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सिद्धान्त
बाह्य सहायताके विना उस शक्तिकी व्यक्ति नही हो सकती। जैसे, परिणमन करनेकी शक्ति तो संसारकी प्रत्येक वस्तुमे मौजूद है, किन्तु कालद्रव्य उसमे सहायक है उसकी सहायताके विना कोई वस्तु परिणमन नही कर सकती। इसी तरह धर्म और अधर्मकी' सहायताके बिना न किसीमें गति हो सकती है और न किसीकी स्थिति हो सकती है। ये दो द्रव्य ऐसे है, जिन्हे जनोंके सिवा अन्य किसी भी धर्मने नहीं माना। दोनो द्रव्य आकाशकी तरह ही अमूर्तिक है और समस्त लोकव्यापी है । जैसा कि कहा है
धम्मत्यिकायमरस अवण्णगध असहमप्फास।
लोगोगाढं पुठ पिहुलमसखादियपदेस ॥५३॥'-पचास्ति। 'धर्मद्रव्यमे न रस है, न रूप है, न गंध है, न स्पर्श है, और न वह शब्दरूप ही है । तथा समस्तलोकमे व्याप्त है, अखडित है और असंख्यात प्रदेशी है।'
'उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहयरं हवदि लोए।
तह जीवपुग्गलाणं घमं दवं वियाणेहि ॥८॥-पचास्ति । 'जैसे इस लोकमे जल मछलियोके चलनेमे सहायक है वैसे ही वर्मद्रव्य जीव और पुद्गलोको चलनेमे सहायक है।'
'जह हवदि धम्मदव्वं तह त जाणेह दब्बमधम्मक्ख ।
ठिदिकिरियाजुत्ताणं कारणभूद तु पुढवीव ॥६६॥'पचास्ति० । "जैसा धर्मद्रव्य है वैसा ही अधर्मद्रव्य है । अधर्मद्रव्य ठहरते हुए जीव और पुद्गलोको पृथ्वीको तरह ठहरने में सहायक है।'
सहायक होनेपर भी धर्म और अधर्म द्रव्य प्रेरक कारण नहीं है, अर्थात् किसीको बलात् नही चलाते है और न वलात् ठहराते हैं। किन्तु चलते हुएको चलने में और ठहरते हुएको ठहरनेमे मदद करते हैं। ____ यदि उन्हे गति और स्थितिमे मुख्य कारण मान लिया जाये तो जो चले रहे हैं वे चलते ही रहेगे और जो ठहरे है वे ठहरे ही रहेगे। किन्तु जो चलते है वे ही ठहरते भी है। अत. जीव और पुद्गल स्वयं