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जैनधर्म
७ - मुनिका चारित्र
मुनि या साधुके २८ मूलगुण होते हैं । १-५ पाँच महाव्रत- अहिंसा महाव्रत, सत्य महाव्रत, अचौर्य महाव्रत, ब्रह्मचर्य महाव्रत और अपरिग्रह महाव्रत । श्रावक जिन पाँच व्रतोंका एक देशसे पालन करता है साघु उन्हें ही पूरी तरहसे पालते है । अर्थात वे छहों कायके जीव का घात नही करते और राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि भावोंको उत्पन्न नही होने देते । अपने प्राणोंपर संकट आनेपर भी कभी झूठ नहीं वोलते । चिना दी हुई कोई भी वस्तु नही लेते । पूर्ण शीलका पालन करते हैं और अन्तरंग तथा बहिरंग, सभी प्रकारके परिग्रहके त्यागी होते है । केवल शौच आदिके लिए पानी आवश्यक होनेसे एक कमडलू और जीवरक्षाकै लिये मोरके स्वयं गिरे हुए पंखोंकी एक पीछी अपने पास रखते है ।
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६ - १० पाँच समिति - दिनमें सूर्यके प्रकाशसे प्रकाशित जमीनको अच्छी तरहसे देखकर चलते है। जब बोलते हैं तो हित और मित वचन बोलते है । दिनमें एक बार श्रावकके घर जाकर, यदि वह श्रद्धा और भक्ति के साथ भोजनके लिए निवेदन करे तो छियालीस दोप टालकर भोजन करते हैं। अपने कमंडल और पीछी वगैरहको देखभालकर हाथमें लेते है और देखभालकर रखते है । मलमूत्र वगैरह स्थानपर करते है जहाँ किसीको भी उससे कष्ट पहुँचने की संभावना न हो।
११-१५ पांचों इन्द्रियोंको वशमें रखते है - जो विषय इन्द्रियोंको अच्छे लगते हैं उनसे राग नही करते और जो विषय इन्द्रियोंको बुरे लगते है उनसे द्वेष नही करते ।
१६-२१ छ आवश्यक-प्रतिदिन सामायिक करते है, तीर्थङ्करोकी स्तुति करते हैं, उन्हें नमस्कार करते हैं, प्रमादसे लगे हुए दोषों का शोधन करते हैं, भविष्य में लग सकनेवाले दोपोसे बचनेके लिए अयोग्य वस्तुओंका मन, वचन और कायसे त्याग करते है और लगे हुए दोषोंका शोधन करनेक लिए अथवा तपकी वृद्धिके लिए, अथवा कर्मोकी निर्जरा
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