोंका राज्य है और ऋग्वेदसे ऋचाएँ लेकर उनका उपयोग यज्ञानुष्ठानमें किया जाता है ।
'जब हम ब्राह्मण साहित्यकी ओर आते है तो हम उस समयमें जा पहुँचते है जब वेदों को ईश्वरीय ज्ञान होनेकी मान्यताको सत्यरूपमें स्वीकार किया जा चुका था । इसका कारण यह था कि वेदका उत्तराधिकार स्मृतिके आधारपर एकसे दूसरेको मिलता आता था और
१ इडियन फिलोसोफी (सर एस० २ इंडियन फिलोसोफी ( सर एस०
राधाकृष्णन्) पृ० ६४, १ भा० । राधाकृष्णन् ) पू० १२९ ।
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विविध
३३७ आदर भाव बनाये रखनेके लिये कुछ पवित्रताका उससे सम्बद्ध होना जरूरी था। अस्तु, ब्राह्मण साहित्यको दृष्टिमे वैदिक ऋचाओंका धर्म केवल यज्ञ था। और मनुष्यका देवताओंके साथ केवल यात्रिक सम्बन्ध था और वह था-'इस हाथ दे उस हाथ ले।।
जब हम आरण्यकोंकी ओर आते है, जिनके बारेमें कहा जाता है कि वे वनवासियोके लिये बनाये गये थे तो उनमे हमे यज्ञादि कर्मोसे उत्पन्न होनेवाले फलके प्रति अश्रद्धाका भाव दीख पड़ता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कोरे कर्मसे लोगोको अभिरुचि हटने लगी थी और चूंकि यागादिकसे मिलनेवाला स्वर्ग स्थायी नही था अतः उसे आत्यन्तिक सुखका सम्पादक नही माना जा सकता था।
जब हम उपनिषदोंकी ओर आते है तो हमें लगता है कि 'उपनिषदोकी स्थिति वेदोंके अनुकूल नहीं है । युक्तिका अनुसरण करनेवाले उत्तरकालीन विचारकोकी तरह वे वेदकी मान्यताके प्रति दुमुखी ढंग स्वीकार करते है । एक ओर वे वेदको मौलिकताको स्वीकार करते है और दूसरी ओर वे कहते है कि वैदिक ज्ञान उस सत्य दैवी परिज्ञानसे बहुत ही न्यून है और हमे मुक्ति नहीं दिला सकता। नारद कहता है-'मै ऋग्वेद सामवेद और यजुर्वेदको जानता हूँ किन्तु इससे में केवल मंत्रों और शास्त्रोको जानता हूं--अपनेको नही जानता।' माण्डूक्य उपनिषदमे लिखा है-दो प्रकारकी विद्याएं अवश्य जाननी चाहियेएक ऊंची दूसरी नीची। नीची विद्या वह है जो वेदोंसे प्राप्त होती है किन्तु उच्च विद्या वह है जिससे अविनाशी ब्रह्म प्राप्त होता है।'
वैदिक, साहित्यके इस विवेचनसे यह स्पष्ट है कि वैदिक आर्य जव भारतवर्षमे आये तो उनका सवर्ष यहाँके आदिवासियोंसे हुआ। यद्यपि 'कठ उपनिषद्' (१-१-२०) से उपनिषत्कालमे वैदिक धर्मसे विरोध रखनेवाले दार्शनिकोंका सद्भाव पाया जाता है, किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि उपनिषत्कालसे पहले वैदिकधर्मका विरोध
१ इडियन फिलासफी (सर एस. राधाकृष्णन्) भा० १, पृ० १४९ ।
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संतधर्म
