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पनवर्म, श्रावक उन्हे भोजन भी नहीं देते थे। अत उस समयके सोमदेव सरि पौरपं० आशाघरजीको अपने अपने श्रावकाचारमे गृहस्थोंकी इस कड़ाई का विरोध करना पड़ा था। सोमदेवसूरि लिखते है
"भुक्तिमात्रप्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम्।
ते सन्त. सन्त्वसन्तो वा गृही दानेन शुद्धयति ।" यशस्तिलक । अर्थात्-~-"आहारमात्र देनेमे मनियोकी क्या परीक्षा करते हो? वे सज्जन हों या असज्जन हों, गृहस्थ तो दान देनेसे शुद्ध होता ही है। पं० आशापरजी लिखते है
"विन्यस्यदयुगीनेषु . प्रतिमासु जिनानिव ।
भक्त्या पूर्वमुनीनत् कुतः श्रेयोऽविचचिनाम् ॥६४॥" सागारधर्मा० । अर्थात्-"जैसे प्रतिमाओंमें तीर्थड्रोकी स्थापना करके उन्हें पूजते है वैसे ही इस युगके साघुओंमे प्राचीन मुनियोंकी स्थापना करक भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करना चाहिये । जो लोग ज्यादा क्षोदक्षेम करते है उनका कल्याण कैसे हो सकता है?"
गृहस्थोकी इस जागरूकताके फलस्वरूप ही जैनधर्ममें अनाचारकी वृद्धि नहीं हो सकी और न उसे प्रोत्साहन ही मिल सका । जेन गृहस्थोंमें सदासे शास्त्रमर्मज विद्वान् होते आये है। जिन विद्वानोन वड़े बड़े ग्रन्थोंकी हिन्दी टीकाएं की है वे सभी जैन गृहस्थ थे। उन्होंने अपने सम्प्रदायमे फलनेवाले शिथिलाचारका भी डटकर विरोध किया था, जिसके फलस्वरूप एक नया सम्प्रदाय बन गया और शिथिलाचारके सर्जकोका लोप ही हो गया।
जैनसंघमें स्त्रियोंको भी बादरणीय स्थान प्राप्त था। दिगम्वर 'सम्प्रदाय यद्यपि स्त्री-मुक्ति नही मानता फिर भी आर्यिका और श्राविकाओंका वरावर सन्मान करता है और उन्हें बहुत ही आदर और श्रद्धाकी दृष्टिसे देखता है। जनसंघमें विधवाको जो अधिकार प्राप्त है वे हिन्दूधर्ममें नही है। जैन सिद्धान्तके अनुसार पुत्ररहित विधवा