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जैनधर्म
रिणाम समान भी होते है और असमान भी होते है । परन्तु इस गुणस्थानमें एक समयमे एक ही परिणाम होनेके कारण समान समयमे हनेवाले सभी जीवोके परिणाम समान ही होते है । उन परिणामोंको निवृत्तिकरण कहते है । और बादर साम्परायका अर्थ 'स्थूलकषाय' होता है । इस अनिवृत्तिकरणके होनेपर घ्यानस्थ मुनि या तो कर्मों को वा देता है या उन्हें नष्ट कर डालता है । यहाँ तकके सब गुणस्थानोमे थूलकषाय पायी जाती है, यह बतलाने के लिए इस गुणस्थानके नामके साथ 'बादर साम्पराय' पद जोडा गया है। कहा भी है
'होति अणियटिणो ते परिसमयं जेसिमेक्कपरिणामा । विमलयरझाणहुयवहसिहाहि णिद्दद्द्वकम्मवणा ॥५७॥' 'वे जीव अनिवृत्तिकरण परिणामवाले कहलाते हैं, जिनके प्रति - समय एक ही परिणाम होता है, और जो अत्यन्त निर्मल ध्यानरूपी afrat शिखाओंसे कर्मरूपी वनको जला डालते है ।'
१० सूक्ष्म साम्पराय उक्त प्रकारके परिणामोके द्वारा जो ध्यानस्थ मुनि कषायको सूक्ष्म कर डालते है उन्हे सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानवाला कहा जाता है।
११ उपगान्तकषाय वीतराग छद्यस्थ-उपशम श्रेणिपर चढनेवाले ध्यानस्थ मुनि जव उस सूक्ष्मकषायको भी दवा देते है तो उन्हे उपशान्तकषाय कहते है । पहले लिख आये है कि आगे बढनेवाले ध्यानी मुनि आठवे गुणस्थानसे दो श्रेणियोमें बँट जाते है । उनमें से उपगम श्रेणिवाले मोहको धीरे धीरे सर्वथा दवा देते है पर उसे निर्मूल नही कर पाते । अत. जैसें किसी वर्तनमे भरी हुई भाप अपने वेगसे ढक्कनको नीचे गिरा देती है, वैसे ही इस गुणस्थानमें आनेपर दवा हुआ मोह उपगम श्रेणिवाले आत्माओको अपने वेगसे नीचेकी ओर गिरा देता है । इसमें कपायको बिल्कुल दवा दिया जाता है । अतएव कषायका उदय न होनेसे इसका नाम उपशान्तकपाय वीतराग है । किन्तु इसमें पूर्ण ज्ञान और दर्शनको रोकनेवाले कर्म मौजूद रहते है लिये इने छन् भी कह