करनेवाले नही थे। किसी देश में बाहरसे आकर बमनेवालों और फिर धीरे-धीरे उस देशपर अधिकार जमानेवालो की प्राय. यह प्रवृत्ति होती है कि वे उस देशके आदिवानियोंको जंगली और अजानी ही दिखानेका प्रयत्न करते हैं। ऐसा हो प्रारम्भमें अग्रेजोने किया और सम्भवत ऐसा ही वैदिक आर्यों और उनके उत्तराधिकारियोने किया है। वे, अब भी इसी मान्यताको लेकर चलते है कि जैनधर्मका उद्गम वौद्धवके साथ साथ या उससे कुछ पहले उपनिपत्कालके बहुत बादमें उपनि पदोat far आधारपर हुआ। जब कि निश्चित रीति से प्राय aभी इतिहासशीने यह स्वीकार कर लिया है कि जैनोके २३वं तीर्थङ्कर श्रीपारसनाथ जो कि ८०० ई० पू० में उत्पन्न हुए ये एक ऐतिहासिक महापुरुष थे । किन्तु वे भी जैनधर्म के संस्थापक नहीं थे ।
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सर राधाकृष्णन अपने भारतीय' दर्शनमें लिखते हैं-"जैन पर पराके अनुसार जैनधर्मके संस्थापक श्री ऋषभदेव ये जो कि शताब्दियों पहले हो गये हैं । इस बातका प्रमाण है कि ई० पू० प्रथम शताब्दीमें प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव की पूजा होती थी । इसमें सन्देह नहीं है कि जैनधर्म वर्धमान या पार्श्वनाथ से भी पहले प्रचलित था । यजुर्वेदम ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि इन तीन तीर्थङ्करों के नामोका निर्देश है। भागवतपुराण इस वानको पुष्टि करता है कि ऋषभदेव जैनधर्मके संस्थापक थे ।"
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ऐसी स्थितिमें उपनिषदोकी शिक्षाको जैनधर्मका आधार ब लाना कैसे उचित कहा जा सकता है ? क्योंकि जिसे उपनिपद्काल कहा जाता है उस कालमें तो वाराणसी नगरी में भगवान पाखें.. नायका जन्म हुआ था। एक दिन कुमार अवस्थामे पार्श्वनाथ गंगाकै किनारे घूमने के लिये गये थे । वहाँ कुछ तापस पञ्चापि रहे थे। पार्श्वनाथने आत्मज्ञानहीन इस कोरे तपका विरोध किया और वतलाया कि जो लकड़ियाँ जल रही है इनमें नाग-नागिनीका
१ इडियन फिलासफी ( सर एस० राधाकृष्णन्) भा० १, पृ० २८७ १
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विविध
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जोड़ा मौजूद है और उसके प्राण कंठगत है। जब लकडीको चीरा गया तो बात सत्य निकली। इस घटना के बाद ही पार्श्वनाथने प्रव्रज्या धारण कर ली थी और पूर्ण ज्ञानको प्राप्त करके जैनधर्मके सिद्धान्तोका उपदेश जनताको दिया था। भगवान पार्श्वनाथसे लगभग अढाई सौ वर्षके पश्चात् महावीर हुए और उनके बहुत हले भगवान ऋषभदेव हुए। अत जिस समय वैदिक आर्य भारत र्षमे आये उस समय भी यहाँ ऋषभदेवका धर्म मौजूद था और उनके अनुयायियोंसे भी वैदिक आर्योका सघर्ष अवश्य हुआ होगा। द्राविडवश लत भारतीय है