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चारित्र
२०६ श्रेणीमें सम्मिलित हो सकता है। उदाहरणके लिए कोई कसाई अपनी अजीविकाका साधन होनेसे यदि पशुहत्याका त्याग नही कर सकता तो उसके लिए सप्ताहमे एक दिन उसका त्याग कर देना या अमुक प्रकारके पशुओंकी अमुक संख्या ही हत्या करनेका नियम ले लेना भी अहिंसाणुवतकी जघन्य श्रेणीमे गिना जाता है । जैन पुराणोंमें ऐसे अनेक उदाहरण पाये जाते हैं । यथा-एक मुनिने एक मासाहारी भीलसे कौवेका मांस खाना छुड़वा दिया था। इसी प्रकार एक मछुवेको यह नियम दिला दिया था कि उसके जालमे जो पहली मछली आयेगी उसे वह नही मारेगा। एक चाण्डालको, जो फाँसी लगानेका काम करता था, यह नियम दिला दिया था कि वह चतुर्दशीके दिन किसीको फांसी नही देगा। इन छोटी प्रतिज्ञाओने ही उन्हें कुछसे कुछ बना दिया।
मत. थोडा सा भी प्रतिबन्ध लगाकर यदि मांस और मद्य सेवनपर अंकुश रखा जाये तो उनका सेवन करनेके अभ्यस्त मनुष्य भी उनकी बुराइयोंसे बच सकते है। और उससे समाजमे फैलनेवाली बहुतसी वुराइयोंसे समाजका छुटकारा हो सकता है।
जैनधर्मके नियम यद्यपि कड़े दिखायी देते है किन्तु उनके पालनमें मनुष्यकी गक्ति और परिस्थितिका ध्यान रखा जाता है इसलिए उनकी कठोरता खलती नही। उसका तो एक ही ध्येय है कि मनुष्य स्वयं अपनी अनियत्रित स्वेच्छाचारिता पर 'ब्रेक' लगाना सीखे और बुराईको करते हुए भी कमसे कम इतना तो न भूले कि मै बुरा करता हूँ। यह ऐसी चीज है जिसे हर कोई कर सकता है।
इसी तरह वृद्धावस्थामें अपने सांसारिक उत्तरदायित्वोंसे अवकाश लेकर और उनका भार अपने उत्तराधिकारीकोसौपकर यदि मनुष्य आत्म साधनाका मार्ग स्वीकार कर लिया करें तो उससे एक ओरतो कार्यक्षेत्रमें आनेके लिए उत्सुक नये व्यक्तियोंको स्थान मिलनेमे सहलियत होगी, दूसरी ओर कौटुम्विक कटुता घटेगी। साथ ही साथ आध्यात्मिक विकासका मार्ग भी चालू रहेगा और उससे संसारको बहुत लाभ पहुंचेगा।