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जैनधर्म
आती है, इसलिये मृगया करना क्षत्रियका कर्तव्य है । उन्होंने शायद क्रूरता और निर्दयताको ही वीरता समझा है । किन्तु वीरता आन्तरिक शौर्य है जो तेजस्वी पुरुषोमे समय समयपर अन्याय व अत्याचारका दमन करनेके लिये प्रकट होती है । डरकर भागते हुए मूक पशुओके जीवनके साथ होली खेलना शूरवीरता नही है, कायरता है । जो ऐसा करते है, वे प्राय कायर होते है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमने हिन्दू मुस्लिम दगेके समय वनारसमे देखा । हमारे मुहालमे अधिकतर वस्ती मल्लाहोंकी है । वे इतने क्रूर होते है कि बड़े बड़े घडियालोको पकड़कर साग सब्जीकी तरह काट डालते है, और खा जाते हैं । किन्तु हिन्दू मुस्लिम दगेके समय उनकी कायरता दयनीय थी। अपनी नांवों में बैठ बैठकर सब उस पार भाग गये थे और जो शेष थे वे भी जैन विद्यार्थियोसे अपनी रक्षा करनेकी प्रार्थना किया करते थे । अत मांसाहार या शिकार खेलनेसे शूरवीरताका कोई सम्बन्ध नही है । इसलिये इनसे बचना चाहिये ।
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इसी तरह धर्मं समझकर देवीके सामने बकरों, भैंसो और सूकरोंका बलिदान करना भी एक प्रकारकी मूढता और नृशसता है । इससे देवी प्रसन्न नही होती । धर्माराधनके स्थानोंको बूचडखाना बनाना शोभा नही देता । अत. सबसे पहले गृहस्थको धर्मके लिये, पेटके लिये और दिलबहलावके लिये किसी भी प्राणीका घात नही करना चाहिये ।
कुछ लोग कहते है कि जब जैनधर्मके अनुसार जल तथा वनस्पति वगैरह भी जीवोंका कलेवर ही है, तब निरामिष भोजियोंको वनस्पति वगैरह भी नही खाना चाहिये । परन्तु जो सप्तधातु युक्त कलेवर होता है उसकी ही माँस सज्ञा है । वनस्पतिने सप्तधातु नही पाई जाती । अत उसकी माँस संज्ञा नही है । इसी तरह कुछ लोग स्वय मरे हुए प्राणी के माँस खानेमे दोष नही बतलाते। यह सत्य है कि जिस प्राणीका वह माँस है, उसे मारा नही गया । किन्तु एक तो मांसमें तत्काल अनेक सूक्ष्म जीवोंकी उत्पत्ति हो जाती है, दूसरे माँस भक्षणसे