और द्रविड़ संस्कृति भारतीय संस्कृति है, क्योंकि विड़ भाषाएँ केवल भारतवर्षमे ही पाई जाती है। यह द्रविड संस्कृति नवश्य ही जैनधर्मसे प्रभावित रही है। यही कारण है जो जैनधर्ममे विड नामसे भी एक संघ पाया जाता है । द्राविड़ वशका एक पात्र घर दक्षिण भारत ही है अत. उनके सम्पर्कमे वैदिक आर्य बहुत बादमें आये होगे। यही वजह है जो ऋग्वेदके वादमे सकलित किये पये यजुर्वेदमे कुछ जैन तीर्थङ्करोंके नाम पाये जाते है। ____ जव वैदिक धर्म यज्ञप्रधान बन गया और पुरोहितोंका राज्य हो गया तो उसके बाद हम जनतामे जो उसके प्रति भरुचि पाते है, जिसका उल्लेख ऊपर किया है वह आकस्मिक नही है किन्तु शुष्क क्रियाकाण्डकी विरोधिनी उस श्रमण संस्कृतिक विरोधका परिणाम है जिसके जन्मदाता ऋषभदेव थे। उसीके फलस्वरूप उपनिषदोकी रचना की गई, जिनमें वेदका प्रामाण्य तो स्वीकार किया गया किन्तु उससे प्राप्त होनेवाले ज्ञानको नीचा ज्ञान बतलाया गया और आत्मज्ञानको ऊंचा ज्ञान बतलाया गया। इस प्रकार उपनिषदोंने ऊंचे आध्यात्मिक सिद्धान्तका प्रतिपादन तो किया किन्तु वैदिक क्रियाकाण्डका विरोध नहीं किया। सर राधाकृष्णन्के अनुसार'-'जब समया आध्यात्मिक सिद्धान्तके प्रति एक निष्ठा चाहता था तव हम
१ इडियन् फिलासफी, भा० १ पृ० २६४-६५ ।
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जैनधर्मं
क्रियाकाण्ड और प्रचलित धर्मसे पूरी तरह पृथक हो जाना चाहिये। भगवद् गीता और बादके उपनिषदोंने अतीतका हिसाब बैठानेकाऔर पहले से भी अधिक कट्टरतासे तर्क विरुद्ध सिद्धान्तो के सम्मिश्रण करनेका प्रयत्न किया। इस प्रकार उपनिषद्कालके पश्चात् प्रचलित धर्मके इन उग्रपन्थी और स्थित पालक विरोधियोंके केन्द्र भारतके विभिन्न भागों में स्थापित हुए- पूर्वमे वौद्ध और जैनधर्मने पैर जमाया और वैदिक धर्मके प्राचीनगढ़ पश्चिममें भगवद्गीताने ।"
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उक्त चित्रणमे जहाँ जैनधर्म और बौद्धधर्मके उत्थानकी बात • आती है वहाँ हम सर राधाकृष्णन्को भी उसी पुरानी बातको दुहराते हुए पाते है कि जैनधर्मने उपनिषदको 'शिक्षाओं को माना । किन्तु वैदिकधर्म और उपनिषद के सिद्धान्तो के मिश्रणको तर्कविरुद्ध बतलाकर भी और यह मानकर भी कि पार्श्वनाथ जैनधर्मके तीर्थङ्कर थे जिनका । निर्वाण ७७६ ई० पू० में हना था तथा जैनधर्मं उससे पहले भी मौजूद था, वे उपनिषदके उन सिद्धान्तोंको जो जैनधर्मसे मेल खाते है, किन्तु वैदिकधर्मसे मेल नही खाते जैनधर्मके सिद्धान्तं माननेके लिये शायद तैयार नही है । किन्तु उन्होने ही वैदिककालका जो खाका खींचा है उससे तो यही प्रमाणित होता है कि जब वैदिक क्रियाकाण्डका