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चारित १२ क्षीणकापाय वीतराग छमस्य-क्षपक श्रेणिपर चढनेवाले मुनि मोहको धीरे धीरे नष्ट करते करते जब सर्वथा निमल कर टालते हैं तो उन्हें क्षीणकपाय वीतराग छमस्थ कहते है ।
उन प्रकार नातवे गुणस्थानसे आगे बढनेवाले ध्यानी साधु चाहे पहली श्रेणिपर बड़े, चाहे दूसरी श्रेणिपर चढे वे सव आठवां नौवां और दसवां गुणल्यान प्राप्त करते ही है। दोनो श्रेणि चढनेवालोमें इतना ही जन्नर होता है कि प्रथम श्रेणिवालोसे दूसरी श्रेणिवालोमे आत्मविगुद्धि और आत्मवल विशिष्ट प्रकारका होता है। जिसके कारण पहली श्रेणिवाले मुनि तो दसवेसे ग्यारहवे गुणस्थानमे पहुंचकर दवे हुए मोहके उद्भूत हो जानेसे नीचे गिर जाते हैं। और दूसरी श्रेणिवाले मोहको सर्वया नष्ट करके दसवेसे वारहवे गुणस्थानमे पहुंच जाते है। यह सब जीवके भावोका खेल है। उसीके कारण ग्यारहवे गुणस्थानमे , पहुँचनेवाले साधुका अवश्य पतन होता है और बारहवें गुणस्थानमे पहुंच जानेवाला कभी नहीं गिरता, वल्कि ऊपरको ही चढता है।
१३ सयोगकेवली-समस्त मोहनीय कर्मके नष्ट हो जानेपर वारहवाँ गुणस्थान होता है। मोहनीय कर्मके चले जानेसे शेप कर्मोकी शक्ति क्षीण हो जाती है अत वारहवेंके अन्तमे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीनो घातिया कर्मोका नाश करके क्षीणकपाय मुनि सयोगकेवली हो जाता है । जानावरण कर्मके नष्ट हो जानेसे उसके केवल ज्ञान प्रकट हो जाता है। वह ज्ञान पदार्थोंके जानने में इन्द्रिय, प्रकार और मन वगैरहकी सहायता नहीं लेता इसीलिए उसे केवलज्ञान कहते है और उसके होनेके कारण इस गुणस्थानवाले केवली कहलाते है। ये केवली आत्माके शत्रु घाति कर्मोको जीत लेनेके कारण जिन, परमात्मा, जीवन्मुक्त, अरहत आदि नामोसे पुकारे जाते है । जैन तीर्थङ्कर इसी अवस्थाको प्राप्त करके जैन धर्मका प्रवर्तन करते हैजगह जगह घूमकर प्राणिमात्रको उसके हितका मार्ग बतलाते है और इसी कार्यमें अपने जीवनके शेप दिन बिताते है। जब आयु अन्तर्मुहूर्त-----