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जैनधर्म
नैष्ठिक श्रावक
नैष्ठिक श्रावकके ११ दर्जे है । ये दर्जे इस क्रमसे रखे गये है कि नपर धीरे-धीरे चढ करके कोई भी श्रावक अपनी आध्यात्मिक उन्नति रता हुआ अपने जीवनके अन्तिम लक्ष तक पहुँच सकता है । इन १ दर्जीका, जिन्हें जैनसिद्धान्तमे ११ प्रतिमाएँ कहते हैं, सक्षिप्त ववेचन इस प्रकार है
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१ दर्शनिक पाक्षिक श्रावकका जो आचार पहले वतलाया
उसके पालन करनेसे जिसका श्रद्धान दृढ और विशुद्ध हो गया है,
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सारके कारण भोगोते जो विरक्त हो चला है अर्थात् इष्ट विषयोका वन करते हुए भी उनमे जिसकी आसक्ति नही है, जिसका चित्त पाँच परमेष्ठियोके चरणोमे लीन रहता है, जो आठ मूल गुणोमे कोई दोष नही लगाता और आगेके गुणोको प्राप्त करनेके लिये उत्सुक हता है तथा भरण पोषणके लिये न्याय्य तरीको से आजीविका करता उस श्रावकको दर्शनिक कहते है । दर्शनिक श्रावक मद्य, मांस रहका न केवल सेवन नही करता, किन्तु न उनका व्यापार वगैरह य करता है न दूसरोसे कराता है और न ऐसे कामों में किसीको अपनी म्मति ही देता है । जो स्त्री पुरुष शराव वगैरह पीते हैं उनके साथ न पान आदि व्यवहार भी नही रखता, क्योकि ऐसा करनेसे मद्य रहके सेवनका प्रसग उपस्थित हो सकता है । चमड़े के पात्रमे रखा भा घी, तेल या पानी काममें नही लाता । जिस भोजनपर फूई आ ती है, या स्वाद विगड़ जाता है उसे नही खाता । जिस फल या साग से वह परिचित नही है उसे नही खाता । सूर्योदय होनेके एक तं वादसे सूर्यास्त होने के एक मुहूर्त पहले तक ही अपना खान पान रता है । पानीको शुद्ध साफ वस्त्रसे छानकर ही काममें लाता है । म नही खेलता और न सट्टेबाजी ही करता है । वेश्याका सेवन तो रहा, उससे किसी भी तरहका सम्बन्ध नही रखता, न वेश्यावाटोंसैर ही करता है। मुकदमा वगैरह लडाकर किसीका द्रव्य या जाय