विरोध हुआ और जनताकी रुचि उससे हटने लगी तो वैदिकोंने अपनी स्थिति बनाये रखनेके लिये अपने विरोधी धर्मोकी - जिनमे जैनवमं प्रमुख था - आध्यात्मिक शिक्षाओंके आधार पर उपनिषदोकी रचना की। किन्तु उपनिषद भी बातें तो अध्यात्मकी पा करते थे और समर्थन वैदिक ferreuser ही किये जाते थे, जिसके स्व विरोधी वरावर मौजूद थे। फलतः बिरोध बढने लगा । इसी समयके ਬਿ लगभग भगवान पार्श्वनाथ हुए। उनके उपदेशोंने भी अपना असर दिखलाया। भगवान पार्श्वनाथ के लगभग २०० वर्षके बाद ही विहारमे महावीर और बुद्धका जन्म हुआ । वैदिकवर्म में विचारशास्त्र उच्च विद्वानों को ही वस्तु बनी हुई थी, परन्तु इस युगमें इसका
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विविध
प्रचार साधारण जनतामे किया जाने लगा। भगवान पार्श्वनाथने ७० वर्षतक स्थान स्थानपर विहार करके जनसाधारणमें धर्मोपदेश दिया। इसीका अनुसरण महावीर तथा बुद्धने अवान्तरकालमें किया। अपने आध्यात्मिक विचारोंको व्यावहारिक रूप देनेकी तथा अपने विचारोंके अनुरूप जीवन यापन करनेकी प्रवृत्तिकी ओर भी इसी युगमें विशेष लक्ष्य दिया गया क्योंकि उक्त महापुरुषोने ऐसा ही किया था। वैदिक युगमें इन्द्र वरुण आदिको ही देवताके रूपमे पूजा जाता था, / किन्तु उक्त धर्मोंमे मनुष्यको उन्नत बनाकर उसमे देवत्वकी प्रतिष्ठा, करके उसकी पूजा की जाती थी। विरोधियोंके इन सिद्धान्तोंने वैदिक धर्मकी स्थितिको एकदम डांवाडोल कर दिया था। उसको कायम । रखनेके लिये फिर कुछ नई बातोको अपनानेकी वैसी ही आवश्यकता: प्रतीत हुई जैसी आवश्यकता उपनिषदोंकी रचना होनेसे पूर्व प्रतीत हुई, । थी। इसी कालमे रामायण और महाभारतका उदय हुआ, और राम
१ सर राधाकृष्णन् लिखते है-"जब जनताकी आध्यात्मिक चेतना उपनिपदोंके कमजोर विचारसे, या वेदोंके दिखावटी देवताओंसे तथा जैनो और बौद्धोंके ।। नैतिक सिद्धान्तोंके सदिग्ध आदर्शवादसे सन्तुष्ट नहीं हो सकी तो पुननिर्माणने एक धर्मको जन्म दिया, जो उतना नियम-बद्ध नहीं था तथा उपनिषदोंके धर्मसे अधिक सन्तोष प्रद था। उसने एक सदिग्ध और शुष्क ईश्वरके बदलेमें एक जीवित . मानवीय परमात्मा दिया। भगवद्गीता, जिसमें कृष्ण विष्णुके अवतार तथा , उपनिषदोंके परब्रह्म माने गये है, पचरात्र सम्प्रदाय और श्वेताश्वतर तथा बादके अन्य उपनिषदोका शवधर्म इसी धार्मिक क्रान्तिके फल है ।"-इ० फि० पृ०॥ २७५-७६ । दीवानबहादुर कृष्ण स्वामी आयगरने भी इसी तरहके विचार प्रकट किये है। वे लिखते है-'उस समय एक ऐसे धर्मकी आवश्यकता थी जो. । ब्राह्मणवर्मके इस पुनर्निर्माणकालमें बौद्धधर्मके विरुद्ध जनताको प्रभावित कर सकता। उसके लिये एक मानव देवता और उसकी पूजाविधिकी आवश्यकता थों। -एन्शियट इण्डिया, पृ० ५८८ ।
