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चारित्र
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ही चारित्र है । व्रती गृहस्थोंको ही सयतासयत कहते है । इस गुण - स्पानसे आगे के जितने गुणस्थान है वे सब सयमकी ही मुख्यतासे होते है ।
६ प्रमत्त संयत--जो पूर्ण सयमको पालते हुए भी प्रमादके कारण उसमे कभी कभी कुछ असावधान हो जाते है उन मुनियोंको प्रमत्तसयत कहते है |
७ अप्रमत्तसंयत - जो प्रमादके न होनेसे अस्खलित सयमका पालन करते हैं, ध्यानमे मग्न उन मुनियोको अप्रमत्त सयत कहते है ।
सातवें गुणस्थानसे आगे दो श्रेणियाँ प्रारम्भ होती है एक उपशम श्रेणि और दूसरी क्षपकश्रेणि। श्रेणि का मतलब है पक्ति या कतार । जिस श्रेणिपर यह जीव कर्मोंका उपशम करता हुआ उन्हें दबाता | हुआ चढता है उसे उपशम श्रेणि कहते है और जिस श्रेणिपर कर्मोको नष्ट करता हुआ चढता है उसे क्षपक श्रेणि कहते है । प्रत्येक श्रेणीम चार चार गुणस्थान होते हैं। आठवीं, नौवां और दसवाँ गुणस्थान उपशम श्रेणिमे भी शामिल है और क्षपक श्रेणिमें भी शामिल है । ग्यारहवाँ गुणस्थान केवल उपशम श्रेणिका ही है और बारहवाँ गुणस्थान केवल क्षपक श्रेणिका ही है । ये सभी गुणस्थान क्रमश होते है मार ध्यानमें मग्न मुनियोंके ही होते है ।
८ अपूर्व करण -- करण शब्दका अर्थ परिणाम है । और जो पहल नही हुए उन्हें अपूर्व कहते है । ध्यानमे मग्न जिन मुनियोके प्रत्येक समयमे अपूर्व अपूर्वं परिणाम यानी भाव होते है उन्हे अपूर्वकरण गुणस्थानवाला कहा जाता है। इस गुणस्थानमे न तो किसी कर्मका उपशम होता है और न क्षय होता है । किन्तु उसके लिए तैयारी होती है, जीवके भाव प्रति समय उन्नत, उन्नत होते चले जाते है ।
& अनिवृत्ति बादर साम्पराय -- समान समयवर्ती जीवोंके परिणामोमे कोई भेद न होनेको अनिवृत्ति कहते है । अपूर्वकारण की तरह यद्यपि यहाँ भी प्रति समय अपूर्व अपूर्व परिणाम ही होते है किन्तु अपूर्वकरणमें तो एक समयमे अनेक परिणाम होनेसे समान समयवर्ती जीवों के