________________
सामाजिक रूप
/ २६७
होते थे और कुछ अवान्तर आचार्य होते थे । वे सब मिलकर संघका नियमन करते थे । प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय और ध्यानकी ओर साधुवर्गका खास तौर से ध्यान दिलाया जाता था । प्रत्येक साधुके लिए यह आवश्यक था कि वह अपने अपराधोंकी आलोचना आचार्यके सन्मुख करे और आचार्य जो प्रायश्चित्त दे उसे सादर स्वीकार । करे । प्रतिदिन प्रत्येक साधु प्रात काल उठकर अपने से बडों को नमस्कार ! करता था और जो रोगी या असमर्थ साधु होते थे उनकी सेवा-शुश्रूषा करता था । इस सेवा-शुश्रूषा या वैयावृत्यका जैनशास्त्रोमे बडा महत्त्व बतलाया है और इसे आभ्यन्तर तप कहा है । इसी प्रकार आयिकाओकी भी व्यवस्था थी। दोनोंका रहना वगैरह विल्कुल जुदा होता था । किसी साघुको आर्यिकासे या आर्यिकाको साघुसे एकान्त में ' बातचीत करनेकी सख्त मनाई थी, और निश्चित दूरीपर बैठनेका, आदेश था ।
साधुवर्ग राजकाजसे कोई सरोकार नही रख सकता था । साघुके जो दस कल्प- अवश्य करने योग्य आचार बतलाये है उनमे साधुके लिए राजपिण्ड - राजाका भोजन ग्रहण न करना भी एक आचार है । राजपिण्ड ग्रहण करनेमें अनेक दोष बतलाये है ।
हिन्दू धर्म में धार्मिक क्रियाकाण्ड और धार्मिक शास्त्रोके अध्ययन अध्यापनके लिये एक वर्ग ही जुदा होनेसे हिन्दू धर्मके अनुयायी हत्य अपने धर्मके ज्ञानसे तो एक तरहसे शून्यसे ही हो गये और आचारमे भी केवल ऊपरी बातोंतक ही रह गये । किन्तु जैनधर्ममे ऐसा कोई वग न होनेसे और शास्त्र स्वाध्याय 'तथा व्यक्तिगत सदाचरणपर जोर होनेसे सव श्रावक और श्राविकाएं जैनधर्मके ज्ञान और आचरणसे वंचित नही हो सके । फलतः साघु और आर्यिकाओं के आचारमें कुछ भी त्रुटि होनेपर वे उसको झट आँक लेते थे । ऐसा लगता है कि दिगम्बर सम्प्रदाय में भट्टारकयुगमे मुनियोमे गिथिलाचार कुछ वढ चला था और लोगों मुनियोकी ओरसे यहांतक अरुचि सी हो चली थी कि