प्रसिद्ध इतिहासज्ञ स्व० मोझाजीने भी लिखा है-"वौद्ध और जैनधर्मके प्रचारसे वैदिकधर्मको बहुत हानि पहंची। इतना ही नहीं, किन्तु उसमें परिवर्तन करना पड़ा। और वह नये सापेमें ढलकर पौराणिक धर्म बन गया । उसमें वौद्ध
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जैनधर्म
३१३४८ इसलिये वह हिन्दू धर्मकी विद्रोही सन्तान है, सर्वथा भ्रान्त है। जनधर्म एक स्वतत्र धर्म है। उसके आद्य तीर्थङ्कर श्रीऋपभदेव 'न्थे जो राम और कृष्णसे भी पहले हो गये है और जिन्हें हिन्दुओंने 'विष्णुका अवतार माना है। उन्हीके विचारोकी झलक उपनिषदोमे मिलती है। जैसा कि "उपनिपद विचारणा के निम्न शब्दोसे भी 'स्पष्ट है___ "उपनिषदोना छेवटना भागां वेदवाह्य विचारवाला साधुओना आचारविचारो अरण्यवासिओमा पेठेला जणाय छे, अने तेमाँ जैन अने बौद्ध सिद्धान्तोना प्रथम वीजे उग्याँ होय ऐम जणाय छे। उदाहरण तरीके "सर्वाजीव ब्रह्मचक्रमा हस एटले जीव भमे छे, जीवधन परमात्मा छे, जीव जे जे शरीरमा प्रवेशे छे ते ते शरीरमय होइ जाय छ, केटलाक परमहसी "निर्गन्थ अने शुक्लध्यान परायण 'हता" आ विगेरे उपनिषद् वाक्यों श्रीमहावीर पूर्वभावी निर्ग्रन्थ साधुओंना विचारोना पूर्व रूप छ । जनोना आद्य तीर्थङ्कर ऋषभदेव आवर्गना, निर्ग्रन्थ' साधु हता। अने पाछल थी तेमने हिन्दुधर्मीओए विष्णुना अवतार मान्या छे।" : हिन्दूधर्म और जैनधर्मके सिद्धान्तोमें बहुत अन्तर है। जैन वेदको नहीं मानते, स्मृति ग्रन्थों तथा ब्राह्मणोके अन्य प्रमाणभूत अन्योको भी प्रमाण नहीं मानते। इसके सिवा दोनोमे महत्त्वका प्रभेद तो यह है कि जनधर्मके धार्मिक तत्त्व और उनकी सरणि स्पष्ट
और निश्चित है, किन्तु हिन्दूधर्ममें परस्पर विरोधी अनेक सिद्धान्त है "और वे सब अपने सच्चे होनेका दावा करते है । हिन्दू जगत्का नियामक
और रचयिता ईश्वरको मानते है, जैनी नहीं मानते। हिन्दू युग-युगमे जगत्की सृष्टि और प्रलयको मानते है, जैन जगतको अनादि अनन्त से जुदो प्रकारकी है और ये दोनो समान नही हो सकती। दोनोमें जो समानता है वह केवल शाब्दिक है। . १पु० २०१।
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दीर्घ कालतक एक ही क्षेत्र में फरे कुठे हे अत. एका अंतर दूमरेपर हुआ हो, यह समय नहीं है । ३ जैनधर्म और मुसलमान धर्म
उमा उदयमें हुआ हिन्दु बनादियों तक दोनों भारत के नाते है। और एक दूगरेपर अनर भी पड़ा है कि अगर तो जैनो की स्थापत्य और निकल पड़ा है। साथ गाय जेनोकी अगर गुगलमानों की
