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जैनधर्म
होता है और उपनिषद्का ज्ञानकाण्डमे, क्योंकि पहलेमें मुख्यतया त्रिपाकाण्डको चर्चा है और दूसरे में मुख्यतया ज्ञानको ।
वेदोका प्रधान विपय देवतास्तुति है, और वे देवता है अग्नि, इन्द्र, सूर्य वगैरह । आगे चलकर देवताओकी संख्या वृद्धिहार भी होता रहा है। विचारकों के अनुसार वैदिक आर्योंका यह विश्वास था कि इन्ही देवताओं के अनुग्रहसे जगत्का सव काम चलता है। इसीसे वे उनकी स्तुति किया करते थे । जब ये आर्य लोग भारतवर्ष में आये तो अपने साथ उन देवी स्तुतियों को भी लाये । और जब वे इस नये देशमें अन्य देवताओं के पूजकोके परिचयमें आये तो उन्हें अपने गीतोको संग्रह करनेका उत्साह हुआ। वह संग्रह ही ऋग्वेद' है।
कहा जाता है कि जब वैदिक आर्य भारतवर्षमें आये तो उनकी मुठभेड असभ्य और जंगली जातियोसे हुई। जव ऋग्वेदमें गौरवर्ण आर्य और श्यामवर्ण दस्युओं के विरोधका वर्णन मिलता है तो अथर्ववेद में आदान-प्रदानके द्वारा दोनो के मिलकर रहनेका उल्लेख मिलता है । इस समझौतेका यह फल होता है कि अथववेद जादू टोनेका अन्य वन जाता है । जब हम ऋग्वेद और अथर्ववेदसे यजुर्वेद, सामवेद और ब्राह्मणों की ओर आते है तो हम एक विलक्षण परिवर्तन पाते है । यज्ञ यागादिकका जोर है, ब्राह्मण ग्रन्थ वेदो के आवश्यक भाग बन गये है क्योकि उनमें यागादिककी विविका वर्णन है, पुरोहितोंका राज्य है और ऋग्वेदसे ऋचाएँ लेकर उनका उपयोग यज्ञानुष्ठानमें किया जाता है ।
'जब हम ब्राह्मण साहित्यकी ओर आते है तो हम उस समयमें जा पहुँचते है जब वेदों को ईश्वरीय ज्ञान होनेकी मान्यताको सत्यरूपमें स्वीकार किया जा चुका था । इसका कारण यह था कि वेदका उत्तराधिकार स्मृतिके आधारपर एकसे दूसरेको मिलता आता था और
१ इडियन फिलोसोफी (सर एस० २ इंडियन फिलोसोफी ( सर एस०
राधाकृष्णन्) पृ० ६४, १ भा० । राधाकृष्णन् ) पू० १२९ ।