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जैनधर्म
जन्य न होनेसे ही आत्माका कर्तृत्व स्वीकार करना पड़ता है | अत आत्मा कर्ता है |
भोक्ता है
जिस तरह जीव अपने भावोंका कर्ता है उसी तरह उनका भोक्ता मी है । यदि आत्मा सुख दुःखका भोक्ता न हो तो सुख दुखकी अनुभूति ही नही हो सकती और अनुभूति चैतन्यका धर्म है । साख्यका कहना है कि 'पुरुष स्वभावसे भोक्ता नही है किन्तु उसमे भोक्तृत्वका आरोप किया जाता है, क्योंकि सुख दुखका अनुभव बुद्धिके द्वारा होता है 'ओर बुद्धि अचेतन है । बुद्धिमें सक्रान्त सुख दुखका प्रतिविम्व शुद्ध स्वभावमें पड़ता है, अत. पुरुषको सुख दुखका भोक्ता मान लिया जाता है।' इस पर जैनोका कहना है कि जैसे स्फटिकमें जपाकुसुमका प्रतिविम्ब पड़ने से स्फटिक मणिका लाल रूपसे परिणमन मानना पड़ता है वैसे ही पुरुषमें सुख दुखका प्रतिबिम्ब माननेसे पुरुषमें सुख दुखरूप परिणाम मानना ही पडता है। उसके बिना सुख दुखकी अनुभूति नही हो सकती ।
अपने शरीरप्रमाण है।
जैन दर्शनमें जीवको शरीरप्रमाण माना गया है । जैसे दीपक छोटे या वड़े जिस स्थान में रखा जाता है, उसका प्रकाश उसके अनुसार ही या तो सकुच जाता है या फैल जाता है, वैसे ही आत्मा भी प्राप्त हुए छोटे या वडे शरीर के आकारका हो जाता है। किन्तु न तो सकोच होने पर आत्माके प्रदेशोकी हानि होती है और न विस्तार होनेपर नये प्रदेशोकी वृद्धि होती है। प्रत्येक दशामे आत्मा असंख्यातप्रदेशीका असंख्यातप्रदेशी ही रहता है ।
आत्माको शरीरप्रमाण माननमें यह आपत्ति की जाती है कि यदि आत्मा शरीरके प्रत्येक प्रदेशमें प्रवेश करता है तो शरीरकी तरह आत्माको भी सावयव मानना पडता है और सावयव मानने से आत्माका विनाश प्राप्त होता है, क्योंकि जैसे घट सावयव है जब उसके अवयवोका संयोग नष्ट होता है तो घट भी नष्ट हो जाता है, उसी तरह आत्माको