कार भी है। किन्तु उसने हमारा प्रयोजन नहीं है। हमारा प्रयोजन तो धार्मिक नेत्रमे मुसलमान धर्मने जैनगम के कार जो प्रभाव डाला है उनसे है। मुसलमान धर्मका जैनधर्म के कार महत्रमा असर तो उनके अन्दर उत्पन्न होनेवाले मूर्तिपूजा विरोधी गम्प्रदायोरा जन्म लेना है । मुसलमानों के मूर्तिपूजा विरोध और मूर्ति राण्डनने ही लोकागाह वगैरहके चित्तमें इस भावनाको जन्म दिया, जिसके फलस्वरूप स्थानकवासी सम्प्रदाय और तारणपन्यकी स्थापना हुई ।
मुसलमान धर्मपर जैनधर्म का असर बतलाने हुए प्रो० ग्लेजनपने 'जैनिज्म' नामक ग्रन्यमें A furher. V. Kremer के एक निबन्धका हवाला दत हुए लिया है कि अरव कवि और दार्शनिक अबुल अलाने (९७३ - १०५८ ) अपने नैतिक- मिद्धाल जैनधर्म के प्रभावमं स्थापित किय थे। इसका वर्णन करते हुए मरने लिखा है- 'अबुल अला केवल अन्नाहार करता था और दूध तक नहीं पीता था। कारण, वह मानता था कि माताके स्तनमेंसे बच्चे के हिस्तेका दूध भी दुह लिया जाता है इसलिये इसे वह पाप मानता था । जहाँ तक बनता था वह आहार भी नही करता था । उसने मधुका भी त्याग कर दिया था। अंडा भी नही साता था । आहार और वस्त्रकी दृष्टिसे वह सन्यासियोकी तरह रहता था । पैरमें लकडीकी पावडी पहरता था । कारण, पशुको मारना और उसका चमड़ा काममें लाना पाप है । एक स्थानपर
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वह नग्न रहनेकी भी प्रशंसा करता है और कहता है ऋतु ही तुम्हारे लिये सम्पूर्ण वस्त्र है ।' उसका कहना है कि भिखारीको पैसा देनेके बदले मक्खीको जीवनदान देना श्रेष्ठ है ।
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नग्नता, जीवरक्षा, अन्नाहार और मधुका त्याग आदि विषयोंपर उसका पक्षपात यह वतलाता है कि इसके विचारो के ऊपर जैनधर्मका, खास करके दिगम्बर सम्प्रदायका असर था । अबुल् अला बहुत समय - : तक वगदादमे रहा था । यह नगर व्यापारका केन्द्र था । सम्भव है कि जन व्यापारी वहाँ गये हों और उनके साथ कविका सम्वन्ध हुआ हो ।
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. उसके लेखोपरसे जाना जाता है कि उसे भारतके अनेक धर्मोका ज्ञान था । भारतके साधु नख नही काटते इस बातका उसने उल्लेख किया है । वह मुर्दा जलानेकी पद्धतिकी प्रशंसा करता है । भारतके साघु चिताकी अग्निज्वालामे कूद पड़ते है इस बातपर अवुल अलाको वहुत आश्चर्य हुआ था । मृत्युके इस ढंगको जैन अवमं मानते है । 'वन सके तो केवल आहारका त्याग करो' अवुल अलाके इस वचनसे यह अनुमान किया जा सकता है कि उसे जैनो के सल्लेखनाव्रतका ज्ञान था । किन्तु यह व्रत वह स्वयं पाल सकता इतना उसका आत्मा सवल नही था। इन सब बातोसे ऐसा लगता है कि अवुल् अला जैनों के परिचयमे आया था और उनके कितने ही धार्मिक सिद्धान्तोको उसने स्वीकार किया था ।.
