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________________ विविध ३३७ आदर भाव बनाये रखनेके लिये कुछ पवित्रताका उससे सम्बद्ध होना जरूरी था। अस्तु, ब्राह्मण साहित्यको दृष्टिमे वैदिक ऋचाओंका धर्म केवल यज्ञ था। और मनुष्यका देवताओंके साथ केवल यात्रिक सम्बन्ध था और वह था-'इस हाथ दे उस हाथ ले।। जब हम आरण्यकोंकी ओर आते है, जिनके बारेमें कहा जाता है कि वे वनवासियोके लिये बनाये गये थे तो उनमे हमे यज्ञादि कर्मोसे उत्पन्न होनेवाले फलके प्रति अश्रद्धाका भाव दीख पड़ता है। ऐसा प्रतीत होता है कि कोरे कर्मसे लोगोको अभिरुचि हटने लगी थी और चूंकि यागादिकसे मिलनेवाला स्वर्ग स्थायी नही था अतः उसे आत्यन्तिक सुखका सम्पादक नही माना जा सकता था। जब हम उपनिषदोंकी ओर आते है तो हमें लगता है कि 'उपनिषदोकी स्थिति वेदोंके अनुकूल नहीं है । युक्तिका अनुसरण करनेवाले उत्तरकालीन विचारकोकी तरह वे वेदकी मान्यताके प्रति दुमुखी ढंग स्वीकार करते है । एक ओर वे वेदको मौलिकताको स्वीकार करते है और दूसरी ओर वे कहते है कि वैदिक ज्ञान उस सत्य दैवी परिज्ञानसे बहुत ही न्यून है और हमे मुक्ति नहीं दिला सकता। नारद कहता है-'मै ऋग्वेद सामवेद और यजुर्वेदको जानता हूँ किन्तु इससे में केवल मंत्रों और शास्त्रोको जानता हूं--अपनेको नही जानता।' माण्डूक्य उपनिषदमे लिखा है-दो प्रकारकी विद्याएं अवश्य जाननी चाहियेएक ऊंची दूसरी नीची। नीची विद्या वह है जो वेदोंसे प्राप्त होती है किन्तु उच्च विद्या वह है जिससे अविनाशी ब्रह्म प्राप्त होता है।' वैदिक, साहित्यके इस विवेचनसे यह स्पष्ट है कि वैदिक आर्य जव भारतवर्षमे आये तो उनका सवर्ष यहाँके आदिवासियोंसे हुआ। यद्यपि 'कठ उपनिषद्' (१-१-२०) से उपनिषत्कालमे वैदिक धर्मसे विरोध रखनेवाले दार्शनिकोंका सद्भाव पाया जाता है, किन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि उपनिषत्कालसे पहले वैदिकधर्मका विरोध १ इडियन फिलासफी (सर एस. राधाकृष्णन्) भा० १, पृ० १४९ । -
SR No.010096
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSampurnanand, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Jain Sahitya
Publication Year1955
Total Pages343
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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