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कृत
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५. जैन सूक्तियाँ
१ णो लोगस्सेसणं चरे ।
-आचाराग ।
अर्थ - लोकैषणाका अनुसरण करना -- लोगों की देखादेखी चलना
चाहिये ।
२ सव्वे पाणा पियाउआ, सुहसाया दुक्खपडिकुला अप्पियवहा पियजीविणो जीविकामा, सव्वेंसि जीविय पिय। आनारंग | अर्थ- समस्त जीवोको अपना अपना जीवन प्रिय है, सुख प्रिय वे दुख नही चाहते, वध नही चाहते, सब जीनेकी इच्छा करते 1 ( अतएव सबकी रक्षा करनी चाहिये ) ।
३ सव्वे जीवा वि इच्छति जीविउ न मरिज्जिरं ।
तम्हा पाणवह घोर णिग्गथा वज्जयति ण || दशवैकालिक । अर्थ-सव जीव जीना चाहते है, कोई भी मरना नही चाहता । एव निर्ग्रन्थ मुनि घोर प्राणिवधका परित्याग करते है ।
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४ णिस्सगो चैव सदा कसायसल्लेहणं कुर्गादि भिक्खू । सगाह उदीरति कसाए अग्गीव कट्टाणि ॥ शिवायें । अर्थ --- परिग्रहरहित साधु ही सदा कषायों को कृश करनेमे समर्थ ना है, क्योंकि परिग्रह ही कषायोंको उत्पन्न करते और बढाते है, सूखी लकडियाँ अग्निको उत्पन्न करती और बढाती है । ५ समसत्तुवधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिदसमो । समलोट्ठकचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ॥ कुन्दकुन्द ! अर्थ- जो शत्रु और मित्रमें सुख और दुखमे, प्रशसा और निन्दामिट्टी और सोनेमें तथा जीने और मरनेमे सम है, वहीं श्रमणसाघु है ।
६ भावरहिओो न सिज्झइ जइवि तव चरइ कोडिकोड़ीओो । जम्मतराइ बहुसो लवियहत्यो गलियवत्यो । कुन्दकुन्द ।
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जैनधर्म
अर्थ-वास्तवमे जीवोंका वध अपना ही वध है और जीवोपर दया अपनेपर ही दया है। इसलिए विषकण्टकके समान हिंसाको दूरसे त्याग देना चाहिये।
१३ रायदोसाइदीहि य बहुलिज्जा व जस्स मणसलिल । सोणिय तच्च पिच्छइ ण हु पिच्छइ तस्स विवरीमो ।। -देवसेन। ।
अर्थ-जिसका मनोजल राग द्वेष आदिसे नही डोलता है, वह ... सात्मतत्त्वका दर्शन करता है और जिसका मन रागद्वेषादिक रूपी हिरोसे डांवाडोल रहता है उसे आत्मतत्वका दर्शन नहीं होता। संस्कृत
१४ मापदा कथित. पन्था इन्द्रियाणामसयम । तज्जय. सपदा मागों येनेष्ट तेन गम्यताम् ।।
अर्थ- इन्द्रियोंका असयम आपदाओंका-दुखोका मार्ग है। और उन्हे अपन वशमें करना सम्पदाओका--सुखोका मार्ग है। इनमे । जो तुम्हें स्वे, उस पर चलो।' १५ हेयोपादेयविज्ञानं नो चेद् व्यर्थ श्रम श्रुती । --वादीमसिंह।
अर्थ-~~यदि शास्त्रोको पढकर हेय और उपादेयका ज्ञान नहीं आ, किसमें आत्माका हित है और किसमें आत्माका अहित है यह मिझ पैदा नहीं हुई, तो श्रुताभ्यासमें परिश्रम करना व्यर्थ ही हुआ।' १६ कोऽन्धो योऽकार्यरत को बधिरो य धुणोति न हितानि ।
को भूको य काले प्रियाणि वक्तु न जानाति ।। प्रश्नोत्तर रलमाला। अर्थ-'अन्धा कौन है ? जो न करने योग्य बुरे कामोंको करनेमे न रहता है। बहरा कौन है ? जो हितकी वात नहीं सुनता। |गा कौन है ? जो समयपर प्रिय वचन बोलना नहीं जानता।' १७ पुण्यस्य फलमिच्छन्ति पुण्य नेच्छन्ति मानवाः ।
फल नेच्छन्ति पापस्य पाप कुर्वन्ति यलतः॥ गुणभद्राचार्य। अर्थ--'मनुष्य पुण्यका फल सुख तो चाहते है किन्तु पुण्य कर्म करना नहीं चाहते। और पापका फल दुख कभी नहीं चाहते, किन्तु रपको बड़े यत्नसे करते है।
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जैनधर्म
२४ आशागतं प्रतिप्राणि यस्मिन् विश्वमणूपमम् ।
तत्कियद् कियदायाति वृथा विपर्यपिता ॥ -गुगभद्र।
अर्थ-'प्रत्यक प्राणीका आशारूपी गड्ढा इतना विशाल है कि उसके सामने यह पूरा विश्व भी अणुके तुल्य है। ऐसी स्थितिमें यदि स विश्वका वटवारा किया जाय तो प्रत्येक हिस्समें कितना कितन जायगा। अत विषयोकी चाह व्यर्थ ही है।' हन्दी२५ राग उद जग अन्ध भयो सहहिं सब लोगन लाज गंवाई।
सीख विना नर सीखत है विषयादिक सेवनकी सुघराई ।। तापर और रच रसकाव्य, कहा कहिये तिनको निठुराई ।
अन्ध असूझनकी अखियानमें डारत है रज राम दुहाई ॥ भूधरदा २६ राग उदै भोग भाव लागत सुहावनेसे,
विना राग ऐसे लाग जैसे नाग कारे है। राग ही सौ पाग रहे तनमें सदीव जीव,
राग गये मावत गिलानि होत न्यारे है। राग सों जगतरीति झूठी सब सांची जान,
राग मिटै सझत असार खेल सारे है। रागी विन रागीके विचारमें बडोई भेद,
जैसे भटा पत्र काहू काहूको वयारे है ॥ -भूधरदास २७ ज्यो समुद्रमै पवन ते चहुँदिसि उठत तरग ।
त्यो आकुलता सौं दुखित लहै न समरस रग ॥ -वृन्दावन । २८ चाहत है धन होय किसी विधि तो सब काज सर जियरा जी।
गेह चिनाय करूं गहना कुछ, व्याहि सुता सुत वाटिय भाजी॥ चिंतत यो दिन जाहिं चले जम आनि अचानक देत दगा जी। खेलत खेल खिलारि गये रहि जाय रुपी शतरजकी बाजी ॥
-भूषरदास
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कुछ जैन पारिभाषिक शब्द
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७८
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महत्
अघाति कर्म पृष्ठ १४० क्षायिक भाव मधर्म द्रव्य
क्षायोपशमिक भाव अनन्तकाय
गुणव्रत अन्तराय कर्म
गुणस्थान भाग बन्ध
गोत्र कर्म अपकर्षण
घाति कर्म अप्रतिष्ठित (वनस्पति)
चेतना अभव्य
छ आवश्यक
२१० | जिन ज्ञानावरण कर्म
१३६ 'काश तीर्थकर
११२ ११८ | तीर्थ कर केवली साय ६८ दर्शनावरण कर्म
१४० द्रव्य
| देश घाती 2 - भूल गुण १७० द्रव्य
७२ द्रव्य कर्म द्रव्य पूजा
११६ द्रय-संयम । द्रव्य लिङ्ग
२१३ 'कर्पण
| धर्म द्रव्य नामकर्म
१४० दीरणा
निकाचना
१४३ उपशम
| निपत्ति उपशम श्रेणी २२३ | निर्जरा
१३१ औदयिक
निश्चयकाल औपरामिक
पंच परमेष्ठी
११६ १३२ / पच महाकल्याणक
११३ कार्मग वर्गणा
१३३ / परमाणु
६७ / पांच समिति
११२ | पारिणामिक भाव २२१ सपक श्रेणि
२२३ पुद्गल द्रव्य १. यहां उन्ही शब्दोको दिया है जिनकी परिभाषा 'जनधर्म' पुस्तकमें आई है।
*ज्य कर्म
१३४
१२
१४३
२२०
२१०
। कालद्रव्य विली
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